राहुल गांधी क्या ‘‘पप्पू’’ से ‘‘पपलू’’ बन गये है या बना दिये गए हैं?
(कभी कभी किन्हीं कुछ परिस्थितियों में शब्दों का अर्थ और अर्थ के विपरीत भी होता है जिसके अर्थ के लिए वे शब्द सामान्यतः जाने जाते हैं। कृपया इस बात को ध्यान में रखकर इस आलेख को पढे।)
पिछले कुछ दिनों से सत्ता पक्ष (भाजपा) द्वारा लगातार लंदन यात्रा के दौरान (इंग्लैंड) कैंब्रिज विश्वविद्यालय में एक साक्षात्कार में राहुल गांधी के कहे गए कथनों को आधार बनाकर राहुल गांधी पर देश के बाहर जाकर ‘‘विदेशी सरजमी’’ से देश का ‘‘अपमान’’ करने के कारण ‘‘देशद्रोह’’ का आरोप लगाकर लगातार पिछले एक हफ्ते से संसद न चलने देकर ठप किया जा रहा है। संसदीय लोकतंत्र में सदन को विपक्ष के सहयोग से सुगमता एवं सफलतापूर्वक चलाने की जिम्मेदारी सत्ता पक्ष की ही होती है। परंतु बजाय इसके स्वाधीन देश के संसदीय लोकतंत्र के इतिहास में शायद यह पहला अवसर है, जब राहुल गांधी द्वारा किये गये देश के (तथाकथित) अपमान की माफी सदन में आकर देश से मांगी जाने की मांग पूरी होने तक सत्तापक्ष स्वयं खुल्लमखुल्ला संसद को चलने नहीं दे रहा है। कबीर के शब्दों में
‘‘कबीरदास की उल्टी वाणी बरसे कंबल भीगे पानी’’
इसका बड़ा कारण एक शायद यह हो सकता है कि वर्तमान सत्ता पक्ष जो पूर्व में विपक्ष में थी, तब वह सफलतापूर्वक कई महत्वपूर्ण संवेदनशील मुद्दों पर संसद को चलने से रोकने में सफल रही थी। परन्तु शायद अब ऐसा लगता है कि भाजपा यह भूल गई है कि वह विपक्षी दल नहीं वरन् सत्ता पर आरूढ़ होकर सत्तापक्ष है, जिसकी संवैधानिक जिम्मेदारी संसदीय कार्य मंत्री के जरिए समस्त अवरोधों-विरोधों को दूर कर लोकतंत्र का हृदय ‘सदन’ चलाने की है। यह तो वही बात हुई कि ‘‘करे प्रपंच कहलावे पंच’’।
जैसा कि कहा जाता है कि ‘‘अंधा कहे ये जग अंधा’’, उसी प्रकार वर्तमान सत्ता पक्ष राहुल के विरोध में अंधे होकर यह भी भूल गए कि जिस व्यक्ति का विरोध करने के लिए संसद को ठप कर दिया है, स्वयं उसने ही कुछ समय पूर्व तक उसे ‘‘पप्पू’’ सिद्ध कर देश की राजनीति से सफलतापूर्वक नकार सा दिया था। विपरीत इसके भारत जोड़ो आंदोलन से उभर कर ‘‘पप्पू’’ का लगा ‘‘स्टिक’’ कुछ हद तक हटाकर तथा संसद में चार मंत्रियों द्वारा लगाए गए आरोपों के चलते ‘‘सांसद’’ होने के कारण संसद में अपना पक्ष रखने का अवसर देने की तार्किक मांग उचित तरीके पत्रकारवार्ता के माध्यम से कर उसी ‘‘पप्पू’’ ने अपने को उस पपलू (ताश) में बदल दिया है, जहां अब उसका उपयोग आवश्यकतानुसार ‘‘पपलू’’ (ताश) के रूप में कहीं भी हो सकता है। अर्थात राहुल ने अपनी उपयोगिता के क्षेत्र को व्यापक कर दिया है। तभी भाजपा अंध विरोध के चलते अनजाने में ही पप्पू की भारतीय राजनीति में प्रासंगिकता व आवश्यकता को अब स्वयं ही सिद्ध कर रही है। क्या यह आश्चर्यजनक विचित्र स्थिति नहीं है कि एक और जहां भाजपा राहुल को सदन में आने के लिए कह रही है, वहीं दूसरी ओर राहुल भी सदन में आने की बात कह रहे हैं। परंतु सदन में आने के बावजूद राहुल को बोलने का अवसर कहां मिल पा रहा है? क्या यह हास्यास्पद स्थिति नहीं है कि सदन में राहुल गांधी को बोलने का अवसर प्रदान किए बिना ही उनसे माफी मांगने की बात लगातार कहीं जा रही है? जो बोलने की परिस्थितियों न बन पाने व बनाई जाने के कारण असंभव नहीं है?
देश की संसद में बनाई गई इस राजनीतिक अवरोध-विरोध की स्थिति से कुछ प्रश्न अवश्य उत्पन्न होते हैं, जिनका जवाब ढूंढने की आवश्यकता व जिम्मेदारी जागृत जनता की भी है। राहुल गांधी के विदेश में कहे गए कथन ‘‘भारत में लोकतंत्र खतरे में है’’ से यदि देश का ‘‘अपमान’’ होकर धारा 124 ए के अंतर्गत देशद्रोह का अपराध घटित हुआ है, तो क्या उसकी सजा के लिए माफी का प्रावधान उक्त धारा में है? जिसकी मांग लगातार भारतीय जनता पार्टी कर रही है। इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है की बिहार से आए हमेशा मुखर रहने वाले बयानवीर केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह सहित अनेक भाजपा नेताओं को क्या यह कानूनी तथ्यात्मक जानकारी नहीं है कि उच्चतम न्यायालय ने धारा 124 ए के अंतर्गत कोई भी कार्रवाई करने से फिलहाल रोक लगाई रखी हुई है। स्वयं केंद्रीय सरकार ने भी उच्चतम न्यायालय में कोई कार्रवाई न करने का ऐसा ही ही आश्वासन दिया है। ऐसी स्थिति में देशद्रोह के अपराध के लिए कोई कार्रवाई कैसे हो सकती है? तब देश के ‘अपमान’ के अपराध के लिए बिना मुकदमा चलाए और दोषी ठहराए अपराधी को सजा कैसे दी जा सकती है, चाहे वह माफी की ही सजा क्यों न हो? क्या अपमान का अपराध भारतीय दंड संहिता की धारा 124 ए के अलावा अन्य किसी धारा या अन्य कोई अपराधिक कानून के अंतर्गत यदि एक अपराध है, तो उसे भाजपा स्पष्ट करें और तदनुसार कार्रवाई करने की मांग ही नहीं करें बल्कि कार्यवाही भी करवाएं। ‘‘अंधेरे में भी हाथ का कौर कान में नहीं जाता’’, लेकिन क्या भाजपा के नेता राहुल गांधी को शहीद बनाकर वही गलती तो नहीं कर रहे हैं, जो दिसंबर 1978 में जनता पार्टी सरकार ने इंदिरा गांधी को गिरफ्तार कर शहीद बनाकर सत्ता में वापस आने का अनजाने ही अवसर प्रदान कर दिया था? ‘‘ख़ता लम्हों ने की, सजा सदियों ने पाई’’।
देश में कानून का राज है, खासकर उस भाजपा के राज में जिसने वास्तव में लोकतंत्र को खतरे में होते हुए देखते हुए ‘‘आपातकाल को भोगा’’ है। शायद यह ‘‘कानून के राज’’ का ही सुखद परिणाम है, जहां राहुल गांधी के दिए गए जम्मू कश्मीर में दिए गए कथन पर 45 दिन बाद कोई प्रथम सूचना पत्र दर्ज या शिकायत हुए बिना, दिल्ली पुलिस राहुल गांधी के घर जाकर पूछताछ करती है। पुलिस राहुल गांधी से उस बयान के लिए जारी सूचना पत्र का जवाब न मिलने पर पूछताछ करती है, जिसमें राहुल गांधी कहते हैं कि भारत जोड़ो यात्रा के दौरान जम्मू कश्मीर में उनसे कुछ महिलाओं का समूह मिला था, जिसने जिन्होंने उनके साथ हुए यौनाचार की शिकायत की थी। परंतु जब राहुल गांधी ने महिलाओं से यह पूछा कि क्या यह बात पुलिस प्रशासन को बतलाई जाए, तब उन्होंने राहुल गांधी को पुलिस प्रशासन को बतलाने से मना कर दिया था। मेरी याददाश्त में देश के इतिहास में यह शायद पहली घटना है जहां बिना प्रथम सूचना दर्ज किए, कोई शिकायत हुए या कराएं बिना अथवा इस संबंध में कोई ज्ञापन दिए बिना, ऐसी स्थिति में पुलिस द्वारा पूछताछ की गई हो।
सबसे महत्वपूर्ण बड़ा प्रश्न जो उत्पन्न होता है, वह यह है, कि संसद के बाहर कहे गए कथन के लिए संसद में आकर माफी मांगे जाने की मांग समझ से परे है। इससे कहीं से कहीं तक राजनीतिक समझदारी या परिपक्वता दृष्टिगोचर होती हुई नहीं दिखती है, जो दिखती है वह यह कि ‘‘बिजली कड़के कहीं और गिरे कहीं’’। राहुल गांधी के देश को अपमानित करने वाले बयान के लिए भाजपा पूरे देश में आंदोलन चलाएं जब तक कि वह माफी नहीं मांगे, यह पार्टी का राजनीतिक कदम व दिशा हो सकती है। या दूसरे शब्दों में कहें तो ‘‘गले में पड़े ढोल को बजाना’’ पार्टी की मजबूरी हो सकती है, परंतु इसके लिए राहुल संसद में आकर माफी मांगे और उसके लिए संसद ठप की जाए, ऐसा संसदीय परंपरा का कोई उदाहरण भाजपा के इस स्टैंड को समर्थित नहीं करता है। संसद में कहे गए कथन के लिए अध्यक्ष की अनुमति के बिना संसद के बाहर कोई भी न्यायालयीन कार्यवाही नहीं की जा सकती है। ठीक उसी प्रकार संसद के बाहर दिए गए कथन के लिए सदन में आकर माफी मांगने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है। अतः संसद से सड़क तक भाजपा का राहुल गांधी से माफी मांगने के लिए उठाया गए कदम का औचित्य प्रतीत नहीं होता है। परन्तु भाजपा तुली हुई है कि ‘‘चल मरघट लकड़ियां सस्ती हैं’’।
जहां तक विदेशी सरजमी से देश के किए गए अपमान के लिए देश के अंदर संसद में आकर माफी मांगने की बात है। यदि तर्क के लिए एक क्षण के लिए यह मान लिया जाए कि राहुल गांधी सांसद न होकर पार्टी अध्यक्ष की हैसियत से उक्त तथाकथित अपमान करने वाला कथन करते, तब भी क्या उन्हें संसद में आकर माफी मांगने के लिए कहा जा सकता था? बिल्कुल नहीं! ‘‘कमर का मोल है तलवार का नहीं’’। तब एक सांसद के रूप में कार्य करते हुए यदि राहुल गांधी ने देश का अपमान किया है, तो इसके लिए उनके विरुद्ध विशेषाधिकार हनन की कार्रवाई अवश्य की जानी चाहिए जो प्रारंभ होकर फिलहाल लोकसभा अध्यक्ष के पास लंबित भी है। तो फिर बकौल अक़बर इलाहाबादी ‘‘हंगामा है क्यों बरपा’’? एक फिल्मी गीत भी याद आ रहा है ‘‘हंगामा हो गया हंगामा हो गया’’।
..इससे भी बड़ी बात यह है कि राहुल गांधी ने शनिवार को विदेश मंत्रालय की सलाहकार समिति की बैठक में लंदन में दिए गए कथन पर सफाई देते हुए स्पष्ट रूप से यह कहा कि उन्होंने सिर्फ देश में लोकतंत्र की हालत पर सवाल उठाते हुए यह कहा था कि ‘‘यह हमारा आंतरिक मामला है और हम इसका हल निकाल लेंगे’’। राहुल गांधी का विदेश में दिए गए उक्त तथाकथित विवादित कथन पर अवसर मिलने पर सही जगह अर्थात विदेश मंत्रालय की सलाहकार समिति में दिया गया उक्त स्पष्टीकरण माफीनामा से ज्यादा महत्वपूर्ण है, जिसकी मांग भाजपा कर रही है। राहुल गांधी विदेशी हस्तक्षेप की कोई बात का उल्लेख तक नहीं कर रहे हैं या नहीं कह रहे हैं, यानी ‘‘अंतर अंगुल चार का झूठ सांच में होय’’, जैसा कि भाजपा आरोप लगाते समय लगातार उल्लेख कर रही है। चंूकि राहुल गांधी इस बात को विदेश मंत्रालय की सलाहकार समिति की बैठक में नहीं दोहरा रहे हैं, तब तथ्य बात क्या माफी से ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है? माफी का मतलब तो यही होता है कि आपने गलत बात कही और उसको आज गलत मानकर माफी मांग रहे हैं। लेकिन राहुल गांधी यहां पर उस तथाकथित गलत बात को कही ही नहीं रहे हैं। न ही वे यह कह रहे हैं कि मैंने ऐसा कहा था या मेरा कहने का आशय वैसा था जैसा कि भाजपा निकाल रही है। तब राहुल गांधी का विदेश मंत्रालय की सलाहकार समिति में दिया गया स्पष्टीकरण सदन में होने वाले बयान से ज्यादा महत्वपूर्ण होकर बनाए गए (निर्मित मैन्युफैक्चर्ड) मुद्दे को प्रारंभ से ही शून्य (एब इनिशियो वाइड) कर देता है।
अंत में प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि भाजपा ऐसा कर क्यों रही हैं, जो लगभग नन इशु (गैर मुद्दे) को भारी मुद्दा क्यों बना रही है? शायद अदानी मामले को लेकर संपूर्ण विपक्ष की जेपीसी गठन की भारी मांग को बेअसर (न्यूट्रलाइज) करने व उसे ध्यान बटाने के लिए तो नहीं? जैसा कि विपक्ष आरोप लगा रहा है।
वैसे देश के अपमान से संबंधित एक और बेहद शर्मनाक परंतु महत्वपूर्ण घटना घटित हुई है, वह लंदन स्थित भारतीय दूतावास पर लहरा रहे तिरंगे झंडे का कुछ खालिस्तानी सिरफिरों द्वारा अपमान करना। देश का हुआ यह अपमान राहुल गांधी द्वारा किए गए अपमान से ज्यादा कहीं बड़ी अपमान की घटना है। इसके लिए दिल्ली स्थित ब्रिटिश उच्चायुक्त को बुलाकर कड़ा विरोध प्रकट किए जाने के साथ ही भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की भारतवंशी ब्रिटिश प्रधानमंत्री ऋषि सुनक से गंभीर बातचीत की भी आवश्यकता है।
शानदार 🙏
जवाब देंहटाएंExcellent
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