देश में ही नहीं वरन विश्व में भारत के अभी तक के सर्वाधिक लोकप्रिय और किसी क्रिया-प्रतिक्रिया की चिंता किए बिना अनोखी शैली व कार्यपद्धति से कुछ असंभव (जैसे राम मंदिर का निर्माण, तीन तलाक, अनुच्छेद 370 की समाप्ति) से लगते ठोस कार्य करने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राजपथ का नाम बदलकर कर्तव्य पथ कर न केवल स्वयं को ‘‘कर्तव्य बोध’’ का एहसास दिलाया, बल्कि सबको भी अपना कर्तव्य निभाने के लिए एक संदेश भी दिया। यह बात उनके भाषण से स्पष्ट रूप से झलकती भी है। इस एक संदेश ने ही मुझे तुरंत प्रेरित-उत्प्रेरित किया और मैं यह लेख लिखकर अपने कर्तव्य का पालन कर रहा हूं? तय आपको करना है कि मैं अपने कर्तव्य का पालन करने में सफल हूं अथवा असफल?
प्रधानमंत्री ने ‘कर्तव्य पथ’ के नामकरण व ‘सेंट्रल विस्टा एवेन्यू’ के उदघाटन कार्यक्रम में एक नहीं तीन महत्वपूर्ण संदेश दिए हैं। प्रथम! ब्रिटिश इंडिया के जमाने की गुलामी की प्रतीक राजपथ वर्ष 1955 के पूर्व किंग्सवे नाम से जानी जाती थी। इसका निर्माण वर्ष 1911 में ब्रिटिश हुकूमत द्वारा भारत की राजधानी कोलकाता से दिल्ली करने के निर्णय के साथ प्रारंभ हुआ था, जो वर्ष 1920 में बनकर पूर्ण हुआ। राजा जॉर्ज पंचम के सम्मान में इसका नाम किंग्सवे रखा गया था। आरंभिक रूप से यह सिर्फ राजाओं का ही रास्ता था। राजपथ रायसीना हिल स्थित ‘‘राष्ट्रपति भवन’’ को ‘‘इंडिया गेट’’ से जोड़ता है। यहां प्रतिवर्ष 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस के अवसर पर भव्य प्रेरणात्मक राष्ट्रीय परेड का कार्यक्रम संपन्न होता है। इसमें भारतीय संस्कृति व ताकत का बखान व प्रदर्शन होता है। ‘‘राजपथ’’ को (गुलामी का प्रतीकात्मक नाम मानकर?) बदल कर राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत भारतीय नाम कर्तव्य पथ कर दिया है, जिस पर किसी भी नागरिक को कोई आपत्ति नहीं हो सकती है।
दूसरा उतना ही महत्वपूर्ण कार्य स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, आजाद हिंद फौज के संस्थापक व स्वतंत्रता के पूर्व अखंड भारत के प्रथम प्रधानमंत्री, नेताजी के नाम से मशहूर (आज के नेता जी नहीं) सुभाष चंद्र बोस की विशालकाय 28 फुट ऊंची मूर्ति की स्थापना उसी जगह पर की गई, जहां पर पूर्व में इंग्लैंड के ‘‘जॉर्ज पंचम’’ की मूर्ति थी, जो स्वतंत्रता प्राप्ति के 21 वर्ष बाद हटा कर दूसरी जगह ‘कोरोनेशन पार्क’ में विस्थापित कर दी गई थी। यहां यह याद रखने की बात है कि वहां पहले महात्मा गांधी की प्रतिमा लगाने का बात कही जा रही थी, लेकिन अंतिम निर्णय न हो पाने के कारण लग नहीं पाई। इन दोनों कृत्यों को देश में न केवल गुलामी के चिन्ह मिटाने के रूप में देखा गया बल्कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस के व्यक्तित्व को जो सम्मान इस देश में मिलना चाहिए था, जिसके वे हकदार हैं, उसकी पूर्ति कुछ हद तक अवश्य इस प्रतिमा लगने से हुई है। ये दोनों भाव लिए कृत्य के लिए निश्चित रूप से प्रधानमंत्री जी साधुवाद व बधाई के पात्र हैं। इसके लिए देश उनका हमेशा ऋणी रहेगा।
तीसरा किंतु विवाद का महत्वपूर्ण कारण बना उद्घाटन के इस अवसर पर दिया गया कर्तव्य बोध का संदेश। प्रधानमंत्री ने अपने उद्घाटन भाषण में नाम परिवर्तन के जो कारण बतलाए और जो अर्थ मीडिया व राजनेता निकाल रहे हैं, वही विवाद का एक बड़ा कारण बनते जा रहा है। इसी तीसरे विवादित होते कारण ने मुझे अपने कर्तव्य का अहसास कराया जो आपके सामने लेख के रूप में प्रस्तुत है।
प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में जो प्रमुख बातें कहीं उसका लब्बु लबाब यही है कि कर्तव्य बोध के रूप में नए इतिहास का सृजन होगा। आज नई प्रेरणा व ऊर्जा मिली है। प्रधानमंत्री आगे कहते हैं राजपथ की आर्किटेक्चर और आत्मा भी बदली है। ‘‘गुलामी का प्रतीक राजपथ’’ अब इतिहास की बात हो गया है, हमेशा के लिए मिट गया है। गुलामी की एक और पहचान से मुक्ति के लिए मैं देशवासियों को बधाई देता हूं। परन्तु बड़ा एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है, कि वर्ष 1920 में जब इसका नाम किंग्सवे था, और स्वाधीनता प्राप्ति के बाद वर्ष 1955 में नाम बदलकर राजपथ कर दिया गया, तब यह कैसे गुलामी का प्रतीक रह गया है? क्योंकि गुलाम भारत की गुलामी का प्रतीक किंग्सवे का नाम आजाद भारत में पूर्व में ही बदला जा कर राजपथ किया जा चुका था। क्या किंग्सवे का हिंदी अर्थ राज पथ होने से राजा (शासकों) का पथ माना जाकर गुलामी का प्रतीक माना जा रहा था? ऐसा कुछ क्षेत्रों में कहा जा रहा है तो यह बिल्कुल गलत है। क्या हम ‘‘अनर्थ’’ की जगह ‘‘अर्थ’’ नहीं निकाल सकते है? ‘किंग्स’ का अर्थ ‘‘राज’’ नहीं ‘‘राजा’’ होता है। राज का अर्थ शासन लोकतंत्र से है। और यदि ऐसा नहीं है और राज शब्द से इतनी घृणा है, तो राजनीति के राज को लेकर क्या कहेंगे, करेंगे? क्या राज छोड़ देंगे? क्या राज-नीति (इसमें राज महत्वपूर्ण परंतु नीति गौण) की सीढ़ी चढ़कर बने मंत्री, मुख्यमंत्री केन्द्रीय मंत्री और प्रधानमंत्री पद को छोड़ देंगे? क्योंकि गुलामी का प्रतीक राज शब्द जुड़ा हुआ है? सकारात्मक सोच लेकर हम यह क्यों नहीं मान सकते हैं कि राजपथ में ‘‘रामराज’’ के राज का पुट शामिल है? क्या यह बात स्वीकारी नहीं जा सकती हैं कि अंग्रेजों की हर बात गलत नहीं थी, इसलिए हर कार्य/बात को गुलामी का प्रतीक मानना ठीक नहीं होगा?
यदि सिर्फ नाम बदल कर कर्तव्य पथ कर देने से ही कर्तव्य बोध का भाव उत्पन्न हो जाएगा, ऐसी सोच व मान्यता है तो फिर यह बतलाना होगा कि उसी के पास ‘‘लुटियन जोन’’ में कनॉट प्लेस से रेडियल रोड वन से प्रारंभ होकर पीछे राजपथ से जाने वाला रास्ता का नाम क्वींस (रानी का रास्ता) को बदल कर जनपथ (पीपुल्स पाथ) किया गया था, तो क्या वह वास्तव में जनता (आम) का पथ हो गया? विपरीत इसके जनपथ तो आज अति महत्वपूर्ण व्यक्तियों का निवास और महंगा वीआईपी मार्केट हो गया है, जो देशी-विदेशी पर्यटकों के लिए प्रसिद्ध है। नाम बदलने से ही यदि सब कुछ अच्छा हो जाता? समस्त समस्याएं सुलझ जाती? देश गरीबी से खुशहाल हो जाता? तो फिर ‘‘हाथ कंगन को आरसी क्या’’। ‘‘भ्रष्टाचार’’ का नाम बदलकर शिष्टाचार ईमानदारी कर दीजिए, अपराध का नाम बदलकर पुरस्कार कर दीजिए? आपको करना क्या है, सिर्फ नाम ही तो बदलना है? नाम के अनुसार भावनाएं व्यक्ति स्वयं में आत्मसात कर लेगा और यह देश के विकास, सुरक्षा, अखंडता, एकता बनाए रखने के लिए सबसे सुगम और सरल रास्ता सिद्ध हो जाएगा? तब ऐसी स्थिति में मंत्रिमंडल में पृथक से एक ‘‘नामकरण’’ विभाग का सृजन करना होगा?
विस्टा प्रोजेक्ट में जिसमें राजपथ भी शामिल है, नए संसद भवन, राष्ट्रपति-उपराष्ट्रपति निवास व प्रधानमंत्री निवास का निर्माण भी पुराने भवन को तोड़कर किया जा रहा है। इसके पीछे का भी उद्देश्य अंग्रेजी व गुलामी की प्रतीकात्मक मानसिकता समाप्त करना बतलाया जा रहा है। यदि स्वतंत्रता प्राप्ति के पहले वर्ष 1947 के पूर्व के ब्रिटिश इंडिया के समस्त निर्माण व नाम अंग्रेजों व गुलामी के प्रतीक हैं, तो क्या हम उन सब को तोड़ने और नाम बदलने जा रहे हैं? बिल्कुल नहीं। ‘‘काग़ज की नाव पार नहीं लगती’’। देश में विद्यमान अधिकतर ‘‘राजभवन’’ अंग्रेजियत की निशानी है। आज भी गुलामी का सबसे बड़ा प्रतीक राष्ट्रमंडल ब्रिटिश ओपनिवेशिक संगठन है, जिसे स्वतंत्रता के बाद वर्ष 1947 में औपचारिक रूप से गठित किया। इसमें ब्रिटिश साम्राज्य के लगभग समस्त पूर्व क्षेत्र भारत सहित शामिल है। इससे उपनिवेशवाद से हमें कब मुक्ति मिलेगी? सबसे महत्वपूर्ण कांग्रेस शासन द्वारा कोरोनेशन पार्क में जॉर्ज पंचम की विस्थापित की गई जो मूर्ति को विसर्जित होगी या नहीं? अंग्रेजों के जमाने की वर्ष 1860 की भारतीय दंड संहिता जो हमारी अपराधिक न्यायशास्त्र की रीढ़ की हड्डी है, अभी भी चली आ रही है। ऐसे अनेक पुराने ब्रिटिश कानून (लगभग 1500 से अधिक) आज भी प्रचलित है। ‘‘हाथी की सिर्फ पूछ ही निकल पायेगी’’ हाथी नहीं। यदि नाम परिवर्तन करना ही है तो इंडिया, भारत की जगह हिंदुस्थान नामकरण कब होगा? जो हमारी अस्मिता व संस्कृति की प्रतीक नहीं मूल पहचान है।
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