-ःद्वितीय भागः-
क्या बिल्डर्स एवं विकास प्राधिकरण के अहंकार व अनियमितता को ध्वस्त करने के मात्र एक तरीका यही रह गया था?
यदि ‘‘ट्विन टावर्स’’ को गिराने का निर्णय नहीं लिया जाता तो ऐसी स्थिति में एक बड़ा प्रश्न यह उत्पन्न हो सकता था कि सोसाइटी के रहवासियों ने दो टावरों के बीच व रहवासी फ्लैटों के बीच न्यूनतम दूरी 16 मीटर से कम होकर मात्र 9 मीटर होने के कारण उन्हे खुली हवा मिलने में व अन्य दिक्कते होने की शिकायतें की थी उनका न्याय कैसे मिलता? निश्चित रूप से उनकी यह शिकायत जायज है। ‘‘लॉ ऑफ टॉर्टस्’’ (अपकृत्य कानून) के अनुसार भी उनका यह वैधानिक अधिकार है। परन्तु क्या इस तथ्य से इनकार किया जा सकता है कि इस देश में विभिन्न राज्य सरकारें; कॉलोनाइजेशन कानून व बाद में रेरा एक्ट आने के बावजूद, बिना अनुमति के अथवा अनुमति की शर्तो का उल्लंघन कर बनी इमारतों को कुछ पैसा जमा कराकर व फाइन (शास्ति, ब्याज) लगाकर नियमित करती चली आ रही हैं? ऐसी कालोनियों को तो तोड़ा नहीं जाता है?
देश में करोड़ों लोग झुग्गी झोपड़ीयों और पुरानी बस्ती में रहते हंै जहां दो, गलियों के बीच 16 मीटर की दूरी की सुविधा बिल्कुल भी नहीं है। फिर भी वे आजाद भारत की उस ‘‘खुली’’, ‘‘सांस’’ के साथ रह कर जीवन व्यतीत करते हैं। वहां स्वच्छ व साफ सांस लेने के लिए डिमोलेशन की कार्रवाई नहीं होती है। क्या यह सरकार का दायित्व नहीं है कि देश के हर नागरिक को वही सुविधा दे, उपलब्ध कराये व दिलवाये जो इन याचिकाकर्ता सोसाइटी के निवासियों की जायज मांग की पूर्ति के लिए कार्रवाई की गई है? सिर्फ इसलिए कि वे देश की उच्चतम न्यायालय के पास नहीं आये और न ही देश की मीडिया ने ‘‘आगे नाथ न पीछे पगह’’ समझ कर उनकी आवाज को उठाया? क्या वे ‘‘कसाई के खूंटे से बंधे रहने के लिए’’ अभिशाप हैं? उन्हें उनके उक्त कानूनी अधिकार से वंचित रखा गया?
यह सत्य है जीवन का कोई मूल्य नहीं हो सकता हैं और न ही उसे वापिस लाया जा सकता है। जिंदगी को रुपयों से भी तौला नहीं जा सकता है। बावजूद इसके दिनचर्या में हम देखते हंै कि इस देश में जब भी कोई भी घटना, दुर्घटना, सुनियोजित षडयंत्र पूर्वक घटना घटित होती है, जहां जान माल का नुकसान होता है, वहां शासन-प्रशासन हजारों, लाखों व करोड़ों की राशी मुआवजा के नाम पर प्रभावित लोगों को देकर हर बड़ी से बड़ी घटना के दुष्प्रभाव को लगभग प्रभावहीन कर भुक्तभोगी की क्षतिपूर्ति परिपूर्ति मान कर चुप करा दिया जाता है। क्योंकि वे जानते है कि उनके पास इसके अलावा विकल्प क्या है? इसलिए घटना से प्रभावित लोग इसे अपना (दु)र्भाग्य, नियति मानकर स्वीकार कर लेते हंै। बुरा मत मानइये! क्या यहां पर भी ‘‘कानून की लकीर का फ़कीर’’ बनने के बजाए यही तरीका अपना कर 600 करोड़ की राष्ट्रीय संपत्ति को बचाया नहीं जाना चाहिए था, जो अंततः देश के नागरिकों की मकान आवश्यकता की पूर्ति में काम ही आती? विशेषकर यह देखते हुए कि सुपरटेक कंपनी ने फायर, पर्यावरण पर स्पोर्ट अथॉरिटी की एनओसी ली हो। कपंनी ने यह भी दावा किया कि वे किसी भी तरह के भ्रष्टाचार में शामिल नहीं है। इस दिशा में शिकायत कर्ता को समझाने का प्रयास नहीं किया जा सकता था क्या? इस देश में ऐसे कई उदाहरण मिल जायेंगे, जहां न्यायालयों ने निर्माण कार्यों की अनियमितताओं को नियमित किया है। उदाहरणार्थ दिल्ली उच्च न्यायालय ने पूनम गुप्ता व अन्य द्वारा दिल्ली नगर निगम को अवैध निर्माण को नियमित करने से रोकने के लिए दायर की गई याचिका में अवैध निर्माण को नियमित करने के नगर निगम के अधिकार को स्वीकारा है। यद्यपि जर्जर भवन को तोड़ने के आदेश सामान्य रूप से होते रहे हैं। परन्तु यहां तो मजबूत नींव को 3700 किलो विस्फोटक लगाकर ‘‘भ्रष्टाचार’’ को ध्वस्त किया गया, ‘‘जर्जर भवन’’ को नहीं?
परन्तु दुर्भाग्य यह है कि इस देश का ‘‘अंगूठा चूसता मीडिया’’ आजकल प्रायः एक परसेप्शन बनाता है जिसका लोग, अधिकांशतः राजनेता व राजनीतिक दल ‘‘अंधानुकरण’’ करते है। मीडिया के द्वारा ट्विन टावर को अट्ठाहास् करती ‘‘भ्रष्टाचार’’ का पर्यायवाची, प्रतीक बनाकर इस गगनचुंबी इमारत को जमींदोज कर भ्रष्टाचार को नेस्ताबूद बनाने वाले परसेप्शन के विरुद्ध कौन खड़ा हो सकता है? अभी तक नौकरशाहों और न्यायाधीशों के मामले में रिश्वत अर्थात पैसों का नगद लेन-देन तथा नेताओं के मामले में अवैध तरीके से निर्मित की गई अकूत संपत्ति भ्रष्टाचार का प्रतीक/परसेप्शन रही है। एक ओर जहां ‘रिश्वत’ के मामले में जेल भेज दिया जाता रहा है, वहीं दूसरी भ्रष्टाचार से निर्मित अकूत संपत्ति को राजसात कर लिया जाता है। क्या आपने किसी राजनेता की भ्रष्टाचार से कुटी गई अकूत अचल संपत्ति का इस तरह से विध्वंस होते हुए देखा है? (राजनैतिक द्वेषभाव से की गई कार्रवाईयांे को छोड़कर?) तब फिर ऐसी ही कार्यपद्धति ट्विन टावर मामले में क्यों नहीं अपनाई गई? शायद विध्वंसात्मक भावना के हावी होने के चलते वैकल्पिक रास्ता सोचने का प्रयास ही नहीं किया गया?
मुझे लगता है, मैं भी इस मामले में कुछ न कुछ दोषी हूं, यदि समय रहते उच्चतम न्यायालय के पास एक याचिका प्रेषित कर देता, तो शायद उच्चतम न्यायालय भी पुनर्विचार कर लेती। मेरी नजर में यह दोषपूर्ण निर्णय है, लेकिन निश्चित रूप से गैरकानूनी न होकर न्यायिक है। समस्त न्यायालीन अंतिम निर्णय कानूनी होने के बावजूद अन्य परिस्थितियों (में) के लिए दोषपूर्ण हो सकते हैं। तथापि तथ्य यह भी है कि सुपरटेक की पुनर्विचार याचिका को भी उच्चतम न्यायालय ने अस्वीकार कर दिया था।
ऐसा लगता है, शायद देश की वर्तमान विकल्पहीन राजनीति के चलते विकल्पहीन, रचनात्मक निर्माण की भावना रहित निर्णय ‘‘अस्तित्व’’ को समाप्त कर मलबे के धुएं में परिवर्तित होकर स्वयं अस्तित्व हीन हो गया?
excellent
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