15 अगस्त 1947 को देश के स्वाधीन होने के पश्चात् भारतीय संविधान 26 जनवरी 1950 को लागू होकर ‘‘भारतीय गणराज्य’’ बना।
तत्पश्चात् आवश्यकतानुसार समय-समय पर विभिन्न विशिष्ट अपराधों के लिए बहुत से कानून देश में बनते चले आ रहे हैं। परन्तु सामान्यतः समग्र अपराधों के लिए दंडित करने के लिए मुख्य रूप से जो कानून हैं, वह भारतीय दंड संहिता है, जो कानून स्वाधीनता के पूर्व वर्ष 1860 से ब्रिटिश शासन काल से चला आ रहा है। देश के स्वतंत्र होने के बावजूद यही आधिकारिक आपराधिक दंड संहिता है। इसी प्रकार अपराधी को दंड देने के लिए आपराधिक कानूनों के क्रियान्वयन के लिए प्रमुख दांडिक कानून 1881 में दंड प्रक्रिया संहिता बना था। परन्तु स्वतंत्रता के पश्चात् वर्ष 1973 में इसे समाप्त कर हमारी आवश्यकता के अनुरूप नई दंड प्रक्रिया संहिता कानून 1973 बनाया गया। परंतु दुर्भाग्यवश ब्रिटिश समय से चले आ रहे भारतीय दण्ड संहिता 1860 कानून को आज तक निरसन (रिपील) नहीं किया गया। हां आवश्यकतानुसार अनेकानेक संशोधन जरूर होते गये हैं।
भारतीय दंड संहिता व अन्य दाण्डिक कानूनों में वर्णित अपराधों को दो श्रेणी में रखा जा सकता है। प्रथमतः वे अपराध जहां जमानत थाने से ही मिल जाती है, जिसे जमानतीय अपराध कहा जाता है। तो दूसरी और गैर जमानती अपराध होते हैं, जहां जमानत देने का अधिकार न्यायालय के विवेक पर निर्भर होता है। इसमें अधिकतम सजा देने वाला अपराध की धारा 302 भी शामिल है। इसके अतिरिक्त कुछ गंभीर अपराधों को रोकने के लिए निरोधक अधिनियम राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम 1980 (बाकी निरोधक अधिनियम बनकर बाद में समाप्त (निरसन/रिपील) कर दिए गए) जहां बिना मुकदमा चलाये और बिना जमानत के अधिकार के एक निश्चित समय तक आरोपी व्यक्ति को निवारकध्निरोध (प्रिवेंटिव डिटेंशन) में जेल के अंदर रखने का अधिकार होता है। यद्यपि ‘‘निरोध’’ की समीक्षा लिए एक बोर्ड भी होता है।
भारतीय उच्चतम न्यायालय ने अनेकोनेक बार निर्णय लिए है, जिसमें जमानत के बाबत बार-बार रेखांकित किया गया है कि जमानत नियम है, जेल एक अपवाद। उच्चतम न्यायालय का यह प्रतिपादित सिद्धांत जो राजस्थान बनाम लालचंद, उर्फ बलिया 1978 में दिया गया है, अधीनस्थ समस्त न्यायालयों सहित ट्रायल (निचली) कोर्ट पर भी बंधनकारी है। परन्तु क्या वास्तव में वर्तमान में जमानत देने के संबंध में अधीनस्थ न्यायालयों का दृष्टिकोण उक्त प्रतिपादित सिद्धांत के अनुरूप रहा है? इस पर गंभीरता से समग्र रूप से विचार करने की आवश्यकता है। यह विचार विमर्श शासन-प्रशासन, विधायिका और न्यायालय के स्तर पर ही नहीं, बल्कि इस पर आम जनता व बुद्धिजीवियों के साथ एक सार्थक चर्चा करने की नितांत आवश्यकता है, जो आज के समय की मांग है। उक्त मुद्दे पर ध्यान दिलाने का तात्कालिक कारण मनीष सिसोदिया की गिरफ्तारी और अभी तक उन्हें जमानत न देने से उत्पन्न हुई है।
जमानत देने के संबंध में चार-पांच बातों को ध्यान में रखने की आवश्यकता है जो समय समय पर न्यायालयो ने रेखांकित किए हैं। प्रथम अपराधी साक्ष्यों को धमकाने, डराये नहीं। दूसरा दस्तावेजी साक्ष्यों के साथ छेड़छाड़ न करे। तृतीय पेशी पर उपस्थिति सुनिश्चित हो। चतुर्थ जांच में पूर्ण सहयोग करे और अंतिम उसके देश छोडने की या भागने की संभावना न हो। परन्तु इन महत्वपूर्ण आधारों के अलावा आज कल डिजीटल युग में मीडिया चाहे वह प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक या सोशल मीडिया हो, के हावी हो जाने के कारण जमानत आवेदन पर सुनवाई के समय न्यायालय की कहीं न कहीं प्रभावित होने की आशंका बनी रहती है, क्योंकि न्यायाधीश भी तो एक मानवीय व्यक्ति ही होता है। कुछ मामलों में अपराधी की हैसियत, जगन जघन्य, नृशंस, घृणित अपराध व अपराध के घृणित व अमानवीय तरीके से क्रियान्वयन से जनमानस के बीच उद्धरित हुई प्रतिक्रिया के कारण जमानत पर छोडने पर परिवार व समाज में उसकी क्या प्रतिक्रिया होगी, इस बात से कहीं न कहीं न्यायाधीश का निर्णय प्रभावित होने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है? इस कारण से आरोपी के जमानत के अधिकार पर कहीं न कहीं भावनात्मक व गैरकानूनी अतिक्रमण दोनों हो सकता है। वैसे जमानत पाना अथवा न पाना या निर्दोष या दोषी होने का कोई पैमाना नहीं है।
एक और बात! वर्तमान में जमानत प्रकरणों को लेकर न्यायालय में समयावधि लम्बी होने की है। गिरफ्तार होने के बाद महीने, दो महीने, छः महीने यहां तक कई बार साल भर तक निर्णय में समय व्यतीत होकर जमानत हो पाती है। पुलिस द्वारा 90 दिनों के भीतर (कुछ मामलों में 60 दिनों में) चालान प्रस्तुत होने के बाद जांच प्रक्रिया पूरी हो जाती है। इस प्रकार मुकदमे की सुनवाई (ट्रायल) प्रारंभ हो जाती है। सामान्यतया आरोप (चार्ज) पर बहस व सुनवाई बहुत कम होती है। न ही न्यायालय और न ही वकील इस मुद्दे को गंभीरता से लेते है। अन्यथा कई मुकदमों में इसी स्टेज (अवसर) पर आरोपी डिस्चार्ज (आरोप मुक्त) हो सकता है। दोषमुक्त हो जाने के बाद निर्दोष आरोपी की जमानत न मिलने की अवधि का कारावास गैर-कानूनी व गैर-संवैधानिक हो जाता है। परन्तु इसके उपचार के लिए वर्तमान में हमारे कानून में कोई व्यवस्था नहीं है, जो नागरिक के संवैधानिक अधिकार व मानवाधिकार पर एक रुकावट होकर गंभीर चोट पहुंचाती है। आज भी हमारे समाज में यदि एक दिन के लिए भी व्यक्ति को थाने में बैठा लिया जाए अथवा जेल भेज दिया जाए तो, उसकी समस्त सामाजिक प्रतिष्ठा धूमिल हो जाती है।
जमानत अस्वीकार करते समय क्या न्यायालय को इस बात को भी ध्यान में नहीं रखना चाहिए कि 55-60 प्रतिशत मामलों में सजा न होकर अपराधी दोषमुक्त कर दिये जाते है? इनमें से भी बहुत कम मामलों में संदेह का लाभ देकर अभियुक्तों को दोषमुक्त किया जाता है। जबकि जापान, कनाडा, अमेरिका, इजरायल में सजा की दर क्रमशः 99, 97, 93 व 90 प्रतिशत है। एक सर्वे के अनुसार भारतीय दण्ड संहिता के अंतर्गत सजा का औसत 46 प्रतिशत है। मतलब लगभग 54 प्रतिशत गिरफ्तार निर्दोष व्यक्तियों को यदि जमानत नहीं मिलती है, तब बिना अपराध किये उसे उस जुर्म की सजा काटनी होती है, जो अपराध उसने किया ही नहीं है। इसकी प्रामाणिकता न्यायालय का स्वयं का दोषमुक्ति का आदेश होता है। तब ऐसी स्थिति में क्या हमारे संविधान में वर्णित व्यक्ति की स्वतंत्रता का मूल अधिकार व नागरिकों की स्वतंत्रता पर खतरा नहीं हैं? जिसके कारण से हजारों निर्दोष व्यक्ति जमानत न पाने के कारण जेलों में सड़ेे/पड़े हैं। क्या उनकी स्वाधीनता, स्वतंत्रता को कानूनी प्रक्रिया द्वारा अब गैरकानूनी प्रक्रिया से छीना नहीं जा रहा है? इस पर एक कानूनविद, विशेषज्ञों का आयोग बनाने की आवश्यकता है, जिनमें निम्न प्रमुख चार मुद्दों पर व्यापक विचार विमर्श अवश्य किया जाना चाहिए।
प्रथम भारतीय दंड संहिता की जगह नया आपराधिक दंड कानून बनाया जाना चाहिए जो देश की वर्तमान परिस्थितियों की मांग के अनुरूप हो। दूसरा भारतीय साक्ष्य अधिनियम में मुकदमे (अभियोजन) की जो प्रक्रिया है, उसमें भी आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता है। तीसरा पीड़ित परिवार को आरोपी/अभियुक्तों से आवश्यक सुरक्षा मिलनी चाहिए, और पीड़ित का मनोबल अपराधी से लड़ने के लिए बनाये व बढाये रखने के लिए कहीं न कहीं उसे प्रशिक्षित करने की भी आवश्यकता है। चैथा हर्जाना मिलने का प्रावधान होना चाहिए, जिसके भुगतान का दायित्व अभियुक्त के साथ-साथ शासन की भी जिम्मेदारी होना चाहिए। क्योंकि जब कोई अपराध घटित होता है, तो निश्चित रूप से कानून व न्याय व्यवस्था बनाये रखने की जिम्मेदारी प्रशासन की होती है। चरमराती प्रशासनिक व्यवस्था के चलते अपने उत्तरदायित्व व कर्तव्यों के पालन में असफल होने के कारण हुई घटनाओं के लिए प्रशासन भी एक जिम्मेदार हिस्सा है। अतः संबंधित जिम्मेदार अफसर के खिलाफ आपराधिक नहीं तो दीवानी हर्जाना भुगतान देने की कार्रवाई तो होनी ही चाहिए। प्रायः यह देखा जाता है कि जमानत के आवेदन के बाद तुरंत सुनवाई नहीं होती है। ऐसी स्थितियों में सिर्फ जमानत के लिए ही क्या विशिष्ट न्यायालय नहीं बनाई जानी चाहिए जिसका क्षेत्राधिकार सिर्फ जमानत आवेदन पर सुनवाई का ही हो? ठीक उसी प्रकार जैसे चुने हुए जनप्रतिनिधियों के लिए एमपी-एमएलए की कोर्ट त्वरित न्याय के लिए बनाई गई है। ताकि जमानत आवेदन आने पर दिन प्रतिदिन तुरंत सुनवाई हो सके, जिससे शीघ्रताशीघ्र न्याय मिल सके व ‘‘न्याय में देरी न्याय न मिलने के बराबर है’’ की युक्ति को झुठलाया जा सके।
यह सब सही है मगर यह भी सही है कि प्रभावशाली अपराधी जमानत पाने के बाद अनेकों हथकंडे अपना कर या तो अपराध सिद्ध नहीं होने देता या कम से कम वर्षों लटकाने में तो सफल हो ही जाता है।
जवाब देंहटाएंR N Dubey
अपवाद हर जगह होते हैं। कोई भी नियम कानून ऐसा नहीं है जो पूर्ण हो, सही हो या सब पर पूर्णता से लागू होता हो।
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