बुधवार, 15 मार्च 2023

पत्रकारिता के एक " *भीष्म "युग पितामह" का देहावसान! नमन श्रद्धांजलि व कुछ मधुर लम्हे!

17 मई 2018 को बैतूल में आयोतिज समारोह 

पत्रकार जगत के " धूमकेतु" डॉक्टर वेद प्रताप वैदिक का अचानक हृदयाघात से स्वर्गवास हो जाने से प्रिंट मीडिया में गहरे अवसाद के साथ में एक बड़ा शून्य और रिक्तता उनके बड़े व्यक्तित्व के न रहने के कारण आ गई है, जो स्वाभाविक ही हैं, जिसकी परिपूर्ति उसी तरह की होना शायद संभव नहीं हो पाएगी। "सरल, गंभीर शब्दों और कठोर तर्कों के धनी" डाॅ. वेद प्रताप वैदिक की गणना उन राष्ट्रीय अग्रदूतों में होती है, जिन्होंने हिंदी को मौलिक चिंतन की भाषा बनाया और भारतीय भाषाओं को उनका उचित स्थान दिलाने के लिये सतत संघर्ष और त्याग किया। "हा, अनतिक्रमणीयो हि विधिः"  मतलब डॉ वेद प्रताप वैदिक इस संसार से देह छोड़कर ईश्वर के पास अवसान (देह-अवसान) के लिए चले जाने के बावजूद विश्व पटल पर अपने लिखे गए लेखों के माध्यम से पाठक जन-जन में हमेशा अपनी उपस्थिति का एहसास कराते रहेंगे। प्रायः दो-चार दिनों की आड़ में अपनी कलम से दो-चार होकर  देसी कलम से विदेशी जानकारी, खासकर भारत के पड़ोसी देशों के साथ राजनयिक संबंधों के संबंध में उनकी विचारोत्तेजक टिप्पणियां देश के शासकों  के लिए हमेशा एक चुनौतीपूर्ण रास्ता दिखाने वाली होती थी। इसी कारण से वे लंबे समय से  "भारतीय विदेश नीति परिषद" के अध्यक्ष चले आ रहे थे। कदापि इसका  मतलब यह नहीं है कि वे देश की आंतरिक स्थिति पर नज़र रखे हुए नहीं थे। बल्कि देश में पल-पल पर घटित हो रही घटनाओं पर एक "सजग प्रहरी की भांति" प्रायः अपनी तीक्ष्ण, तीव्र नजर से देखकर भेद कर अपनी पैनी कलम से राष्ट्रहित जनहित में लिखकर शासकों को हमेशा सजग रहने के लिए समालोचक उत्प्रेरक का कार्य करते रहे।
ऐसा भी नहीं है की विवादित विषयों से उनका कभी भी नाता-पाला ही न पड़ा हो या सामना न हुआ हो। उदाहरणार्थ देश का दुश्मन नंबर एक खूंखार पाकिस्तानी आतंकी हाफिज सईद से उनकी मुलाकात व इंटरव्यू (साक्षात्कार) बड़ा विवाद का कारण बना। यद्यपि जैसी कि उक्ति है कि "अप्रियस्य च अपथ्यस्य श्रोता वक्ता च दुर्लभ:", तथापि यह उनके व्यक्तित्व का ही अद्भुत विलक्षण प्रभाव था कि उन विवादित विषयों पर भी उनके आशय को दुराशय ठहराने का दुस्साहस/ साहस कोई आलोचक नहीं कर पाया। मतलब पत्रकारिता को पूर्ण रूप से जीने वाले जीवट व्यक्ति का हमारे बीच से चला जाना अपूरणीय क्षति है। कबीर के शब्दों में
"दास कबीर जतन से ओढ़ी, ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया"
मेरे लिए तो व्यक्तिगत रूप से यह वज्राघात समान ही एक बहुत बड़ी क्षति है। मुझे उनके साथ बीते हुए वे पल आज लेख लिखते हुए याद आ जाते हैं, जो वर्तमान "द सूत्र " के सूत्रधार मूलतः बैतूल के वरिष्ठ पत्रकार मेरे छोटे भाई आनंद पांडे के माध्यम से मेरे प्रकाशित लेखों के संकलन की किताब "कुछ सवाल जो देश पूछ रहा है आज" के लोकार्पण कार्यक्रम में तत्कालीन केंद्रीय मंत्री व मुझे हमेशा से आशीर्वाद देने वाली दीदी सुश्री उमा भारती जी के साथ वे बैतूल आए थे। जब मैंने उन्हें बताया कि दीदी कार्यक्रम में आ रही है, तब वे बोले-"अच्छा! उमा आ रही है आ है"। इससे उनकी बेहद सुगमता, सरलता, सहजता और अधिकार पूर्ण आत्मीय संबंध प्रकट होते हैं, जो मैंने उनके बैतूल प्रवास के दौरान उनके साथ गुजारे एक दिन के समय में महसूस किए थे। लोकार्पण कार्यक्रम में उन्होंने "गागर में सागर भरते हुए" जो उदगार व्यक्त किए थे, वे दिलो-दिमाग में आज भी उतने ही ताजे है। व्यक्तिगत चर्चा में उन्होंने मुझसे कहा था कि राजीव जब मैं  बैतूल आ रहा था, तो ट्रेन में आपकी किताब को पढ़ रहा था। "उसमें कुछ विषय व उनके विस्तार ऐसे थे जो मेरी भी सोच से आगे होकर थे, जिसकी मुझे बिल्कुल भी उम्मीद नहीं थी की बैतूल में भी कोई इस तरह से घटनाओं पर त्वरित टिप्पणी लिख सकता है"। उनके द्वारा कथनों के रूप में दिया गया यह सम्मान मेरी जीवन की अनमोल धरोहर है। बहुत समय के बाद हाल में ही कुछ दिनों पूर्व जब फोनअनेकानेक पर बातचीत हुई थी, तब उन्हें बैतूल की उस विमोचन कार्यक्रम की पुनः याद आई और मुझसे उन्होंने पूछा कि वे पांडे जी कैसे हैं, जो कार्यक्रम के बाद मुझे अपने घर ले गए और शाल श्रीफल से सम्मानित किए थे। तब मैंने उनकी आनंद पांडे से बात भी कराई थी। उनका यह निष्कपट, निशंक अपनापन व अपनत्व ही उनकी जीवन की धरोहर थी।
इंदौर में जन्मे मध्य प्रदेश का गौरव बढ़ाते हुए देश के हृदय स्थल मध्य प्रदेश से गुड़गांव रहने चले गए थे। परंतु उनका हृदय (दिल) इंदौरी  ही होकर घूमता रहता था। हिंदी प्रदेश से होने के कारण राष्ट्रभाषा हिंदी को उसका उचित स्थान और सम्मान दिलाने के लिए जो अविरत, अथक और सार्थक प्रयास उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर ही नहीं अंतरराष्ट्रीय पटल पर किए हैं, वह शायद ही किसी अन्य हिंदी के पत्रकार ने उतने किए होंगे। तथापि  वे अंग्रेजी, रूसी, फारसी, जर्मन और संस्कृत भाषा के भी प्रकांड जानकार थे।  राष्ट्रभाषा हिंदी व भारतीय भाषाओं के उत्थान के लिए यदि डॉ वेद प्रताप वैदिक को सर्वकालीन सामयिक सबसे बड़ा ब्रांड एंबेसडर कहा जाए तो बिल्कुल भी अनुचित नहीं होगा। अभी हाल में ही फरवरी 2023 में फिजी में संपन्न हुए विश्व हिंदी सम्मेलन के बाद आए लेख में हिंदी भाषा की स्थिति को लेकर उनके विचार बड़े विचारोत्तेजक थे। उनका यह मानना था कि हमारे देश में हिंदी भाषा को जो स्थान मिलना चाहिए था, वह अभी भी नहीं मिल पाया है। इसके लिए वे सिर्फ शासक-शासन-प्रशासन को ही नहीं वरन नागरिकों को भी जागृत करते रहते थे। "दरबार से दूर, चौकी से दूर" डाॅ. वैदिक अनेक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों-सम्मानों न केवल विभूषित हुए, बल्कि अपने 60 वर्ष के लेखन जीवन में उन्होंने हजारों लेख, भाषण लिखे, दिए और विभिन्न पदों पर काम करते रहे। प्रथम हिंदी समाचार एजेंसी भाषा के संस्थापक संपादक रहे। हिंदी के घोर प्रेमी होने के बावजूद अंग्रेजी भाषा में भी उनकी एक पुस्तक का प्रकाशन होना उनके उदार व बहुआयामी व्यक्तित्व को ही झलकाता है ।
डॉक्टर वैदिक की अनेकानेक उपलब्धियों के बावजूद भी एक दो बातें मन को अवश्य कचोटती हैं। प्रथम उन्हें पद्म पुरस्कारों से नवाजा न जाना और दूसरा राज्यसभा के लिए नामांकित सदस्य के रूप में नियुक्ति न करना। विज्ञान, कला, साहित्य क्षेत्रों व समाज सेवा में विशिष्ट रूप से सेवा कार्य करने वाले 12 व्यक्तियों को प्रत्येक राज्यसभा की 6 वर्ष की अवधि के लिए केंद्र सरकार की सिफारिश पर राष्ट्रपति द्वारा नामांकन का प्रावधान संविधान सभा ने इसलिए ही किया था कि ऐसे व्यक्ति जो राजनीतिक न होकर संसद में चुनकर नहीं जा पाते हैं की उल्लेखित क्षेत्र में की गई सेवाओं अनुभव और ज्ञान का लाभ "संसद के प्रभावशाली माध्यम" से राष्ट्र को मिल सके। शायद इसीलिए राज्यसभा में सर्वप्रथम 12 नामांकित किए गए व्यक्तियों में स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और हिंदी भाषा की बड़ी सेवा करने के कारण ही प्रसिद्ध  गांधीवादी लेखक चिंतक दत्तात्रेय बालकृष्ण उर्फ काका साहेब कालेलकर शामिल किए गए थे। हिंदी भाषा की जो सेवा वैदिक जी ने की, निश्चित रूप से संविधान द्वारा प्राविधिक उन 12 सीटों में से एक के नामांकन के वे हकदार अधिकारी अवश्य थे। पद्म भूषण भले ही उन्हें न मिला हो लेकिन साहित्य भूषण पुरस्कार से अवश्य सम्मिलित हुए। पद्म पुरस्कारों की लंबी चौड़ी फेहरिस्त देखें तो उससे भी स्पष्ट रूप से यही सिद्ध होता है कि दोनों स्थितियों में डॉक्टर वैदिक पुरस्कृत और नामांकित नहीं किया गए, तो उसका एक कारण शायद वैदिक जी का स्वयं को सरकार की अनुकूलता की उस सीमा तक ढाल न पाना हो सकता है, जिसकी आवश्यकता ऐसे नामांकन के लिए आजकल शायद जरूरी हो गई है। वस्तुतः ठकुर सुहाती" उनका स्वभाव-गत लक्षण ही नहीं था  । "कहि रहीम कैसे निभै, बेर केर को संग" ख़ैर! इससे डॉ. वैदिक के व्यक्तित्व या सम्मान पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता है। बल्कि उलट इसके ऐसे तंत्रों की उपयोगिता विश्वसनीयता और औचित्य पर ही औचित्य पर ही शैन: - शैन: प्रश्नचिन्ह लग सकते हैं। डाॅ. वैदिक का व्यक्तित्व तो इन दो पंक्तियों में निहित है :--
दुनिया में हूं दुनिया का तलबगार नहीं हूं,
बाज़ार से निकला हूँ ख़रीदार नहीं हूं।
आज ऐसे व्यक्तित्व का व्यक्ति हमारे बीच नहीं रहे। उनको ह्रदय की गहराइयों से शत-शत नमन, श्रद्धांजलि। वे भारत के पत्रकारिता पटल पर "दिन और रात के मध्य, संध्याकाल के समान शोभायमान हैं"। ईश्वर से यही प्रार्थना है कि उनकी आत्मा को शांति प्रदान करें, उन्हें अपने पास जगह दे और भारत ही नहीं विश्व में उनकी कलम से घटनाओं को जानने और समझने वाले दुखी मानव समुदाय को सांत्वना दे।
















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