19 वर्षीय ‘‘अनामिका’’ का अपहरण कर गैंगरेप के बाद की गई हत्या के पौने 11 साल बाद छावला हत्याकांड के तीनों आरोपियों रवि कुमार, राहुल और विनोद को जिन्हे उच्च न्यायालय ने ‘‘शिकार’’ की तलाश में ‘‘शिकारी’’ का तमगा तक दे दिया था, अधीनस्थ निचली दोनों न्यायालय; सत्र न्यायालय एवं उच्च न्यायालय द्वारा वर्ष फरवरी 2014 में फांसी की सजा दिए जाने व पुष्टि के आदेश के बावजूद संवैधानिक क्षेत्राधिकार का न्यायिक उपयोग करते हुए उच्चतम न्यायालय ने उन्हें पर्याप्त सबूत के अभाव में संदेह का लाभ देते हुए यह कहते हुए बरी कर दिया की निर्णय नैतिक दोषारोपण व भावनाओं के आधार पर नहीं व ‘अन्यत्र से’ प्रभावित हुये बिना होना चाहिए। उक्त प्रकरण मुख्य रूप से परिस्थितिजन्य साक्ष्य पर ही आधारित था, जहां श्रृंखला को पूरा होना चाहिए। माननीय न्यायाधिपतियों ने अपने बरी आदेश में यह कहा कि जघन्य अपराध में शामिल होने के बावजूद, पुलिसिया जांच व मुकदमे के दौरान बरती गई लापरवाहियों के कारण आरोपियों को निष्पक्ष ट्रायल न मिलने से छोड़़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। उच्चतम न्यायालय ने बरी करते समय कहीं भी यह स्पष्ट रूप से निर्धारित नहीं किया कि अभियुक्त गण उक्त दहलाने वाली घटना में शामिल (संलग्न) नहीं थे, तथापि उच्चतम न्यायालय ने जांच की संपूर्ण प्रक्रिया में गंभीर त्रुटियों को पाते हुए दोषियों को (बाइज्जत नहीं?) छोड़ने के आदेश दिये।
न्याय का पुराना चला आ रहा यह सर्वमान्य सिद्धांत अभी भी है, कि 99 दोषी भले ही छूट जाये, परन्तु एक भी निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए। इसलिए यह भी कहा जाता है कानून अंधा होता है। इस सिद्धांत में ही पीडि़त परिवार की व्यथा, आक्रोश, गुस्सा, लाचारी शामिल है जहां, 99 दोषी छूट जाये जिसमें ये तीनों दोषी भी शामिल हैं। यह न्यायपालिका की ‘‘दूरस्थाः पर्वताः रम्याः’’ वाली छवि को प्रस्तुत करता है। तथापि यह निर्णय ‘‘कानून जनता के लिये हैं, या जनता कानून के लिये है’’, स्थिति पर चिंतन करने के लिए विवश भी करता है।
उक्त वीभत्स घटना का तीन राज्यों से संबंध है। ‘‘अनामिका’’ मूल रूप से उत्तराखंड के पौडी गांव की रहने वाली थी, जो तत्समय दिल्ली के छावला कुतुब विहार में रह रही थी, जिनके शव की बरामदगी हरियाणा के रेवाड़ी के एक खेत से हुई।
उच्चतम न्यायालय के माननीय न्यायाधीशों ने जांच प्रक्रिया में कई गंभीर प्रश्न उठाये है। अनेक कमियों को इंगित किया है, जो प्रमुख रूप से निम्न हैं 1. लड़की का शव 3 दिन दिन तक खेत में पड़ा रहा और उस पर किसी की नजर न जाना (संदेहपूर्ण स्थिति) 2. खुले 3 दिन व रात तक पड़ी लड़की के शव से आरोपी रवि के बालों के गुच्छे की बरामदगी विश्वसनीय नहीं लगती। 3. शव की बरामदगी को लेकर हरियाणा व दिल्ली पुलिस के बयानों में अंतर। 4. आरोपियों का सैंपल भी 14-16 तारीख को लेने के बाद बिना सुरक्षा के 11 दिन रखे जाने के बाद 27 तारीख को भेजा गया। (सैंपल में हेर फेर की आशंका) 5. पीड़िता का डीएनए प्रोफाइल 48 घंटे के बाद जांच के लिये लेबोरेटरी भेजा गया। 6. जब्त गाड़ी पुलिस थाने में खड़ी रही, छेड़छाड़ हो सकती थी। 7. आरोपियों की पहचान परेड न करा कर शिनाख्त नहीं की गई। 8. कुछ गवाहों का प्रति परीक्षण (क्रॉस एग्जामिनेशन) न होना। 9. काल रिकार्डस्।
बड़ा प्रश्न यहां यह उठता है, कि क्या यह ‘‘मोहरों की उपेक्षा और कोयलों पर मुहर’’ का उदाहरण तो नहीं है? क्या ये समस्त त्रुटियां इतनी घातक (फैटल) हैं, जिनके आधार पर उच्चतम न्यायालय ने मजबूरी में अभियुक्तों को छोड़ने का आधार बनाया। जबकि प्राचीन न्याय शास्त्र के अनुसार ‘‘ज्ञात से अज्ञात की ओर जाने का ही नाम न्याय है’’, जिसे ‘‘अरुंधती दर्शनम् न्याय’’ कहा जाता है। इसी आधार पर इन्ही त्रुटियों को दो निचली अदालतों ने घातक न मानकर बेहिचक सजा देने का आदेश देकर उसकी पुष्टि की थी। शायद क्या उच्चतम न्यायालय ने ‘‘काकदंत गवेषणा: न्याय’’ का उदाहरण तो प्रस्तुत नहीं किया? यदि वास्तव में उक्त खामियां सजा के निराकरण, निर्धारण के लिये महत्वपूर्ण है, तो उच्चतम न्यायालय का दूसरा महत्वपूर्ण दायित्व व संवैधानिक न्यायिक कर्तव्य क्या यह नहीं था कि इन कमियों के लिए नियम, कानून, संविधान के अनुसार अपना कर्तव्य, दायित्व व जिम्मेदारी न निभाने के लिए उन गैर-जिम्मेदाराना जांच अनुसंधान अधिकारियों को खोजकर (पॉइंट आउट कर) उनके खिलाफ एक कड़ी टिप्पणी (स्ट्रक्चर) कर विभागीय जांच के साथ-साथ आपराधिक प्रकरण दर्ज करने के आदेश दे देते? साथ ही कानून के अनुसार बुद्धि-विवेक का उपयोग करने में असफल रहने के कारण (इस कारण तीन निर्दोषों को 11 वर्ष कारावास में अकारण रहना पड़ा), अधीनस्थ न्यायाधीशों के विरूद्ध भी आवश्यक कार्रवाई करते? इस आदेश की यह एक बहुत बड़ी कमी परिलक्षित होती दिखती है।
जब उच्चतम न्यायालय अधीनस्थ न्यायालयों की कमियों को दर्शित कर रहा है, तब तो उसके उपचार के लिए संवैधानिक व्यवस्था उच्चतम न्यायालय है। परन्तु उच्चतम न्यायालय की कमियों को दूर करने के लिए कौन सा संवैधानिक उपचार है? या हम यह मान ले कि उच्चतम न्यायालय ‘‘उच्चतम’’ (‘न्यायिक क्षेत्र का राजा’) होने के कारण उसे मानवीय त्रुटि हो ही नहीं सकती हैं? जिस प्रकार राजा कोई गलती नहीं करता है जैसा पुराने समय में माना जाता था। ऐसा बिल्कुल भी नहीं हैं! उच्चतम न्यायालय के आदेश में हुई त्रुटि को सुधारने के लिए संविधान में जहां सिर्फ रिव्यू पिटीशन और तत्पश्चात रूपा अशोक हुरा बनाम अशोक हुरा प्रकरण में निर्धारित की गई अवधारणा अनुसार अंतिम रूप से क्यूरेटिव पिटीशन दायर की जा सकती है। तथापि पुनर्विचार याचिका का दायरा बहुत ही सीमित होता है। वे ही त्रुटियां जो अभिलेख के फेस पर (पहली नजर में) स्पष्ट रूप से प्रदर्शित होती है, उन्ही के लिए पुनर्विचार याचिका दायर की जा सकती है।
यदि उच्चतम न्यायालय अभियोजन की हुई उक्त त्रुटियों के कारण निर्दोष व्यक्तियों को फांसी पर चढ़ाने वाले आदेश और फांसी की सजायाफ्ता पाये अभियुक्तों की रिहाई के आदेश में बदलने के लिए लापरवाही व चूक के लिए उन दोषी अधिकारियों के विरूद्ध उक्त आदेश में कोई कड़ी कार्रवाई करने का आदेश/निर्देश/संकेत दे देती, और वास्तविक अभियुक्तों को पकड़ने के लिए एक एसआईटी का गठन कर जांच करने का आदेश दे देती तो, निश्चित रूप से संतृप्त परिवार को कुछ सांत्वना अवश्य मिल जाती। यद्यपि ‘‘ओस चाटने से प्यास नहीं बुझती’’,। उच्चतम न्यायालय का यह दायित्व जरूर बनता है, जब एक लड़की की निर्मम तरीके से हुई हत्या व हैवानियत, बर्बरता पूर्ण, अमानवीय तरीके से हुए सामूहिक बलात्कार का कोई आरोपी दोषी नहीं है, तो कोई न कोई व्यक्ति तो दोषी अवश्य है, जिसने उक्त अमानवीय कृत्य को अंजाम दिया था, लेकिन पीडि़त पक्ष को तो ‘‘न तो ख़ुदा ही मिला न विसाले सनम’’। प्रसिद्ध रूसी उपन्यास ‘‘अपराध एवं सजा’’ में लेखक दोस्तोवस्की का यह कथन महत्वपूर्ण है ‘‘यदि आप पकड़े नहीं जाते हैं तो अपराध पुरस्कृत है’’।
उच्चतम न्यायालय के उक्त निर्णय से देश आमतौर पर स्तब्ध है व कुछ जनाक्रोश भी है। न्यायालय द्वारा अभियोजन की बतलाई गई कुछ त्रुटियों के संबंध में कुछ प्रमुख कमियां/खामियां भी मुख पर (ऑन द फेस) अवश्य दिखती है, जो कि न्याय के ‘‘दूध का दूध और पानी का पानी’’ के सिद्धान्त पर प्रश्नचिन्ह लगाती है? प्रथम कुछ गवाहों के प्रति-परीक्षण न होने को लेकर! निश्चित रूप से अभियोजन ने गवाहों को प्रस्तुत किया, तभी तो प्रति-परीक्षण की बात उत्पन्न हुई? और यदि प्रति-परीक्षण नहीं हुआ तो यह तो बचाव पक्ष की गलती है। इस महत्वपूर्ण त्रुटि (उच्चतम न्यायालय की नजर में) के लिए अधीनस्थ न्यायालयों के माननीय न्यायाधीशों की गलतियों की भर्त्सना कर चेतावनी देकर लताड़ा, क्यों नहीं गया5? बचाव पक्ष का यह दावा देखने को नहीं मिला कि सत्र न्यायाधीश ने प्रति परीक्षण का अवसर ही नहीं दिया। पहचान परेड के संबंध में भी परीक्षण न्यायालय (ट्रायल कोर्ट) में यह तथ्य आया है कि रात्रि होने के कारण उन्हें पहचानना संभव नहीं था। व्हीकल जब्ती के बाद थाने में ही तो रहती है, (क्या यहां भी सुरक्षित नहीं है?) इस पर प्रश्न चिन्ह लगाना कितना उचित है? दूसरा डीएनए टेस्ट के संबंध में अभी हाल में ही अमेरिका में 1987 के एक प्रकरण काफी समय बाद डीएनए टेस्ट अभियुक्त का होकर उस आधार पर उसे निर्दोष छोड़ा गया।
उच्चतम न्यायालय का यह कथन कि निर्णय भावनाओं के आधार पर नहीं होते है, का क्या आधार है? क्या दोनों अधीनस्थ न्यायालयों ने भावनाओं से अभिभूत होकर निर्णय दिया? सत्र न्यायालय के समक्ष चल रही सुनवाई (ट्रायल) के समय तो भावनाओं के प्रवाह की एक संभावना हो सकती है। क्योंकि घटना ताजा-तरोज थी। परन्तु उच्च न्यायालय के सामने भी वही भावनाओं का वेग हो गया? इस पर उच्चतम न्यायालय ने शायद बारीकी से विचार नहीं किया। अतः महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या उक्त त्रुटि तकनीकी है अथवा अपूरणीय (सुधारे जाने योग्य नहीं) है। इन सब प्रश्नों के निराकरण हेतु, उच्चतम न्यायालय का प्रकरण को अनुच्छेद 142 के अंतर्गत लेकर पूर्ण रूप से समस्त बिंदुओं पर विचार कर निर्णय लेकर मीडिया व पीड़ित परिवार द्वारा निर्णय के प्रति बनाई गई मलिन छवि को दूर करना चाहिए।
एकदम से यह नहीं कहा जा सकता है कि उच्चतम न्यायालय ने न्याय नहीं दिया है, सिर्फ इसलिए कि ऐसे किये गये जघन्य अपराध की फांसी की सजा प्राप्त अपराधियों को आम संवेदनाओं के विरुद्ध जाकर बरी कर दिया गया है। वीभत्स घटना व अधीनस्थ न्यायालय द्वारा दिये अधिकतम सजा प्राप्त अपराधियों सिर्फ इन दो परिस्थितियों के चश्मे से ही उच्चतम न्यायालय के निर्णय को देखना न तो तार्किक, न्यायिक होगा और न ही उच्चतम न्यायालय के साथ समानता का न्याय? तथापि प्रकरण की सम्पूर्णता के साथ विद्यमान कानूनी प्रावधानों को दृष्टिगत रखते हुए समस्त पक्ष पीडि़ता, न्यायालय व नागरिकों द्वारा देखने पर ही सही न्याय हो पायेगा। इस प्रकार ‘परी’ (एंटी रेप एक्टिविस्ट) की फाउंडर योगिता भयाना के यह कथन कि इस निर्णय के बाद न्याय प्रणाली से विश्वास उठ गया है, पर उच्चतम न्यायालय के पुनर्विचार करने से सांत्वना मिलेगी।
ऐसे प्रकरण बर्बरतापूर्वक किये जघन्य अपराधों के मामलों में एमिकस क्यूरी की दोषियों को सुधारने की संभावनाओं को दृष्टिगत करते हुए उनके प्रति सहानुभूति पूर्ण रवैया अपनाने का अनुरोध करना कितना न्यायिक है और यह कड़ी सजा के सिद्धांत के कितने विपरीत है? इसकी समीक्षा की भी क्या आवश्यकता नहीं है?
उच्चतम न्यायालय ने पीड़ित परिवार को दिये गये मुआवजे को धारा 357 द.प्र.स. के अधीन कानूनी मानकर सही ठहराया गया है। मतलब इसका यह है कि उच्चतम न्यायालय ने अभियोजन का आधा पक्ष अर्थात पीडि़ता की गैंगरेप कर हत्या की गई को सिद्ध माना है। परन्तु किसने की? अब यह प्रश्न उक्त निर्णय के बाद अनुत्तरित हो गया है? इस स्थिति के लिए न्याय व्यवस्था, जांच अनुसंधान पद्धति, अभियोजन कौन कितना-कितना जिम्मेदार है, इसका हल एक जिम्मेदार सरकार व न्यायपालिका ही निकाल सकती है।
वर्ष दिसम्बर 2012 में ही हुई ‘‘निर्भया’’ केस की राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंच पर गूंज गूंजी थी, जिस कारण आपराधिक कानून तक में संशोधन करने पड़े थे। बलात्कार की धारा 376 एवं भारतीय दंड संहिता की धारा 181,182 में भी परिवर्तन किए गए। नया पॉक्सो एक्ट कानून अस्तित्व में आया। जुवेनाइल जस्टिस बिल में भी संशोधन किए गया। इसके पूर्व हुये वर्ष 2012 के इस छावला अनामिका प्रकरण की तुलना की जाए तो ‘‘उत्तराखंड की अनामिका’’ ‘‘उत्तर प्रदेश की निर्भया’’ से पिछड़ गई। 11 वर्ष के ‘तथाकथित अन्याय’ की तुलना में 7 वर्ष में ही न्याय मिल गया।
गुरुवार, 17 नवंबर 2022
उच्चतम न्यायालय का निर्णय ‘‘न्यायिक’’ परन्तु आंशिक!
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