यूपीए सरकार के समय एक अनाम लेखक भारतीय राजनीति में परोसे जा रहे अपशब्द, राजनीतिक गालियों, जहरीले बोल (जिसे राजनीति का रिवाज बना दिया गया है) पर किताब लिखना चाहते थे। परन्तु उसमें वे असफल हो गये, क्योंकि तत्समय राजनैतिक वातावरण सदाचार युक्त होकर तुलनात्मक रूप से ठीक-ठाक ही था, और विपक्षी दल अटल जी और आडवाणी की भाजपा का चरित्र निश्चित रूप से वर्तनाम विद्यमान समय आज की तुलना में और कांग्रेस की तुलना में बहुत बेहतर था। अतः तत्समय विपक्ष अर्थात् भाजपा द्वारा सत्तापक्ष अर्थात् कांग्रेस के नेताओं को बहुत कम गालियां मिलने के कारण, वह किताब अधूरी ही रह गई। एनडीए सरकार आने के बाद जब गालियों का नया दौर चला (नए दौर की नई गालियां) तब उस अनाम व्यक्ति को पुनः ख्याल आया क्योंकि अब शब्दों से लेकर गालियों, जहरीले बोलों की निडर बाढ़ सी आ गई। सूप और चलनी सब बोलने लगे है।
राजनीतिक दलों के शीर्ष नेतृत्व एवं अनुशासन समितियों द्वारा अधिकांश मामलों में ऐसे बयानों को रोकने के लिए नेताओं के खिलाफ प्रायः कोई बड़ी कड़ी कार्रवाई नहीं की जाती रही है, बल्कि उसे अनसुना, अनदेखा कर दिया जाता रहा है। इस प्रकार पिछले कुछ समय से इस रिवाज में तेजी से वृद्धि होकर कांग्रेस नेताओं द्वारा दी जा रही धडाधड गालियों से पर्याप्त सामग्री संचित हो जाने से मुझे ऐसा लगता है कि निकट भविष्य में किताब लिखी जा जाकर उसका प्रकाशन भी हो जाएगा। मेरे एक दोस्त जो यह लेख लिखते समय सामने ही बैठे थे, उन्होंने टोकते हुए तपाक से कहा, भाई साहब इस विषय पर एक नहीं कई किताबें लिखी जा सकती है, क्योंकि इस समय दिल्ली में जैसे कचरे का पहाड़ (जो एक राजनैतिक मुद्दा) बन गया है, वैसे ही गालियों का पहाड़ भी बन गया है। आप उनका अर्थ समझ ही गए होंगे। उन अभद्र गालियों का उदहरण करना यहां शोभायमान नहीं होगा। कांग्रेस की वर्तमान में हालत ऐसी ही है।
हाल ही में मध्य प्रदेश कांग्रेस के नेता व पूर्व मंत्री दमोह (हटा) के राजा पटेरिया का बयान बड़ा गर्म चर्चा का विषय बना हुआ है, जिस पर मध्य-प्रदेश सरकार के गृहमंत्री मिश्रा ने तुरन्त संज्ञान लेकर एफआईआर दर्ज कराकर पुलिस ने राजा पटेरिया को गिरफ्तार भी कर लिया। इन घटनाओं से एक बड़ा गंभीर प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि क्या कांग्रेस का शीर्षस्थ नेतृत्व इतना विवेक शून्य हो गया है? क्या कांग्रेसी नेतृत्व को इतनी सी भी समझ नहीं हैं कि "अपने करनी ही पार उतरनी होती" है और इस तरह के "अधजल गगरी" रूपी बयानवीरों के बयानों से कांग्रेस को कौन सा फायदा मिल पाएगा ? यदि कांग्रेस के बयान वीरों की यह बात मान भी जाए कि उनके बयानों का अर्थ का अनर्थ निकाला जाकर उन्हें बदनाम किया जा रहा है, तब भी उनके अर्थपूर्ण बयान से कांग्रेस या बयानवीर
नेताओं को कोई फायदा होता दिखता नहीं है। क्योंकि ऐसे "थोथा चना बाजे घना वाले" बयानों की कोई भी उचित संदर्भ या औचित्य दिखाई देता नहीं है। फिर भी यदि उनके बयान के बताये गये अर्थ को ही सही मान लिया जाए तब भी क्या उससे कांग्रेस को चुनावी फायदा हो सकता है? ऐसे बेतुके निर्लज्ज बयानों से तो जनता की नजर में कांग्रेस नेताओं के प्रति सहानुभूति उत्पन्न नहीं हो सकती है। स्पष्ट है कांग्रेस नेतृत्व का ध्येय वाक्य "सूरदास खल करी कमरी चढ़े न दूजो रंग" हो चुका है और कांग्रेस में सही राजनैतिक सोच, चिंतन व मारक नीति और प्रवती का परिपक्व अनुभवी नेतृत्व ही नहीं रह गया है, तभी तो यह स्थिति हो गई है। गालियों जैसी आक्रामकता यदि कांग्रेस की नीति-रीति में होती तो सच मानिए आज कांग्रेस की दशा और दिशा ही दूसरी होती।
विवेकहीन राजनैतिक शून्यता व दिमागी खोखलेपन का बड़ा उदाहरण राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा है, जो यात्रा के प्रारंभ होने के तुरंत बाद गुजरात में होने वाले चुनाव से नहीं (लगभग नहीं के बराबर) गुजरती है। परन्तु 2023 के दिसम्बर में मध्य-प्रदेश व राजस्थान से 12 व 18 दिनों के लिए गुजर रही है। यदि हार के ड़र से राहुल गांधी के नेतृत्व पर प्रश्नचिन्ह लगने की आशंका के कारण भारत जोड़ो यात्रा गुजरात नहीं ले जायी गई तब भी 56 इंच के सीने वाले साहसी विपक्षी से मुकाबले में असफल ही ठहराया जायेगा। यह कोई धार्मिक यात्रा नहीं है? जैसा कि देश में लालाकृष्ण आडवाणी ने राम जन्मभूमि की धार्मिक यात्रा निकाली थी। तथापि उससे भी उन्हें व भाजपा को बड़ा राजनीतिक फायदा मिला था। वस्तुतः भारत जोड़ो यात्रा निसंदेह एक राजनैतिक यात्रा ही है, जो कांग्रेस की जनता के बीच गिरते जनाधार को रोककर विस्तार करने की तथा राहुल गांधी के आभा मडंल पर पड़ी निराशा के धूल को हटाकर चमकीला बनाने का एक सार्थक प्रयास है कि "बाज के बच्चे मुंडेरो पर नहीं उड़ा करते" । परंतु यात्रा के दौरान ही कांग्रेस के नेताओं को जोड़ना तो दूर, चली आ रही टूटन में वृद्धि ही होती गई। कांग्रेस की टूटन रुकी नहीं। जनता की भीड़ आ रही है। परन्तु उसका फायदा तभी मिल पाता जब कांग्रेस का संगठन मजबूत होता व जनता के मन में जगे उत्साह को कांग्रेस सही दिशा नेेतृत्व दे पाता। लेकिन दूर्भाग्यवश यह कहावत यहां चरिथार्त होती है ‘‘4 दिन की चांदनी फिर अंधेरी रात’’। यात्रा अपनी क्षणिक चमक देती हुई चल रही है। परन्तु इसका प्रभाव व लाभ कांग्रेस अपनी दिशाहीन नीति के कारण और कमजोर नेतृत्व के कारण नहीं उठा पा रही, जिसका ही यह परिणाम है कि चुनाव लड़ने के लिए ‘‘सबको परखा, हमको परखों’’ व ‘‘पार्टी विथ डिफ्ररेंश’’ का नारा गढ़ने वाली भाजपा को को अब नये नारे गढ़ने की आवश्यकता ही नहीं होती है।
वस्तुतः कांग्रेस की कार्यप्रणाली ही भाजपा को चुनाव जिताने के लिए नारा देती है। जब-जब कांग्रेस नेताओं ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को उपमा स्वरूप गाली दी, तब-तब प्रधानमंत्री की लोकप्रियता बढ़ी, यानी "ज्यो ज्यो भीगे कामरी क्यों क्यों भारी होय" । यह एक सच्चाई है। वर्ष 2014 में कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर ने चायवाला कहकर भाजपा को चाय वाला का नारा दे दिया जो अंततः सफल हो गया जिस कारण ‘‘चायवाला’’ ही प्रधानमंत्री बन गया। 2018 में राहुल गांधी ने ‘‘चौकीदार चोर है’’ के कथन को भी भाजपा ने मुद्दा बनाकर जनता की सहानुभूति बटोरी। नवीनतम उदाहरण राजा पटेरिया का प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर दिया गया बयान है, जिसे दोहराना भी उचित नहीं है। उक्त कथन के लिए अभी तक राजा पटेरिया ने गलती मानकर माफी नहीं मांगी है। बल्कि पटेरिया ने हत्या शब्द का अर्थ हार बताकर एक नई राजनीतिक शब्दावली को रचा है।
राजा पटेरिया का उक्त कथन आगामी मध्य-प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के लिए भस्मासुर साबित न हो जाये? क्योंकि कांग्रेस ने उसके अर्थ या अनर्थ को अभी तक नहीं समझा है अन्यथा उन्हें बिना किसी पूर्व सूचना के पार्टी से अभी तक तुरन्त बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता। इसके पूर्व गुजरात चुनाव के दौरान कांग्रेस के नवनिर्वाचित अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के मोदी के प्रति अपशब्दों का प्रयोग कर कांग्रेस को गुजरात चुनाव में नुकसान पहुंचाया । इसलिए "ज्यादा जोगी मठ उजाड़" की प्रतीक बन चुकी दिशाहीन कांग्रेस कार्यकर्ताओं को सक्रिय करने वाले कांग्रेस नेतृत्व की कमी के कारण मोदी व भाजपा को अगले पांच साल चुनावों में कोई खतरा नहीं है, यह साफ है।
परन्तु इसका यह मतलब कदापि नहीं है कि भाजपा इस मामले में पूरी तरह दूध की धुली है। भाजपा नेताओं के भी ‘‘बकलोल’’ कम नहीं है। तथापि कमोत्तर जहरीले व थोड़ी बहुत मर्यादा लिए होते हैं। भाजपा का लगातार चिंतन शिविर व कार्यशाला लगाने के कारण यह बेहतर स्थिति हो सकती है। अतः वास्तव में कांग्रेस को दोहरी गति चिंतन शिविर लगाने की नितांत आवश्यकता है।
बावजूद इससे बडा प्रश्न यह उठता है कि कांग्रेस हिमाचल में अच्छा परिणाम दे पायी। मतलब साफ है। कांग्रेस अपने बलबूते अथवा नेतृत्व के कारण नहीं, बल्कि वहां भाजपा सरकार के बुरी तरह से असफल रहने के कारण जनता की नजर में अलोकप्रिय हो जाने से उसे जीत मिली व चली आ रही परिपाटी का पालन हुआ। इसलिए तीसरा मजबूत वैकल्पिक विकल्प न होने पर "बिल्ली के भाग्य से छींका टूटने" के कारण कांग्रेस पुनः सरकार में आयी। यदि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और राष्ट्रीय अध्यक्ष जे पी नड्डा व केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर जो हिमाचल प्रदेश के ही है, सघन चुनावी दौरा नहीं करते तो शायद 25 सीटें भी नहीं मिल पाती। हिमाचल के चुनाव परिणाम भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व को हिमाचल के संबंध में निर्णय लेने के लिए एक सीख जरूर देती है।
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