देश की ’’विलक्षण’’ राजनीति ’’आरक्षण’’ के इर्द-गिर्द ही टिकी हुई है, चाहे फिर कोई भी राजनीतिक दल क्यों न हो। बल्कि यह कहा जाए कि भारत का लोकतंत्र तो ‘‘विश्यस सर्किल ऑफ इन्कॉम्पीटेंसी’’ अर्थात वोटों की राजनीति के दुष्चक्र में आरक्षण से केंद्रित होकर घूमता हुआ चारों तरफ से घिरा हुआ है, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। यद्यपि उच्चतम न्यायालय ने अवश्य यह प्रतिबंध लगाया है कि 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण किसी भी स्थिति में, कहीं भी नहीं होना चाहिए। बावजूद इसके ‘‘क्षते क्षारप्रक्षेपः’’विभिन्न राज्य सरकारें समय-समय पर इस 50 प्रतिशत की सीमा का उल्लंघन कर आरक्षण की सीमा बढ़ाती रही हैं। और तब उच्चतम न्यायालय को उसमें हस्तक्षेप करना पड़ता है।
मध्य प्रदेश में अभी 52 जिलों की 23012 ग्राम पंचायतें, 52 जिला पंचायत, 313 जनपद पंचायते, 362754 पंच, 298 नगर परिषद 76 नगर पालिकाएं और 16 नगर निगमों के चुनाव संपन्न हुए हैं। प्रदेश में अनेक अनेक जगहों में यह देखने में आया कि अनारक्षित सामान्य वर्गो में भी आरक्षित वर्गों के प्रतिनिधियों को राजनीतिक पार्टियों ने चुनावों में उतारा है। एक अनुमान के अनुसार अधिकतर जिलों में उक्त स्थिति पायी गई है। जहां 18 नगर निगमों में लगभग 20 से 25 प्रतिशत उम्मीदवार सामान्य अनारक्षित वार्डों से आरक्षित वर्गों के उम्मीदवारों ने चुनाव लडे़। परिणाम स्वरूप सम्पन्न हुए स्थानीय शासन के सम्पूर्ण चुनावों में कुल 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षित व्यक्ति चुनाव लड़े है। यानी ‘‘ज्यादा जोगी मठ उजाड़’’ जैसी स्थिति पैदा हो गयी है। यद्यपि यह संविधान या किसी कानून का उल्लंघन अवश्य नहीं है, परन्तु उच्चतम न्यायालय द्वारा स्थापित आरक्षण के संबंध में खीची गई लक्ष्मण रेखा की भावना का खुल्लम-खुल्ला ‘‘वैधानिक’’ तरीके से उल्लंघन जरूर है। निश्चित रूप से यह परिस्थिति सामान्य वर्ग के व्यक्तियों के हकों पर कुठाराघात है। इसलिए आरक्षित वर्ग को ‘‘अपनी ही खाल में मस्त रहने का सुख’’ प्रदान करने वाले इस वैधानिक कवच व आवरण को हटाये जाने की महती आवश्यकता है।
अतः यह कानून बनाये जाने की तुरंत आवश्यकता है कि सामान्य वर्ग से आरक्षित वर्ग का व्यक्ति चुनाव ही नहीं लड़ सके, ऐसा प्रावधान पंचायत अधिनियम व जनप्रतिनिधित्व कानून में किये जाने की नितांत आवश्यकता है। मेरे बैतूल जिले में भी स्थानीय शासन के चुनावों में ऐसे अनेक उदाहरण देखने को मिलेंगेे। यह कोई पढ़ाई की कक्षा नहीं है, जहां आरक्षित वर्ग के व्यक्ति अनारक्षित वर्ग को चुनकर अपनी योग्यता को प्रमाणित कर चयनित होता है। शायद वह ऐसा इसलिए करता है कि यह चयन उसके व्यक्तित्व के विकास को और गति व संबल प्रदान करती है।
अब जनपद, जिला पंचायत, नगर पंचायत और नगरपालिका व नगर निगमों के अध्यक्षों के चुनाव संपन्न होना शेष है, जिसकी प्रक्रिया शीघ्र प्रारंभ होने वाली है। ऐसा लगता है कि इन संस्थाओं के अध्यक्षों के चुनाव में भी ‘‘अंधे की रेवड़ी समान’’ कई जगह सामान्य वर्ग में भी आरक्षित वर्ग के व्यक्तियों की उम्मीदवारों का चयन राजनीतिक दल करेंगे। मेरे जिले बैतूल में जिला पंचायत पहली बार व नगरपालिका परिषद सालो-साल बाद सामान्य वर्ग की होने के बावजूद आरक्षित वर्ग के सदस्यों को अध्यक्षीय उम्मीदवार बनाए जाने की चर्चा जोरों पर है। यही स्थिति इंदौर व अन्य कई जगहों में भी बन रही है। निश्चित रूप से यह स्थिति कहीं न कहीं सामान्य वर्ग के अधिकारों पर कुठाराघात होगी।
बड़ा प्रश्न यह उत्पन्न होता है की जातिगत आरक्षण की व्यवस्था संविधान में अस्थायी रूप से की गई है। अर्थात जिस उद्देश्य (समग्र विकास व उत्थान) के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई है, उसकी पूर्ति हो जाने पर यह व्यवस्था समाप्त हो जाएगी, ऐसा संविधान निर्माताओं ने आरक्षण का प्रावधान करते समय सोचा था। परन्तु वर्तमान में क्या स्थिति हुई है, आप हम सब जानते है। यदि आरक्षण के बनाये रखने के समर्थन में यह तर्क दिया जाता है कि कमजोर वर्ग का उत्थान अभी तक नहीं हुआ है, इसलिए ‘‘घी (आरक्षण) खाया बाप ने सूंघो मेरा हाथ’’ की तर्ज पर आरक्षण की व्यवस्था आज भी चलते रहना चाहिए। तो फिर आपको यह सोचना होगा कि 75 साल के लगातार आरक्षण के कवच व सुविधा के बावजूद, ‘‘नाच का आंगन अभी टेढ़ा’’ ही है अर्थात यदि विकास व उत्थान नहीं हुआ तो इसका मतलब साफ है कि सिर्फ आरक्षण से इन वर्गों का विकास व उत्थान संभव नहीं हो पायेगा। और यह नीति कहीं न कहीं गलत या अपूर्ण है। अतः इसके विकल्प पर विचार करना होगा। अनुसूचित जाति के रामनाथ कोविंद के राष्ट्रपति बनने के बावजूद ‘‘ऊंना कांड’’ से लेकर दलित उत्पीड़न की अनेक घटनाएं उनके कार्यकालों में घटी। स्वयं महामहिम की उनकी पत्नि के साथ ‘पुरी’ में पंडाओं द्वारा दुर्व्यवहार किया गया था।
दूसरी स्थिति में अर्थात् विभिन्न विकास हो जाने का दावा किये जाने की स्थिति में भी आरक्षण का उद्देश्य पूरा हो जाने से भी उसे समाप्त करना होगा। परंतु चुनावी वोट की राजनीति के चलते वर्तमान में स्थिति बद से बदतर हो रही है। आरक्षण समाप्त होने के बजाय जो शेष अनारक्षित क्षेत्र रह गया है, वहां भी आरक्षित वर्ग के व्यक्तियों को तरजीह (प्रिफरेंस) दी जा रही है, जो किसी भी रूप में उचित नहीं कही जा सकता है। सामान्य वर्ग, पिछड़े, कुचले, गरीब, अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति के उत्थान के लिए आरक्षण के खिलाफ नहीं है। तथापि वह जातिगत आरक्षण के बजाय आर्थिक आधार पर आरक्षण चाहता है, जिसमें आर्थिक रूप से पिछड़ा सामान्य वर्ग भी शामिल हो। सामान्य रूप से आर्थिक आधार पर आरक्षण दिये जाने से वह मात्र ‘‘ऊंट के मुंह में जीरा’’ समान है, जिससे सामान्य वर्ग की संतुष्टि नहीं होती है।
वस्तुतः सामान्य वर्ग अपनी आवाज को आरक्षित वर्ग के समान वोट के रूप में एक मजबूत धागे में पिरोकर एक-जाए रूप से मजबूत न कर वर्तमान राजनीति में वह एकमात्र उपेक्षित वर्ग हो गया है, और इस वर्ग की स्थिति ‘‘अपना लाल गंवाय के दर दर मांगे भीख’ जैसी रह गया है, इनका उपयोग प्रत्येक राजनीतिक दल समय आने पर अपने हित में तो बरगला-कर कर लेता है। परन्तु उस वर्ग के हितों की बात ‘‘नक्कारखाने में तूती की आवाज’’ बनकर रह जाती है, और कोई राजनीतिक दल अन्य वर्गो के विपरीत सामान्य वर्ग के थोक वोटों में कमजोर होने के चक्कर में उनकी चिंता नहीं करता। मध्यप्रदेश में सपाक्स पार्टी का जन्म ही सामान्य वर्ग के कर्मचारियों व आम जनता के अधिकारों की रक्षा के लिए हुआ था। परंतु दुर्भाग्यवश सक्षम नेतृत्व विहीन सपाक्स पार्टी इस दिशा में आगे कुछ नहीं कर पायी, और ‘‘दूर के ढोल सुहावने’’ हो कर रह गयी।
अतः यदि समाज में वर्ग विभेद-जाति विभेद को समाप्त करना है और समरसता लानी है, तब आपको अनारक्षित वर्ग को और आगे व्यवधान डाले बिना धीरे-धीरे उनका क्षेत्र बढ़ाना होगा और आरक्षित वर्ग के क्षेत्र को कम करना होगा। और एक स्थिति ऐसी लानी होगी, जब देश में समाज में आरक्षित और अनारक्षित वर्ग का विभाजन प्रायः समाप्त हो जाए। तभी देश में पूर्व समरसता आ जाएगी जो देश के विकास को ज्यादा गति प्रदान करेगी। अंततः तभी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के मूल मंत्र ‘‘सबका साथ सबका विकास’’ को धरातल पर उतारकर उसे सार्थक कर सकेंगे।
मंगलवार, 26 जुलाई 2022
(सामान्य) ’’अनारक्षण’’ में भी आरक्षण?
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लेख अच्छा हे।लेकिन सामान्य वर्ग का सुनता कौन?मेरे खयाल से अपनी हक के लिए सामान्य वर्ग को देश में एक जोरदार आंदोलन करना चाहिए,ताकि हर राजनीतिक पार्टी को ये लगे की सामान्य वर्ग सिर्फ उनका पालतू वोट बैंक नही हे।और उस आंदोलन का सूत्रधर आप बन सकते हे।
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