कहने को तो भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक (जनतांत्रिक) देश है। लेकिन 75 साल का ’’लोकतांत्रिक जीवन’’ जीने के बाद भी ’’लोकतंत्र’’ जो कि भारत की पहचान है, क्या भारत का लोकतंत्र विश्व में सबसे बड़ा व उच्च कोटि का लोकंतत्र है? यह बात क्या निश्चिंतता से कही जा सकती है? भारतीय लोकतंत्र पर प्रश्नवाचक चिन्ह विभिन्न घटनाओं के कारण लगता रहता है और लगाया भी जाता रहा है, जो कि ‘‘नाम बड़े और दर्शन छोटे’’ की उक्ति को चरितार्थ करता लगता है। इसके लिए दोषी कौन है! यक्ष प्रश्न यही है? लोकतंत्र ’जन’ व ’तंत्र’ दो महत्वपूर्ण तत्वों से मिलकर बना है। परन्तु क्या दोनों तत्व ’जन’ व ’तंत्र’ प्रायः विकसित हैं, यह एक प्रश्नवाचक चिन्ह कुछ क्षेत्रों में पूर्व से लगाया जाता रहा है। वर्तमान के संदर्भ में इसका कारण अभी दो प्रमुख घटनाओं से है। इस कारण से उक्त प्रश्न पुनः उत्पन्न हुआ हैं, जिसकी ओर आपका ध्यान आकर्षित करना चाह रहा हूं। प्रथम - राष्ट्रपति चुनाव में 15 सांसदों के मतों को अवैध घोषित होना। दूसरा - भोपाल दैनिक भास्कर की एक न्यूज है, जिसमें प्रमुखता से बतलाया गया है कि, हाल में चुने गये जिला पंचायत व जनपद सदस्यों की धार्मिक स्थलों में बाड़ाबंदी व सैर सपाटे के लिए उन्हें अपने शहर/गांवों से दूर भेजा गया, ताकि उनके वोट सुरक्षित रहकर विपक्षी दल हथिया न लें। यह स्थिति प्रदेश के अधिकांश भागों की ही नहीं है, बल्कि पूर्व में हमने कई प्रदेशों में (हाल में ही महाराष्ट्र में) ऐसी स्थिति को देखा है। मेरे शहर बैतूल भी अछूता नहीं रहा और वह भी इस बंधक बनाये जाने की प्रक्रिया के दौड़ में शामिल होकर यहां पर दूसरे जिले के कुछ सदस्य शहर के बाहर की एक हाॅटल में रुके हुये हैं। ‘‘मान न मान मैं तेरा मेहमान’’। हमने यह भी देखा है कि इस बंधक बनाये जाने की प्रक्रिया में जनप्रतिनिधियांे की स्वतंत्रता कुछ समय के लिए अवरूद्ध हो जाती है। मोबाइल फोन तक ले लिये जाते है। घरों के बाहर जाने की स्वतंत्रता नहीं होती है। हाँ इन सबके प्रतिफल में शाही स्वागत भोजन व आराम जरूर मिलता है।
उक्त दोनों महत्वपूर्ण घटनाएं क्या देश के स्वस्थ लोकतंत्र के सीने को 56 इंच समान चैड़ा करती हैं, या उस पर कलंक लगाती हैं? इस पर आम जनता, जिसकी स्थिति उस ‘‘अंधे के जैसी है जिसने बसंत की बहार नहीं देखी’’, ने कभी गंभीरता से सोचा है? या सोचने का प्रयास भी किया है? निश्चित रूप से ये घटनाएं हमारे देश के लोकतंत्र के माथे पर एक कलंक समान हैं। यह उन चुने हुये जनप्रतिनिधियों, जो लोकतंत्र का आभामंडल हैं, के लिए भी अत्यन्त शर्मसार करने वाला है। वह इसलिए कि आज 75 साल का लम्बा समय बीतने के अनुभव के बावजूद भी हमारा लोकतंत्र इतना परिपक्व नहीं हो पाया है, जहां चुने गये जनप्रतिनिधियों जो हजारों-लाखों वोटों का प्रतिनिधित्व करते हैं, और जो जनता के आईकाॅन हैं, ये ‘‘बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम’’ वाले आईकाॅन स्वयं अपना ही वोट डालने में सक्षम नहीं है, अनपढ़ हैं, तब हम उस जनता जिसकी नियति ही ‘‘उस भेड़ के जैसी हो ‘‘जो जहां जायेगी वहीं मुंडेगी’’, से क्या उम्मीद करें, कि जिनको पढ़ाने लिखाने व समाज तथा देश के प्रति जिम्मेदार बनाने और अच्छे उच्च स्तर के जीवन की ओर ले जाने का दायित्व व कर्तव्य संविधान ने इन जन-प्रतिनिधियों को ही दिया है।
दूसरा स्वस्थ लोकतंत्र में भय और बंधन नहीं होता है, प्रेम व प्रीति होती हैै, वही अच्छा सफल लोकतंत्र कहा जाता है। ‘‘सहज पके सो मीठा होय’’। लेकिन जब चुने हुये प्रतिनिधियों के प्रति अपनी ही पार्टी का विश्वास चुनते ही कमजोर हो जाये, ‘‘स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती’’ की स्थिति पैदा हो जाये, जिस कारण से पार्टी को अपने ही चुने हुये प्रतिनिधियों के वोटों को सुरक्षित रखने के लिए अज्ञातवास में भेजना पड़े, जो आजकल समस्त पार्टियों की एक प्रथा-परिपाटी बन गई है। तब निश्चित रूप से लोकतंत्र पर उंगली उठना स्वाभाविक है। तथापि आलोचक इन उंगली उठाने वालों को यह कहकर चुप करा सकते हैं कि अज्ञातवास की यह नीति आज की नहीं हैै, बल्कि महाभारत काल से चली आ रही है। परन्तु तब के अज्ञातवास और आज के अज्ञातवास में भेजने/जाने के कारण में जमीन आसमान का अंतर है।
आखिर यह व्यवस्था सुधरेगी कैसे? इसके दो ही रास्ते हैं। और दोनों ही रास्तों को एक साथ अपनाना होगा, तभी सुधार की गुंजाइश है। प्रथम ‘‘भय बिनु प्रीति न होई’’ के सिद्धांत को अपनाते हुए जनप्रतिनिधित्व कानून में संशोधन किये जाने की नितांत आवश्यकता है जहां चुने हुए जनप्रतिनिधी का किसी भी चुनाव में डाला गया मत अवैध घोषित होने पर स्वयमेव उसकी सदस्यता तुरंत प्रभाव से समाप्त हो जानी चाहिए।
दूसरा जो पार्टी चुने हुए प्रतिनिधियों को चाहे व पार्षद पंचायत सदस्य हो या विधायक-सांसद हो, यदि किसी भी मामले में जहां बहुमत के टेस्ट के लिये मताधिकार का उपयोग होने वाला हो और उस कारण से उनको बंधक किया जाकर अन्य सुरक्षित स्थानों पर भेजा जाता है। और, तब यदि ऐसी रिपोर्ट मीडिया में आती हैं, या बंधक सदस्य के परिवार का कोई सदस्य शिकायत करता है। तब संबंधित उच्च न्यायालय को जनता के हित में तुरंत स्व-संज्ञान लेकर पुलिस अधिकारियों को छापा मारने की कार्रवाई करने के आदेश देने चाहिए, ताकि ‘‘न बासी बचे न कुत्ता खाय’’। उच्च व उच्चतम न्यायालय के लिए यह कोई नई बात नहीं है। क्योंकि हमने देखा है कि सरकार के विभिन्न क्षेत्रों में असफलता/अकर्मण्यता के कारण न्यायालयों ने स्वयं संज्ञान में लेकर समय-समय पर उचित कार्यवाही कर आवश्यक आदेश पारित कर आम जनता को राहत प्रदान की है। इन दोनों उपायों को यदि हम सख्ती से लागू कर पालन करेंगे, तो निश्चित रूप से देश का लोकतंत्र मजबूत होगा। क्योंकि वर्तमान कानून ‘‘ओस चाटने के समान हैं जिनसे प्यास कभी नहीं बुझ सकती’’। कहा जाता है कि ‘‘लोहा लोहे को काटता है’’, अतः लोकतंत्र की मजबूती के लिये आवश्यक सुधार किये जाने से किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता यदि कुछ समय के लिए बाधित भी होती है तो वह गौण है।
बहुत बढ़िया विश्लेशन , विशेषकर सुधार के लिए अन्तिम दो सुझाव ! ,
जवाब देंहटाएंअनेकानेक बधाईयां !
आगे भी इसी तरह के प्रयास जारी रखें !
बेहतरीन लेख,बहुत ही उम्दा बिस्लेशन।सुझाव जोरदार हे।
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