लोकतंत्र के लिए खतरनाक? कैसे! कब! और क्यों? निदान!
लेख लम्बा होने के कारण इसे दो भागों में लिखा जा रहा है- प्रथम भाग
देश की स्वाधीनता के 75 वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष में मनाया जा रहे अमृत महोत्सव के समापन पर 15 अगस्त को स्वाधीनता दिवस पर ऐतिहासिक लाल किले से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हमेशा की तरह कई नई दिशा देने वाली महत्वपूर्ण सार्थक बातें कहीं, जो अन्य पूर्व प्रधानमंत्रियों से हट कर उनकी एक विशिष्ट पहचान व ‘‘शैली’’ बन चुकी हैं। अगले 25 वर्षों के लिए ’’पंच प्राण’’ (प्रतिज्ञा) का संदेश दिया, तो ‘‘परिवारवाद’’ को ‘‘लोकतंत्र’’ के लिए खतरा और भ्रष्टाचार की जननी बतलाकर चिंता व्यक्त की। प्रधानमंत्री के ‘‘सांकेतिक’’ संदेश द्वारा ’परिवारवाद’ पर चिंता को मीडिया चैनलों ने तुरंत ‘‘लपक’’ लिया और बहसों में विपक्षी दलों पर लगभग एक तरफा प्रहार करते हुए परिवारवाद की ‘‘लकीर पीटना’’ शुरू कर दिया। ’’परिवारवाद’’ एक समस्या है, इस चिंतन पर कार्य करने की बजाय ‘‘तू डाल डाल मैं पात पात’’, ‘मेरा परिवारवाद और तेरा परिवारवाद’ के बीच परिवारवाद की समस्या (यदि कोई हैं भी तो? जिस पर आगे चर्चा की जा रही है) ‘‘जस से तस’’ मात्र उलझ कर रह गई हैं।
वास्तव में प्रधानमंत्री ने किस परिवारवाद? की और संकेत किया, स्पष्ट रूप से तो नहीं कहा। यह बात उनके मन में ही है, जिसे हम शायद आगे मन की बात में जान सकते हों। फिलहाल मीडिया से लेकर राजनीतिक दल प्रधानमंत्री की परिवारवाद की बात विस्तृत रूप से ’’मन की बात’’ में आने के पूर्व ही अपनी-अपनी (कु)-दृष्टि से अर्थ और अनर्थ निकाल रहे हैं? आइए पहले परिवारवाद है क्या? इसे समझ लिया जाए। तब फिर परिवारवाद’’ भ्रष्टाचार, चाचा-भाई-भतीजावाद को कितना प्रोत्साहित करता है और लोकतंत्र के लिए यह कितनी खतरे की घंटी है? इन सब मुद्दो पर पृथक-पृथक और समेकित रूप से विचार करने की गहन आवश्यकता है। तभी हम किसी निश्चित परिणाम पर पहुंच कर समस्या का समाधान निकाल पाने की स्थिति में हो सकते हैं?
मोटे रूप से ’’राजनीति’’ में ’’परिवारवाद’’ का मतलब होता है, एक ही परिवार के कई व्यक्तियों अर्थात मां, बाप, भाई, भतीजा, (इसी से ‘भाई-भतीजावाद’ भी पनपता है?) बहन इत्यादि सदस्य गणों का राजनीति में एक साथ, आगे-पीछे या एक के बाद एक सत्ता के मलाईदार पदों पर बैठकर सत्ता को परिवार के इर्द-गिर्द केन्द्रीकृत कर राजनीति करें। यही परिवारवाद आगे जाकर ’’वंशवाद’’ में तब बदल जाता है, जब बाप का बेटा-बेटी, बेटे का बेटा-बेटी अर्थात पोता-पोती और आगे इसी तरह से श्रृंखलाबद्ध अर्थात पीढ़ी दर पीढ़ी सदस्यों के राजनैतिक नेतृत्व संभालने पर वंशवाद हो जाता है। उदाहरणार्थ गांधी परिवार जहां नेहरू, इंदिरा, राजीव और राहुल गांधी के पीढ़ी दर पीढ़ी शीर्षस्थ नेतृत्व संभालने के कारण यह विशुद्ध वंशवाद ही तो है। और यह ‘‘हाथी के पांव में सबका पांव’’ वाले परिवारवाद की अंतिम उच्चतम सीमा हैं।
वैसे ‘‘वंशवाद’’ भारतीय राजनीति में नया नही हैं। इस देश में जमाने से हिन्दू-मुस्लिम शासक राजाओं का राज रहा है, जो ‘राजतंत्र’ होकर ‘वंशवाद’ का ही तो रूप है। प्रधानमंत्री के ‘पंच प्राण’ में तीसरी प्रतिज्ञा विरासत पर गर्व होने बाबत है। प्रधानमंत्री की इस ‘प्रतिज्ञा’ का जब कांग्रेस अक्षरसः पालन कर ऊपर उल्लेखित राजतंत्र की वंशवाद की ‘‘गौरवशाली विरासत’’ को अपना रही है, तब कांग्रेस नेतृत्व पर उंगली उठाना क्यों? भारतीय राजनीति का वर्तमान स्वरूप स्थायी रूप से इस तरह का हो गया है कि जहां विपक्ष द्वारा देश हित में सत्ता पक्ष की बात को स्वीकार करने के बावजूद भी उसकी आलोचना करना सत्ता पक्ष अपना राजनैतिक कर्तव्य मानता है, क्योंकि वह स्वीकारिता विपक्ष ने की है। इस ढ़र्रे व ढांचे को बदलना ही होगा और देश हित के मुद्दों पर सर्वानुमति बनानी ही होगी। परन्तु वर्तमान में लोकतंत्र होने के बावजूद भी यह ’’लोकतंत्र’’ द्वारा उत्पन्न लोकतांत्रिक वंशवाद हैं। इस वंशवाद के आगे की स्थिति में जब एक ही व्यक्ति लम्बे समय तक निर्वाचित पदों पर बना रहता है, जैसे मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान, बिहार के नीतीश कुमार, उडीसा के नवीन पटनायक आदि-आदि, तब अधिनायकवाद की बू आने लगती है। और अंतिम मुद्दा/रोग परिवारवाद से आगे बढ़कर जातिवाद क्या है, यह बतलाने की आवश्यकता तो बिलकुल भी नहीं हैं।
आगे परिवारवाद के प्रमुख उदाहरणों में चैधरी चरण सिंह, मुलायम सिंह यादव, राजनाथ सिंह, जितेंद्र प्रसाद, हेमवती नंदन बहुगुणा (उत्तर प्रदेश), शीला दीक्षित (दिल्ली), कृष्ण वंश के 122 वे राजा वीरभद्र सिंह, प्रेम कुमार धूमल (हिमाचल प्रदेश), ललित नारायण मिश्र, भागवत झा आजाद, रामविलास पासवान, लालू यादव, (बिहार), शिंबू सोरेन, (झारखंड), यशवंतराव चव्हाण, जवाहर लाल दर्डा, वेदप्रकाश गोयल, शरद पवार, नारायण राणे, बाला साहेब ठाकरे, एकनाथ शिंदे (महाराष्ट्र), बीजू पटनायक (उड़ीसा), चैधरी देवी लाल, भजन लाल, बंसीलाल (हरियाणा), सिंधिया परिवार, (मध्यप्रदेश एवं राजस्थान) पंडित रविशंकर शुक्ल, गोविंद नारायण सिंह, गुलशेर अहमद, सुंदरलाल पटवा, वीरेंद्र कुमार सकलेचा, अर्जुन सिंह, दिग्विजय सिंह (मध्य प्रदेश), अजीत जोगी (छत्तीसगढ़), एच डी देवेगोडा, एसआर बोम्मई (कर्नाटक), प्रकाश सिंह बादल, कैप्टन अमरिंदर सिंह, नवजोत सिंह सिद्धू (पंजाब), शेख अब्दुल्ला, मुफ्ती सईद अहमद (काश्मीर), के चन्द्र शेखर राव, असदुद्दीन औवेशी (तेलंगाना), एम करुणानिधि (तमिलनाडु), एनटी रामा राव, वाई एस रेड्डी, (आंध्र प्रदेश), तरूण गोगई (असम), ममता बनर्जी (पश्चिम बंगाल), रिन चिन खारु (अरुणाचल प्रदेश) आदि आदि। सूची काफी लंबी है और मेरे अपने प्रदेश ‘‘मध्यप्रदेश’’ जो कई राजाओं महाराजाओं की रियासतें (स्टेट) रही है, वहां परिवारवाद-वंशवाद तो एक सामान्य राजनीतिक प्रक्रिया है, जिसे जनता ने समय-समय पर अधिकाशंतः स्वीकार भी किया है।
बड़ा प्रश्न यह है कि ऊपर उल्लेखित या अलिखित अनेक ऐसे परिवार, परिवारवाद की उस परिभाषा में आते हैं, जिनकी ओर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लाल किले के भाषण में इशारा कर रहे थे? चूँकि भाजपा में भी अनेक अनेक ऐसे उदाहरण ‘‘परिवारवाद’’ के हैं, जहां एक ही परिवार के एक से अधिक सदस्य एक साथ अथवा आगे-पीछे विभिन्न चुने हुए पदों पर राजनीति में हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार भाजपा में लगभग 11 प्रतिशत चुने हुए प्रतिनिधि वंशवाद का प्रतिनिधित्व करते हैं। शायद इसीलिए प्रधानमंत्री ने न्यूज एजेंसी एनएनआई को कुछ समय पूर्व दिए गए एक इंटरव्यू में परिवारवाद से किनारा करते हुए वंशवाद को जम कर कोसा था। परिवारवाद के संबंध में उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा था कि परिवार का कोई सदस्य यदि योग्यता के आधार पर जनता के आशीर्वाद से राजनीति में आगे आता है, तो वह परिवारवाद नहीं कहलाएगा। सही है ‘‘लाल गुदड़ी में नहीं छुप सकते’’, परन्तु यह बात कौन तय करेगा, इस समस्या का यही एक बड़ा पेच है। क्या उपरोक्त उल्लेखित समस्त परिवारों को एक ही लाठी से हकेला जाकर लोकतंत्र के लिए नुकसानदेह परिवारवाद के आरोपों की परिधि में लाया जा सकता है? बिल्कुल नहीं। यह गहरा विचारणीय विषय है। एक ही परिवार के दो सदस्य पति-पत्नी जैसे आचार्य जेपी कृपलानी और सुचेता कृपलानी श्रेष्ठ संसद सदस्यों में रहें हैं। वैसे स्वतंत्र भारत की विधायिकी के इतिहास में पति-पत्नी के एक साथ, आगे-पीछे जनप्रतिनिधि बनने के कई उदाहरण सामने हैं। इसलिए राजनीति में कौन सा परिवारवाद सही है, और कौन सा गलत, पहले इसकी एक लक्ष्मण रेखा खींचना आवश्यक होगी? परिवारवाद के संबंध में एक विचारणीय व उल्लेखनीय उदाहरण समाजवाद का झंडा लेकर चलने वाले मुलायम सिंह व लालू यादव का है जहां समाजवाद परिवारवाद का घोर विरोधी है। ‘‘हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और’’।
बीजू पटनायक, यशवंतराव चव्हाण, वेद प्रकाश गोयल, एसआर बोम्मई, ठाकुर गोविंद नारायण सिंह, वीरेंद्र कुमार सकलेचा, सुंदरलाल पटवा के परिवारवाद को हम उपरोक्त उल्लेखित परिवार वालों के साथ नहीं रख सकते हैं क्योंकि इन सब परिवारों में परिवारों के मुखिया की मृत्यु होने के बाद तुरंत या अधिकतर मामलों में कुछ या काफी समय बाद परिवार के सदस्य सत्ता की राजनीति में उभर कर आए। अर्थात राजनीति में इस मुकाम पर पहुंचने के लिए उनकी योग्यता भी एक प्रमुख कारक रही है।
बड़ा प्रश्न यह भी है कि वर्तमान लोकतंत्र के लिए किसी भी प्रकार का मौजूद परिवारवाद हानिकारक कैसे हैं? विपरीत इसके जिस लोकतंत्र को विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का दावा करते हम थकते नहीं है, जैसे कि स्वयं प्रधानमंत्री ने अपने लाल किले के भाषण में भारत को लोकतंत्र की जननी बतलाया। उसी लोकतंत्र में वर्तमान परिवारवाद पनपा है और लोकतंत्र की जनक, रीढ़ की हड्डी जनता ने मतदाता (वोटर) बन कर अपने मतों का प्रयोग कर इन पारिवारिक सदस्यों को सत्ता पर आसीन कर परिवारवाद की राजनैतिक विरासत (डायनेस्टिक पॉलिटिक्स) को वैधानिक व लोकतांत्रिक मान्यता दी है। ये कोई ‘‘मान न मान मैं तेरा मेहमान’’ वाला मामला नहीं है, और न ही ‘‘बिल्ली के भाग्य से छींका टूटने’’ वाली बात है। तब परिवारवाद को लोकतंत्र विरोधी कहना क्या विरोधाभासी नहीं होगा? जब हम यह कहते हैं कि हमारा देश लोकतंत्र की मजबूत नींव पर खड़ा है।
शेष अगले अंक में क्रमशः ...............।
’’परिवारवाद’’,’’वंशवाद’’, ’’भाई-भतीजावाद-चाचा-भतीजावाद’’ ’’अधिनायकवाद’’एवं ’’जातिवाद’’ !
लोकतंत्र के लिए खतरनाक? कैसे! कब! और क्यों? निदान!
क्रमशः गतांग से आगे- द्वितीय भाग
वैसे यह तर्क दिया जा सकता है कि लोकतंत्र में चुनावी जीत का मतलब कदापि यह नहीं निकाला जाना चाहिए कि जो व्यक्ति जीता है, वह सब अवगुणों से ऊपर उठकर गुणवान व्यक्ति हो गया है। अर्थात उसके जीवन के समस्त दाग (जिसमें परिवारवाद भी शामिल है) धुल गए। दस्यु फूलन देवी, दबंग रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया, बाहुबली अतीक अहमद, राबिन हुड आनंद मोहन, राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव जैसे कई ‘‘स्वनामधन्य’’ उदाहरण सामने हैं। यह तो ‘‘तबेले की बला बंदर के सिर’’ मढ़ने वाली बात हो गयी। बावजूद इसके लोकतंत्र की इस कमी को आपको स्वीकार करना ही होगा। क्योंकि यह जनता जनार्दन का निर्णय है, जो लोकतंत्र में अंतिम रूप से मान्य होकर स्वीकारना ही पड़ता है।
इसलिए परिवारवाद के लिए सिर्फ परिवार या उसके मुखिया को पूर्ण रूप से दोषी ठहराना कदापि उचित नहीं होगा। वह जनता (मतदाता) भी उतनी ही बराबरी की, बल्कि उससे कहीं ज्यादा जिम्मेदार और दोषी है, क्योंकि लोकतंत्र में ‘‘यथा राजा तथा प्रजा’’ नहीं बल्कि ‘‘यथा प्रजा तथा राजा’’ होता है। यद्यपि जनता परिवार के सदस्य को परिवारवाद के नाम पर (गुणवत्ता के आधार पर नहीं) चुनती है। लेकिन गुणवत्ता की यह लक्ष्मण रेखा खींचना बहुत मुश्किल कार्य है। क्योंकि ‘‘एक पत्थर तो तबियत से उछालने वाला चाहिये’’। इसलिए यदि हमें लोकतंत्र बनाए रखना है, तो इसी कमी के साथ स्वीकार करते रहना होगा तब तक, जब तक की हम साक्षरता का स्तर इतना ऊंचा नहीं उठा लेते कि जहां जनता अच्छे-बुरे की पहचान कर अपने मत का उपयोग लोभ-लालच, स्वार्थ, डर, बल, जातिवाद और परिवारवाद के आभामंडल से प्रभावित हुए बिना, गुण दोष के आधार पर देश हित में अपने प्रतिनिधि का निष्पक्ष होकर चुनाव कर सके। यह आसान नहीं, बल्कि लंबा और कठिन रास्ता है। लेकिन यदि आपको बेदाग लोकतंत्र बनाना है, तो यह कठिन व दुष्कर चुनौती समस्त व्यक्तियों को मिल स्वीकार करनी ही होगी। ऐसा होगा भी कि नहीं, यह तो फिलहाल भविष्य के गर्भ में है।
दूसरे, परिवारवाद की बुराई को संवैधानिक व कानूनी प्रावधान लाकर दूर किया जा सकता है। जब इस देश में जनसंख्या को नियंत्रित करने के लिए दो बच्चों से अधिक संतान होने पर कई सरकारी सुविधाएं से वंचित करने का प्रावधान किये जा सकते है। देश की सुरक्षा और अखंडता के लिए बिना मुकदमा चलाये छः महीने से ऊपर निरोध में रखने के लिए कानून बनाया जा सकता है। स्वच्छ व निष्पक्ष चुनाव के लिए जन प्रतिनिधित्व कानून में आवश्यकतानुसार कई संशोधन किए जा सकते हैं। 3 साल से अधिक सजा होने पर चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है। आज के कंप्यूटर युग में भी चुनाव लड़ने की न्यूनतम सीमा जो काफी समय पूर्व निर्धारित की गई थी, को बनाए रखा जाता है। लोकतंत्र की आत्मा संसदीय प्रणाली को कमजोर करने वाली दलबदल के विरुद्ध कानून लाया जाकर अंतरात्मा की पैनी आवाज को बोठल किया जा सकता है। जब देश हित में स्वेच्छारिता व स्वच्छंदता को रोकने हेतु स्वतंत्रता के पूर्ण व मूल अधिकारों पर कुछ प्रतिबंध लगा कर सीमित किया जा सकता है। तब लोकतंत्र को नुकसान पहुंचाने वाली परिपाटी परिवारवाद पर कानून प्रतिबंध क्यों नहीं लगाया जाता जा सकता है?
अतः जिस लोकतंत्र में लोकतांत्रिक प्रक्रिया के माध्यम से देश की कई बुराइयों पर रोक लगाने के लिए कानून लाये जा सकते है, तब उसी लोकतंत्र को स्वच्छ रखने के लिए परिवारवाद, वंशवाद और अधिनायकवाद पर कानूनी रोक क्यों नहीं लगाई जानी चाहिए। जन प्रतिनिधियों के पुनः चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध या दो अवधि की अधिकतम सीमा तय कर देनी चाहिए जैसे अमेरिका जैसे विश्व के अनेक देशों में है। परिवार के दो सदस्यों को एक साथ एक ही समय में चुनाव लड़ने की पात्रता नहीं होनी चाहिए। जिस प्रकार अनुकंपा नियुक्ति में परिवार के एक ही सदस्य की पात्रता होती है, समस्त सदस्यों को नियुक्ति नहीं दी जाती है। उम्र का बंधन सेवा से लेकर सार्वजनिक जीवन के कई क्षेत्रों में है, तब उम्र का यह प्रतिबंध जनप्रतिनिधियों पर क्यों नहीं लागू करना चाहिए? कुछ जनप्रतिनिधियों की मृत्यु होने पर होने वाले उपचुनाव में परिवार के सदस्य के लड़ने पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए क्योंकि यह स्थिति भावनात्मक वातावरण के कारण परिवारवाद को तेजी से जन्म देती है। इन उपायों से निश्चित रूप से परिवारवाद का रोग फैलने में रुकावट होगी, जिससे अंततः लोकतंत्र मजबूत होगा।
वैसे यह तथ्य है कि परिवारवाद की जब-जब बात की जाती है, तो यह परसेप्शन सीधा-सीधा कांग्रेस की ओर जाता है। जबकि परिवारवाद का विरोध करने के बावजूद भाजपा सहुलियत की राजनीति के चलते ही सत्ता में भागीदारी के लिए कई बार परिवारवादी युक्त पार्टियों (शिवसेना, पीडीपी, आर.एन.एल.डी, लोजपा, अकाली दल, तेलगु देशम (टीडीपी) इत्यादि) का समर्थन लेने में कोई हिचक नहीं करती है। इसी प्रकार सत्ता प्राप्ति के लिए परिवारवादी व्यक्तियों को सत्ता का समीकरण बनाने के लिए पार्टी में शामिल करने में कोई भी परहेज नहीं किया जाता हैं। नारायण राणे, एकनाथ शिंदे, महबूबा मुफ्ती, शेख अब्दुल्ला जैसे उदाहरणों की लम्बी फेयर लिस्ट है, तब भाजपा अपने परिवारवाद व विपक्ष के परिवारवाद का अंतर करते हुए इस बात को लेकर हमलावर हो जाती है कि समस्त विपक्षी परिवारवादी दलों में सर्वोच्च स्तर पर अर्थात अध्यक्ष, परिवार का सदस्य ही होता हैं। विकल्प की कोई भी जरा सी गुंजाइश बिल्कुल भी नहीं रहती है। जबकि भाजपा में परिवारवादी साधारण कार्यकर्ता कई स्तरों से कड़े परिश्रम के बाद लोकतांत्रिक रूप से अध्यक्ष बन पाता हैं।
अध्यक्षीय पद पर परिवारवाद को लागू करने का यह (कु)-तर्क की सुविधा की राजनीति से ही यह प्रेरित हैं। क्योकिं लोकतंत्र में और जन प्रतिनिधित्व कानून के पश्चात प्रत्येक राजनैतिक पार्टियों का अपना एक संविधान होता हैं, जिसमें अध्यक्ष सहित अन्य पदाधिकारी गण, संसदीय बोर्ड, प्रबंध समिति, चुनाव समिति आदि आदि पार्टी पदों की व्यवस्था अच्छी तरह से पार्टी चलाने के लिए की जाती हैं। वैसे तकनीकी रूप से तो अध्यक्ष को तो मात्र संसदीय बोर्ड/प्रबंध समिति/कार्यसमिति जो पार्टी को चलाने की सर्वोच्च निकाय होती है, की मात्र अध्यक्षता करने का एक विशेषाधिकार प्राप्त होता है। अन्यथा समस्त सदस्यों को समान अधिकार होते हैं। अध्यक्ष के पास कुछ विशेष परिस्थितियों में कुछ विशेषाधिकारों को छोडकर संसदीय बोर्ड ही सर्वशक्तिमान होकर निर्णय लेने वाली संस्था होती है। तथापि भाजपा में अध्यक्ष से ज्यादा शक्तिशाली संगठन महामंत्री होता हैं। अतः विपक्ष पर परिवारवाद के आरोप को पैना करने के लिए परिवारवाद को सिर्फ अध्यक्ष पद/‘‘शीर्षस्थ’’ नेतृत्व पर लागू करके राजनैतिक रूप से परिवारवाद का फायदा लेकर स्वयं को क्लीन चिट नहीं दे सकते हैं, अन्यथा नतीजा वही ‘‘ढाक के तीन पात’’ वाला होगा। परिवारवाद के संबंध में यह सुधार की नहीं, बल्कि सुविधा की राजनीतिक बेईमानी ही कहलाएगी।
निश्चित रूप से परिवारवाद के होते परिवार के उत्तराधिकारी एवं सदस्यों को लायक/ नालायक की योग्यता/अयोग्यता देखे बिना विरासत के कारण एक अवसर जरूर मिल जाता है। परंतु इसके आगे फिर सदस्य को अपनी योग्यता सिद्ध करनी होती है, तभी वह आगे बढ़ पाता है। अन्यथा तब परिवारवाद की साख काम नहीं आती है। इसे मैं मेरे उदाहरण से समझा सकता हूं। मेरे स्वर्गीय पिता जी गोवर्धन दास जी खंडेलवाल संविद सरकार में मंत्री रहे। जबकि मेरे दादाजी का राजनीति से कोई संबंध नहीं था। मेरी 23 उम्र की पड़ाव में ही पिताजी की अचानक मृत्यु हो जाने के पश्चात उनकी राजनीतिक विरासत के कारण ही में युवा राजनीति में आया और 24 वर्ष की उम्र में नागरिक बैंक का अध्यक्ष बनाया गया। लेकिन पिताजी जैसी योग्यता न होने के कारण राजनीति में वह अवस्था नहीं प्राप्त कर सका जो ऊंचाईयाँ पिताजी को मिली थी। लेकिन परिवार के अन्य सदस्यों के योग्य होने के कारण जनता ने उनकी योग्यता को स्वीकार कर बार-बार मोहर लगाकर जन प्रतिनिधि बनाया। इसलिए परिवारवाद पूर्णतः गलत है, इस गलत परसेप्शन को दूर करना होगा। परिवारवाद उस आरक्षण व्यवस्था से तो अच्छा ही है, जहां अस्थायी प्रावधान की योजना के तहत लागू किया गया आरक्षण की व्यवस्था को राजनीति के चलते कार्य रूप में स्थायी ही बना दिया गया। परिवारवाद अस्थाई रूप से तो आप को बूस्ट (प्रोत्साहित) करता है। परन्तु योग्यता के अभाव में बार-बार नहीं। प्रधानमंत्री ने परिवारवाद के कारण टैलेंट को खतरा होने की बात कही है। उसी प्रकार आरक्षण में भी तो टैलेंट को नजर अंदाज कर दिया जाता है। आरक्षण का उद्देश्य अस्थाई रूप से सहारा लेकर अपने टैलेंट को विकसित करना होता है। परंतु वह व्यक्ति सफल हो या असफल, आरक्षण का लाभ लगातार लेते जाता है। जबकि परिवारवाद में सदस्य को अवसर मिलने के बाद अपनी योग्यता सिद्ध न करने पर आगे उसको परिवारवाद का फायदा नहीं मिल पाता है।
प्रधानमंत्री ने परिवारवाद की बुराई को एक नया आयाम देते हुए संस्थाओं से जोड़ दिया, जहां इस कारण से टैलेंट को खतरा पैदा हो गया है। लेकिन प्रधानमंत्री के ध्यान में यह बात नहीं आई कि, हमारी सामाजिक, सांस्कृतिक और जो वैदिक व्यवस्था है, उसमें जिस प्रकार डाॅक्टर का लडका डाॅक्टर समान वकील, इंजीनियर, शिक्षक, पत्रकार, नौकरी पेशा नौकरी, व्यवसाय वाला व्यवसाय आदि अपने परिवार के लोगों के उसी कतार में ले जाना चाहता है, जहां मुखिया कार्य कर रहा होता है, ताकि एक सुरक्षा और निश्चिंतता की ग्यारटीं बनी रहीे। तब फिर इस आधार पर राजनीति में परिवारवाद नेता का बेटा नेता को कैसे गलत ठहराया जा सकता है। वह भी जब जनता उस पर अपनी मुहर लगाती हो। टैलेंट को खतरा तो परिवारवाद से ज्यादा आरक्षण से है, जिस पर कोई राजनीतिज्ञ या राजनीतिक दल के जेहन में वोटो की राजनीति के चलते पुनर्विचार करने की बात नहीं आती है।