शनिवार, 25 फ़रवरी 2023

मीडिया विशेषकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को अपने अंदर झांकने (आत्मावलोकन करने) की नितांत आवश्यकता है।

24 फरवरी को रूस व यूक्रेन के बीच प्रारंभ हुए युद्ध को 1 वर्ष पूर्ण हो गया है। यद्यपि विश्व में इससे भी अधिक लम्बे समय तक युद्ध चले हैं। उदाहरणार्थ ईरान-इराक का 8 साल चला युद्ध, इजराइल-फिलिस्तीन के बीच का युद्ध। लेकिन यह युद्ध उन युद्धों से थोड़ा अलग हटकर है। प्रथम दिन जब रूस ने यूक्रेन पर हमला किया, तब लगभग समस्त मीडिया का यही आकलन था कि रूस दो तीन दिनों में यूक्रेन पर फतह पा लेगा और यूक्रेन रशिया का एक भाग हो जायेगा। लेकिन ऐसा हो न सका। यूक्रेन के कुछ भागों, प्रदेशों में कब्जा करने के बावजूद रूस को कई जगह वापिस पीछे हटना पडा। आज 1 साल बीत जाने के बावजूद भी यूक्रेन पूरी ताकत से सहयोगी देशों खासकर नाटो देशों की सहायता से रूस से तगड़ा मुकाबला कर रहा है। जंग किसी नतीजे पर नहीं पहुंची है। न कोई अंतिम रूप से जीता है और न कोई अंतिम रूप से हारा है। युद्ध में यूक्रेन की तुलनात्मक सैन्य शक्ति कम होने के बावजूद रूस को सैनिक व सैन्य सामग्री सामान की ज्यादा हानि पहुंची है। साढ़े सात लाख करोड़ रूपये का नुकसान। आधे से ज्यादा टैंक नष्ट। लगभग 1,40,000 से अधिक रूसी सैनिकों की मृत्यु। हालांकि रूस की न्यूज वेबसाइट माॅस्को टाइम्स ने मात्र 14,709 सैनिकों के मारे जाने की पुष्टि की है। तथापि विपरीत इसके यूक्रेन का हर शहर का समस्त तंत्र ही तबाह हो गया है। वैसे वैश्विक अर्थव्यवस्था भी बुरी तरह से प्रभावित हुई है।  

देश का प्रायः इलेक्ट्रानिक मीडिया एनडीटीवी व एक आध को छोड़कर रूस-यूक्रेन युद्ध की ब्रेकिंग न्यूज बनाकर लगभग लगातार दिखाते रहे हैं। यह क्रम कम से कम 200 दिनों से भी ज्यादा दिनों तक चलता रहा। इन अवधि में मीडिया लगभग दिन-प्रतिदिन हर एक दो दिन की आड़ में विश्व युद्ध की शंख घोष करता रहा जैसे कि उसका बटन उनके हाथ में ही हो, जिसको दबाकर वे विश्व युद्ध करा देगें। परन्तु उनका आकलन का यह चलता क्रम सिर्फ टीआरपी बढ़ाने के लिए था, वस्तुस्थिति से दूर था। आज तक विश्व युद्ध की बटन दबाने की क्षमता मीडिया के पास नहीं आयी। ऐसा नहीं है कि इस पूरे युद्ध काल के दौरान विश्व युद्ध की आशंका के बादल मंडराये ही नहीं। लेकिन उसे निरंतर लगातार विश्व युद्ध का संकट देकर दिन-प्रतिदिन युद्ध को विश्व युद्ध में बदलने की रिपोर्टिंग कहीं न कहीं न केवल घातक थी, बल्कि देश हित में भी नहीं थी। मीडिया को देश हित से क्या लेना देना? मीडिया को तो प्रत्येक घटनाक्रम टीआरपी बढ़ाने का अवसर प्रदान करती है और मीडिया उसे इसी रूप में लेता है। शासन की नीतियों को अधिक बड़े वर्ग तक पहुँचाया जाये, यही तो देशहित हैै। इसके लिए ही तो टीआरपी बढ़ाई जाने का प्रयास किया जाता रहा है, ताकि अधिकतर लोगो तक चैनल की पहंुच हो सके। अतः इस ‘देश हित’ पर उंगली क्यों? 

जब हम किसी व्यक्ति या संस्था या घटना का वर्षगांठ बनाते है, तो यह वही अवसर होता है जब व्यक्ति के व्यक्ति व संस्था की कार्यप्रणाली और घटना के तथ्यों का सिंहस्थ पुनरावलोकन करके उसको इतिहास में सही जगह देने का प्रयास करते है। क्या आज के प्रथम वर्षगांठ के अवसर पर मीडिया स्वयं के गिरेबान में अंदरखाने में झांकने का आत्मावलोकन करने प्रयास करेगा? इस बात का एहसास करेगा युद्ध के संबंधित रिपोर्टिंग की कहीं न कहीं तथ्यों के परे जाकर एक्सेस है। क्योंकि मीडिया को विश्वसनीयता लम्बे समय तक बनाने के लिए करना ही पड़ेगा। अन्यथा मीडिया ऐसा नहीं करेगा तो वह अपनी विश्वसनीयता खोते जायेगा, तब उसकी टीआरपी भी कम होते जायेगी।

मंगलवार, 14 फ़रवरी 2023

अघोषित आपातकाल! कांग्रेस।

बीबीसी के भारत में दिल्ली एवं मुंबई स्थित दफ्तरों पर आयकर विभाग के सर्वेक्षण (सर्वे) (सर्च-छापा नहीं) की कार्रवाई चालू है। यद्यपि जांच दल को जांच के दौरान ही ‘‘अपराध संकेती दस्तावेज’’ पाये जाने पर उच्च अधिकारियों से अनुमति लेकर सर्वेक्षण को छापे में परिवर्तित करने का अधिकार है। नींद में लगभग सोया हुआ विपक्ष उठकर मुख्य विपक्ष दल कांग्रेस ने प्रतिक्रिया में इसे ‘‘विनाशकाले विपरीत बुद्धि’’ जताते हुए अघोषित आपातकाल कह दिया। समाजवादी पार्टी ने इसे ‘‘वैचारिक आपातकाल’’ तो टीएमसी ने ‘‘चौंकाने वाला’’ प्रतिपादित किया। घटना पर कांग्रेस की प्रतिक्रिया स्वरूप उपयोग किया गया शब्द ‘‘आपातकाल’’ से मेरे (पिताजी भी मीसाबंदी रहे) सहित समस्त मीसाबंदी परिवारों को हृदय की गहराइयों में थोड़ी-बहुत राहत जरूर पहुंची होगी। क्योंकि कांग्रेस ने सार्वजनिक रूप से बदनाम नहीं बल्कि वस्तुतः बद आपातकाल को बुरे काल के रूप में सत्य को स्वीकार किया। यही नहीं, अघोषित शब्द का उपयोग कर यह भी संदेश दिया कि कांग्रेस द्वारा कानून का दुरुपयोग कर संवैधानिक अधिकारों को निलंबित करके, गलत तरीके से कानूनी जामा पहनाकर वर्ष 1975 में आपातकाल लागू किया था। 
भाजपा ने कम से कम अधिकार क्षेत्र के बाहर जाकर कानून का दुरुपयोग कर अघोषित आपातकाल लागू नहीं किया, बल्कि कानून का प्रयोग (उपयोग?) ही किया गया है। गलत या सही! का निर्णय न्यायालय ही करेगा। क्योंकि ‘‘खग जाने खग ही की भाषा’’। स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार कांग्रेस द्वारा लगाया गया आपातकाल एक भयानक बुरा काल होने के कारण ही, बावजूद आपातकाल हटाये जाने के, तुरन्त बाद हुए लोकसभा के आम चुनाव में जेल में नवगठित जनता पार्टी से कांग्रेस को बुरी तरह से हार झेलनी पड़ी थी। पूरे देश में उत्तर भारत के हिन्दी प्रदेशों में कांग्रेस की ‘‘मिट्टी पलीद’’ हो गयी थी और मात्र 2 सीट ही कांग्रेस को प्राप्त हुई थी। इससे आप सोच सकते है कि देश के इतिहास में अमिट काले अध्याय के रूप में दर्ज आपातकाल के विरुद्ध जनता में कितना गहरा असंतोष, आक्रोश, विरोध, गुस्सा था। बावजूद तत्समय ‘‘भई गति सांप छछून्दरी केरी’’ के प्रभाव से ग्रस्त कांग्रेस को उक्त आपातकाल लगाने के लिए माफी मांगने में सालों लग गये। मार्च 2021 में पहली बार राहुल गांधी ने आपातकाल के लिए देश से माफी मांगी और कहा कि उनकी दादी इंदिरा गांधी ने इसे एक ‘‘गलती’’ (मिस्टेक) माना। परन्तु राहुल का यह कथन तथ्यों के विपरीत है, क्योंकि इंदिरा गांधी ने आपातकाल के निर्णय को अधिकारिक रूप से कभी गलत नहीं माना। हां, तत्समय की गई कार्रवाईयां व उसके दुष्परिणामों की समस्त जिम्मेदारियों (हार सहित) को स्वीकार अवश्य किया था। 
आज शायद कांग्रेस ने पहली बार किसी घटना की प्रतिक्रिया में सार्वजनिक रूप से बद आपातकाल शब्द का उपयोग करने का साहस किया। यद्यपि बीबीसी के ऊपर आयकर के छापे की तुलना आपातकाल से करना अंक गणित के अंकों के अनुसार कदापि उचित नहीं है। तथापि कांग्रेस बीजगणित से इस तुलना को जरूर उचित ठहराने का प्रयास कर सकती है। इस आयकर सर्वेक्षण से इस बात का संदेश तो अवश्य जाता है कि देश में मीडिया की स्वतंत्रता यदि वह शासन के विरुद्ध जाती है, तो वह शासकों को स्वीकार नहीं है। इसके पूर्व भारत सरकार ने बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री पर प्रतिबंध लगा कर उक्त आरोप की पुष्टि ही की है। 
याद कीजिए! आपातकाल में पूरे संवैधानिक तंत्र को ही लंगड़ा कर दिया था और समस्त मीडिया पर कड़ी सेंसरशिप लागू कर दी गई थी। अधिकांश मीडिया ने भी ‘‘जैसी बहे बयार पीठ तब तैसी दीजै’’ वाला रुख़ अपना लिया था। संविधान द्वारा प्रदत्त व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार भी निलंबित कर दिये गये थे। न्यायालयों पर भी लगाम खींचने का प्रयास किया गया था। प्रतिबद्ध न्यायपालिका (कमिटेड जुडिशरी) का खतरनाक नारा भी तभी दिया गया था। लोकसभा की 5 साल की नियत अवधि बढ़ाकर 6 वर्ष कर दी गई थी। देश भर में बेगुनाह एक लाख से ऊपर लोग बिना मुकदमों के जेलों में ठूंस दिये गये थे। इसलिए उस आपातकाल की भयावहता की तुलना कम से कम कांग्रेस को आज के छापे से तो न ही करनी करना चाहिए। चूंकि कांग्रेस ऐसा कर रही है, तो निश्चित रूप से आपातकाल के ‘‘हाथों के तोते उड़ाने वाले’’ दुष्परिणाम भुगतने से उसका दिमाग ठिकाने पर आ गया लगता है। शायद उसे अब इस बात की गहरी आशंका है कि वह स्थिति कहीं वापस नहीं आ जाए, जिससे जनता को भुगतते हुए कांग्रेस ने (मुस्कुराते हुए) देखा था, जिसकी इबारत ‘‘बालू की भीत’’ पर कांग्रेस ने ही लिखी थी। पर आपातकाल के दौरान जनता के कष्ट व उसके पश्चात आये चुनावी परिणाम के कारण कांग्रेस भी अब शायद किसी भी स्थिति में आपातकाल नहीं चाहेगी। क्योंकि ‘‘काठ की हांडी तो एक ही बार चूल्हे पर चढ़ती है’’।  
परन्तु इस समय देश में एक दूसरा खतरा जो शायद आपातकाल से भी ज्यादा नुकसानदायक हो सकता है, जिसकी आशंका बुद्धिजीवी वर्ग के मन में बलवती हो रही है। वह शीर्षस्थ (अधिकतम द्वय) स्तर पर इस बुरी तरह से सत्ता का एकीकृत केन्द्रीकरण होने का है। ‘‘लौह महिला’’ (आयरन लेडी) इंदिरा गांधी, जिन्हे दुर्गा की उपमा भी दी गई थी, के प्रधानमंत्री काल में भी सत्ता का वर्तमान समान केन्द्रीकरण एकत्रीकरण नहीं हुआ था। जहां आज अधीनस्थ सत्ता के भागीदारों में भी उक्त कारण से भय व डर पैदा हो गया है। एक-दो अपवादों को छोड़कर मंत्रियों की औकात ‘‘औकात’’ दिखाने वाली नहीं रह गई है। मुख्यमंत्रीगण मजबूत क्षत्रप नेता न होकर आंख मूंदकर आदेशों का पालन करने वाले आज्ञाकारी शिष्य हो गये हैं। इस बात पर गंभीरता से सोचने की आवश्यकता है। जहां तक मीडिया का प्रश्न है, कुछ लोग गोदी मीडिया कहकर उसमें विभाजन करने का प्रयास जरूर करते है। परन्तु वास्तव में कुछ को छोड़कर सरकार के ‘‘गले की फांस बने हुए’’ अधिकांश इलेक्ट्रानिक मीडिया को एक दो अति शक्तिशाली मीडिया हाउसेस को मालिकाना हक दिलाकर नियंत्रित किया जा रहा है। तो प्रमुख प्रिंट मीडिया भी ‘‘को नृप होउ हमहिं का हानी’’ की लाइन पर चलते हुए सत्तासीनों के पंजे की मुठ्ठी में समाया हुआ है। इन दोनों प्रकार के मीडिया को तेजी से प्रति-विरोध (काॅउटर) कोई कर रहा है, तो वह सोशल मीडिया ही रह गया है।  
देश की अखंडता, सुरक्षा व नियोजित तीव्र विकास के लिए कठोर निर्णय लेने के 56 इंच का सीना होना ही चाहिए। परन्तु उस 56 इंच सीने के दिल की धड़कन के लिए मुख्य धमनियों के साथ आस-पास की विभिन्न धमनियों का जिंदा रहकर उनके द्वारा रक्त पंहुचना भी आवश्यक है। यह मेरा भी यह व्यक्तिगत अनुभव है कि मुझे चैथी बार हार्ट अटैक आने पर प्रमुख धमनी में 90 प्रतिशत ब्लॉकेज होने के बावजूद प्रसिद्ध कार्डियोलॉजिस्ट डॉ अशोक सेठ ने अन्य कार्डियोलॉजिस्टस की राय को दरकिनार करते हुए मुझे ‘‘स्टेंट’’ नहीं लगाया, क्योंकि उनके मत में हृदय को जितनी रक्त की आवश्यकता है, वह अन्य अनेक शाखा धमनियों से पहुंच रहा है। यदि सिर्फ मुख्य धमनियों से ही रक्त जायेगा, तो फिर यदि भविष्य में कभी किसी भी दिन किसी भी कारण से मुख्य धमनी में रुकावट आ गई, तब फिर आस-पास की धमनियों चालू न होने पर रक्त हृदय में कैसे पहुंचेगा? चिंता का विषय यह है। इसलिए कांग्रेस की टिप्पणी पूर्णतः सही व संयत न होते हुए भी सत्ता के ‘‘एकै साधे सब सधे’’ की तर्ज पर एकीकृत केंद्रीकरण में छुपे खतरे को भांप कर शीर्ष नेतृत्व को स्थिति में सुधार कर लेना चाहिए, यही देश हित में है। 
अंत में भाजपा सांसद व पूर्व केंद्रीय राज्य मंत्री राज्यवर्धन सिंह की यह टिप्पणी बहुत बचकानी होकर देशहित में नहीं है, जब वे यह कहते है कि बीबीसी के विघटन के एजेंडा को देश में आगे बढ़ाने का काम कांग्रेस को सौंप दिया गया है। वे कांग्रेस पर उक्त आरोप लगाते समय यह भूल गए कि ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग काॅरपोरेशन (बीबीसी) ब्रिटिश सरकार की ‘‘माउथ पीस’’ वर्ल्‍ड सर्विस टेलीविजन संस्था है, जिसे ब्रिटिश संसद ग्रांट देकर फंडिंग करती है। वहां के अभी हाल में ही चुने गए प्रधानमंत्री भारतीय मूल के ऋषि सुनक है, जिनकी विजय की इच्छा हर भारतीय दिल में पाले हुआ था। यह तो वही बात हुई कि ‘‘आयी मौज फकीर की, दिया झोपड़ा फूंक’’। सांसद का उक्त बयान द्विपक्षीय संबंधों पर क्या प्रभाव डालेगा? इसकी कल्पना शायद बयान देने के पूर्व नहीं की गई? यदि सांसद के उक्त आरोप सही है, तो ऐसे गंभीर आरोपों के चलते देरी किए बिना बीबीसी पर तुरंत प्रतिबंध लगाने की कार्रवाई कारण क्यों नहीं प्रारंभ कर देनी चाहिए? खासकर हाल की ही इन्हीं मीडिया के इस समाचार को देखते हुए कि विदेशी मीडिया भारत में सरकार को गिराने-बैठाने में लगा रहता है। वैसे जी-20 देशों के प्रतिनिधयों की बैठक के चलते और 30 देशों के मंत्रियों की उपस्थिति में  वैश्विक एयर शो प्रदर्शन के चलते विदेशी मीडिया पर चल रही आयकर के सर्वेक्षण की कार्रवाई पर देश का मीडिया चुनावी वर्ष में कैसी प्रतिक्रिया (रिएक्ट) करता है, यह देखना दिलचस्प होगा।  

मंगलवार, 7 फ़रवरी 2023

‘‘विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में ‘लोकतंत्र’ की लोकतांत्रिक तरीके से हत्या’’?

दिल्ली देश का एकमात्र प्रदेश है, जो राज्य होने के बावजूद भी उसे अन्य राज्यों के समान पूर्ण राज्य का दर्जा व अधिकार नहीं है। बावजूद इसके दिल्ली में जो कुछ भी घटित होता है, उसकी ‘तरंग’ देश भर में चली जाती है। अरविंद केजरीवाल की ‘‘खांसी’’ से लेकर उनकी ‘‘अंगूठी के नगीने’’ उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया की तथाकथित गिरफ्तारी व स्वास्थ्य मंत्री संत्येन्द्र जैन से संबंधित सूचनाएं मीडिया में अन्य सूचनाओं की तुलना में भारी पड़ जाती रही हैं। यह बात केजरीवाल के मुख्यमंत्री बनने के बाद से हम देख रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बाद मात्र मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ही मीडिया का सबसे बढ़िया प्रयोग/उपयोग/दुरूपयोग कर रहे हैं। मीडिया उनके लिए ‘‘कलम तोड़ कर’’ रख देता है। इसीलिए दिल्ली में हो रही प्रत्येक घटनाएं चाहे वे राजनैतिक हो अथवा सामाजिक या अन्य कोई, देश की स्थिति पर उसका तुलनात्मक रूप से प्रभाव ज्यादा ही पड़ता है।
4 दिसम्बर को दिल्ली नगर निगम के हुए चुनाव को दो महीने से ज्यादा का समय व्यतीत हो गया है। तीन बार मेयर के चुनाव के लिए बैठक आहूत किये जाने के बावजूद दिल्ली राज्य चुनाव आयोग मेयर का चुनाव कराने में असफल रहा है। 250 सदस्यीय दिल्ली नगर निगम में हुए चुनाव में भाजपा की 104 सीटों तुलना में आप को 134 सीटें प्राप्त होकर स्पष्ट रूप से बहुमत प्राप्त होने के बावजूद मेयर का चुनाव न हो पाना क्या लोकतंत्र के खतरे की घंटी को नहीं दर्शाता है? लोकतंत्र के पक्षधर, भागीदार व उसे मजबूत बनाये रखने वाला प्रत्येक व्यक्ति तथा ‘तंत्र’ के लिए यह एक बेहद चिंतनीय विषय होना चाहिए। क्योंकि यह तो एक नया ‘‘प्रतीक’’ है। परन्तु कही ऐसा न हो कि एक दिन यह ‘‘प्रतीक’’ नगर निगम से आगे बढ़कर विधानसभा व लोकसभा में भी बनकर परिपाटी न बन जाए? तब शायद स्थिति को संभालना मुश्किल हो जाएगा।
भाजपा का यह आरोप हास्यास्पद सा लगता है कि आप पार्टी चुनावी हार के डर से (स्पष्ट रूप से बहुमत प्राप्त होने के बावजूद) हुड़दंग लीला कर रही है और चुनाव नहीं होने दे रही है। यह आरोप उस स्थिति में है जब अभी तक एक भी पार्षद ने पार्टी को नहीं छोड़ा है। ‘‘अल्पमत’’ में होने के बावजूद भाजपा सांसद हंसराज हंस व पार्टी के कई नेता व पदाधिकारी यह दावा कर रहे है कि भले ही ‘‘अंगारों पर पैर रखकर बने’’ ‘‘मेयर भाजपा’’ का ही होगा। जबकि आप पार्टी भी यही आरोप भाजपा पर लगा रही है। मामला उच्चतम न्यायालय में भी गया। बावजूद इसके वह जनता जिसने अपनी समस्याओं के हल के लिए जिन प्रतिनिधियों को चुनकर भेजा है, उनसे वह आस लगाई हुई है। वह ‘‘टुकुर-टुकुर तमाशा ए अहले जम्हूरियत’’ देख रही है। परन्तु उस आस की अवधि मेयर के पद पर निर्वाचित व्यक्ति के पदस्थ न होकर एक-एक दिन कम हो रही है। जब लोकतंत्र में ‘‘संघे शक्तिः कलौयुगे’’ को नकारते हुए चुने हुए व्यक्ति को सत्ता का स्थानांतरण आसानी से नहीं हो पा रहा है, तब निश्चित रूप से यह स्थिति लोकतंत्र के लिए कोई भी जिम्मेदार संस्था, तंत्र के लिए गहन चिंता का विषय बनना चाहिए। ध्यान आकर्षित करने के बावजूद उच्चतम न्यायालय भी स्थिति पर ध्यान नहीं दे पा रहा है? फौजी शासन या राजशाही से लोकतांत्रिक तंत्र को सत्ता के हस्तांतरण में आने वाली रुकावटों को तो समझा जा सकता है। परन्तु दिल्ली में वह स्थिति नहीं है। इससे यह समझा जा सकता है कि दिल्ली प्रदेश जो अपने आप में पूर्ण अधिकार प्राप्त स्वतंत्र प्रदेश नहीं है, वहां उपराज्यपाल केन्द्र सरकार के प्रतिनिधि के रूप में आरूढ़ है, जो संवैधानिक रूप से ‘‘बहुत कुछ’’ सत्ता के केन्द्र बिंदु है। तब ऐसी स्थिति में अरविंद केजरीवाल की दिल्ली सरकार के अधीन नगर निगम आगे कैसे स्थानीय प्रशासन चला पायेगा, यह एक बड़ा गंभीर विषय है। ‘कष्टः खलु पराश्रयः।
देश के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ है, न ही ऐसा देखने को मिला, जैसा अभी दिल्ली में घटित हो रहा है। यह जरूर हुआ है कि हारी वाली पार्टी ने चुनाव जीतने वाली बहुमत प्राप्त पार्टी को तोड़कर, ‘‘लोकतंत्र की आंखों में धूल झोंक कर’’ यदा-कदा सत्ता की कुर्सी पर जरूर पहंुचने में सफल हुई है। परन्तु यह सब कुछ तय निर्वाचन तिथि के पूर्व ही तय हो जाता रहा था। परन्तु यहां पर तो तीन बार बैठक बुलाने के बावजूद आवश्यक ‘तोड़फोड़’ न हो पाने के कारण अभी तक निर्वाचन नहीं हो पाया है। यदि आप के इस आरोप को मान लिया जाये कि भाजपा तोडफोड करने के लिए समय प्राप्ति के लिए किसी न किसी बहाने चुनाव आगे बढ़ाकर चुनावी प्रक्रिया को अंतिम रूप देने में रूकावट पैदा कर रही है। तब ऐसी स्थिति में इसका तो अर्थ यही निकलता है कि राजनीति में नैतिकता ‘‘गूलर का फूल’’ हो गई है और दिल्ली नगर निगम में आप पार्टी में तोड़फोड़ होकर भाजपा का मेयर बनने की स्थिति में ही चुनाव हो पायेगा। यदि वास्तव में ऐसा होगा, तो वह दिन लोकतंत्र का ‘काला दिन’ के रूप में ‘हत्यारा दिन’ दर्ज होगा। जारी विद्यमान स्थिति में दिल्ली में दिन प्रतिदिन लोकतंत्र की हत्या का क्रम कब तक चलता रहेगा व चलाया जायेगा? अंततः दिल्ली नगर निगम के मेयर के चुनाव शांतिपूर्ण तरीके से संवैधानिक लोकतंात्रिक रूप से नहीं हो पा रहे है, तो आखिर इसके लिए जिम्मेदार कौन, यह एक बड़ा प्रश्न है? जिसका उत्तर ढुढा जाना चाहिए ताकि भविष्य में ऐसी स्थिति की पुर्नवृत्ति न हो।
इस देश में किसी भी उत्पन्न समस्या के हल के लिए, कोई आस्कमिक घटना, दुर्घटना, दंगा-फसाद, गोली कांड अथवा कानून व्यवस्था की स्थिति बिगड़ जाने पर जांच आयोग की स्थापना एक सामान्य मांग हो गई है जो एसटीएफ से लेकर मजिस्ट्रिेयल जांच, न्यायिक जांच, जांच कमेटी, जांच कमीशन आदि-आदि की होती रही है। क्या दिल्ली में मेयर के चुनाव तीन बार न होने की कोई जांच कराई जाएगी? निश्चित रूप से केन्द्रीय सरकार, उपराज्यपाल व मुख्यमंत्री जांच नहीं कराएंगे। तब मजबूरन उच्चतम न्यायालय को ही आगे आकर लोकतंत्र की हत्या करने की जांच के लिए अपने संवैधानिक विशेषाधिकार का प्रयोग करना ही चाहिए। 

शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2023

क्या यह बजट सिर्फ 1%(मध्यमवर्ग) लोगों के लिए है?

‘‘आम जनता’’ के लिए ‘‘आम’’ बजट! परन्तु ‘‘आम’’ (व्यक्ति) गायब?

वित्त मंत्री श्रीमती निर्मला सीतारमण संसद में पांचवी बार व अमृत काल का प्रथम बजट पेश करते हुए जब वह आयकर की छूट के बाबत घोषणा कर रही थी, तब उन्होंने यह कहा कि मध्यमवर्ग (मीडियम क्लास) के लिए वह विशेष छूट लेकर आई हैं। बजट के पूर्व भी उन्होंने कहा था कि वह मिडिल क्लास की ही हैं और हमारी सरकार ने इन मिडिल क्लास पर कोई टैक्स नहीं लगाया है। मतलब यह कि इस बार ‘‘रेवडी अपने अपनों‘‘ के नाम क्योंकि वह जनसंघ से लेकर भाजपा तक के सफर में ‘‘मिडिल क्लास ही पार्टी की मूल पहचान रही है’’। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी एक वीडियो के माध्यम से बजट पर जो प्रतिक्रिया दी है, उसमें कहा है कि मध्यमवर्ग एक बड़ी ताकत है, उन्हें सशक्त बनाने के लिए बीते वर्षो में अनेक निर्णय लिए गए है। ‘‘हमेशा मध्यम वर्ग के साथ खड़े रहने वाली हमारी सरकार ने मध्यम वर्ग को बड़ी राहत प्रदान की है। बजट पर जो सामान्य प्रतिक्रिया भी देखने को मिल रही है, उसमें भी ‘‘मुंडे  मुंडे मतिर्भिनाः’’ के विपरीत यही कहा जा रहा है कि मिडिल क्लास के लिए बजट में महत्वपूर्ण पर्याप्त (सब्सटेंशियल) राहत प्रदान की गई है। इसका प्रमुख कारण आयकर की कर योग्य आय की सीमा रुपए 500000 से बढ़ाकर रूपए 700000 कर देना है। 

सामान्य बोलचाल में वार्षिक वित्तीय विधेयक (बजट) को ‘‘आम बजट’’ कहते हैं। परन्तु ऐसा लगता है कि इस बार चुनावी वर्ष में बजट में से आम को हटा ही दिया गया है और पूरा का पूरा वृतांत (नरेशन) मध्यम वर्ग पर केंद्रित हो गया है, जो देश की जनसंख्या का लगभग 25 से 30% है। सरचार्ज में की गई कमी भी उच्च वर्ग के करदाताओं व कंपनियों को राहत प्रदान करती है, जो भी आम आदमी के बजाय उच्च मध्यम व उच्च वर्ग को ही अंततः नरेट करती है। शायद आज इसका कारण यह हो सकता है कि वित्त मंत्री की नजर में अन्य सभी वर्गों को घोषणा पत्र व चुनावी दृष्टि से जितना देना चाहिए था, वह पूर्व में दिया जा चुका है। उदाहरणार्थ कोरोना काल से ही लगभग 80 करोड़ गरीब जनता को मुफ्त अनाज दिया जा रहा है। चूंकि देश की राजनीति का नरेटिव मध्यमवर्ग तय करता है, अतः मध्यम वर्ग की पहचान की नवीनीकरण के लिए चुनावी वर्ष में उसका ख्याल रखना ज्यादा जरूरी है। आखिर भारत में मध्यम वर्ग के अंतर्गत आते कौन हैं? इसकी भी थोड़ी सी विवेचना कर ले।

भारत में ‘‘मध्यम वर्ग’’ वह कहलाता है, जिसके पास उच्च वर्ग समान समस्त सुविधाएं नहीं है, साथ ही वह निम्न वर्ग समान समस्त सुविधाओं से वंचित न हो। वैसे मध्यम वर्ग को भी 3 क्लास में बांटा जा सकता है। उच्च मध्यम वर्ग, मध्यम वर्ग और निम्न मध्यम वर्ग। ‘‘ज्यों-ज्यों भीजे कामरी, त्यों-त्यों भारी होय’’ की उक्ति को चरितार्थ करती हुई तेजी से बढ़ती भारत की आर्थिक स्थिति के मद्देनजर भारत में मध्यम वर्ग का आकार तेजी से बढ़ रहा है जो वर्ष 2009 में 3% थी वह वर्तमान में 2022 में 30% हो गई है। 2015 में विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 26.40 करोड़ मध्यमवर्ग था। मध्यम वर्ग देश की अर्जित आय में 50% खर्च में 68% में और बचत में 56% का प्रतिनिधित्व करता है। इस वर्ग में रुपए 500000 से लेकर 300000 की आय तक के लोगों को वर्गीकृत किया गया है। ‘‘प्राइस रिपोर्ट’’ के अनुसार भारत में 2047 तक मध्य वर्ग के 63% तक हो जाने की संभावना है।

136 करोड़ की जनसंख्या वाले देश में आयकरदाता मात्र 5 प्रतिशत (8 करोड़ के लगभग) है। इनमें से भी कर देने वालों की संख्या मात्र 1% से कुछ ही ज्यादा है। तब क्या बजट देखने का नजरिया मात्र 1%लोगों तक ही सीमित नहीं रह जाता है? शायद इसी स्थापित नजरिया में ही अन्य वर्गों के हितों के लिए कुछ करने का महत्वपूर्ण प्रश्न छिपा हुआ है? वैसे भी ‘‘अपने खोल में मस्त’’ आम जनता जो करदाता भी नहीं है, बजट को आयकर की छूट की दृष्टि से और बहुत हुआ तो रेलवे और पेट्रोल उत्पाद पर करारोपण की दृष्टि से ही देखती है। शेष बजट से उसका कोई सरोकार नहीं रहता है। क्योंकि उसे पता है कि ‘‘भेड़ जहाँ जायेगी, वहीं मुडे़गी’’। पेट्रोल उत्पाद तो आजकल बजट का विषय ही नहीं रह गया क्योंकि सरकार का तकनीकी रूपए से यह कहना होता है कि वह बाजार तय करता है। और रेलवे बजट जब से समाप्त हुआ है, तब से इस बजट में रेलवे के संबंध में सिवाय इस बात की घोषणा की 33% कैपिटल इन्वेस्टमेंट बढ़ाया है, और कुछ नहीं कहा गया है।

वैसे बजट को मापने और आकलन करने का सबसे महत्वपूर्ण पैरामीटर स्टॉक एक्सचेंज का सूचकांक होता है जो बजट पेश करते ही 1000 से अधिक उच्च स्तर पर पहुंच कर अंततः  848 अंक का उछाल सूचकांक में पाया गया। इससे निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि भारत ही नहीं, विश्व के आर्थिक जगत ने इस बजट का आगे बढ़कर स्वागत कर रिस्पांस किया है। यह स्थिति तब और महत्वपूर्ण हो जाती है, जब ‘‘हिंडनबर्ग’’ की रिपोर्ट आने के बाद अदाणी ग्रुप के शेयरों में भारी गिरावट पाई गई और लगभग 4 लाख करोड़ से अधिक का नुकसान पहुंचा, जिस कारण से शेयर मार्केट में एक ड़र और मंदी की आशंका के बादल छाए हुए थे।

वित्त मंत्री का यह कथन समझ से परे है, जब वे यह दावा करती है कि प्रति व्यक्ति आय वर्ष 2014 की तुलना में आज दोगुना से ज्यादा हो गई है? यदि यह बात सही है तो क्या ‘‘ओंस चाट कर प्यास बुझाने वाले’’ किसानों की भी आय दोगुना हो गई है, जिसका संकल्प भाजपा ने अपने घोषणा पत्र में किया था। प्रति व्यक्ति में क्या किसान शामिल नहीं है? और यदि ऐसा है, तब सरकार ने सदन में किसानों के प्रति यह उपलब्धि बताकर इसके लिए तालियां क्यों नहीं बजवाई?

अंत में जहां तक बजट को चुनावी बजट बताकर आलोचना करने का प्रयास है, निश्चित रूप से सरकार को जो बजट होता है, वह पार्टी के घोषणा पत्र का एक आईना होता है। इसलिए यदि बजट में घोषणापत्र के अनुरूप बजट प्रावधान जनहित और विभिन्न योजनाओं के लिए किए जाते हैं तो उसे इस आधार पर गलत ठहराना की यह चुनावी लॉलीपॉप है, कैसे उचित कहा जा सकता है? वास्तव में यह तो आलोचकों के आलोचना करने की विवेक पर ही प्रश्नचिन्ह लगाना है? तथापि कुछ जोशीले समर्थक ‘‘आम’’ को गायब करने के कथन को ‘‘आम के आम और गुठलियों के दाम’’ भी निरूपित कर सकते हैं।


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