वर्ष 2014 में नरेन्द्र मोदी के राष्ट्रीय राजनीति में आने के और प्रधानमंत्री बनने के बाद व केजरीवाल की राष्ट्रीय राजनीति में आने के पूर्व तक नरेंद्र मोदी प्रमुख एक मात्र नेता मीडिया की सुर्खियों में बने रहे। कहा जाता है, वर्ष 2014 का चुनाव मीडिया मैनेजमेंट जिसके पीछे प्रशांत किशोर का बड़ा हाथ था, के कारण ही जीतने में नरेन्द्र मोदी सफल रहे थे। तब से देश की राजनीति (सियासत) का नैरेटिव मोदी ही तय (फिक्स) करते चले आ रहे हैं। जो वे कहते रहे, मीडिया उसे ब्रेकिंग न्यूज बना कर चलाता रहा और पूरी राजनीतिक चर्चा व सियासत मीडिया से लेकर राजनीतिक क्षेत्रों लेखकों व राईटअप में उसी के इर्द-गिर्द होती रही। इस प्रकार नरेन्द्र मोदी ने राजनीति में अपनी अलग शैली स्थापित की, जो 75 वर्षो से चली आ रही स्थापित राजनीतिक शैली से हटकर थी। मोदी उसमें पूर्णतः सफल भी रहे। यद्यपि वह शैली कितनी सही थी, गलत थी उसके गुणदोष पर विचार मंथन जरूर किया जा सकता है। लेकिन वह शैली उनकी राजनीतिक यात्रा में कहीं आड़े नहीं आयी, बल्कि उनके विजय रथ को आगे बढ़ाने में परोक्ष-अपरोक्ष सहयोग ही देती रही।
अरविंद केजरीवाल के दिल्ली के मुख्यमंत्री बनने के बाद पहले पांच साल वे साहसपूर्वक सीधे बेबाक तरीके से नरेन्द्र मोदी को कटघरे में खड़ा करते रहे, चाहे फिर बात नालियों को साफ करने की ही क्यों न रही हो। लेकिन उसके दुष्परिणाम स्वरूप आप पार्टी दिल्ली की लोकसभा की सातों सीटें हार गई एवं नगर निगम में भी सफलता नहीं मिली। राजनैतिक विश्लेषक संजय कुमार के अनुसार जब कोई प्रिय नेता लोकप्रिय हो, तब उस पर हमला करने का असर उल्टा ही होगा। जैसा कि ‘‘चांद पर थूका हुआ वापस थूकने वाले मुंह पर ही पड़ता है।’’ शायद इसी नीति को अपना कर वर्ष 2017 में हुए उत्तर प्रदेश के चुनाव के परिणाम के बाद व पंजाब में खराब प्रदर्शन के बाद केजरीवाल ने ‘‘गज में कब्ज़ा करने की बजाय इंच में कब्ज़ा करने की नीति’’ के तहत अपने भाषणों में, चर्चा में, कथनों में, ट्वीट्स में लगभग पूरी तरह से नजर अंदाज कर दिया, जिसका उन्हें भी फायदा मिला। फलतः दिल्ली सरकार उपराज्यपाल के साथ बेहतर सामंजस्य के साथ कार्य कर पायी। जब आप पार्टी पंजाब चुनाव में उतरी तब केजरीवाल मोदी पर पुनः आक्रामक हो गये और पंजाब की सफलता के बाद तो राष्ट्रीय क्षितिज पर आने के लिये वे बेहद ही आक्रामक तरीके से नरेन्द्र मोदी पर हमला कर रहे हैं। मीडिया मैंनेजमेंट में उनकी कार्यशैली का कोई जोड़ नहीं हैं।
जब आप पार्टी मात्र एक छोटे से आधे-अधूरे राज्य दिल्ली पर सत्ता पा काबिज थी, तब भी केजरीवाल ने ‘‘करनी न करतूत, लड़ने को मज़बूत’’ की तर्ज पर उसी मीडिया का प्रबंधन (मैनेजमेंट) अच्छी तरह से किया। नरेन्द्र मोदी के बाद दूसरी आवाज राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस की तुलना में एक प्रदेश के मुख्यमंत्री की पूरे देश में बार-बार सुनने को मिलती थी, जिस मीडिया की केजरीवाल ने मोदी की विजय यात्रा में दुरुपयोग के लिए कड़ी आलोचना की थी, उस मीडिया का महत्व समझ कर उसे अच्छी तरह से मैनेज करने में वे सफल रहे है। अब तो उनके पास पंजाब राज्य की सत्ता भी आ गई हैं। अतः अब वे और बेहतर तरीके से मीडिया को मैनेज करने में संसाधनों का उपयोग कर सकते हैं। इस कारण से आज स्थिति यह हो गई है, देश की राजनीति का नैरेटिव प्रधानमंत्री नहीं, बल्कि दिल्ली के मुख्यमंत्री आप पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक केजरीवाल कर रहे है जिनका ध्येय वाक्य है कि ‘‘माल कैसा भी हो, हांक हमेशा ऊंची लगानी चाहिये’’। आगे उदाहरणों से आप इस बात को अच्छी तरह से समझ जाएंगे।
ताजा उदाहरण आपके सामने है, दिल्ली के शिक्षा मंत्री मनीष सिसोदिया के जेल जाने की आशंका मात्र से उनकी तुलना शहीदे-आज़म भगत सिंह से करने पर उन्हें परह़ेज, गुरेज और शर्म तक नहीं आयी। वैसे भी वर्तमान निम्न स्तर की नैतिकताहीन राजनीति में बेशर्म शरारतपूर्ण व अंहकार से भरे बयान पर शर्म का प्रश्न आप क्यों उठाना चाहते है? उससे भी बडी बेशर्म मीडिया निकली जिसने ‘‘गधा मरे कुम्हार का और धोबन सती होय’’ के समान उनके कथनों को हाथों-हाथ झेलकर बार-बार सुना कर हमारे कानों को पका दिया। किसी भी मीडिया की केजरीवाल से यह कहने की हिम्मत नहीं हुई कि अरविंद केजरीवाल जी आपके द्वारा मनीष सिसोदिया की शहीद भगत सिंह से किसी भी रूप में तुलना वैसे भी किसी भी स्थिति में सही नहीं ठहराई जा सकती है और न ही की जा सकती है। आप अपनी तुलना के शब्द बाण वापस लीजिए व उक्त महती त्रुटि के लिए क्षमा मांगिये अन्यथा हम आपके उन कथनों बयानों को प्रसारित नहीं करेंगे। रवीश कुमार बार-बार गोदी मीडिया जरूर कहते है परंतु मुझे लगता है कि वे ‘‘एक तवे की रोटी क्या पतली क्या मोटी’’ की उक्ति को चरितार्थ करते हुए केजरीवाल के जाल में फंसे मीडिया का उल्लेख नहीं करके पक्षपात करते हैं। जबकि मीडिया के बाबत एक प्रसिद्ध उक्ति है की वह नेताओं को फंसा कर रखते हैं। लेकिन यहां केजरीवाल के मामले में स्थिति तो उल्ट है।
सीबीआई के समक्ष 9-10 घंटे लम्बे चले बयान के बाद मनीष सिसोदिया ने सीबीआई पर बड़ा आरोप लगा कर कहा कि, उन्हें मुख्यमंत्री बनने का प्रस्ताव (ऑफर) दिया गया था। परन्तु नाम बताने से परहेज किया गया। फिर भी मीडिया उनकी इस बिना सिर पैर के तथ्य हीन बयान को बार-बार ब्रेकिंग न्यूज के रूप में चलाता रहा। यानी केजरीवाल के लिए तो मीडिया का रोल ऐसा है कि ‘‘लड़े सिपाही और नाम सरदार का’’। इसके पूर्व भी ऑपरेशन लोटस द्वारा विधायकों की खरीद-फरोद कर सरकार गिराने के मनीष सिसोदिया के आरोप के संबंध में भी आज तक उस व्यक्ति का नाम नहीं बताया गया, जिसने पैसे ऑफर किये गए और न ही उस तथाकथित विधायक/व्यक्ति का कथन,शपथ पत्र या पहचान तक बताई गई, जिसे ऑफर किया गया हो। यह झूठी, मनगढ़ंत न्यूज भी कई दिनों तक चलती रही। हद तो तब हो गई जब सीबीआई द्वारा पूछताछ के बाद मनीष सिसोदिया के सिर पर लटक रही गिरफ्तारी की तलवार जो अंततः गिरी ही नहीं, इस तथ्य के बावजूद केजरीवाल ने गुजरात के महेसाणा जिले के ऊंझा में जनसभा को संबोधित करते हुए कहा कि मनीष सिसोदिया का गुजरात चुनाव में प्रचार करने से रोकने के लिए गिरफ्तार कर लिया है। उन्होंने जनता से ‘‘जेल के ताले टूटेंगे मनीष सिसोदिया छूटेंगे’’ के नारे भी लगवाए । इस सफेद नहीं काले झूठे बयान को मीडिया ने जिस तरह सुर्खिया देकर चलाया और हमेशा प्रश्न करने वाले केजरीवाल से इस झूठ के संबंध में एक भी प्रति-प्रश्न न करना देश की राजनीति के नैरेटिव को केजरीवाल द्वारा निश्चित करने के तथ्य को ही सिद्ध करता है।
जिस तरह ‘‘सोती हुई लोमड़ी सपने में मुर्ग़ियां ही गिनती रहती है’’, राजनेता तथा आम नागरिकों के लिए नए-नए अन्य अकल्पनीय नैरेटिव देने वाले केजरीवाल के ताजा नैरेटिव को भी देखिए। इंडोनेशिया जहां पर मात्र सिर्फ 2% ही हिंदू हैं, की करेंसी में गणेश जी की फोटो का हवाला देते हुए देश की करेंसी में भगवान श्री गणेश और लक्ष्मी माता की तस्वीर लगाने की मांग जोर-शोर से कर डाली। क्या केजरीवाल उसी इंडोनेशिया में अल्पसंख्यक हिंदू के भगवान की फोटो लगाए जाने के पीछे के भावार्थ को समझ कर भारत देश में भी अल्पसंख्यकों (2 नहीं 20 प्रतिशत से ज्यादा) के ईस्टों (भगवानों) की फोटो लगाने की वकालत करेंगे? सिक्के के हमेशा दो पहलू होते हैं, इसे शायद केजरीवाल हमेशा भूल जाते हैं । केजरीवाल का उक्त कथन भी उनके अनेकों अनेकोंनेक झूठे कथनों के समान गलत है। सिर्फ वर्ष 1998 में एक बार भगवान गणेश की फोटो वहां की करंसी में छपी थी। उसके बाद से वर्तमान तक कभी भी गणेश जी की फोटो नहीं छपी है। तथापि केजरीवाल द्वारा उक्त मांग के पीछे बताये गए कारणों के प्रतिफल/परिणाम का तो भविष्य में ही पता लगेगा। परन्तु क्या केजरीवाल ने इस बात की पूर्ण संतुष्टि व सुरक्षा की ग्यारंटी कर ली है कि इन तस्वीरों वाली करंसी का दुरुपयोग भ्रष्टाचार, कालाबाजारी, जनप्रतिनिधियों के खरीद-फरोक, नशा, वैश्यागमन आदि समस्त बुराइयों में नहीं होगा? अन्यथा इन बुराइयों के लिए उपयोग की जाने वाली करंसी अवैध मानी जाएगी? (केजरीवाल तो नए-नए अप्रचलित सुझावों को देने में माहिर हैं जो?) क्योंकि ये हमारी संस्कृति व आस्था के प्रतीक है। यदि किसी प्रतीक की फोटो व नाम के उपयोग से ही सब कुछ हरा-भरा हो जाता तो केजरीवाल जी, क्या यह बतलाने का भी कष्ट करेंगे की अहिंसा के पुजारी, प्रतीक व पर्यायवाची राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की गांधी शताब्दी वर्ष 1969 से देश की करंसी पर फोटो होने के बावजूद क्या देश अहिंसक हो गया ? सत्ता एवं शेष विपक्ष की इस नए नैरेटिव पर सियासत कई नए नए सुझावों के साथ आ गई। हद तो तब हो गई जब हिंदुत्व का नारा उठाने वाली, पहचान वाली पार्टी भाजपा को यह तक कहना पड़ गया की केजरीवाल गुजरात और हिमाचल में हो रहे विधानसभा चुनावों को दृष्टि में रखते हुए हिंदुत्व का कार्ड न खेलें। इसे ही तो नैरेटिव कहते हैं, जिसके मास्टर निसंदेह रूप से आज अरविंद केजरीवाल ही हैं। सही या गलत या अलहदा विषय है।
कुछ राजनैतिक पंडितों का यह कहना है कि केजरीवाल की कार्यशैली (कार्य क्षमता नहीं?) ‘‘मोदी की नकल’’ है। फिर चाहे वह विक्टिम कार्ड की बात हो या गुजरात मॉडल के समान दिल्ली माॅडल की बात हो, राष्ट्रवाद की या पार्टी में सर्वोच्च स्थिति व लोकप्रियता की बात हो। परन्तु वर्ष 2014 से 2022 तक पहुंचते-पहुंचते केजरीवाल नकलची न रहकर नई नई ईजाद कर (अन्वेषणकर्ता होकर)भाजपा को *नकलची* होने के लिए मजबूर कर रहे हैं। करंसी नोट पर भगवान की फोटो की मांग के प्रत्युत्तर में भाजपा व अन्य दलों के नेताओं द्वारा अन्य हस्तियों/विभूतियों की फोटो लगाने की मांग इसी का परिणाम है।
बहुत ही स्पष्ट रूप से टिप्पणी कि गई है इस साहस की जितनी तारीफ कि जाए कम ही है
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