हमारा देश कानून का पालन करने व करवाने के मामले में ‘‘कश्मीर से कन्याकुमारी तक’’ ‘‘अनेकता में एकता लिये हुए’’ एक ‘लचीला’ देश रहा है। यहां ‘‘तंत्र’’ जो शासन-प्रशासन को चलाता है, बुरी तरह से भ्रष्टाचार की गिरफ्त में (बावजूद भ्रष्टाचार विरोधी कानून) होने के कारण भ्रष्टाचार ‘‘शिष्टाचार’’ में बदल कर चलते-फिरते जीवन का एक अपरिहार्य अंग बन गया है। इस पर चोट करने के लिए व सबक सिखाने के लिए एक ‘‘नजीर’’ बनाने की भावना के मद्देनजर निर्माण संबंधी विभिन्न कानूनी प्रावधानों का उल्लंघन करते हुए 9 वर्ष पूर्व बने इन ट्विन टावरों को 28 अगस्त 2022 को मात्र 9 सेकंड में ‘‘भूमिसात’’ कर भ्रष्टाचार के विरुद्ध ‘‘जेहाद’’ कर एक कठोर सांकेतिक संदेश दिया है। प्रश्न यह है कि दिल्ली के कुतुब मीनार से भी ऊंची 101 मीटर दोनों टावरों को जमींदोज करने के अतिरिक्त क्या अन्य कोई विकल्प नहीं रह गया था? या कि ‘‘आयी मौज फकीर की, दिया झोपड़ा फूंक’’। इस पर आगे मंथन करने के पूर्व पहले ट्विन टावर का संक्षिप्त इतिहास जान लीजिये।
नवंबर 2004 में सुपर टेक कंपनी को नोएडा के सेक्टर 93 ए में 84247 वर्ग मीटर जमीन आवंटित हुई थी। सुपरटेक ग्रुप कंपनी ने एमराल्ड कोर्ट सोसाइटी बनाकर वहां फ्लैट निर्माण की परियोजना प्रारंभ की, जिसमें प्रारंभ में 11 मंजिलों के 14 टावर शामिल थे। तत्पश्चात वर्ष 2006 से 2012 के बीच इस योजना में तीन बार संशोधन होकर दो और टावर निर्माण करने की मंजूरी उसी जगह दी गई, जो कि पूर्व में नोएडा अथाॅरिटी एवं कंपनी ने ग्रीन एरिया दर्शाया गया था। वर्ष 2009 में उत्तर प्रदेश सरकार की भवन निर्माण संबंधी ‘‘एफएआर’’ बढ़ाने के निर्णय के बाद सुपरटेक कंपनी को अपनी परियोजना में संशोधन करने में सहायता मिली व प्लान को रिवाइज कर ‘‘उंगली पकड़कर पहुंचा पकड़ते हुए’’ 121 मीटर की ऊंचाई की 40 मंजिला निर्माण की स्वीकृति प्राप्त की। तत्पश्चात 32 मंजिला एपेक्स (टी.16) एवं 29 मंजिला सियोन (टी.17) नामक दो टावरों का निर्माण प्रारंभ किया गया (जिसे अभी जमींदोज किया गया) जिसकी कुल निर्माण लागत लगभग 300 करोड रुपए थी। एमराल्ड कोर्ट सोसाइटी के स्थानीय रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन जिनकी सोसाइटी के ठीक सामने ट्विन टावर का निर्माण हो रहा था, ने इसके निर्माण पर आपत्ति की और वर्ष मार्च 2012 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय में याचिका दायर की गई।
वर्ष 2014 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने नोएडा अर्थोरिटिज पर मिलीभगत का आरोप लगाते हुए फटकार लगाते हुए उक्त दोनों टॉवर को तोड़ने का आदेश दिया। न्यायालय ने एनबीआर 2006 एवं एनबीआर 2010 का उल्लघंन पाया। अर्थात दो टावरों के बीच 16 मीटर की दूरी के नियमों का पालन न करके मात्र 8 मीटर की दूरी पर एनओसी जारी कर दी गई। ‘‘एनबीसी 2005’’ (राष्ट्रीय भवन कोड) को भी ताक पर रखकर निर्माण किया गया। जिस जमीन पर उक्त दोनों टॉवर बने, वह पूर्व में बिल्डर द्वारा ग्रीन बेल्ट दिखाया गया था। उच्चतम न्यायालय में सुनवाई के दौरान, कंपनी ने एक टावर तोड़ने की पेशकश की थी, जिसे अस्वीकार कर उच्चतम न्यायालय ने वर्ष 2021 में दोनों टावर तोड़ने के आदेश दिये। उक्त दोनों टॉवरों में 952 फ्लैट बने है, जिसकी लागत मूल्य लगभग 300 करोड़ रुपये और तोड़ते समय उसका बाजार मूल्य लगभग 600 करोड़ रुपये से अधिक ही है। कंपनी के चेयरमैन आर के अरोड़ा का यह स्पष्टीकरण आया कि कंपनी ने सब नियमों का पालन किया है व नोएडा अर्थोरिटिज की समय-समय पर ली गई आवश्यक स्वीकृति व इजाजत से ही निर्माण कार्य हुआ है। उन्होंने दावा किया है कंपनी ने 70 हजार से ज्यादा फ्लैट बनाये है, जिसमें कि कुल फ्लैट का मात्र 3 प्रतिशत ही विवादित रहा है।
उक्त डिमोलेशन से कई प्रश्न पैदा होते है कि भ्रष्टाचार का उच्चतम स्तर का प्रतीक बनाया जा चुका यह टावर क्या भ्रष्टाचार को रोकने के लिए और आगे बिल्डर्स के लिए कड़क नजीर बनाने के लिए इसका जमींदोज किया जाकर 600 करोड़ से ज्यादा की सम्पत्ति जो अंततः राष्ट्र की संपत्ति हैं (क्योंकि उसमें लगने वाला समस्त माल हमारे देश का उत्पाद ही तो है।) धूल के धुंए में परिवर्तित करना अर्थात ‘‘अशर्फियाँ लुटें, कोयलों पर मुहर लगाना’’ जरूरी था? रेसीडेंट सोसायटीओं की शिकायत का निराकरण का अन्य कोई विकल्प नहीं था।
भ्रष्टाचार निश्चित रूप से एक बुराई की जड़ है और हम कहते भी है कि इसमें भ्रष्टाचार की बू आ रही हैं। जबकि वास्तव में भ्रष्टाचार में ही ‘बू’ है और वह स्वयं तकनीकि रूप से (व्यवहार में नहीं?) सुगंधित न होकर दुर्गंधित होता है। अर्थात भ्रष्टाचार एक घोर नकारात्मक भाव लिया हुआ कार्य है, जिसका कोई नैतिक बल न होने के बावजूद, सहूलियत अनुसार व्यक्ति उसका ‘उपयोग’ कर ही लेता है। उक्त टावर भ्रष्टाचार की नींव का वह नमूना हैं, जो विनाश के बदले निर्माण लिये हुए है। दो गगनचुंबी आवासीय इमारत जो जरूरतमंद नागरिकों के रहने के लिए बनाई गई, जहां अथाॅरिटीस को ‘‘उंगलियों पर नचाते हुए’’ स्वीकृति ली गई भले ही वह स्वीकृति मिली-भगत व भ्रष्टाचार के द्वारा हुई हो। हमने देखा है कि हमारे सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार इतना धुल मिल गया है कि वह पूरी तरह से शिष्टाचार हो गया है, जैसे दोनों में ‘‘चोली दामन का साथ’’ हो। परन्तु उसे हम जमींदोज करने का प्रयास नहीं करते हैं। पुल, पुलिया, सड़क, बांध, सरकारी इमारतें, कारखानें आदि के निर्माण में हुए भ्रष्टाचार के कारण वे ‘‘बालू की भीत के समान’’ टूट जाए, बह जाए, धंस जाए, गिर जाए तो हमें भूमिसात करने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। इसीलिए यहां पर न्यायालय के डिमोलेशन के आदेश की जरूरत अवश्य ही नहीं है। वहां तो ‘‘तबेले की बला बंदर के सिर मढ़कर’’ ही काम हो जाता है। अभी हाल ही में मध्यप्रदेश के कारम डेम का उदाहरण आपके सामने है, जो पूरा होने के पहले ही भ्रष्टाचार की बली चढ़कर कई गांवों में संकट में डाल दिया।
यदि भ्रष्टाचार को रोकने के लिए कड़क नजीर बनाना ही हैं, जहां लेन-देन, करने-कराने अर्थात दोनों पक्षों पर निरोधक कानून रासुका (राष्ट्रीय सुरक्षा कानून) जैसे लगाकर गिरफ्तार कर जेल के अंदर बंद करने की कार्रवाई कर ‘‘छठी का दूध क्यों नहीं याद कराया जाता’’? ऐसे करने से बिल्डिंग तोड़ने से ज्यादा कड़क नजीर उन भ्रष्टाचारियों द्वारा तंत्रों का दुरुपयोग कर ‘सांठगाठ’ से भविष्य में ऐसे निर्माण करने के लिए बिल्ड़र निरूत्साहित होते? यद्यपि 300 करोड़ रुपये बड़ी रकम होती हैं लेकिन इस देश में जहां हजारों, लाखों व करोड़ों रूपये के कांड (जैसे 2-जी) हो जाते है व भ्रष्टाचारी व अपराधी जेल के बाहर व देश के बाहर धूमते-फिरते रहते है। वहां ऐसी कंपनीयां के प्रोमोटर्स इन रकमों के आघात को सह सकती हैं। परन्तु जेल जाने के आघात को नहीं सह पायेगी। इसलिए ‘‘अंधे की लकड़ी’’ बने सुप्रीम कोर्ट का यह दायित्व था, कि बिल्डर और एथोरटी पर अनियमित टावर को अनियमित व गैरकानूनी तरीके से कानून व नियम की आड में नियमित कर बनाने पर आर्थिक लाभ के उद्देश्य को बोठल करने के लिए लागत के बराबर व उतनी ही राशि शास्ती के रूप में कंपनी से वसूल कर हितधारकों को बांट देती। साथ ही समस्त लोगों के खिलाफ जहां जांच के लिए गठित एसआईटी ने 26 अफसरों की संलिप्तता बतलाई थी, पर आपराधिक कार्रवाई करने का निर्देश देती और शासन-प्रशासन को निरोधक कानून का उपयोग करने का निर्देश देती तो, जिस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए टावर जमींदोज किया गया वह तो प्राप्त हो जाता है और देश की 600 करोड़ की संपत्ति भी ‘‘धूल के गुबार’’ में परिवर्तित होने से बच जाती और जरूरतमंद नागरिकों को रहने के लिए मकान भी मिल जाते। सार यह कि ‘‘गेहूं के साथ घुन पिसने से’’ बच जाते।
I Mauj Fakir ki Diya jhopada funk
जवाब देंहटाएंJabardast artical bhaiya ji aap ka
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