अभागा दिन हुआ रविवार दिनांक 30 अक्टूबर 2022 को हुई गुजरात के मोरबी जिले की मच्छु नदी पर बना 142 वर्ष पुराना केबल ब्रिज के टूटने पर हुई असामयिक हृदय विदारक दुर्घटना में 135 लोगों को अकाल, अकारण ‘‘मानव निर्मित घोर असावधानी’’ (गैर इरादतन हत्या) के कारण काल के गाल में जाना पड़ा। पांच दिनों तक चले 300 से अधिक लोगों के नदी में डूबने व निकालने के खोज व बचाव अभियान के चलते पांच-छः दिनों तक मीडिया की हेडलाइन बनी रहकर, घटना के लिए सरकार ने हाई पावर कमेटी, जांच आयोग और एसटीएफ का भी गठन कर दिया गया।
इस तरह की घटनाओं से सरकार जिम्मेदार व्यक्तियों के विरूद्ध उत्पन्न आक्रोश से निपटने के लिए आज की राजनीति का एक रटा-रटाया कथन ‘‘कानून अपना कार्य करेगा’’, दोषियों को बख्शा नहीं जायेगा और उन्हें सख्त से सख्त सजा दी जाएगी, बयान उक्त घटना के लिए जिम्मेदार प्रशासन व शासन की ओर से आया। नौ आरोपियों जिसमें ओरेवा के दो मैनेजर, दो टिकट क्लर्क के साथ दो ठेकेदार और तीन सुरक्षा गार्ड शामिल थे, को गिरफ्तार किया गया। मोरबी नगरपालिका के मुख्य अधिकारी को निलंबित कर दिया गया। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर संवेदनाएं भी व्यक्त की गई। परन्तु इस बात का कोई जवाब उच्चतम न्यायालय सहित आज तक नहीं मिला कि यदि शासन व प्रशासन की लापरवाही उक्त घटना में होगी, जो प्रथम दृष्टया दिखती भी है व एफएसएल रिपोर्ट में भी उभरी है, तो उसकी जांच कौन सी स्वतंत्र एजेंसी (अॅथॉरिटी) करेगी जो राज्य के शासन व प्रशासन के प्रभाव से एकदम मुक्त होगी? क्योंकि यहां तो ‘‘कुए में ही भांग पड़ी हुई है’’। मीडिया सहित उपरोक्त समस्त संस्थाओं ने शायद इसे ‘‘एक्ट ऑफ गॉड’’ मान लिया है, जैसा कि यह कथन ओरेवा कंपनी के मैनेजर ने दिया था, जो कि ‘‘पीडि़तों के घावों पर नमक छिड़कने के समान‘‘ है।
इसके लगभग एक पखवाड़े बाद (14 नवम्बर) को दिल्ली में एक बहुत ही वीभत्स व घिनौनी हत्या एक जाति की पीड़िता होकर दूसरे वर्ग विशेष द्वारा उसकी निर्मम हत्या कर शवों को पैंतीस टुकड़ों में टुकड़े-टुकड़े (टुकड़े-टुकड़े गैंग? एक प्रसिद्ध उक्ति हो गई है) कर दिया गया। छः महीने पूर्व 18 मई 22 को हुई घटना का पता लगने पर तब से लेकर आज तक श्रद्धा हत्याकांड ही मीडिया के हृदय पटल पर लगातार इतनी गहराई से छाया हुआ है कि अन्य पटल पर धूमिल हो गये है। इस कारण से आम मानस के माथे में सलवटे व दिलों व दिमाग में भी दहशत भरी भावना छा गई है। ऐसा लगता है कि शव के 35 टुकड़े के लिए मीडिया ने प्रत्येक दिन एक टुकड़े के लिए प्रसारण तय कर लिया है। मानों प्रत्येक दिन एक टुकड़े की स्टोरी दी जाकर उक्त घटना की याद को तरोताजा रखा जावें।
प्रश्न बड़ा साधारण परन्तु महत्वपूर्ण है कि एक सौ पैंतीस लोग आम नागरिक थे, साधारण या मध्यम वर्ग के लोग थे, यद्यपि इसमें बीजेपी सांसद मोहन भाई केदारिया के परिवार के 12 सदस्य भी शामिल थे। इसमें 5 बच्चे भी है। विभिन्न धर्मों को मानने वाले थे। हिन्दू-मुस्लिम का एंगल नहीं था। इस कारण से एक पखवाड़े बाद हुई दूसरी घटना जिसमें एक आधुनिक लड़की जो बिना शादी के अभिभावक की जानकारी में दो साल से ज्यादा समय से भी लड़ाई-झगड़े के साथ लिव-इन-रिलेशन में रह रही थी, की हत्या बर्बरतापूर्ण की जिस हत्या को मीडिया ने 135 मौतों से भी बड़ी घटना इसे बनाया। प्रेमिका द्वारा शादी के लिए जोर डालने पर प्रेमी ने ही निर्मम हत्या कर दी। शुद्ध रूप से यह एक प्यार और प्यार में धोखे का संबंध था, जहां लव जिहाद वाली कोई बात नहीं थी। बावजूद इसके, ‘‘बाल की खाल निकालते हुए‘‘ घटना को लव जिहाद बनाने की कोशिश होकर राजनीतिक रंग डालने का प्रयास किया गया। जेल ले जाते समय आफताब को हिन्दू संगठन के लोगों ने लव-जिहाद के आधार पर हमला किया। निश्चित रूप से उक्त अपराध हर हालत में अक्षम्य है और कड़ी से कड़ी सजा फास्ट टेªक कोर्ट के द्वारा अति शीघ्र दी जाकर ऐसे अपराधियों को सबक सिखाने की आवश्यकता है, ताकि भविष्य में इस तरह के दुर्दान्त कृत्य करने की हिम्मत कोई और न जुटा सके। परन्तु दोनों घटनाओं को लेकर मीडिया द्वारा बनाया गया परसेप्शन व नरेटिव कितना गैरजिम्मेदार अविवेकपूर्ण व औचित्यपूर्ण है इस पर शक की कोई गुंजाइश है क्या?
लेकिन बड़ा प्रश्न यह है कि मीडिया लगातार इसका प्रसारण करके ब्रेकिंग न्यूज बनाकर क्या सिद्ध करना चाहती है? अपने कौन से और किस दायित्व को निभाना चाहती है? इसके साथ ही एक सौ पैंतीस लोगों की हुई मृत्यु पर जोर-शोर से आवाज लगातार क्यों नहीं उठाई गई कि जिस व्यक्ति का नगरपालिका के साथ केबल ब्रिज सुधारने का अनुबंध था उसके मालिक ने बाकायदा पत्रकार वार्ता कर स्थानीय शासन-प्रशासन को जानकारी दिये बिना व बिना अनुमति के पुल को आवागमन के लिए खोल दिया उनके विरूद्ध आज तक कोई कार्रवाई नहीं हुई और ‘‘एक चुप सौ को हराये‘‘ की तजऱ् पर न ही कोई पूछताछ की गई, न एफआईआर दर्ज हुई। गिरफ्तारी का तो प्रश्न ही कहां उत्पन्न होता है? जब यह स्थिति स्पष्ट रूप से सामने आ चुकी है कि प्रथम दृष्टया मुख्य रूप से ठेकेदार ही जिम्मेदार है। उत्तर प्रदेश में हुई एक रेप की घटना का खयाल आता है जहां बलात्कार की घटना पर एक मीडिया चैनल ने मुहिम चला दी थी की जब तक एसपी को बदला नहीं जाएगा तब तक यह कार्यक्रम चलेगा। लेकिन यहां पर किसी भी मीडिया द्वारा ठेकेदार के खिलाफ कोई मुहिम इस तरह की नहीं चलाई गई। क्या इसलिए कि वह बड़ा अमीर व राजनैतिक रूप से प्रभावशाली व्यक्ति है जिसकी ‘‘ठकुरसुहाती करना‘‘ मीडिया की मजबूरी हो और जो व्यक्ति स्वर्गवासी हो गये वे इतने प्रभावशाली नहीं थे कि गुजरात की चुनावी राजनीति को प्रभावित कर सके, शायद इसीलिए न्यायालय से लेकर शासन व प्रशासन तक का उन पर उचित ध्यान नहीं गया?
शायद मीडिया भी इस बात को स्वीकार करता है कि पूरे देश को हिला देने वाली श्रद्धा हत्या प्रकरण की तुलना में मोरबी की 135 व्यक्ति की मृत्यु देश के दिलों दिमाग को तुलनात्मक रूप से झकझोर नहीं कर पाई। क्या इसलिए कि इस देश की इस तरह की असामयिक सामूहिक मौतों के अनेकानेक उदाहरण को सहने की क्षमता समस्त तंत्र सहित देश की जनता ने बना ली है।
मीडिया को यह समझना होगा की टीआरपी बढ़ा कर ‘‘चांदी काटने‘‘ का यह तरीका न तो सही और न ही प्रभावी है। परन्तु इसके लिए जनता को भी आगे आकर मीडिया की ‘‘आंखों के जाले साफ कर‘‘ इस गलतफहमी को दूर करना होगा कि इस तरह की घटनाओं की लगातार ब्राडिंग कर प्रसारण से मीडिया की टीआरपी बढ़ती है। अंततः मीडिया जो भी प्रसारण करता है, उसके पीछे दो ही उद्देश्य प्रमुख होते है। पहले अपने आकाओं (मालिकों) को जो कहीं न कहीं राजनीतिक दलों से जुड़े हुए है, और राजनीतिकों की ‘‘नाक के बाल‘‘ हैं, उनके हितों को साधना। दूसरा उन हितों को सफलतापूर्वक बढ़ाये व बनाये रखने के लिए अपनी टीआरपी को बनाए रखना। इसी को कहते हैं ‘‘कोयले की दलाली में हाथ काले करना‘‘। एनडीटीवी से इस्तीफा दिये, बल्कि यह कहना ज्यादा उचित होगा कि इस तरह की परिस्थिति निर्मित कर दी गई है कि निकालने के पहले ही इस्तीफा देना रवीश कुमार की मजबूरी हो गई। टीवी चैनल से निकाले जाने के बाद आये उनका यह कथन कि बावजूद ही महत्वपूर्ण है कि टीवी देखना बंद कर देना चाहिये। तथापि यदि टीवी चैनल में रहते हुए रवीश कुमार यह बात बोलते तो इसका प्रभाव 100 गुना होता। मेरा यह निश्चित मत है कि इस देश की अनगिनत समस्याओं का एक प्रमुख कारण हमारा इलेक्ट्रानिक मीडिया ही है और यदि उस पर प्रभावी अंकुश सरकार नहीं लगाती है, तो निश्चित मानिए देश का समग्र विकास, एकता, अखंडता, सम्मान बच नहीं पायेगा। और तब जो लोग जिम्मेदार है वे कार्रवाई न करके भी अप्रासंगिक हो जायेगें।
निश्चित रूप से दोनों धटनाएँ गंभीर हैं एवम् इनकी तुलनात्मक विवेचना उचित प्रतीत नहीं होती। ३५ टुकड़ों का एक दुखद पहलु हैं की समाज मैं समरसता नहीं हैं एवम् समाज इन धटनाओं का व्यापक विरोध सभी वर्गों के द्वारा नहीं किया जा रहा हैं। जो ऐसी धटनाओं के रोकनें के लिये अति आवश्यक है।
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