बुधवार, 29 मार्च 2023

राहुल गांधी को अवमानना के लिए सजा व अयोग्यता का आदेश! कितना न्यायिक, सही! परिणाम।

सामान्य रूप से निचली अदालत, मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी के निर्णय की फेस वैल्यू ही ली जानी चाहिए। अर्थात एक सामान्य (रूटीन) फौजदारी निर्णय मानकर अपील प्रावधानों का उपयोग कर सामना करना चाहिए। परन्तु मामला जब देश के विपक्ष के सबसे बड़े नेता वीवीआईपी राहुल गांधी का हो। जब विपक्ष के नेताओं पर हो रहे छापों को लेकर विभिन्न जॉच एजेंसियों के दुरूपयोग के आरोप सरकार पर लगातार लग रहे हों, जब न्यायपालिका को प्रभावित तथा धमकाने के आरोप कानून मंत्री के स्तर पर लग रहें है। तब इन परिस्थितियों में राहुल गांधी पर आए ऐसे निर्णय की परत दर परत उखाड़कर, नुक्ताचीनी कानूनविद, समालोचकों द्वारा की जाना अस्वाभाविक नहीं है। खासकर आज जब देश की राजनीति में एक्शन (कार्य, क्रिया) की बजाय, नैरेेटिव व परसेप्शन (अनूभूति) का महत्व ज्यादा हो गया है, तब न्यायालय के निर्णय की क्रोनोलॉजी (कालक्रम) को भी समझने की आवश्यकता है।
सर्वप्रथम राहुल गांधी की सजा व तदुपरांत अयोग्यता के इस प्रकरण में एक बड़ी महत्वपूर्ण परन्तु दिलचस्प तथ्य से सब जनों को अवश्य अवगत होना चाहिए। देखिए की किस तरह ‘‘भाग्य (दुर्भाग्य?) दो कदम आगे चलता है’’ जिस कानून के तहत राहुल गांधी की सदस्यता गई है, यदि यूपीए सरकार के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा लाये गये अध्यादेश को राहुल गांधी विरोध स्वरूप फाड़ते नहीं तो, कुछ शर्तो के तहत अदालत में दोषी पाये जाने के बावजूद उन्हें आज अयोग्य करार नहीं किया जा सकता था। परन्तु कहते हैं ना कि ‘‘डाल का चूका बंदर और बात का चूका आदमी सम्हल नहीं पाता’’ एक युवा एंग्रीमैन (गुस्सैल) छवि बनाने के चक्कर में राहुल गांधी जो तत्समय पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष के महत्वपूर्ण पद पर थे, तब उन्होंने दागी सांसदों और विधायकों पर लाए गए स्वयं की यूपीए सरकार के अध्यादेश को बेतुका करार देते हुए कहा था कि इसे फाड़कर फेंक देना चाहिए। तब शायद राहुल गांधी यह भूल गये थे कि गर्म लोहे ‘‘एंग्रीमैन’’ को ठंडा लोहा काट देता है। उनका कहना था कि इस देश में लोग अगर वास्तव में भ्रष्टाचार से लड़ना चाहते हैं, तो हम ऐसे छोटे समझौते नहीं कर सकते हैं। राहुल गांधी का कहना था जब हम एक छोटा समझौता करते हैं, तो हम हर तरह के समझौते करने लगते हैं। तब शायद राहुल गांधी यह नहीं जानते होंगे कि राजनीति की गंदगी को हटाने के लिए चले स्वच्छता अभियान में खुद की भी आहुति हो जाएगी। तथापि आहुति देना तो चाहेंगे नहीं वेे? तब राहुल की अध्यादेश फाड़ने के तरीके को भाजपा व बुद्धिजीवी वर्ग ने बचपना व बचकानी हरकत बतलाया था। जिस दोषारोपण को आज भी भाजपा आवश्यकता पड़ने पर समय-समय पर दोहराती है। तथापि राहुल गांधी की उक्त अशालीनता तरीके से की गई कार्रवाई के पीछे व्यक्त सराहनीय मंशा को विपक्ष द्वारा सराहा नहीं गया था। और वही हुआ ‘‘न ख़ुदा ही मिला न विसाले सनम’’। यह भी एक संयोग ही है कि राहुल गांधी की दादी इंदिरा गांधी की भी लोकसभा सदस्यता समाप्त की गई थी। यद्यपि वह किसी सजा होने के कारण नहीं बल्कि विशेषाधिकार समिति ने उनकी सदस्यता समाप्त होने की सिफारिश की थी।
इस अप्रत्याशित घटना से कांग्रेसियों का खून रेंगने की बजाए दौड़ने लगा है, जिससे भाजपा के माथे पर चिंता की लकीर बन रही प्रतीत होती है। तभी तो राजनीति का स्तर क्या इतना गिर सकता है कि विश्व की सबसे बड़ी शक्तिशाली पार्टी भाजपा को राजनीतिक दृष्टि से बेहद कमजोर विपक्ष कांग्रेस पार्टी से सामना करने के लिए अचानक ओबीसी कार्ड खेलना पड़ जाए? राहुल गांधी की लोकसभा सदस्यता समाप्त होने के बाद कांग्रेस की संसद की लड़ाई सड़क पर ले जाने की योजना से निपटने के लिए भाजपा ने अचानक एक स्वर से राहुल गांधी के अपमानजनक कथन कोे संपूर्ण पिछड़ा वर्ग, ओबीसी के अपमान से जोड़ दिया और यह कहा कि 4 वर्ष पूर्व अपमानजनक कथन करने के तत्समय यह मुद्दा इसलिए नहीं उठाया गया था क्योंकि तब वह आरोप मात्र था, जो आज न्यायालय ने सिद्ध पाया है। यह दलील ‘‘भरम भारी, पिटारा खाली’’ के सिवा और कुछ भी नहीं है। मोदी जाति के हुए अपमान की बात कहने वाले शायद यह भूल गये कि राहुल गांधी ने जिन मोदी का नाम लिया है उनमें से दो मोदी तो ओबीसी ही नहीं है, एक बनिया है तो एक जैनी है, जबकि न्यायालय में प्रस्तुत परिवाद में शिकायतकर्ता स्वयं को ओबीसी नहीं कह रहे हैं। इसी को कहते हैं ‘‘पानी पीकर जात पूछना’’।
भाजपा प्रवक्ता प्रेम शुक्ला यह कहते हैं कि दोषसिद्धि के पूर्व हमने पहले इसलिए यह मुद्दा नहीं उठाया क्योंकि हम बेबुनियाद आरोप नहीं लगाते हैं, मुद्दे नहीं उठाते हैं। दोष सिद्धि के बाद ही ओबीसी के हुए अपमान के मुद्दे को उठाया गया है। तब वे उसी सांस में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में बहस में बेशर्मी से बार.बार यह कहते रहे की राहुल गांधी 420, सोनिया गांधी 420, रॉबर्ट वाड्रा 420 हैं। तब क्या प्रेम शुक्ला यह भूल जाते है कि वे सब व्यक्ति धारा 420 के अंतर्गत अभी तक दोषी नहीं ठहराए गए हैं। ‘‘भैंस अपना रंग न देखें छतरी देख भड़के’’। मतलब साफ है! यदि 4 साल पहले राहुल गांधी के बयान से ओबीसी समाज का तब अपमान नहीं हुआ था और न ही ऐसा कोई कथन शिकायतकर्ता विधायक पूर्णेश मोदी (अपनी शिकायत में किया था) से लेकर अन्य किसी भाजपा नेता ने तत्समय कहा। तब आज भाजपा कांग्रेस की विक्टिम कार्ड (पीड़ित, सहानुभूति) से लड़ने के लिए स्वयं को क्यों कमजोर मानकर ओबीसी कार्ड खेलना चाहती है? भाजपा क्यों ‘‘हरि भजन करते करते कपास ओटने लगी’’? क्या भाजपा भी कांग्रेस के समान जाति की राजनीति करने के लिए चुनावी वर्ष में मजबूर हो गई है, इसका जवाब नहीं हल खोजना होगा।
राहुल गांधी के संसदीय क्षेत्र वायनाड के रिक्त घोषित होने से उत्पन्न इस गर्म राजनीतिक चर्चा के दौर में ‘‘मछली खा के बगुला ध्यान’’ के उदाहरणस्वरूप यह कहा जा रहा है कि राहुल गांधी से तो ज्यादा बुरे शब्दों व कथनों (का उल्लेख करने की आवश्यकता इसलिए नहीं है कि यह सब पब्लिक डोमेन (सार्वजनिक कार्यक्षेत्र) में है), का उपयोग प्रधानमंत्री से लेकर भाजपा के अनेक नेताओं ने अनेकानेक अवसरों पर किए हैं। जब उन मामलों में कोई कार्रवाई नहीं हुई है, तो फिर उन बयानों से हल्के बयान के लिए सिर्फ राहुल गांधी को ही निशाना क्यों बनाया गया है, यें कथन कहने वाले इस तथ्य को भूल जाते हैं कि मानहानि की कार्रवाई करने के लिए सीजेएम कोर्ट में धारा 499 भादसा सहपठित धारा 200 दंप्रसं के तहत परिवाद प्रस्तुत करना होता है, तभी कार्रवाई हो सकती है। क्या किसी भी व्यक्ति ने अन्य दूसरे नेताओं द्वारा कहे गये मानहानिकारक कथनों के लिए कोर्ट में कार्रवाई की, जो आज रेणुका चैधरी नरेन्द्र मोदी द्वारा संसद में उन्हे शूर्पणखा कहे जाने के लिए कार्रवाई करने की बात कह रही हैं। तब आपको किसने कार्रवाई करने से रोका था? खुद के लैचेस (त्रुटि, लापरवाही) के लिए दूसरों को जिम्मेदार ठहराना कहां तक उचित है, इस कमी का भुगतान तो आपको ही करना होगा।
आइए! अब मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी की अवमानना की कार्रवाई की प्रारंभ से लेकर निर्णय तक की संपूर्ण क्रोनोलॉजी को देखें तो उक्त निर्णय पर शंका के संकट के बादल उठना स्वाभाविक ही है। तो पहले मुकदमा न्यायालय में 2 साल तक उच्च न्यायालय के स्थगन आदेश के कारण स्थगित रहता है। फिर अचानक राहुल गांधी के अदाणी मुद्दे पर लोकसभा के बयान देने पर सीजेएम कोर्ट नोटिस देकर लगभग 15 दिन में ही कार्रवाई पूरी कर निर्णय दे देते हैं। जहां सामान्यता महीनों ऐसे मुकदमों में सुनवाई नहीं हो पाती है।
         यह बेबसी बेसबब नहीं ग़ालिब,
         कुछ लोग तो है जिसकी पर्दादारी है।
फिर अनापेक्षित रूप से प्रावधित अधिकतम 2 वर्ष की सजा दे दी जाती है, मानहानि के मामले में कभी भी अधिकतम सजा शायद सुनाई नहीं गई है। सामान्यतः फाइन या न्यायालय उठने तक की सजा होती है। तत्पश्चात उसी दिन शाम को लोकसभा स्पीकर की प्रधानमंत्री व मंत्री के साथ हुई मुलाकात के बाद दूसरे दिन स्पीकर का अयोग्यता का आदेश अधिसूचित हो जाता है। ये सब परिस्थितियाँ शंकाओं को जन्म अवश्य देती है, जो कहीं न कहीं न्याय के उस सिद्धांत को अधिक्रमित करती है कि न्याय सिर्फ होना ही नहीं चाहिए, बल्कि न्याय होते हुए दिखना भी चाहिए।
आईए! अब राहुल गांधी उनके भारी-भरकम वकीलों की फौज और कांग्रेस पार्टी की मुकदमा लड़ने की गलतियों की घटनाक्रम (क्रोनोलॉजी) व डिजाइन को भी देख ले। जब भादसं की धारा 499 सहपठित धारा 206 दप्रसं के अंतर्गत दाखिल परिवाद पर मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी ने राहुल गांधी को नोटिस जारी किया, तब उच्च न्यायालय में रिवीजन पेश कर उसे चुनौती क्यों नहीं दी गई? प्रथम सबसे बड़ी गलती यही थी। फिर शिकायतकर्ता के आवेदन पर न्यायालय द्वारा राहुल गांधी की उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए जारी सम्मन की वैधता को ऊपरी अदालत में क्यों नहीं चुनौती दी गई? फिर जिस दिन न्यायालय ने आदेश दिया तब राहुल गांधी की वकीलों की फौज हर स्थिति के लिए तैयार क्यों नहीं थी? मतलब निर्णय की प्रमाणित प्राप्ति के लिए आवेदन से लेकर ट्रायल कोर्ट व सत्र न्यायाधीश में सजा को स्थगित करने के लिए आवेदन तुरंत क्यों नहीं पेश किए गए (सलमान खान प्रकरण को याद कर लीजिए)। और फिर अभी तक कोई अपील सत्र न्यायाधीश, हाईकोर्ट अथवा उच्चतम न्यायालय में क्यों नहीं की गई? एक बात और जब अभिषेक सिंघवी मीडिया से मुखातिब होते हुए निर्णय की क्रोनोलॉजी बता रहे थे तब उन्होंने यह क्यों नहीं बताया  कि उक्त पूरी क्रोनोलॉजी क्या सिर्फ अंतिम दिन की ही थी? नहीं तो फिर आपने समय रहते  स्थानांतरण याचिका क्यों नहीं पेश की? इन समस्त घोर लापरवाहियो से निकल कर एक प्रश्न उभर कर आता है कि क्या राहुल गांधी जमानत नहीं चाहते थे? जैसा कि सोशल मीडिया में कुछ लोगों द्वारा दावा किया जा रहा है। क्या राहुल गांधी जेल जाकर राष्ट्रव्यापी आंदोलन कर अनापेक्षित रूप से राजनीति की दिशा को विपरीत दिशा में मोड़ देना चाहते हैं? यदि वास्तव में राहुल गांधी और कांग्रेस ने ऐसी नीति की राजनीति बनाई है, तब यह देखना बड़ा दिलचस्प होगा कि इस चक्रव्यूह में राहुल गांधी फंसे हैं या भाजपा के स्वर्णिम नीतिकार?

सोमवार, 27 मार्च 2023

‘‘इतिहास दोहराया’’ जाएगा अथवा राहुल गांधी ‘‘इतिहास’’ हो जाएंगे?

जन-प्रतिनिधित्व कानून की धारा 8(3) एवं मानहानि की धारा 499! एक विश्लेषण!

मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी एच एच वर्मा ने राहुल गांधी को धारा 499 के अंतर्गत ‘‘अवमानना’’ का दोषी पाया जाकर धारा 500 के अंतर्गत 2 साल की प्रावधित अधिकतम सजा का ऐतिहासिक फैसला दिया। तदोपरान्त लोकसभा सचिवालय द्वारा इस दोष सिद्धि आदेश से उत्पन्न कार्रवाई मात्र 24 घंटे के भीतर की जाकर राहुल गांधी की लोकसभा सदस्यता से अयोग्यता की जारी अधिसूचना से पूरे देश में खलबली सी मच गई है। ऐसा नहीं है की यह पहली बार हुआ है, जब किसी संसद सदस्य या विधायक को कोई अपराध में 2 वर्ष या अधिक सजा होने पर उनकी सदस्यता समाप्त की गई हो। विपरीत इसके इस लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951, के अंतर्गत अभी तक 32 लोकसभा या विधानसभा सदस्यों को सदस्यता से अयोग्य ठहराया जा कर उनके स्थान रिक्त घोषित किए जा चुके हैं। बावजूद इस स्वीकृत तथ्य के अयोग्यता के इस आदेश से देशव्यापी राजनीतिक हलचल पैदा हो रही है, तो उसके दो ही कारण है। 

प्रथम राहुल गांधी का व्यक्तित्व देश के विपक्ष के सबसे बड़े नेता होने से और गांधी परिवार की चार पीढ़ी मोतीलाल नेहरू से लेकर राजीव गांधी तक जिन्होंने देश में शासन किया या एक छत्र नेतृत्व किया है, उस पीढ़ी के वर्तमान में सबसे महत्वपूर्ण सदस्य है। यानी कि ‘‘धुली धुलाई भेड़ कीचड़ में गिर पड़ी है’’। दूसरा महत्वपूर्ण कारण देश की संसदीय इतिहास में पहली बार अवमानना के मामले में 2 साल की सजा सुनाई जाने पर सदस्य को ‘अयोग्य’ घोषित किया गया। 

पूर्व के इस तरह के समस्त अयोग्यता के मामलों में अधिकांशतः भारतीय दंड संहिता के गंभीर आपराधिक मामले अथवा भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम के अधीन 2 वर्ष या उससे अधिक की सजा होने के कारण सदस्यता समाप्त की गई थी। इसलिए राहुल गांधी का प्रकरण निश्चित रूप से पिछले 32 प्रकरणों से बिल्कुल भिन्न है। जहां सामान्यतया क्षतिपूर्ति (मुआवजा) के लिए सिविल कार्रवाई न कर कानून के अंतर्गत तकनीकी रूप से आपराधिक कार्रवाई की गई। ‘अपराध’ व सजा दोनों जगह (अन्य 32 मामलों में) हुई है। परन्तु ‘अपराध’-‘अपराध’ में बड़ा अंतर है। ‘‘सब धान बाइस पसेरी नहीं होते’’। एक अपराध वास्तविक रूप से ‘‘गंभीर अपराध’’ की श्रेणी में आता है, जिसकी परिकल्पना अनुच्छेद 108 एवं धारा 8 (3) लोक जनप्रतिनिधित्व अधिनियम में की गई है। अवमानना के मामले में ‘अपराध’ की वह नोशनल वैल्यू (काल्पनिक मूल्य) नहीं होती है, जो धारा 8(3) में दिये गये ‘अपराध’ की है। क्या आप हत्या, हत्या का प्रयास, बलात्कार, जालसाजी, डकैती, दंगा, तस्करी, आय से अधिक सम्पत्ति आदि गंभीर ‘अपराधों’ को मानहानि अर्थात महज ‘‘हाकिम की अगाड़ी’’ की सजा पाए गए अपराधी की ही श्रेणी में रखा जा सकता हैं क्या? यह ठीक उसी प्रकार की स्थिति हैं, जब राजनीतिक पार्टी के नेताओं को जन आंदोलन करने के कारण विभिन्न आपराधिक धाराओं के मुकदमे झेलने होते हैं, जो अन्य सामान्य रूप से घटित अपराधों से भिन्न होते हैं। यद्यपि धाराएं वे ही होती है परंतु यह भिन्नता समस्त राजनीतिक दल मानते है, करते हैं। क्योंकि ‘‘काजल की कोठरी’’ में घुसने पर एक न एक दाग तो लगभग सभी को लगता ही है। 

आइए पहले हम देखते है धारा 499 है क्या। वस्तुतः इस धारा में सिविल व आपराधिक (क्रिमिनल) दोनों तरह की कार्रवाई हो सकती हैं, परन्तु प्रस्तुत प्रकरण में सिविल कार्रवाई न की जाकर आपराधिक कार्रवाई की गई। धारा 499 के अंतर्गत मानहानि के लिए अपमानजनक बयान हेतु शिकायतकर्ता को संदर्भित किया जाना चाहिए। साथ ही इस धारा में किये गये अपवाद में लोक सेवक (प्रधानमंत्री एक लोक सेवक है) का सार्वजनिक आचरण के संबंध में ‘‘दुराशय की भावना से रहित’’ किया गया कथन अवमानना की परिभाषा में नहीं आता है। इस स्थिति को देखते हुए प्रथम दृष्या सीजेएम का निर्णय गलत दिखता सा है। निर्णय की विस्तृत विवेचना अगले लेख में की जायेगी। आइये अब धारा 8 (3) जिसके अंतर्गत लोकसभा सचिवालय ने राहुल गांधी की लोकसभा की सदस्यता की अयोग्यता की अधिसूचना जारी की है, वस्तुतः वह क्या है, इसका अध्ययन कर ले। धारा 8(3) निम्नानुसार हैः-

3) एक व्यक्ति को किसी भी अपराध के लिए दोषी ठहराया गया है और कम से कम दो साल के कारावास की सजा सुनाई गई है, उप-धारा (1) या उप-धारा (2) में निर्दिष्ट किसी भी अपराध के अलावा, इस तरह की सजा की तारीख से अयोग्य होगा और अपनी रिहाई के बाद छह साल की एक और अवधि के लिए अयोग्य बना रहेगा।, 

परन्तु उपधारा (4) में कार्रवाई करने की 3 महीने की निर्धारित समय सीमा को ‘‘थाॅमस लिली विरुद्ध भारत संघ’’ के मामले में उच्चतम न्यायालय ने असंवैधानिक ठहरा कर निरस्त कर दिया है। 

कानूनी प्रावधान यही है कि जिस क्षण 2 वर्ष की सजा सुनाई जाती है, उसी क्षण स्वयमेव सदस्यता समाप्त हो जाती है, यदि उसी क्षण दोष सिद्धि के आदेश को स्टे (स्थगित) न किये गया हो तो। परन्तु यहां भी एक कानूनी ‘कमी’ (लैकूना) है, जैसे हमारे समस्त कानूनों में प्रायः होती है। सजा होने के बावजूद सदस्य की सदस्यता तब तक समाप्त नहीं होगी, जब तक स्पीकर का सचिवालय इसकी अधिसूचना जारी न कर देें। अब यह मत कहियेगा की सजा होने पर अयोग्यता की कार्रवाई कर अधिसूचना जारी करने की कोई समय सीमा (लिमिटेशन) नहीं है। निश्चित रूप से कानूनी स्थिति यही है। परन्तु फिर प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि न्यायाधीश को निष्पक्ष होने ही नहीं चाहिए बल्कि होते हुए दिखना भी चाहिए, क्योंकि ‘‘पगड़ी दोनों हाथों से ही सम्हाली जाती है’’। उत्तर प्रदेश के स्पीकर ने आजम खां के मामले में तुरंत-फुरंत अयोग्यता की कार्रवाई कर दी। परन्तु आजम खां के पूर्व विक्रम सैनी विधायक के विरूद्ध अयोग्यता की लंबित कार्रवाई तब जाकर पूर्ण की जब आजम खां का मामला उच्चतम न्यायालय के संज्ञान में लाए जाने पर न्यायालय द्वारा फटकार लगाई गई। राजनैतिक सुविधा का सिद्धांत इसी को ही कहते है। जहां पर वर्तमान स्थिति में सत्ता के पक्ष में विवेकाधिकार व विशेषाधिकार न होने के बावजूद ‘कुर्सी’ अपने विवेक का उपयोग सत्ता पक्ष में बैठे लोगों के हित में वैसा ही कर रही हैं, जैसा कि ‘‘समरथ को नहिं दोष गुसाईं’’। इस स्थिति पर न्यायालय का भी कोई प्रभावी नियंत्रण नहीं है, जिसकी आज नितांत आवश्यकता है। 

याद कीजिए वर्ष 1980 में आंतरिक टूट के कारण जनता पार्टी की सरकार गिरने के बाद हुए आम चुनाव में इंदिरा गांधी ने दमदार वापसी की थी और वर्ष 1977 के आम चुनाव में पार्टी 154 सीटों  के विरुद्ध 363 पर बड़ी जीत दर्ज की। बड़ा प्रश्न यह है कि लगभग वैसी ही समान वर्तमान में बनती परिस्थिति के दिखने के कारण, क्या राहुल गांधी भी वैसा ही इतिहास दोहरा पाएंगे? इस बात की बड़ी चर्चा राजनीतिक हल्के में है। परन्तु यह चर्चा करते समय इस बात को ध्यान में रखना होगा कि इंदिरा गाधी व राहुल गांधी के व्यक्तित्व में जमीन आसमान का अंतर है। दूसरे तत्समय इंदिरा गांधी इसलिए वापसी कर पाई थी कि उनका व्यक्तित्व उनके विपक्षियों से कहीं ज्यादा नहीं तो बराबरी का तो था (उनका व पार्टी की स्थिति) परन्तु आज न तो राहुल का व्यक्तित्व और न ही पार्टी की स्थिति वैसी है। जनता पार्टी की आंधी चलने के बावजूद 154 सीटों पर रहकर 363 सीट पाने की तुलना में 51 सीटों की स्थिति से बहुमत प्राप्त करने की स्थिति वर्तमान आज की स्थितियों को देखते हुए संभव होती दिखती नहीं है। हां इस लक्ष्य के कितने निकट पहुंच सकते है, इस पर राजनीतिक चर्चाएं अवश्य होगी। 

शनिवार, 25 मार्च 2023

‘कानून व्यवस्था’’ व ‘‘न्यायिक निर्णय’’! राजनीतिक अर्थ व परिणाम।

न्यायालय के निर्णय व कानून व्यवस्था को लेकर देश में हाल-फिलहाल दो प्रमुख घटनाएं घटित हुई है, जिनकी राजनीतिक प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक ही है। क्योंकि यही तो देश की राजनीति का बिंब बन गया है। जहां कानून व न्यायिक प्रक्रिया में भी सियासी सियासत देखी जा सकती है। यह प्रतिक्रिया चुनावी वर्ष में कहां तक जाएगी, यह देखने-समझने की बात होगी।

दो दिन पूर्व ही दिल्ली में ‘‘मोदी हटाओ देश बचाओ’’ नारे लिखे हुए हजारों पोस्टर लगे। दिल्ली पुलिस ने आनन-फानन में कुछ पोस्टर हटाये तो कुछ पोस्टरों की जब्ती भी हुई और 138 से एफआईआर दर्ज हुई। इसमें से 36 एफआईआर पोस्टर में लिखे नारे को प्रधानमंत्री के विरुद्ध मानते हुए दर्ज की गई। 6 लोगों को गिरफ्तार भी किया गया, उन्हें जमानत भी मिल गई। दूसरा मामला सूरत में मुख्य न्यायिक न्यायालय में सूरत के विधायक पुर्णेश मोदी द्वारा दायर ‘‘मानहानि’’ के प्रकरण में राहुल गांधी को 2 साल की अधिकतम सजा मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट एच एच वर्मा ने सुनाई। ‘‘ऊंचे गढ़ों के ऊंचे कंगूरे’’। दोनों ही मामले प्राथमिक व मूल रूप से ‘‘न्याय’’ व ‘‘कानून व्यवस्था’’ से संबंधित मामले हैं, जिन पर सामान्यतः राजनीति नहीं की जानी चाहिए नहीं होनी चाहिए, बल्कि न्यायालयीन प्रक्रिया का पालन करके दोषी ठहराए जाने वाले निर्णय का सामना करना चाहिए तथा कानून लागू करने वाली पुलिस की कार्रवाई के हाथ मजबूत करना चाहिए। 

भाजपा और पुलिस प्रशासन द्वारा पोस्टर लगाने के मामले में कहा गया कि पोस्टरों में न तो प्रिंटिंग प्रेस का नाम है और न ही प्रकाशक का नाम है। डिफेसमेंट एक्ट और प्रिंटिंग प्रेस एक्ट कानून का यह स्पष्ट उल्लंघन है। इसलिए कानूनी कार्रवाई की गई है। यानी कि ‘‘ऐब हो तो हुनर के साथ, वरना गुनाहे बेइज्जत’’ हो जाता है। प्रत्युत्तर में ‘आप’ सांसद संजय सिंह से लेकर आप पार्टी के नेताओं ने इस बात का खंडन नहीं किया है कि उक्त कानूनी उल्लंघन उक्त पोस्टर छपवाने से लेकर प्रसारित करने में हुआ है। तथापि उनके द्वारा यह अवश्य कहा गया कि यह राजनीतिक लड़ाई है। पर्चे में गलत क्या लिखा है? ‘‘मोदी हटाओ देश बचाओ’’ यह नारा राजनीतिक पार्टी का लोकतांत्रिक अधिकार है। क्या यही लोकतंत्र है? ‘‘आज की कसौटी बीता हुआ कल होता है’’। बताइए, इसके पहले कितनी बार पुलिस ने इस तरह के पोस्टरों को हटाने की ऐसी ही कार्रवाई की। अभी प्रत्युत्तर में जो पोस्टर ‘‘अरविंद केजरीवाल को हटाओ दिल्ली बचाओ’’ के नारे के साथ लगाए हैं, उनको हटाया गया है क्या? संजय सिंह के द्वारा कानून के उल्लंघन के संबंध में कोई स्पष्टीकरण न दिए जाने से यह समझा जा सकता है, माना जा सकता है कि पुलिस ने जो कानून के उल्लंघन के तथ्य का उल्लेख किया है, वह सही हो सकता है। परंतु इस कानूनी उल्लंघन के मौजूद होने के बावजूद एक राजनीतिक प्रश्न कानूनी कार्रवाई पर जरूर उठ सकता है? प्रश्न यह है क्या इस तरह की उल्लंघन में ने पुलिस के पूर्व में इतनी ही त्वरित कार्रवाई की? या कि इसी मामले में ‘‘छींकते ही नाक कटी’’? 

मामला सिर्फ प्रिंटिंग प्रेस या प्रकाशक का नाम न होने का नहीं है, अथवा जो पोस्टर में लिखा गया है ‘‘मोदी हटाओ देश बचाओ’’ उस पर आपत्ति होने का है? क्या आपको ऐसा नहीं लगता है पुलिस ने जरूरत से ज्यादा जोश दिखाते हुए होश में न रह कर अपने आकाओं को खुशामदी करने के उद्देश्य से यह तुरंत-फुरंत कार्रवाई की गई है? इसे ही कहते हैं ‘‘टट्टे की ओट से शिकार करना’’। मैं पुनः इस बात को रेखांकित करना चाहूंगा कि पुलिस की कार्रवाई करने के अधिकार अथवा की गई कार्रवाई पर कोई प्रश्नवाचक चिन्ह नहीं है। यह कानूनी प्रक्रिया है जो चल रही है। परंतु परिस्थिति, समय और तीव्रता को देखकर उक्त कार्रवाई से न्याय के उस सर्वमान्य सिद्धांत पर आक्रमण अवश्य होता है, जहां यह कहा जाता है कि ‘‘न्याय होना ही नहीं चाहिए बल्कि होते हुए दिखना भी चाहिए’’।

अब बात दूसरे मामले राहुल गांधी की सजा की कर ले। यह न्यायिक प्रक्रिया है जिससे राहुल गांधी और उनके वकीलों ने भाग लेकर सुनवाई के अवसर का पूरा लाभ लेने के बावजूद न्यायालय ने उक्त सजा सुनाई है, तो निर्णय की राजनीतिक आलोचना करने के बजाए कानूनी प्रक्रिया अपनाकर अपील करके उक्त आदेश को चुनौती दी जाना चाहिए जो कि अभी की भी जाएगी। परंतु राहुल गांधी, उनके साथी व विपक्ष निर्णय पर न्यायालीन आदेश और उत्पन्न तथाकथित राजनीतिक द्वेष को संयुक्त रूप से जोड़कर प्रतिक्रिया व्यक्त करते समय फिर वही ‘‘आ बला गले लग जा’’ वाली गलती कर रहे हैं, जिस कारण से उन्हें अपने कथनों के कारण पुनः मानहानि या अवमानना के मुकदमे का सामना करना पड़ सकता है। ‘‘आजमाए को जो आजमाए, नामाकूल कहलाए’’। ‘‘आज की ठोकर कल गिरने से बचा सकती है’’। न्यायालय के निर्णय से हटकर आपको उसके प्रभाव के राजनीतिक रूप व अर्थ निकालने के और राजनीतिक रूप से आलोचना करने का अधिकार है। परन्तु इसके लिए कृपया आलोचक गण उन दोनों के बीच लक्ष्मण रेखा अवश्य खींचे और न्यायालय के निर्णय का सम्मान करते हुए सिर्फ राजनीतिक दृष्टिकोण से राजनेताओं की चमड़ी उधेडं़े। लेकिन आगे न्याय प्रणाली प्रक्रिया में दिए गए कानून के अधिकारों का प्रयोग कर निचली अदालत के निर्णय पर रोक के आदेश ऊपरी सक्षम न्यायालय से लावे।

मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट एचएच वर्मा की क्या इस बात के लिए प्रशंसा नहीं की जानी चाहिए कि उसने देश के विपक्ष के सबसे बड़े नेता के विरुद्ध किसी भी तरह की ढील (लीनियंसी) न बरतते हुए कानून के प्रावधान के अनुसार ऐसे व्यक्ति जो वरिष्ठ सांसद है और अपराध करते समय देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे, के द्वारा कानून का उल्लंघन करने पर अधिकतम 2 साल की सजा देकर एक मील का पत्थर उन प्रभावशाली बड़े लोगों के लिए स्थापित किया है, जो ‘‘औरों को नसीहत और खुद मियां फजीहत’’ हैं और जिनके बाबत यह कहा जाता है की कानून की मुट्ठी उनके हाथों में होती है और वे कानून की कोई परवाह नहीं करते हैं। अभी तक के न्यायिक इतिहास में यह शायद यह पहला मामला होगा जहां अवमानना के मामले में अधिकतम सजा 2 वर्ष की दी गई हो। सामान्यतया तो माफी मांग लेने पर प्रकरण समाप्त कर दिया जाता है या फाइन लगाया जाता है। विस्तृत कारण के साथ पारित इस आदेश से आम जनता के मन में इस बात का विश्वास जरूर बनेगा कि कानून सबके लिए बराबर है जैसा कि कहा जाता है प्रायः लेकिन होता हुआ दिखता नहीं रहा है।

कोर्ट ने उन्हें आपराधिक मानहानि केस में दोषी बताते हुए 2 साल कैद की सजा सुनाई। हालांकि राहुल की सजा को कोर्ट ने 30 दिन के लिए निलंबित रखते हुए जमानत दे दी। उन्हें ऊपरी अदालत में जाने का मौका दिया गया। कोर्ट में दोषी करार दिए जाने के बाद राहुल गांधी से भी जज ने उनकी राय पूछी, जिस पर उन्होंने कहा कि एक नेता के तौर पर उन्होंने अपना काम किया। राहुल गांधी के वकील ने माफी मांगने से इंकार कर दिया। स्पष्ट है जब दोषी पाये जाने के बावजूद राहुल गांधी ने माफी मांगने से इंकार कर दिया तब देश के अपमान के मामले में जहां न तो उनके विरूद्ध कोई प्रकरण दर्ज हुआ है और न ही मुकदमा चलाया जाकर दोषी ठहराया गया है और न ही वह उच्चतम न्यायालय के नजर में ‘‘अपराध’’ है। तब संपूर्ण भाजपा एक स्वर से उनसे माफी मांगने की बात को अभी भी क्यों दोहरा रही है व संसद की कार्रवाई ठप कर रही है। क्या यह मांग कानूनन् है? नही।ं तो फिर राजनीतिक लड़ाई को राजनीतिक रूप से राजनीतिक जमीन पर लड़िए, ‘‘संसद राजनीति करने का मंच नहीं है’’? यह बात विपक्ष से ज्यादा सत्ता पक्ष को समझनी होगी। 

बात अब प्रतिक्रिया की भी ले ले! राहुल गांधी का ट्वीट ‘महात्मा गांधी’ का कथन मेरा धर्म सत्य और अहिंसा पर आधारित है। सत्य मेरा भगवान है, अहिंसा उसे पाने का साधन। प्रश्न क्या सत्य वही है जो राहुल गांधी कहते है जैसा केजरीवाल का ‘सत्य’ का मामला है। अथवा न्यायालय ने जो निर्णय दिया है वह सत्य तब तक रहेगा जब तक उच्चतम न्यायालय द्वारा उक्त आदेश पर रोक नहीं लगा दी जाती है। प्रतिक्रिया से मल्लिकार्जुन खड़गे ने जज की निष्पक्षता पर सांकेतिक रूप से उंगली उठाई है। तब राहुल के वकीलों ने प्रकरण को दूसरे न्यायालय में स्थानांतरित करने के लिए आवेदन क्यों नहीं दिया? केजरीवाल की प्रतिक्रिया ‘‘गैर बीजेपी नेताओं और पार्टियों पर मुकदमे करके उन्हें खत्म करने की साजिश हो रही है। हमारे कांग्रेस से मतभेद हैं मगर राहुल गांधी जी को इस तरह मानहानि केस में फंसाना ठीक नहीं। इस निर्णय से असहमत हूं’’। कुल संतुलन लिये हुए थी परन्तु उनका यह कहना गलत है कि राहुल के मानहानि के केस में फंसाना ठीक नहीं है। किरेन रिजिजू का बयान महत्वपूर्ण है जो तथ्यों के ज्यादा नजदीक है। उनका कथन है ‘‘राहुल गांधी’’ के बयान से कांग्रेस व पूरे देश पर गलत असर पड़ता है। इससे कांग्रेस को ही नुकसान हो रहा है। 

अभी अभी लोकसभा अध्यक्ष ने राहुल गांधी की संसद की सदस्यता से अयोग्य घोषित कर उनकी सदस्यता समाप्त कर दी है। लेकिन विषय यह है कि ट्रायल कोर्ट द्वारा अपने फैसले को अपील करने के लिए 30 दिन के लिए स्थगित किया जाकर 30 दिन के लिए सजा (दंड सेंटेंस) स्थगित की गई परन्तु दोष सिद्धि (कंवेक्शन) नहीं तब ऐसी स्थिति में स्पीकर का धारा 8 (3) के अंतर्गत आदेश कानूनी रूप से बिल्कुल सही है। 

तथापि केरल उच्च न्यायालय का हाल ही का उदाहरण है, जहां लक्षद्वीप के सांसद मोहम्मद फैजल को हत्या के प्रयास के मामले में सजा होने से लोकसभा सचिवालय द्वारा उन्हे अयोग्य घोषित किए जाने के बाद चुनाव आयोग को उपचुनाव की अधिसूचना को केरल हाईकोर्ट ने रोक दिया। क्या उक्त निर्णय को देखते हुए स्पीकर द्वारा अगले कुछ दिन न्यायालयीन प्रक्रिया के अंतरिम निर्णय की राह नहीं देख सकते है? यह कानून से ज्यादा राजनीतिक व नैतिक प्रश्न है।

इस अयोग्यता के आदेश का एक परिणाम यह भी होगा कि अब लोकसभा में राहुल गांधी को न तो माफी मांगनी पड़ेगी और न ही भाजपा की यह मांग रह जायेगी। प्रश्न तब भी यह है कि माफीनामा के इस अध्याय के न रहने पर राजनीतिक फायदा किसको होगा? और अब संसद में अडाणी मुद्दे पर जेपीसी के गठन पर बहस को रोकने के लिए कौन सा पैंतरा अपनाया जाएगा? कुछ समय इसके लिए इंतजार करना होगा।

मंगलवार, 21 मार्च 2023

स्थगित देशद्रोह के निरापराध के लिए हंगामा क्यों बरपा?

राहुल गांधी क्या ‘‘पप्पू’’ से ‘‘पपलू’’ बन गये है या बना दिये गए हैं?

(कभी कभी किन्हीं कुछ परिस्थितियों में शब्दों का अर्थ और अर्थ के विपरीत भी होता है जिसके अर्थ के लिए वे शब्द सामान्यतः जाने जाते हैं। कृपया इस बात को ध्यान में रखकर इस आलेख को पढे।)
पिछले कुछ दिनों से सत्ता पक्ष (भाजपा) द्वारा लगातार लंदन यात्रा के दौरान (इंग्लैंड)  कैंब्रिज विश्वविद्यालय में एक साक्षात्कार में राहुल गांधी के कहे गए कथनों को आधार बनाकर राहुल गांधी पर देश के बाहर जाकर ‘‘विदेशी सरजमी’’ से देश का ‘‘अपमान’’ करने के कारण ‘‘देशद्रोह’’ का आरोप लगाकर लगातार पिछले एक हफ्ते से संसद न चलने देकर ठप किया जा रहा है। संसदीय लोकतंत्र में सदन को विपक्ष के सहयोग से सुगमता एवं सफलतापूर्वक चलाने की जिम्मेदारी सत्ता पक्ष की ही होती है। परंतु बजाय इसके स्वाधीन देश के संसदीय लोकतंत्र के इतिहास में शायद यह पहला अवसर है, जब राहुल गांधी द्वारा किये गये देश के (तथाकथित) अपमान की माफी सदन में आकर देश से मांगी जाने की मांग पूरी होने तक सत्तापक्ष स्वयं खुल्लमखुल्ला संसद को चलने नहीं दे रहा है। कबीर के शब्दों में
‘‘कबीरदास की उल्टी वाणी बरसे कंबल भीगे पानी’’
इसका बड़ा कारण एक शायद यह हो सकता है कि वर्तमान सत्ता पक्ष जो पूर्व में विपक्ष में थी, तब वह सफलतापूर्वक कई महत्वपूर्ण संवेदनशील मुद्दों पर संसद को चलने से रोकने में सफल रही थी। परन्तु शायद अब ऐसा लगता है कि भाजपा यह भूल गई है कि वह विपक्षी दल नहीं वरन् सत्ता पर आरूढ़ होकर सत्तापक्ष है, जिसकी संवैधानिक जिम्मेदारी संसदीय कार्य मंत्री के जरिए समस्त अवरोधों-विरोधों को दूर कर लोकतंत्र का हृदय ‘सदन’ चलाने की है। यह तो वही बात हुई कि ‘‘करे प्रपंच कहलावे पंच’’।
जैसा कि कहा जाता है कि ‘‘अंधा कहे ये जग अंधा’’, उसी प्रकार वर्तमान सत्ता पक्ष राहुल के विरोध में अंधे होकर यह भी भूल गए कि जिस व्यक्ति का विरोध करने के लिए संसद को ठप कर दिया है, स्वयं उसने ही कुछ समय पूर्व तक उसे ‘‘पप्पू’’ सिद्ध कर देश की राजनीति से सफलतापूर्वक नकार सा दिया था। विपरीत इसके भारत जोड़ो आंदोलन से उभर कर ‘‘पप्पू’’ का लगा ‘‘स्टिक’’ कुछ हद तक हटाकर तथा संसद में चार मंत्रियों द्वारा लगाए गए आरोपों के चलते ‘‘सांसद’’ होने के कारण संसद में अपना पक्ष रखने का अवसर देने की तार्किक मांग उचित तरीके पत्रकारवार्ता के माध्यम से कर उसी ‘‘पप्पू’’ ने अपने को उस पपलू (ताश) में बदल दिया है, जहां अब उसका उपयोग आवश्यकतानुसार ‘‘पपलू’’ (ताश) के रूप में कहीं भी हो सकता है। अर्थात राहुल ने अपनी उपयोगिता के क्षेत्र को व्यापक कर दिया है। तभी भाजपा अंध विरोध के चलते अनजाने में ही पप्पू की भारतीय राजनीति में प्रासंगिकता व आवश्यकता को अब स्वयं ही सिद्ध कर रही है। क्या यह आश्चर्यजनक विचित्र स्थिति नहीं है कि एक और जहां भाजपा राहुल को सदन में आने के लिए कह रही है, वहीं दूसरी ओर राहुल भी सदन में आने की बात कह रहे हैं। परंतु सदन में आने के बावजूद राहुल को बोलने का अवसर कहां मिल पा रहा है? क्या यह हास्यास्पद स्थिति नहीं है कि सदन में राहुल गांधी को बोलने का अवसर प्रदान किए बिना ही उनसे माफी मांगने की बात लगातार कहीं जा रही है? जो बोलने की परिस्थितियों न बन पाने व बनाई जाने के कारण असंभव नहीं है?
देश की संसद में बनाई गई इस राजनीतिक अवरोध-विरोध की स्थिति से कुछ प्रश्न अवश्य उत्पन्न होते हैं, जिनका जवाब ढूंढने की आवश्यकता व जिम्मेदारी जागृत जनता की भी है। राहुल गांधी के विदेश में कहे गए कथन ‘‘भारत में लोकतंत्र खतरे में है’’ से यदि देश का ‘‘अपमान’’ होकर धारा 124 ए के अंतर्गत देशद्रोह का अपराध घटित हुआ है, तो क्या उसकी सजा के लिए माफी का प्रावधान उक्त धारा में है? जिसकी मांग लगातार भारतीय जनता पार्टी कर रही है। इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है की बिहार से आए हमेशा मुखर रहने वाले बयानवीर केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह सहित अनेक भाजपा नेताओं को क्या यह कानूनी तथ्यात्मक जानकारी नहीं है कि उच्चतम न्यायालय ने धारा 124 ए के अंतर्गत कोई भी कार्रवाई करने से फिलहाल रोक लगाई रखी हुई है। स्वयं केंद्रीय सरकार ने भी उच्चतम न्यायालय में कोई कार्रवाई न करने का ऐसा ही ही आश्वासन दिया है। ऐसी स्थिति में देशद्रोह के अपराध के लिए कोई कार्रवाई कैसे हो सकती है? तब देश के ‘अपमान’ के अपराध के लिए बिना मुकदमा चलाए और दोषी ठहराए अपराधी को सजा कैसे दी जा सकती है, चाहे वह माफी की ही सजा क्यों न हो? क्या अपमान का अपराध भारतीय दंड संहिता की धारा 124 ए के अलावा अन्य किसी धारा या अन्य कोई अपराधिक कानून के अंतर्गत यदि एक अपराध है, तो उसे भाजपा स्पष्ट करें और तदनुसार कार्रवाई करने की मांग ही नहीं करें बल्कि कार्यवाही भी करवाएं। ‘‘अंधेरे में भी हाथ का कौर कान में नहीं जाता’’, लेकिन क्या भाजपा के नेता राहुल गांधी को शहीद बनाकर वही गलती तो नहीं कर रहे हैं, जो दिसंबर 1978 में जनता पार्टी सरकार ने इंदिरा गांधी को गिरफ्तार कर शहीद बनाकर सत्ता में वापस आने का अनजाने ही अवसर प्रदान कर दिया था? ‘‘ख़ता लम्हों ने की, सजा सदियों ने पाई’’।
देश में कानून का राज है, खासकर उस भाजपा के राज में जिसने वास्तव में लोकतंत्र को खतरे में होते हुए देखते हुए ‘‘आपातकाल को भोगा’’ है। शायद यह ‘‘कानून के राज’’ का ही सुखद परिणाम है, जहां राहुल गांधी के दिए गए जम्मू कश्मीर में दिए गए कथन पर 45 दिन बाद कोई प्रथम सूचना पत्र दर्ज या शिकायत हुए बिना, दिल्ली पुलिस राहुल गांधी के घर जाकर पूछताछ करती है। पुलिस राहुल गांधी से उस बयान के लिए जारी सूचना पत्र का जवाब न मिलने पर पूछताछ करती है, जिसमें राहुल गांधी कहते हैं कि भारत जोड़ो यात्रा के दौरान जम्मू कश्मीर में उनसे कुछ महिलाओं का समूह मिला था, जिसने जिन्होंने उनके साथ हुए यौनाचार की शिकायत की थी। परंतु जब राहुल गांधी ने महिलाओं से यह पूछा कि क्या यह बात पुलिस प्रशासन को बतलाई जाए, तब उन्होंने राहुल गांधी को पुलिस प्रशासन को बतलाने से मना कर दिया था। मेरी याददाश्त में देश के इतिहास में यह शायद पहली घटना है जहां बिना प्रथम सूचना दर्ज किए, कोई शिकायत हुए या कराएं बिना अथवा इस संबंध में कोई ज्ञापन दिए बिना, ऐसी स्थिति में पुलिस द्वारा पूछताछ की गई हो।
सबसे महत्वपूर्ण बड़ा प्रश्न जो उत्पन्न होता है, वह यह है, कि संसद के बाहर कहे गए कथन के लिए संसद में आकर माफी मांगे जाने की मांग समझ से परे है। इससे कहीं से कहीं तक राजनीतिक समझदारी या परिपक्वता दृष्टिगोचर होती हुई नहीं दिखती है, जो दिखती है वह यह कि ‘‘बिजली कड़के कहीं और गिरे कहीं’’। राहुल गांधी के देश को अपमानित करने वाले बयान के लिए भाजपा पूरे देश में आंदोलन चलाएं जब तक कि वह माफी नहीं मांगे, यह पार्टी का राजनीतिक कदम व दिशा हो सकती है। या दूसरे शब्दों में कहें तो ‘‘गले में पड़े ढोल को बजाना’’ पार्टी की मजबूरी हो सकती है, परंतु इसके लिए राहुल संसद में आकर माफी मांगे और उसके लिए संसद ठप की जाए, ऐसा संसदीय परंपरा का कोई उदाहरण भाजपा के इस स्टैंड को समर्थित नहीं करता है। संसद में कहे गए कथन के लिए अध्यक्ष की अनुमति के बिना संसद के बाहर कोई भी न्यायालयीन कार्यवाही नहीं की जा सकती है। ठीक उसी प्रकार संसद के बाहर दिए गए कथन के लिए सदन में आकर माफी मांगने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है। अतः संसद से सड़क तक भाजपा का राहुल गांधी से माफी मांगने के लिए उठाया गए कदम का औचित्य प्रतीत नहीं होता है। परन्तु भाजपा तुली हुई है कि ‘‘चल मरघट लकड़ियां सस्ती हैं’’।  
जहां तक विदेशी सरजमी से देश के किए गए अपमान के लिए देश के अंदर संसद में आकर माफी मांगने की बात है। यदि तर्क के लिए एक क्षण के लिए यह मान लिया जाए कि राहुल गांधी सांसद न होकर पार्टी अध्यक्ष की हैसियत से उक्त तथाकथित अपमान करने वाला कथन करते, तब भी क्या उन्हें संसद में आकर माफी मांगने के लिए कहा जा सकता था? बिल्कुल नहीं! ‘‘कमर का मोल है तलवार का नहीं’’। तब एक सांसद के रूप में कार्य करते हुए यदि राहुल गांधी ने देश का अपमान किया है, तो इसके लिए उनके विरुद्ध विशेषाधिकार हनन की कार्रवाई अवश्य की जानी चाहिए जो प्रारंभ होकर फिलहाल लोकसभा अध्यक्ष के पास लंबित भी है। तो फिर बकौल अक़बर इलाहाबादी ‘‘हंगामा है क्यों बरपा’’? एक फिल्मी गीत भी याद आ रहा है ‘‘हंगामा हो गया हंगामा हो गया’’।
..इससे भी बड़ी बात यह है कि राहुल गांधी ने शनिवार को विदेश मंत्रालय की सलाहकार समिति की बैठक में लंदन में दिए गए कथन पर सफाई देते हुए स्पष्ट रूप से यह कहा कि उन्होंने सिर्फ देश में लोकतंत्र की हालत पर सवाल उठाते हुए यह कहा था कि ‘‘यह हमारा आंतरिक मामला है और हम इसका हल निकाल लेंगे’’। राहुल गांधी का विदेश में दिए गए उक्त तथाकथित विवादित कथन पर अवसर मिलने पर सही जगह अर्थात विदेश मंत्रालय की सलाहकार समिति में दिया गया उक्त स्पष्टीकरण माफीनामा से ज्यादा महत्वपूर्ण है, जिसकी मांग भाजपा कर रही है। राहुल गांधी विदेशी हस्तक्षेप की कोई बात का उल्लेख तक नहीं कर रहे हैं या नहीं कह रहे हैं, यानी ‘‘अंतर अंगुल चार का झूठ सांच में होय’’, जैसा कि भाजपा आरोप लगाते समय लगातार उल्लेख कर रही है। चंूकि राहुल गांधी इस बात को विदेश मंत्रालय की सलाहकार समिति की बैठक में नहीं दोहरा रहे हैं, तब तथ्य बात क्या माफी से ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है? माफी का मतलब तो यही होता है कि आपने गलत बात कही और उसको आज गलत मानकर माफी मांग रहे हैं। लेकिन राहुल गांधी यहां पर उस तथाकथित गलत बात को कही ही नहीं रहे हैं। न ही वे यह कह रहे हैं कि मैंने ऐसा कहा था या मेरा कहने का आशय वैसा था जैसा कि भाजपा निकाल रही है। तब राहुल गांधी का विदेश मंत्रालय की सलाहकार समिति में दिया गया स्पष्टीकरण सदन में होने वाले बयान से ज्यादा महत्वपूर्ण होकर बनाए गए (निर्मित मैन्युफैक्चर्ड) मुद्दे को प्रारंभ से ही शून्य (एब इनिशियो वाइड) कर देता है।
अंत में प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि भाजपा ऐसा कर क्यों रही हैं, जो लगभग नन इशु (गैर मुद्दे) को भारी मुद्दा क्यों बना रही है? शायद अदानी मामले को लेकर संपूर्ण विपक्ष की जेपीसी गठन की भारी मांग को बेअसर (न्यूट्रलाइज) करने व उसे ध्यान बटाने के लिए तो नहीं? जैसा कि विपक्ष आरोप लगा रहा है।
वैसे देश के अपमान से संबंधित एक और बेहद शर्मनाक परंतु महत्वपूर्ण घटना घटित हुई है, वह लंदन स्थित भारतीय दूतावास पर लहरा रहे तिरंगे झंडे का कुछ खालिस्तानी सिरफिरों द्वारा अपमान करना। देश का हुआ यह अपमान राहुल गांधी द्वारा किए गए अपमान से ज्यादा कहीं बड़ी अपमान की घटना है। इसके लिए दिल्ली स्थित ब्रिटिश उच्चायुक्त को बुलाकर कड़ा विरोध प्रकट किए जाने के साथ ही भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की भारतवंशी ब्रिटिश प्रधानमंत्री ऋषि सुनक से गंभीर बातचीत की भी आवश्यकता है।

बुधवार, 15 मार्च 2023

पत्रकारिता के एक " *भीष्म "युग पितामह" का देहावसान! नमन श्रद्धांजलि व कुछ मधुर लम्हे!

17 मई 2018 को बैतूल में आयोतिज समारोह 

पत्रकार जगत के " धूमकेतु" डॉक्टर वेद प्रताप वैदिक का अचानक हृदयाघात से स्वर्गवास हो जाने से प्रिंट मीडिया में गहरे अवसाद के साथ में एक बड़ा शून्य और रिक्तता उनके बड़े व्यक्तित्व के न रहने के कारण आ गई है, जो स्वाभाविक ही हैं, जिसकी परिपूर्ति उसी तरह की होना शायद संभव नहीं हो पाएगी। "सरल, गंभीर शब्दों और कठोर तर्कों के धनी" डाॅ. वेद प्रताप वैदिक की गणना उन राष्ट्रीय अग्रदूतों में होती है, जिन्होंने हिंदी को मौलिक चिंतन की भाषा बनाया और भारतीय भाषाओं को उनका उचित स्थान दिलाने के लिये सतत संघर्ष और त्याग किया। "हा, अनतिक्रमणीयो हि विधिः"  मतलब डॉ वेद प्रताप वैदिक इस संसार से देह छोड़कर ईश्वर के पास अवसान (देह-अवसान) के लिए चले जाने के बावजूद विश्व पटल पर अपने लिखे गए लेखों के माध्यम से पाठक जन-जन में हमेशा अपनी उपस्थिति का एहसास कराते रहेंगे। प्रायः दो-चार दिनों की आड़ में अपनी कलम से दो-चार होकर  देसी कलम से विदेशी जानकारी, खासकर भारत के पड़ोसी देशों के साथ राजनयिक संबंधों के संबंध में उनकी विचारोत्तेजक टिप्पणियां देश के शासकों  के लिए हमेशा एक चुनौतीपूर्ण रास्ता दिखाने वाली होती थी। इसी कारण से वे लंबे समय से  "भारतीय विदेश नीति परिषद" के अध्यक्ष चले आ रहे थे। कदापि इसका  मतलब यह नहीं है कि वे देश की आंतरिक स्थिति पर नज़र रखे हुए नहीं थे। बल्कि देश में पल-पल पर घटित हो रही घटनाओं पर एक "सजग प्रहरी की भांति" प्रायः अपनी तीक्ष्ण, तीव्र नजर से देखकर भेद कर अपनी पैनी कलम से राष्ट्रहित जनहित में लिखकर शासकों को हमेशा सजग रहने के लिए समालोचक उत्प्रेरक का कार्य करते रहे।
ऐसा भी नहीं है की विवादित विषयों से उनका कभी भी नाता-पाला ही न पड़ा हो या सामना न हुआ हो। उदाहरणार्थ देश का दुश्मन नंबर एक खूंखार पाकिस्तानी आतंकी हाफिज सईद से उनकी मुलाकात व इंटरव्यू (साक्षात्कार) बड़ा विवाद का कारण बना। यद्यपि जैसी कि उक्ति है कि "अप्रियस्य च अपथ्यस्य श्रोता वक्ता च दुर्लभ:", तथापि यह उनके व्यक्तित्व का ही अद्भुत विलक्षण प्रभाव था कि उन विवादित विषयों पर भी उनके आशय को दुराशय ठहराने का दुस्साहस/ साहस कोई आलोचक नहीं कर पाया। मतलब पत्रकारिता को पूर्ण रूप से जीने वाले जीवट व्यक्ति का हमारे बीच से चला जाना अपूरणीय क्षति है। कबीर के शब्दों में
"दास कबीर जतन से ओढ़ी, ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया"
मेरे लिए तो व्यक्तिगत रूप से यह वज्राघात समान ही एक बहुत बड़ी क्षति है। मुझे उनके साथ बीते हुए वे पल आज लेख लिखते हुए याद आ जाते हैं, जो वर्तमान "द सूत्र " के सूत्रधार मूलतः बैतूल के वरिष्ठ पत्रकार मेरे छोटे भाई आनंद पांडे के माध्यम से मेरे प्रकाशित लेखों के संकलन की किताब "कुछ सवाल जो देश पूछ रहा है आज" के लोकार्पण कार्यक्रम में तत्कालीन केंद्रीय मंत्री व मुझे हमेशा से आशीर्वाद देने वाली दीदी सुश्री उमा भारती जी के साथ वे बैतूल आए थे। जब मैंने उन्हें बताया कि दीदी कार्यक्रम में आ रही है, तब वे बोले-"अच्छा! उमा आ रही है आ है"। इससे उनकी बेहद सुगमता, सरलता, सहजता और अधिकार पूर्ण आत्मीय संबंध प्रकट होते हैं, जो मैंने उनके बैतूल प्रवास के दौरान उनके साथ गुजारे एक दिन के समय में महसूस किए थे। लोकार्पण कार्यक्रम में उन्होंने "गागर में सागर भरते हुए" जो उदगार व्यक्त किए थे, वे दिलो-दिमाग में आज भी उतने ही ताजे है। व्यक्तिगत चर्चा में उन्होंने मुझसे कहा था कि राजीव जब मैं  बैतूल आ रहा था, तो ट्रेन में आपकी किताब को पढ़ रहा था। "उसमें कुछ विषय व उनके विस्तार ऐसे थे जो मेरी भी सोच से आगे होकर थे, जिसकी मुझे बिल्कुल भी उम्मीद नहीं थी की बैतूल में भी कोई इस तरह से घटनाओं पर त्वरित टिप्पणी लिख सकता है"। उनके द्वारा कथनों के रूप में दिया गया यह सम्मान मेरी जीवन की अनमोल धरोहर है। बहुत समय के बाद हाल में ही कुछ दिनों पूर्व जब फोनअनेकानेक पर बातचीत हुई थी, तब उन्हें बैतूल की उस विमोचन कार्यक्रम की पुनः याद आई और मुझसे उन्होंने पूछा कि वे पांडे जी कैसे हैं, जो कार्यक्रम के बाद मुझे अपने घर ले गए और शाल श्रीफल से सम्मानित किए थे। तब मैंने उनकी आनंद पांडे से बात भी कराई थी। उनका यह निष्कपट, निशंक अपनापन व अपनत्व ही उनकी जीवन की धरोहर थी।
इंदौर में जन्मे मध्य प्रदेश का गौरव बढ़ाते हुए देश के हृदय स्थल मध्य प्रदेश से गुड़गांव रहने चले गए थे। परंतु उनका हृदय (दिल) इंदौरी  ही होकर घूमता रहता था। हिंदी प्रदेश से होने के कारण राष्ट्रभाषा हिंदी को उसका उचित स्थान और सम्मान दिलाने के लिए जो अविरत, अथक और सार्थक प्रयास उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर ही नहीं अंतरराष्ट्रीय पटल पर किए हैं, वह शायद ही किसी अन्य हिंदी के पत्रकार ने उतने किए होंगे। तथापि  वे अंग्रेजी, रूसी, फारसी, जर्मन और संस्कृत भाषा के भी प्रकांड जानकार थे।  राष्ट्रभाषा हिंदी व भारतीय भाषाओं के उत्थान के लिए यदि डॉ वेद प्रताप वैदिक को सर्वकालीन सामयिक सबसे बड़ा ब्रांड एंबेसडर कहा जाए तो बिल्कुल भी अनुचित नहीं होगा। अभी हाल में ही फरवरी 2023 में फिजी में संपन्न हुए विश्व हिंदी सम्मेलन के बाद आए लेख में हिंदी भाषा की स्थिति को लेकर उनके विचार बड़े विचारोत्तेजक थे। उनका यह मानना था कि हमारे देश में हिंदी भाषा को जो स्थान मिलना चाहिए था, वह अभी भी नहीं मिल पाया है। इसके लिए वे सिर्फ शासक-शासन-प्रशासन को ही नहीं वरन नागरिकों को भी जागृत करते रहते थे। "दरबार से दूर, चौकी से दूर" डाॅ. वैदिक अनेक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों-सम्मानों न केवल विभूषित हुए, बल्कि अपने 60 वर्ष के लेखन जीवन में उन्होंने हजारों लेख, भाषण लिखे, दिए और विभिन्न पदों पर काम करते रहे। प्रथम हिंदी समाचार एजेंसी भाषा के संस्थापक संपादक रहे। हिंदी के घोर प्रेमी होने के बावजूद अंग्रेजी भाषा में भी उनकी एक पुस्तक का प्रकाशन होना उनके उदार व बहुआयामी व्यक्तित्व को ही झलकाता है ।
डॉक्टर वैदिक की अनेकानेक उपलब्धियों के बावजूद भी एक दो बातें मन को अवश्य कचोटती हैं। प्रथम उन्हें पद्म पुरस्कारों से नवाजा न जाना और दूसरा राज्यसभा के लिए नामांकित सदस्य के रूप में नियुक्ति न करना। विज्ञान, कला, साहित्य क्षेत्रों व समाज सेवा में विशिष्ट रूप से सेवा कार्य करने वाले 12 व्यक्तियों को प्रत्येक राज्यसभा की 6 वर्ष की अवधि के लिए केंद्र सरकार की सिफारिश पर राष्ट्रपति द्वारा नामांकन का प्रावधान संविधान सभा ने इसलिए ही किया था कि ऐसे व्यक्ति जो राजनीतिक न होकर संसद में चुनकर नहीं जा पाते हैं की उल्लेखित क्षेत्र में की गई सेवाओं अनुभव और ज्ञान का लाभ "संसद के प्रभावशाली माध्यम" से राष्ट्र को मिल सके। शायद इसीलिए राज्यसभा में सर्वप्रथम 12 नामांकित किए गए व्यक्तियों में स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और हिंदी भाषा की बड़ी सेवा करने के कारण ही प्रसिद्ध  गांधीवादी लेखक चिंतक दत्तात्रेय बालकृष्ण उर्फ काका साहेब कालेलकर शामिल किए गए थे। हिंदी भाषा की जो सेवा वैदिक जी ने की, निश्चित रूप से संविधान द्वारा प्राविधिक उन 12 सीटों में से एक के नामांकन के वे हकदार अधिकारी अवश्य थे। पद्म भूषण भले ही उन्हें न मिला हो लेकिन साहित्य भूषण पुरस्कार से अवश्य सम्मिलित हुए। पद्म पुरस्कारों की लंबी चौड़ी फेहरिस्त देखें तो उससे भी स्पष्ट रूप से यही सिद्ध होता है कि दोनों स्थितियों में डॉक्टर वैदिक पुरस्कृत और नामांकित नहीं किया गए, तो उसका एक कारण शायद वैदिक जी का स्वयं को सरकार की अनुकूलता की उस सीमा तक ढाल न पाना हो सकता है, जिसकी आवश्यकता ऐसे नामांकन के लिए आजकल शायद जरूरी हो गई है। वस्तुतः ठकुर सुहाती" उनका स्वभाव-गत लक्षण ही नहीं था  । "कहि रहीम कैसे निभै, बेर केर को संग" ख़ैर! इससे डॉ. वैदिक के व्यक्तित्व या सम्मान पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता है। बल्कि उलट इसके ऐसे तंत्रों की उपयोगिता विश्वसनीयता और औचित्य पर ही औचित्य पर ही शैन: - शैन: प्रश्नचिन्ह लग सकते हैं। डाॅ. वैदिक का व्यक्तित्व तो इन दो पंक्तियों में निहित है :--
दुनिया में हूं दुनिया का तलबगार नहीं हूं,
बाज़ार से निकला हूँ ख़रीदार नहीं हूं।
आज ऐसे व्यक्तित्व का व्यक्ति हमारे बीच नहीं रहे। उनको ह्रदय की गहराइयों से शत-शत नमन, श्रद्धांजलि। वे भारत के पत्रकारिता पटल पर "दिन और रात के मध्य, संध्याकाल के समान शोभायमान हैं"। ईश्वर से यही प्रार्थना है कि उनकी आत्मा को शांति प्रदान करें, उन्हें अपने पास जगह दे और भारत ही नहीं विश्व में उनकी कलम से घटनाओं को जानने और समझने वाले दुखी मानव समुदाय को सांत्वना दे।
















सोमवार, 6 मार्च 2023

केजरीवाल की झूठी ‘‘कट्टर ईमानदारी’’ को ‘‘कट्टर बेईमानी’’ सिद्ध करने वाली भाजपा क्या मेघालय में ‘‘सत्ता’’ के लिए ‘‘कट्टर अनैतिकता’’ को अपनाएगी?

देश के तीन उत्तर पूर्वी प्रदेशों के विधानसभा चुनाव परिणाम आ गए हैं। दो प्रदेश त्रिपुरा व नागालैंड में भाजपा की गठबंधन सरकार को स्पष्ट बहुमत मिला है। मेघालय में नेशनल पीपुल्स पार्टी (एनपीपी) 26 सीटों पर जीत कर सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी है। एनपीपी व उसके नेता कोनराड संगमा को भाजपा ने चुनाव प्रचार के दौरान भ्रष्टतम नेता व पार्टी निरूपित किया था। एनपीपी के साथ पूर्व में भाजपा ने गठबंधन सरकार बनाई थी। परन्तु चुनाव के एनवक्त पहले भाजपा ने ‘‘छब्बे बनने के चक्कर’’ में गठबंधन तोड़ दिया था। लेकिन परिणाम आने पर ‘‘दुबे भी नहीं रह पाए’’। परिणाम आने के दौरान ही भाजपा ने एनपीपी के साथ पुनः सरकार बनाये जाने के जो प्रारंभिक संकेत दिए थे, वे अब फलीभूत होने जा रहे हैं। भ्रष्टतम राजनीति की बिसात तो देखिये! भ्रष्टतम व्यक्ति निरूपित किये गये मुख्यमंत्री कोनराड संगमा ने किस बेशर्मी से देश के उस गृहमंत्री से सरकार बनाने के लिये समर्थन व आशीर्वाद मांग लिया जिसने ही चुनाव प्रचार के दौरान उसे भ्रष्टतम करार किया था। चूंकि ‘‘घायल की गति घायल जाने’’ अतः बेशर्मी का जवाब आज की राजनीतिक बेशर्मी ही हो सकती है। अतः कोनराड संगमा के प्रस्ताव को अमित शाह ने बेशर्मी से स्वीकार कर लिया। गोया कि ‘‘सर सलामत तो पगड़ी हजार’’! क्या आप भूल गये (बेशर्मी) दो माइनस ;.द्ध ;.द्धत्ऱ (सत्ता) होती है। चुनाव परिणामों की चर्चा करने के पूर्व कुछ बातें ‘‘कट्टरता’’ के संबंध में भी कर ले, जिसका संदर्भ आगे चुनाव परिणाम के विश्लेषण में किया गया हैै।

अन्ना आंदोलन के ‘‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’’ की मुहिम से झूठी कसम खाकर नौकरशाह, गैर राजनीतिक केजरीवाल ने बनाई ‘‘नई आप पार्टी’’ को बार-बार ‘‘कट्टर- ईमानदारी’’ की बात को दोहराना पड़ रहा है। क्यों? क्योंकि बारंबार एक के बाद एक नेता भ्रष्टाचार के आरोप में या तो जेल में बंद है या जमानत पर हैं, परन्तु अभी तक दोषमुक्त कोई भी नहीं हुआ है। भाजपा की दिल्ली में दुश्मन नंबर एक आप पार्टी जिसने केंद्रीय सरकार के आंखों के सामने के नीचे पैरों तले जमीन खिसका कर भाजपा की जमीन पर झाड़ू लगाकर साफ कर दिया है। ऐसे आप पर भाजपा ने ‘आप’ की कट्टर इमानदारी के जवाब में कट्टर बेईमान होने का प्रमाण पत्र बार-बार जारी किया है और इन प्रमाणपत्रों के जारी करने के लिए भाजपा के पास ‘‘जबरा मारे और रोने न दे’’ के प्रतिरूप केंद्रीय जांच ब्यूरो सहित अनेक आर्थिक जांच करने वाली एजेंसियां के जांच परिणाम सामने है।
इन आरोप-प्रत्यारोपों से साफ है कि इस देश में कोई व्यक्ति या पार्टी ‘‘सामान्य रूप’’ से ईमानदार या बेईमान नहीं हो सकती है। क्योंकि देश सहिष्णुता से कट्टरवाद की ओर ही तो बढ़ रहा है? कट्टरपंथी, कट्टर सांप्रदायिकता, कट्टर धर्मांता, कट्टर आतंकवादी, और न जाने कितने कट्टर (कट्टा लिए हुए?) इस देश में मौजूद हैं? सिर्फ कट्टर मानवीयता लिए हुए मानव को छोड़कर जो कहीं नजर नहीं आती है। ‘‘राष्ट्रवाद’’ को भी ‘‘कट्टर राष्ट्रवाद’’ में बदल दिया गया है। कट्टरता का मतलब सामान्य से अधिक ‘बल’ ‘प्रयोग’ (उपयोग) करना होता है। आप जानते ही हैं कि ‘‘बल प्रयोग’’ सामान्य परिस्थितियों में नहीं किया जाता है। अतः ‘कट्टरता’’ सामान्य स्थिति की ‘‘बिम्ब’’ न होने के कारण श्रेष्ठतर कैसे हो सकती है? बावजूद इसके कट्टरता के चलन के इस युग में भाजपा कैसे पीछे रह जाती? नैतिकता ‘‘जाये चूल्हे में’’! इसलिए उन्होंने ‘‘कट्टर अनैतिकता’’ को मेघालय में अपनाने का निर्णय लिया है। कैसे! इसकी विवेचना आगे करते हैं।
याद कीजिए! मेघालय के चुनाव प्रचार के दौरान देश के गृह मंत्री अमित शाह ने क्या-क्या नहीं कहा था? अमित शाह का यह कथन महत्वपूर्ण है कि एनपीपी के नेता और उनकी पार्टी देश की सबसे भ्रष्टतम पार्टी है और मेघालय ऐसा प्रदेश है, जहां केंद्र का पैसा रोक कर सबसे कम उपयोग प्रदेश की कोनराड संगमा सरकार कर पाती है। ऐसी निष्क्रिय सरकार को उखाड़ फेंकने की आवश्यकता है। दोनों ‘‘संगमा’’ पर परिवारवादी राजनीति करने का आरोप लगाते हुए मेघालय की जनता से राज्य को दोनों परिवारों से मुक्ति का आव्हान  उन अमित शाह जो भ्रष्टाचार के विरूद्ध ‘‘जीरो टॉलरेंस’’ की नीति अपनाने वाली भाजपा के गृहमंत्री हैं, ने किया था। जिस व्यक्ति को भ्रष्टाचार का ‘सरदार’ बताकर उन से मुक्ति की अपील जनता से की थी, अब उसी ‘‘चोर उचक्का चैधरी’’ के साथ गठबंधन कर ‘‘कुटनी भई परधान’’ सरकार बनाना क्या कट्टर अनैतिकता नहीं है? भाजपा के अध्यक्ष जे पी नड्डा ने चुनाव प्रचार के दौरान यह घोषणा की थी कि सत्ता में आने पर भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच के लिए उच्चतम न्यायालय के एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश की अध्यक्षता में आयोग बनाया जायेगा। .
अपने बेरों को खट्टा कोई नहीं बताता’’ भाजपा प्रवक्ता का यह कथन तो बहुत ही हास्यास्पद है कि ईमानदार भाजपा के साथ सरकार बनाने के लिए कम भ्रष्ट कोनराड संगमा (एनपीपी) के साथ आने से वे ईमानदार हो जाएंगे? यदि बीजेपी बेईमानी को ईमानदारी में परिवर्तित करने वाली पारस पत्थर है, तब फिर देश की कांग्रेस सहित भ्रष्ट पार्टियों तथा जनता को भी अपने साथ रखकर ईमानदार बनाकर, भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1988 तथा भारतीय दंड संहिता की भ्रष्टाचार संबंधी धारा 161 से 165 को समाप्त क्यों नहीं कर देती है? ज्यादा दुखद बात यह है की प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपने ‘‘परोपकाराय सतां विभूतयः’’ के मंत्र को भुला कर शपथ ग्रहण समारोह में पहुंच रहे हैं। क्या भ्रष्टाचार विरोधी ‘‘परसेप्शन’’ और ‘‘नरेटिव’’ के आवरण को बनाए रखने के लिए प्रधानमंत्री की उपस्थिति टाली नहीं जा सकती है?
मेघालय में भाजपा यदि सरकार बनाने का प्रयास से दूर रहती तो क्या उसकी सेहत पर कुछ असर पड़ जाता? 56 इंच का सीना 55 इंच तो नहीं हो जायेगा? ‘‘सत्ता भ्रष्ट करती है व पूर्ण सत्ता पूरी तरह से’’, कहावत को सत्य सिद्ध करने के लिए ही भाजपा ने शायद भ्रष्टतम व्यक्ति के साथ सरकार बनाने का निर्णय लिया है। विश्व की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी 2 से 300 पार करने वाली पार्टी से कुछ अलग दृढ़ निर्णय की आस जनता को है, ताकि देश की राजनीति में हो रही गिरावट व अनैतिकता को कुछ हद तक रोका जा सके। पार्टी का यह नारा भी रहा है ’’पार्टी विथ डिफरेंस’’। परन्तु यह डिफरेन्स रह कहां गया है? यहां तो ‘‘घर घर मटियाले चूल्हे’’ जैसा हाल हो गया है पार्टी का। कांग्रेस को अपनी मूल अच्छी सकारात्मक पहचान खत्म करने में 70 वर्ष लग गए तो भाजपा 22 वर्षो में ही अपनी बनाई अलग पहचान, साख, विश्वसनीयता को क्या खोना चाहती है? ’’संघ’’ को उसके मूल में जा कर ‘‘करू कं शक्तों रक्षितुं मृत्युकाले’’ को नहीं भूलना चाहिये, अन्यथा 300 से वापिस पुरानी स्थिति में आने में उतनी देरी भी नहीं लगेगी, जितनी कांग्रेस को 425 से 52 पर आने में लगी।
अंत में एक सबसे महत्वपूर्ण बात अवश्य रेखांकित करना चाहता हूं। यदि भाजपा को ईमानदारी से केजरीवाल की ‘‘कट्टर ईमानदारी के झूठे आवरण से लपेटी हुई कट्टर बेईमानी’’  को जनता के बीच विश्वसनीयता के साथ प्रचारित, प्रकाशित करना है, तो कम से कम इस मुद्दे पर भाजपा को स्वयं शुचिता अपनानी दिखानी ही होगी। अटल जी ने शुचिता अपनाते हुए एक वोट से अपनी सरकार को जाने देने में बिल्कुल संकोच नहीं किया था। नरेन्द्र मोदी को आज वही अटल जी की शुचिता अपनाने की गंभीर आवश्यकता है। ठीक वैसे ही यदि अटल जी आज होते तो शायद उन्हें भी कुछ मामलों में नरेन्द्र मोदी जैसी दृढ़ता अपनाने की आवश्यकता होती। सरकार बनाने के इस मुद्दे पर भाजपा को इस बात को ध्यान में रखना होगा की जनता ने उसे न तो सरकार बनाने का जनादेश दिया है न ही मुख्य विपक्षी दल के रूप में और न ही सबसे बड़ी पार्टी के रूप में। तब वह सत्ता बनाने के खेल में बेवजह क्यों छटपटा रही है, यह बिल्कुल समझ से बिल्कुल परे है, खासकर उस स्थिति में जब भाजपा की रीति, नीति, सिद्धांत दिलो-दिमाग में बिजली के बल्ब समान चमक रहे हों। अन्यथा जो हो रहा है, भाजपा कर रही है, वह आज की राजनीति का एक ‘‘प्राकृतिक चरित्र’’ बन गया है। यह बात बिल्कुल समझ से परे है कि जब भाजपा का मुख्यमंत्री मेघालय में नहीं बन रहा है तब एक उस भ्रष्ट मुख्यमंत्री को बनाए रखने के लिए भाजपा समर्थन क्यों दे रही हैं। जिस ‘‘परिवार’’ को उखाड़ने की अपील चुनाव प्रचार के दौरान अमित शाह ने की थी। बड़े लक्ष्य की प्राप्ति के लिए छोटे सिद्धांत को छोड़ा जा सकता है। परंतु किंचित उपलब्धि के लिए बड़े सिद्धांत को साइडलाइन कर देना कौन सा ज्ञान-विज्ञान, प्रकांड है, कोई भाजपाई यह समझायेगा?

‘‘एमपी अजब- गजब’’! ‘‘अजब’’ प्रदेश के ‘‘गजब’’ मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के जन्म दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं।

 5 मार्च को मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के जन्म दिवस पर विशेष लेख!

5 मार्च को प्रदेश के जन-जन के दिलों में (शिव-राज) राज करने वाले ‘‘शिव’’ के सेवक ‘‘मत चूके चौहान’’ का पालन करने वाले शिवराज सिंह चौहान का आज जन्म दिवस है। निश्चित रूप से जन्मदिन के अवसर पर व्यक्ति की उपलब्धियों को गिनना एक शिष्टाचार होता है। ‘‘कभी घी घना, कभी मुट्ठी भर चना’’ को समान भाव से ग्रहण करने वाले शिवराज सिंह के नाम अनेकानेक उपलब्धियां है। या यह कहें कि उपलब्धियों का भंडार है, तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। ‘‘हाथ कंगन को आरसी क्या’’, इनमें से कुछ उपलब्धियां तो देश में सबसे पहले सबसे, आगे व सबसे तेज प्रारंभ करने का श्रेय शिवराज को जाता है। तो कुछ योजनाएं भूतो न भविष्यति की श्रेणी में आती है। ‘‘अपनी करनी पार उतरनी’’ पर विश्वास रखने वाले शिवराज सिंह की कुछ उपलब्धियां ऐसी भी है, जो उन्हें सिर्फ-सिर्फ (एक्सक्लूसिव) उनके द्वारा ही प्रारंभ की गई है। 

शिवराज सिंह की देश में बिलकुल, अनन्य, नई उपलब्धियां आगे रेखांकित की जा रही है। देश के वे शायद एकमात्र ऐसे मुख्यमंत्री हैं, जिन्होंने मुख्यमंत्री पद की शपथ ग्रहण करने के तुरंत-फुरंत नहीं बल्कि एक महीने बाद मात्र पांच सहयोगी मंत्री बनाएं व जिन्हे विभागों का प्रभार देने के पहले भौगोलिक स्थिति के अनुसार संभागीय प्रभार दिये गये। देश की प्रथम गौ कैबिनेट बनी (वर्ष 2020)। समरस गांव सम्मान योजना (अपराध कम करने के लिये तीन साल में एक भी रिपोर्ट थाने में न पहुंचने पर), समस्त गांवों का जन्म दिवस योजना साल में एक दिन तय कर गांव का जन्मदिन मनाकर विकास की योजना बनाना देश में एक बिल्कुल नया प्रयोग है। ‘‘तेल देख, तेल की धार देख’’ का अनुसरण करते हुए लाड़ली बहना योजना के तहत मध्य प्रदेश सरकार बहनों को 1000 महीना देने जा रही हैं, यह योजना 8 मार्च से शुरू हो रही है।

यद्यपि शिवराज की नीति है कि ‘‘माल कैसा भी हो, हांक हमेशा ऊंची लगनी चाहिये’’, लेकिन देश की विभिन्न योजनाएं में मध्यप्रदेश को अव्वल (प्रथम) स्थान रखने वाली कुछ उपलब्धियां भी है, जो यह दिखाती हैं कि शिवराज ‘‘हथेली पर सरसों जमाने वाले’’ मुख्यमंत्री नहीं है। केंद्र की प्रधानमंत्री स्वनिधि योजना (शहरी पथ विक्रेताओं के लिए) स्कॉच ग्रुप ने गुजरात के साथ-साथ मध्य प्रदेश को सुशासन के लिये सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार से नवाजा है। कृषि क्षेत्र में सिंचाई के साधन में कई गुना वृद्धि होने के परिणाम स्वरूप ही प्रदेश को पिछले पाँच वर्षो से लगातार ‘‘कृषि कर्मण’’ पुरस्कार मिला है। अब वे ‘‘पांव-पांव’’ के साथ ‘‘गांव-गांव’’ वाले भैया भी कहलाने लगे हैं। स्वच्छता के मामले में इंदौर पिछले लगातार पांच सालों से देश में सर्वप्रथम रहकर प्रदेश को गौरवान्वित किया है। इस प्रकार स्वच्छता के लिए ‘इंदौर मॉडल’ को देश के अनेक प्रदेश अपनाने का प्रयास कर रहे है। इंदौर देश का प्रथम ‘‘वाटर प्लस’’ सिटी (2021 में) बना। स्वच्छ सर्वेक्षण में भी प्रथम। कोविड-19 संक्रमण काल में ओमिक्रॉन के बढ़ते फैलाव को देखते हुए देश में सर्वप्रथम मध्यप्रदेश में नाइट कफर््यू लगाया गया। ऑक्सीजन की कमी होने के कारण ऑक्सीजन के उपयोग के लिए ऑक्सीजन ऑडिट की बिल्कुल नई धारणा देकर स्थिति पर नियंत्रण किया। केंद्र की प्रधानमंत्री मत्स्य सम्पदा 2022, स्वनिधी योजना, प्रधानमंत्री मातृत्व वंदना व सुकन्या समृद्धि योजना में मध्यप्रदेश प्रथम हैं। उपभोक्ता निराकरण मामले में, निःशक्त विद्यार्थी को शिक्षा देने में अव्वल (वर्ष 2015)। अंतरराष्ट्रीय योग दिवस 21 जून 2021 को एक दिन में सबसे ज्यादा कोविड वैक्सीन 16.91 लाख (1691967) लगाने का वल्र्ड रिकॉर्ड व देश के देश में सबसे ज्यादा 3 करोड़ से ऊपर वैक्सीन लगाने का रिकॉर्ड भी मध्यप्रदेश ने ही बनाया। युवाओं (15 से 18 वर्ष) को वैक्सीन लगाने के मामले में देश में प्रथम दिवस पर मध्यप्रदेश प्रथम स्थान पर रहा (लगभग 7.5 लाख)। अभी 18 फरवरी 2023 (विक्रम संवत 2079) को महाकाल की नगरी अवंतिका उज्जयिनी में ‘‘शिव ज्योति अर्पण’’ कार्यक्रम में जन सहयोग 1882229 दिए (दीपक) से शिवराज सिंह ने प्रज्वलित करवाएं। 

‘‘मेरी सुरक्षा मेरा मास्क’’ जन-जागरूकता अभियान चलाया। आंवला उत्पादन में प्रथम (देश का 33 प्रतिशत)। 19 फरवरी 2021 को नर्मदा जयंती के अवसर पर अमरकंटक में पौधा लगाकर 1 वर्ष तक प्रतिदिन एक पौधा लगाने का न केवल संकल्प शिवराज सिंह ने लिया, बल्कि उसको प्रतिदिन लागू कर एक नहीं 2 वर्ष से भी ज्यादा समय व्यतीत होकर प्रतिदिन एक या अधिक पौधे लगाए हैं। वृक्षाय नमामि। जनता से भी ऐसी ही अपील की जाकर ‘‘अंकुर कार्यक्रम’’ प्रारंभ कर अभी तक 17 लाख से ज्यादा पौधे लगाए जा चुके हैं। अस्पताल की तर्ज पर किसानों के लिए ‘‘कृषि ओपीडी’’ के रूप में पायलट प्रोजेक्ट की शुरुआत सर्वप्रथम 2020 में हरदा में प्रारंभ की गई। राज्य में न केवल मांग-आपूर्ति के अनुरूप बिजली का उत्पादन हो रहा है, बल्कि अब वह दूसरे प्रदेश को अतिरिक्त बिजली बेच भी रहा है। इस प्रकार लगभग 39 विभागों की 200 से अधिक अनेकानेक योजनाएं उन्होंने जनहित में लागू की हैं। मध्य प्रदेश को विकास के माध्यम से देश का नम्बर वन राज्य बनाने का उनका संकल्प व रोड़ मेप है। इसी दिशा में 2023-24 के लिए प्रस्तुत किये गए बजट में ‘‘मां’’ ‘‘बेटी’’ व ‘‘बहन’’ को शामिल करते हुए महिलाएं जो लगभग आधी जनसंख्या के लिए 33 प्रतिशत से अधिक बजट प्रावधान अनुसूचित जनजाति व अनूसचित जाति के कुल 37 प्रतिशत आबादी के लिए भी कल बजट का 37 प्रतिशत से अधिक धन राशि का प्रावधान किया गया है। मध्यप्रदेश की विकास यात्रा के संबंध में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का यह कथन महत्वपूर्ण है कि मध्यप्रदेश गजब तो है ही, देश का गौरव भी है। कालांतर में ‘‘मध्यप्रदेश’’ भारत की विकास गाथा के पीछे मुख्य प्रेरक शक्ति बन जाएगा’’। ‘‘स्वारथ लागि करहिं सब प्रिती’’। 

‘‘दूरस्थारू पर्वता: रम्यारू’’ को चरितार्थ करती हुई शिवराज सिंह की कुछ प्रमुख असफलताएं भी है। महिलाओं पर होने वाले अपराध, बलात्कार व बच्चों के अपराध के मामलों में मध्यप्रदेश आज भी अव्वल प्रदेश से निकल नहीं पाया है। आत्महत्या के मामले में देश में तीसरे स्थान पर है। ‘‘हर महान् योद्धा कोई न कोई युद्ध हारता भी है’’। शिवराज सिंह भी अपने लंबे राजनीतिक करियर में मात्र एक चुनाव हारे हैं।

भाजपा हाईकमान के सामने भी ‘‘हाकिम की अगाड़ी से बचने वाले’’ शिवराज सिंह की स्थिति ‘‘न उगलते बने न निगलते’’ जैसी हो गई है। 9 महीने बाद प्रदेश में आम चुनाव होने वाले है। एक तरफ भाजपा हाईकमान की नजर में प्रदेश के कोने कोने में शिवराज सिंह से ज्यादा पहचान वाला, (‘‘मामाजी’’) दूसरा अन्य कोई व्यक्ति नहीं है, जो आगामी चुनाव में भाजपा की सत्ता की नाव को सफलतापूर्वक खेव सके। अंदरखाने की बात करें तो भाजपा हाईकमान के पास यह भी रिपोर्ट विभिन्न विश्वस्त सूत्रों से आ रही है कि लगातार 16 वर्ष (बीच में 15 महीने छोड़कर) सत्ता में रहने के कारण शिवराज सिंह के नाम की व्यक्तिगत विरोधी लहर (एन्टी इनकम्बेंसी) (जो स्वाभाविक है) बन गई है, जो चुनाव में हार का कारक सिद्ध हो सकती है। भला ‘‘ख़लक का हलक किसने बंद किया है’’। 

यह सामान्य प्रक्रिया है, जब हम किसी चेहरे को लगातार देखते है, तो उससे ऊब से जाते है और बिना किसी दोष के उस चेहरे को बदलने के लिए लालायित हो जाते है। एक फिल्म जो कितनी ही अच्छी क्यों न हो, दो-तीन, चार बार ही देखी जा सकती है। पांचवी बार उसे देखने का मन नहीं होगा। वही स्थिति शिवराज सिंह की है। परन्तु इस स्थिति के लिए उन्हें जिम्मेदार कदापि नहीं ठहराया जा सकता है। क्योंकि यह स्थिति उनके कार्यों के कारण नहीं है, बल्कि जनता के द्वारा लगातार एक चेहरा दिखने के कारण है। अब वे उम्र के इस पड़ाव पर चेहरे पर प्लास्टिक सर्जरी करने से तो रहे? यद्यपि राजनीतिक सर्जरी करने में वे माहिर होकर ‘उस्तादों के उस्ताद’ है। यह एन्टी इनकम्बेंसी कारक उस जनता के कारण उत्पन्न हुआ है, जिसने स्वयं शिवराज सिंह को लगातार चुना है और वही जनता अपने कृत्य से उत्पन्न एन्टी इनकम्बेंसी के नाम पर चेहरा बदलने का मैसेज दे, इसके लिए शिवराज सिंह कहां तक जिम्मेदार है? तथापि इस उत्पन्न दोष के लिए उन्हें क्यों ‘‘बली का बकरा’’ बनाया जाना चाहिए? या तो जनता को लगातार चेहरे देखने से ऊबने की प्रवृत्ति को दूर करना होगा, बदलना होगा। अन्यथा पांचवी बार जब आप फिल्म देखने जाएंगे तो हाल में सिर्फ वे ही लोग होंगे जिनको फ्री व स्पेशल पास मिले होंगे। मतलब साफ है! परिणाम भविष्य के गर्भ में है। ‘‘होइहि सोइ जो राम रचि राखा’’।

बुधवार, 1 मार्च 2023

वर्ष 2023 के अंत में हो रहे मध्यप्रदेश के विधानसभा चुनाव में ‘‘जनता की सरकार’’! किस झंडे तले?

नवम्बर 2023 में मध्य-प्रदेश के विधानसभा चुनाव अन्य 4 प्रदेशों व एक केन्द्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर (संभावित) के साथ हो रहे हैं। बदलते गुजरते समय के साथ ‘युग’ परिवर्तनवादी, प्रगतिवादी, विकासवादी होता है, या कभी पिछड़ेपन लिये भी होता है, परंतु ‘‘जड़’’ नहीं होता है। बड़ा प्रश्न यह है कि आगामी होने वाले विधानसभा चुनाव में ‘‘डंका’’ किसका बजेगा, ‘‘झंडा’’ किसका गड़ेगा और 26 जनवरी 2024 को गणतंत्र दिवस की परेड की सलामी लाल परेड पुलिस ग्राउंड, भोपाल में कौन लेगा? परिवर्तन होगा? या पुनरावृत्ति होगी? इसका सटीक आकलन करना तो ‘‘गूलर का फूल तलाशने’’ जैसा है। फिर भी लगभग 9 महीनों बाद होने वाले विधानसभा चुनाव का आकलन पिछले सवा चार सालों की कार्यप्रणाली के आधार पर और हो रही चुनावी तैयारी को ध्यान में रखकर किया जा रहा है। परन्तु आगामी इन 9 महीनों में आगे क्या कुछ घटेगा, जो शायद हमारी-आपकी कल्पनाशीलता में न हो या जिस पर हम आज विचार नहीं कर पा रहे हैं, का परिणामों के अनुमान पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। परन्तु फिर बड़ा प्रश्न यही है कि, इस ‘‘सूरते हाल’’ में ‘‘तेल देख तेल की धार देखते हुए’’ वर्तमान चुनावी आकलन इस प्रदेश के बाबत् क्या है?

अभी चुनाव में 9 महीने शेष है। गर्भधारण करने से सामान्यतः 9 महीनों में बच्चे का जन्म होता है और प्रसव कष्ट सहने के साथ बच्चे के पैदा होने पर माँ व परिवार को खुशी होती है। कुछ-कुछ वैसी ही स्थिति राजनैतिक आकलन की भी समझिए। आज राजनैतिक आकलन का ‘‘भ्रूण’’ डाला गया है। 9 महीने बाद जब परिणाम आएंगे, तब राजनीतिक आकलन या चुनावी जनमत सर्वेक्षण (ओपिनियन पोल) किसी को ‘कष्ट’ देंगे तो किसी के चेहरे पर ‘मुस्कुराहट’ ला देंगे, यह देखने की बात होगी। गर्भधारण के बाद लिंग टेस्ट करना कानूनन अपराध है। जैसे ‘‘एक्जिट पोल’’ सर्वेक्षण पर कानूनी प्रतिबंध (मतदान समाप्त होने के समय तक) जरूर लगाया गया है, तथापि ओपिनियन पोल पर नहीं।

सिद्धांतः राजनीति का सामान्य सा सिद्धांत यह है कि जब कोई सरकार जनादेश पाकर चुनी जाती है, वह पांच वर्ष अपने चुनावी घोषणा पत्र के वादे की पूर्ति हेतु जनहित में कार्य कर 5 साल बाद पुनः जनादेश मांगने के लिए जनता के पास फिर जाती है। क्या इस ‘‘कसौटी’’ पर भाजपा फिर ‘‘खरी’’ उतरेगी या अपने किये गये वादों को पूरा न करने के कारण जनता में फैले असंतोष से पिछले विधानसभा चुनाव के समान कांग्रेस भाजपा का ‘‘टाट उलट कर’’ सत्ता का ‘‘मुकुट’’ पहन पाएगी? इसका कुछ तथ्यात्मक अनुमान लगाना यद्यपि ‘‘कुंए में बांस डाल कर तलाशने’’ जैसा है, तथापि अनुमान लगाने के पूर्व चुनाव संबंधी कुछ सामान्य बातों की चर्चा कर लेना आवश्यक है। 

जहां तक चुनावी घोषणा पत्र/वचन पत्र का प्रश्न है, कोई भी पार्टी चुनावी वादों के घोषणा पत्र को 5 साल की अवधि में न तो पूरा कर पाती है और न ही समस्त वादे पांच साल की अवधि में करने के लिए होते हैं। सामान्य रूप से आम जनता भी इन घोषणा पत्रों को ‘‘कागजी घोड़े’’ मानते हुए उन पर ध्यान न देकर मात्र एक ‘परिपाटी’ मान कर उनके पूरा होने या न होने के आधार पर अपने मतों का निर्णय नहीं करती है। इसलिए चुनावी घोषणा पत्र के लागू होने का मुद्दा इस चुनावी परिणाम में बहुत कारक होगा, ऐसा लगता नहीं है। यह चुनाव परिणाम की दिशा को तय करेगा, ऐसा भी नहीं लगता है, विपरीत इसके जैसा कि विश्व के कुछ लोकतांत्रिक देशों में होता है। यद्यपि पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जीत का बडा कारक जनता के असंतोष को ही बतलाया गया था। 

विधानसभा चुनाव में एक प्रमुख मुद्दा एंटी इनकम्बेंसी (सत्ता विरोधी कारक) का होता है। इस फैक्टर का मतलब कदापि यह नहीं होता है कि सत्ताधारी दल की सत्ता के खिलाफ ही अंसतोष हो। बल्कि तथ्य एक यह भी होता है कि जनता ने जिन प्रतिनिधियों को चुना है, चाहे वे सत्ता या विपक्ष के हो, जनता की नजर में वे आरूढ़ (सत्ता-रूढ़ विधायिका के) है। इसीलिए चुने हुए विधायकों के खिलाफ स्थानीय स्तर पर भी एक ऐसी ही एन्टी इनकम्बेंसी फैक्टर मौजूद होती है। क्योंकि वोटर किसी ‘‘एक जहाज का पंछी’’ नहीं होता है। यह बात जरूर है कि यह कारक सत्ता पक्ष के खिलाफ ज्यादा होता है, क्योंकि उनके पास जनता के हितों के लिए कार्य करने के लिए सत्ता (पावर) होता है। इस दृष्टि से देखे तो मध्यपद्रेश में सत्ताधारी पार्टी भाजपा के कार्यकर्ताओं में असंतोष सीमा से ज्यादा खतरनाक लेवल (स्तर) तक पहुंच गया है। यह सबसे बड़ा चिंता का कारण संघ सहित भाजपा के शीर्ष नेतृत्त्व के लिये बन गया है। क्योंकि असंतुष्ट जनता को बूथ में लाने का कार्य संतुष्ट कार्यकर्ता कर सकता है, परन्तु संतुष्ट जनता को बूथ में लाने का कार्य असंतुष्ट कार्यकर्ता नहीं कर सकता है। क्योंकि ‘‘कड़े गोश्त के लिये पैने दांतों की जरूरत होती है’’। 

एक अनुमान के अनुसार प्रदेश की दोनों प्रमुख राजनीतिक पार्टियां भाजपा व कांग्रेस का प्रतिबद्ध (कमिटेड) वोटर लगभग कुल 40 प्रतिशत के आसपास होता है। आप हम सब जानते है कि इस देश में कम से कम 50 प्रतिशत मतदाता (कमिटेड अथवा फ्लोटिंग (अस्थाई) दोनों) राजनैतिक पार्टी के कार्यकर्ताओं के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रयासों से ही बूथ पर पहुंचते हैं। इस कारण से कहीं न कहीं भाजपा के गले में खतरे की घंटी बज रही है। वैसे एन्टी इनकंबेंसी फैक्टर को (ओवरपावर्ड) ‘‘कसाई के खूंटे से बांधने’’ और ‘नेस्तनाबूद’ करने की क्षमता भाजपा में आ गई है। साक्ष्य स्वरूप गुजरात, उत्तराखंड, असम, गोवा व कर्नाटक प्रदेशों के चुनाव परिणाम हैं। परन्तु भाजपा की विकास यात्रा कहीं इतिहास की पुनरावृत्ति न कर दे, जब अटल जी के जमाने में अरुण जेटली ने शाइनिंग इंडिया का नारा दिया था और क्या परिणाम आये, आपके सामने है। प्रदेश में चल रही विकास यात्रा में उत्पन्न अभी तक का छुपा हुआ जन असंतोष विरोध के रूप में कमोवेश हर जगह प्रदर्शित हो रहा है, भले ही छुटपुट हो। इससे यह आशंका बलवती हो रही है कि कहीं यह कदम उल्टा न पड़ जाए? विपरीत इसके इन संकेतों को समझकर अगले 9 महीने में इसे बेअसर भी किया जा सकता है?

अब यदि कांग्रेस की चुनावी संभावनाओं की दृष्टि से बात करे से तो प्रदेश में यह पहली बार हो रहा है कि चुनाव होने के पूर्व ही नेतृत्व पर शंका व विवाद की स्थिति नहीं है। ‘‘एकै साधे सब सधे’’ जैसी स्थिति है। अर्थात कांग्रेस की जीत की स्थिति में कमलनाथ ही मुख्यमंत्री बनेंगे, इसमें कोई शक ओ शुब्हा नहीं है। यह स्थिति कांग्रेस को ताकत व मजबूती से लड़ने के लिए प्रेरक तत्व होकर ताकत बन सकती है। चंूंकि उम्र के पड़ाव की दृष्टि से कमलनाथ का यह आखिरी चुनाव लगता है, अतः वे अब अपने बेटे नकुलनाथ को सत्ता की गद्दी पर बैठने के लिए मजबूत आधार प्रदान करना चाहेगें। परन्तु जिस प्रकार सिक्के के दो पहलू होते है, उसी तरह कांग्रेस की गुटबाजी का एक पहलू तो ‘‘बहुतेरे जोगी मठ उजाड़’’ की उक्ति को चरितार्थ करता है, तो दूसरा पहलू गुटबाजी उसकी ’ताकत भी है। प्रत्येक गुट अपनी शक्ति को दिखाने के लिए पूर्ण ताकत व क्षमता से चुनाव में कूदता है, जिसका फायदा अंततः पार्टी को मिलता है। 

मध्यप्रदेश क्षत्रप में बंटा हुआ प्रदेश है। एक क्षत्रप (महाकौशल) नेता के नेतृत्व पर मोहर लगाई है। परन्तु जो वर्षों मुख्यमंत्री का सपना व आस बैठाये हुए अन्य क्षत्रप नेता (राहुल सिंह, अरुण यादव आदि आदि) है, क्या वे कांग्रेस को जिताने में अपनी ताकत का उतना ही उपयोग करेंगे, जितना कि वे स्वयं के लिए मुख्यमंत्री पद की दौड़ होने की स्थिति में करते? अन्यथा नेतृत्व पर अंतिम मोहर लगाने के मुद्दे से उत्पन्न आक्रोश, असंतोष के कारण कमलनाथ की सत्ता के घोड़े के रथ को मंजिल पहुंचाने में रुकावटें आएगी? कमलनाथ इस सत्ता के रास्ते में आ रही रुकावटों को जितनी समरसता में बदलने का सफल प्रयास करेंगे, उतने ही सफलता से कांग्रेस आयेगी। इसलिए अभी फिलहाल दोनों पक्ष राजनीतिक मैदान में अपनी-अपनी चाल चलने के लिए उतर गये है। 

भाजपा तो हमेशा की तरह समय पूर्व ही चुनाव की तैयारी में जुट जाती है, बल्कि वह पांचों साल कहीं न कहीं चुनावी मोड में ही रहती है। परन्तु कांग्रेस की स्थिति ‘‘गयी भैंस पानी में’’ जैसी होती है। कहीं-कहीं तो ‘‘बी फार्म’’ भी हेलिकाॅटर से पंहुचाने पड़ जाते हैं। लेकिन इस बार कमलनाथ ने भी ‘‘तुम डाल डाल हम पात पात’’ की तर्ज पर भाजपा की तरह पन्ना प्रमुख के साथ तैयारी समय-पूर्व वैसी ही प्रारंभ कर दी है। ‘‘संघे शक्तिः कलौयुगे’’ का सूत्र वाक्य पकड़ कर ‘‘संघ स्टाइल’’ में चुनाव लड़ने की कमलनाथ की तैयारी चालू है। इसलिए आज की स्थिति में यह कहना बहुत जल्दबाजी होगा कि चुनाव में कौन पार्टी जीतेगी? पिछले विधानसभा चुनाव में जब भाजपा की हार हुई थी व कांग्रेस की जीत हुई, तब ‘‘कांग्रेस के हाथ बटेर’’ लगने का अनुमान किसी ने नहीं किया गया था। इसलिए इस बार कांग्रेस ज्यादा सशक्त तरीके से चुनाव लड़ने का प्रयास कर रही है क्योंकि उसे अब सत्ता प्राप्ति की उम्मीद ज्यादा लग रही है, जो शायद पिछली बार इतनी भी नहीं थी। परन्तु पिछले विधानसभा चुनाव की तुलना में कांग्रेस के 28 विधायक टूटकर भाजपा में शामिल हुए जिसमें मात्र 9 विधायक कांग्रेस के पुनः चुनकर आये। इससे हुई नुकसान की भरपाई कमलनाथ कैसे कर पाएंगे, यह भी देखने की बात होगी। इसलिए अभी चुनावी मैदान खुला है। क्योंकि चुनावी परिणाम को बिगाड़ने में दूसरे क्षेत्रीय दलों और आप पार्टी का उद्भव होना बाकी है। तब तक सही परिणाम के अनुमान लिए इंतजार करना ही होगा। अंक देने की दृष्टि से फिलहाल दोनों ही पार्टियों को 5-5 अंक देने होंगे, क्योंकि ऊंट किस करवट बैठेगा, यह सुनिश्चित करना फिलहाल आज मुश्किल है।

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