शुक्रवार, 28 अक्टूबर 2022
देश की राजनीति का ‘‘नैरेटिव’’ नरेन्द्र नहीं! ‘अरविंद’ तय कर रहे हैं।
बुधवार, 19 अक्टूबर 2022
‘‘राष्ट्रमाता’’ हीरा बेन को ‘‘राजनीति’’ में घसीटना अनुचित होकर ‘‘निम्नतर स्तर’’ की राजनीति नहीं?
देश के प्रधानमंत्री व गुजरात के ही नहीं, बल्कि देश के प्रधानसेवक नरेन्द्र मोदी की मां का जीवन उनके बेटे के प्रधानमंत्री बनने के बावजूद बेहद सादगीपूर्ण होकर प्रेरक व प्रेरणा देने वाली है। न तो वे राजनैतिक परिवार से है और न ही उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि वैसी रही है। नरेन्द्र मोदी के ‘‘स्वयंसेवक’’ होकर राजनीति में आने के बाद भी राजनीति में उनकी न तो कभी दिलचस्पी रही और न ही उन्होंने कभी भी राजनीति में किसी भी तरह का कोई हस्तक्षेप किया है। ऐसा कोई आरोप विरोधियों द्वारा लगाया भी नहीं गया है। तब फिर अचानक एक हफ्ते पूर्व एक पुराना वीडियो वायरल कर और फिर प्रेस वार्ता कर प्रधानमंत्री की माता हीराबेन के नाम पर राजनीति प्रारंभ क्यों हुई? क्या आगामी होने वाले गुजरात के चुनाव (जिसकी अभी तक अधिकारिक घोषणा भी नहीं हुई है) के कारण उन्हें राजनीतिक रूप से तो घसीटा नहीं जा रहा है?
यह राजनीति का ही नहीं बल्कि देश का बड़ा दुर्भाग्य है कि एक अविवादित, निर्मल व्यक्तित्व के साथ तथाकथित क्षणिक, तनिक राजनीतिक लाभ की दृष्टि से ‘‘अपना उल्लू सीधा करने के लिये’’ राजनीतिक विवाद में घसीटने का असफल प्रयास देश के प्रधानमंत्री की लगभग 100 वर्षीय वृद्ध माताजी के साथ किया जाए। इससे भी बड़ा प्रश्न यह है कि इसके लिए आखिर जिम्मेदार कौन है? पक्ष-विपक्ष अथवा दोनों? सामान्य रूप से घृणित कथन कर विवादित बयान देने वाले आप पार्टी के नेता को ही इस निम्न स्तर की राजनीति को चमकाने के लिए जिम्मेदार ठहराया व माना जा रहा है। परंतु यह एक बड़ा गहरा विश्लेषण का विषय है, जिस पर गंभीर चिंता किये जाने की गहन आवश्यकता है, तभी आप पूरी परिस्थितियों का सही आकलन कर पाएंगे।
शनिवार, 8 अक्टूबर 2022
"आत्मनिर्भर भारत अभियान में’’ "रेवडियों" का स्थान कहां है ?
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की देश का ‘मान’, ‘स्वाभिमान’ व ‘विकास’ को उच्चतम स्तर पर ले जाने के लिए घोषित कई योजनाओं में से एक ’ आत्मनिर्भर भारत’ प्रमुख योजना है। आत्मनिर्भर भारत अभियान के अंतर्गत ’ पांच स्तम्भ’ हैं -अर्थव्यवस्था, बुनियादी ढ़ाँचा, प्रौद्योगिकी, जनसांख्यिकी (डेमोग्राफी), माँग। प्रधानमंत्री मोदी ने इस अभियान को प्रारंभ करने के बाद इसे रक्षा निर्माण व डिजिटल इंडिया तथा गरीबों को आत्मनिर्भर बनाने से जोड़ा है। आत्मनिर्भर भारत अभियान के तहत ही ’वोकल फार लोकल’ व ’मेक इन इंडिया’ का नारा दिया गया। प्रधानमंत्री की ’स्वनिधी योजना’ भी इस अभियान का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। किसानों की ’दोगुनी आय’ करने के लिए की गई ग्यारह घोषणाएं व गरीब श्रमिकों के लिए लागू की जा रही विभिन्न योजना जैसे किफायती किरायों के आवास परिसर बनाने की पहल, श्रम संहिता में बदलाव, एक देश एक राशन कार्ड, विशेष क्रेडिट सुविधा आदि लागू की गई हैं।
'‘आत्मनिर्भर भारत’’ का शाब्दिक अर्थ देश की 130 करोड़ जनता के प्रत्येक वयस्क नागरिक का आत्मनिर्भर होना है, ताकि देश भी आत्मनिर्भर हो सके। आत्मनिर्भर का वास्तविक मलतब यही है कि प्रत्येक व्यक्ति के जीवन यापन के लिए आवश्यक मूलभूत सुविधाए के लिए उसके पास आय के उपार्जन के इतने साधन हों कि मुफ्त सहायता/रेवडी लिए बिना अपनी न्यूनतम ’जरूरत की पूर्ति’ करते हुए वह समाज में सम्मान पूर्वक जी सके। इसके लिए किसी भी तरह की सरकारी, अर्द्धशासकीय, निजी या एनजीओं की सहायता की आवयकता न पड़े, एक वास्तविक आत्मनिर्भर भारत व नागरिक की यह एक आदर्श स्थिती है। परन्तु बड़ा प्रश्न यह है कि ऐसे आत्मनिर्भर भारत बनाने के प्रयास के लिए क्या वैसी योजनाएं बन रही है या कार्य चल रहे हैं? इसके लिए सर्वप्रथम पहले तो सरकार को यह तय करना होगा कि जितनी भी सुविधाएं शासकीय योजनाएं या अर्द्धशासकीय स्तर पर जनता को जीने के लिए संवैधानिक अधिकार के रूप में उपलब्ध व प्राप्त है, को शैनः शैनः खत्म करने की एक बड़ी योजना बनानी होगी। आत्मनिर्भर भारत तभी आत्मनिर्भर कहलाएगा। परन्तु ऐसा लगता है कि ऐसी कोई भी दूरगामी योजना न तो शासन के पास है और न ही इस तरह का कोई ऐसा खाका जनता के सामने पेश किया गया है। इसलिए फिलहाल यह तो मानना ही होगा कि "तेल देख तेल की धार देखते हुए" आत्मनिर्भरता’ का नारा देकर एक ’दिवास्वप्न’ दिखाने का प्रयास तो नहीं किया जा रहा है? ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार देश के प्रत्येक नागरिक को विदेशों से काला धन वापिस लाकर प्रत्येक नागरिक के खाते में 15-15 लाख जमा होने का वादा किया गया था, जिसे बाद में जुमलेबाजी तक करार कर दिया गया था।
इस आत्मनिर्भर अभियान के संबंध में दो बिंदुओं पर अवश्य आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं। सर्वप्रथम भारत विश्व के मात्र उन तीन देशों में शामिल है, जहां ’मुर्दों’ को भी बेचने पर कोई कानूनी शिकंजा या प्रतिबंध नहीं है, बल्कि शवों व अंगों की कालाबाजारी का एक बाजार है। दूसरा भारत उन 6 देशों में एक है जहां भुखमरी से मरने पर कोई कानूनन् अपराध गठित नहीं होता है। अर्थात इसे अपराध मानने का कोई कानून नहीं है। मतलब साफ है। इस देश में गरीबी इस हद तक निचले स्तर तक उतर गई है, जहां जरूरतमंद व्यक्ति मुर्दा के लिए लिए कफन न होने पर व अन्य आवश्यकताओं के लिए मुर्दे को बेचने की अनुमति है। भुखमरी का हाल बेहाल यह है कि भारत ग्लोबल हंगर इंडेक्स में 2014 में 99 वें स्थान से आज 119 देशों की सूची में 103 वे स्थान पर है। जहां हमारी स्थिति नेपाल व बंग्लादेश देशों से भी खराब है। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम लागू होने के बावजूद भुखमरी से किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाये तो उस जिले का कलेक्टर, विधायक, सांसद और अंततः प्रांतीय-केन्द्रीय शासन की जिम्मेदारी यदि संवैधानिक रूप से तय न की जाए तो, आत्मनिर्भर भारत का नारा कितना खोखला होगा? इसकी कल्पना की जा सकती है। उक्त जनप्रतिनिधियों व अधिकारियों को मृत्यु के पूर्व भुखमरी की परिस्थितियों की जानकारी होने की स्थिति में धारा 304-ए के अंतर्गत दोषी अपराधी होने के लिए भारतीय दंड संहिता में आवश्यक संशोधन किया जाना चाहिए। इस देश की जनता आखिर कब जागरूक होगी? उसके सामने "आंखों में धूल झोंकने वाले" लोक लुभावने आकर्षक वादे पेश करने वाले राजनीतिक दलों, जन नेताओं की पहचान कर जनता विपरीत दिशा में उसका उतना ही कड़क जवाब चुनाव में उनकी जमानते जप्त करा कर क्यों नहीं देती? ताकि भविष्य में इस तरह की लोक-लुभावनी लगने वाली न लागू होने वाली आकर्षक योजनाएं के द्वारा जनता को बरगलाया न जा सके। आखिर 75 साल बाद उच्चतम न्यायालय और केंद्रीय चुनाव आयोग इस संबंध में अपने कर्तव्य के प्रति क्यों देरी से जागे? क्या जागने में हुई उक्त देरी के लिए उन्हे अपराध बोध के भाव से ’उन्मुक्त’ किया जा सकता है? अंततः न्यायपालिका और चुनाव आयोग ’मुफ्त सौगातों’ पर प्रभावशाली तरीके से रोक लगाकर देश के मेहनतकश नागरिकों के सम्मान को बढ़ाकर "उद्यमेन हि सिद्धयंति कार्याणि न मनौरथै:" की भावना से समस्त नागरिकों को मेहनत करने के लिए प्रेरित कर सकते है, इह बात की पुष्टि तो समय ही बतलायेगा।
’मुफ्त सुविधाओं’ को लेकर आपको तीन प्रमुख दृष्टिकोण से देख कर आकलन करना होगा। ’प्रथम’ संवैधानिक अनिवार्यता क्या हैं? जैसे मुफ्त शिक्षा, मुफ्त चिकित्सा, हर हाथ को काम आदि-आदि। ’दूसरा’ जो यद्यपि संवैधानिक अनिवार्यता नहीं है, तथापि देश के अमीर गरीब के बीच बढ़ती दूरी को देखते हुए निर्धन व अति निर्धनों की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उन्हे आवश्यक सुविधाएं मुफ्त देना, इस दृष्टिकोण से भी विचार करना होगा। ’तृतीय’ सिर्फ चुनावी लाभ की दृष्टि से जनता को "हाथी के दांत खाने के और, दिखाने के और" की लीक पर चलते हुए क्षणिक, अस्थाई लालच दिखाकर, गुमराह कर सत्ता में आने के लिए जनता से वोट लेना। इन समस्त परिस्थितियों के बीच इस तरह से संतुलन व सामंजस्य बनाया जावे कि धीरे-धीरे देश के प्रत्येक नागरिक को आत्मनिर्भर रूप से खड़ा किया जा सके। वर्तमान समस्या का हल यही है कि यदि राजनीतिक दृष्टिकोण, तुष्टीकरण की नीति को छोड़ कर शुद्ध जनहित की दृष्टि से व्यक्ति व अंततः देश के विकास को ध्यान में रखकर इस पर चिंतन किया जाये तो?
आत्मनिर्भर भारत की योजना के सिद्धांन्त को वृद्धाश्रम के सिद्धांन्त से सरल रूप से समझा जा सकता है। जिस प्रकार वृद्धाश्रम की प्रारंभिक अवस्था में समाज के लोग आगे आकर आश्रित व्यक्तियों को वृद्धाश्रम में शरण देकर उनके जीवन यापन की पूर्ति में सहयोग करते हैं। लेकिन इसे पूर्ण सफल तभी कहा जा सकता है, जब इसकी आवश्यकता को ही समाप्त कर दिया जाए, ताकि "न रहे बांस न बजे बांसुरी" की उक्ति चरितार्थ हो सके। मतलब वृद्धाश्रम में जाने के मूल कारण को समाप्त करने के लिए परिवार के सदस्यों को उनकी जिम्मेदारियों का आभास कराया जाकर, जनता को जागृत करने पर अंततः जिम्मेदारी निभाने पर इसकी आवश्यकता ही नहीं होगी। संयुक्त हिंदू परिवार की सरचना का आधार ही यही था। परंतु अब संयुक्त हिंदू परिवार के टूटने से वृद्धाआश्रमों की संख्या में तेजी से बढ़ोतरी हुई है। ठीक इसी प्रकार आरंभिक अवस्था में एक नागरिक की न्यूनतम जरूरतों की पूर्ति के लिए आवश्यक सहायता देते हुए उसे शैनः शैनः उक्त मुफ्त सौगातों को पूर्णता बंद कर दिया जाए, तभी सही अर्थों में आत्मनिर्भर भारत बन पाएगा।
केंद्रीय चुनाव आयोग ने चुनावी वादों को लेकर पूरी जानकारी नहीं देने पर और उससे देश पर पड़ने वाले असर को नजर अंदाज न करने का तर्क देकर, चिट्टी लिख कर राजनीतिक दलों को यह अहम निर्देश दिया है कि राजनीतिक दल वोटरों को अपने वादों के आर्थिक रूप से व्यावहारिक होने की प्रमाणिक जानकारी देंगे, ताकि मतदाता उसका आंकलन कर सकेगें कि ये वादे "थोथा चना बाजे घना" तो नहीं हैं। खोकले चुनावी वादों के दूरगामी प्रभाव होते है। उच्चतम न्यायालय में उन्हीं मुफ्त वादों व मुफ्त की सौंगातों या चुनावी रेवड़ीयों के कारण सरकारी कोष पर पड़ने वाले बोझ का मामला विचाराधीन है। उच्चतम न्यायालय ने पुनर्विचार हेतु तीन जजों की बेंच को मामला सौंपा है। यद्यपि केंद्रीय चुनाव आयोग ने अप्रैल में हुई सुनवाई के दौरान उच्चतम न्यायालय को बतलाया था कि चुनाव से पहले या बाद में मुफ्त रेवडी देना राजनीतिक दलों का ’नीतिगत’ फैसला है। वह राज्य की नीतियों और पार्टियों की ओर से लिए गए फैसलों को नियंत्रित नहीं कर सकता है। परन्तु अब अपनी नजरअंदाज करने की भूल को सुधारते हुए उक्त पत्र लिखकर चुनाव आयोग ने इस संबंध में शायद अपना दृष्टिकोण बदला है।
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