अतीक अहमद गैंग के स्वयं के साथ 6 अपराधियों के एनकाउंटर व हत्या हो जाने के मामले में न्यायपालिका की भूमिका भी एक नागरिक के जीने के अधिकार व अंतिम संस्कार करने के अधिकार के संरक्षण में दिखती हुई नहीं दिख रही है। उच्चतम न्यायालय ने परमानंद कटारा बनाम भारत संघ और अन्य के मामले में वर्ष 2015 संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत मृतक का सम्मान पूर्वक दाह संस्कार को मान्यता दी है। याद कीजिए! जब अतीक को साबरमती जेल से उत्तर प्रदेश लाया जा रहा था, तब उसने उच्चतम न्यायालय से गुहार लगाई थी कि उसे उत्तर प्रदेश न भेजा जाए। उसकी जान को खतरा है व कहीं भी उसका एनकाउंटर किया जा सकता है। जान के इस खतरे को अतीक अहमद ने मुख्य न्यायाधीश एवं उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के नाम से लिखी चिट्ठी में तस्दीक की है, जिसमें दो व्यक्तियों के नाम लिखे गये है, जिन पर हत्या होने की दशा में आरोप लगाया गया है। उक्त पत्र सोशल मीडिया में वायरल है। उच्चतम न्यायालय ने उत्तर प्रदेश सरकार को सामान्य रूप से मात्र सुरक्षा के निर्देश देकर अतीक अहमद को उच्च न्यायालय में जाने की छूट दी थी। वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिये उसके बयान लिये जा सकते थे। पुलिस चाहती तो साबरमती जेल में भी बयान ले सकती थी। क्या इसके पूर्व अभियुक्तों की पेशी वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए नहीं हुई? बयान दर्ज नहीं हुए हैं? जब वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए न्यायालयीन प्रक्रिया (वकीलो के तर्क) चल सकती है, तब ऐसी बेहद गंभीर स्थिति में ऐसी सुरक्षा की दृष्टि से स्वयं वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए पेशी कराई जाना चाहिए थी। लेकिन कहते हैं ना कि "घोड़े को पानी दिखाया जा सकता है लेकिन उसे पिलाया नहीं जा सकता" और ऐसा न होने के कारण अंततः यह मृत्यु का कारण बनकर, व्यक्त की गई आशंका सत्य सिद्ध हो गई। क्या स्व संज्ञान से उच्चतम न्यायालय अतीक की सुरक्षा के लिए पूर्व में दिए गए के निर्देशों का पालन करने में असफल रहने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार से स्पष्टीकरण मांगेगी? मांगना भी चाहिये क्योंकि "कड़वी भेषज बिन पिये, मिटे न तन का ताप"।
क्या यह अमानवीय नहीं है कि अतीक अहमद से पुलिस द्वारा पूछताछ उसके लड़के की एनकाउंटर में हुई मृत्यु के 24 घंटे के भीतर ही की गई? ‘‘सुपुर्द ए खाक’’ में मिट्टी देकर श्रद्धांजलि देने में भी बहुत सीमित प्रविष्टि दी गई। अतीक अहमद की यह मांग क्यों नहीं मानी गई कि उसे उसके लड़के के जनाजे में शामिल होने दिया जाए या कम से कम वीडियो कॉल द्वारा शव दिखा दिया जाए क्योंकि "घायल की गति घायल जाने"। क्या पुत्र असद के शव को स्वतंत्र रूप से परिवार को ‘‘सुपुर्द ए खाक’’ के लिए सौंप दिया गया था? ऐसा लगता है अंतिम संस्कार की पूरी प्रक्रिया भारी पुलिस प्रशासनिक बल के कड़े निर्देश में न्यायालय के 11.00 बजे खुलने के पहले ही जल्दबाजी में पूर्ण कर दी गई। क्योंकि न्यायालय में अतीक अहमद की अंतिम संस्कार में शामिल होने का आवेदन लगा था। इस कारण आवेदन निष्फल ( इंफ्रुक्ट्यूयेस) हो गया। कौन सा पहाड़ टूट जाता, यदि उनका अंतिम संस्कार 2 घंटे बाद हो जाता, जब तक न्यायालय का निर्णय आ जाता अथवा एक-दो दिन बाद अतीक अहमद से पूछताछ कर ली जाती? उच्चतम न्यायालय ने अंतिम संस्कार में शामिल होने के आवेदन को निष्फल करने के लिए पुलिस से यह क्यों नहीं पूछा गया कि अंतिम संस्कार करने में इतनी जल्दबाजी क्यों की गई? एक दुर्दांत अपराधी जो भारतीय नागरिक है, के नागरिक अधिकार में क्या अंतिम क्रिया करने का संवैधानिक अधिकार शामिल नहीं है? यह मानवाधिकार की दृष्टि से नहीं बल्कि कानून की दृष्टि से भी एक बड़ा प्रश्न है?
वैसे हमारी भारतीय संस्कृति की बड़ी खूबसूरती और विशेषता यह है कि जीते जी जो सम्मान नहीं दिया जाता है, वह व्यक्ति के मरने के बाद उसे दिया जाता है, चाहे आदमी कितना ही बुरा क्यों न हो। इस खूबसूरती को शायद पुलिस प्रशासन के साथ कुछ अतिरेक लोग भी भूल गए हैं। क्या अतीक अहमद व अशरफ को विधानसभा व लोकसभा में श्रद्धांजलि दी जाएगी? श्रद्धांजलि के वक्त सदन में माननीय सदस्य सम्मान में क्या कहेंगे? अथवा पूर्व सदस्यों को श्रद्धांजलि देने के नियम व परिपाटी में कोई बदलाव किए जाएंगे?
वैसे अतीक अहमद का जो इतिहास रहा है, वह 44 वर्ष का राजनैतिक सत्ता के आश्रय व सहयोग से दुर्दांत माफिया अपराधी का रहा है। जिस पर एक बार एनएसए भी लग चुका है। बावजूद इसके वह पांच बार विधायक और एक बार सांसद चुना जा चुका था। वह राजनीति में निर्दलीय, अपना दल, समाजवादी और उस बसपा (पत्नी शाइस्ता परवीन व बेटों) में जिस की मुखिया मायावती पर वह समाजवादी पार्टी में रहते हुए सर्किट हाउस कांड में हमला कर चुका था, गोते लगा चुका है। भाई अशरफ भी विधायक रह चुका है। क्या ऐसी स्थिति में वह जनता (मतदाता) बिल्कुल निर्दोष है, जो बार-बार ऐसे अपराधी को चुन रही थी व उसी जनता से पॉवर (सत्ता) प्राप्त कर माफिया अपनी आपराधिक दुनिया को मजबूत करता रहा था। आख़िर "कड़वी बेल बहुत तेजी से जो बढ़ती है"।
यह बात भी बहुत हद तक सही है कि ऐसे दुर्दांत राजसत्ता से घिरे अपराधी के विरूद्ध 102 आपराधिक प्रकरण सम्पूर्ण परिवार पर 160 प्रकरण दर्ज है, और 1168 करोड़ की संपत्ति को जब्त हुई है। अपराधी के विरुद्ध साक्ष्य देने न्यायालय में लोग आने का साहस कहें या दुस्साहस, जुटा नहीं पाते हैं। इस कारण से उन्हें न्यायालयीन सजा नहीं मिल पाती है। उसे अभी हाल में ही कुछ दिन पूर्व मात्र एक अपहरण (उमेश पाल जिसकी अभी हत्या कर दी गई) के मामले में आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी। बावजूद इसके अपराधियों को भी न्यायालयीन प्रक्रिया से गुजारकर सजा दिलानी चाहिए, जो उसका एक संवैधानिक अधिकार है। इसके लिए न्याय व्यवस्था में व्यापक परिवर्तन किया जाए कि तुरन्त व निश्चित रूप से सजा हो सके यह आज के समय की आवश्यकता है। तब तक इस न्याय व्यवस्था की कमी को पूरा करने के लिए क्या ऐसे अपराधियों से निपटने के लिए सभ्य समाज में असभ्य तरीका अपनाया जाता रहेगा? शासन-प्रशासन के इशारों पर मानव निर्मित सजा देंगे? अथवा कानून निर्मित सजा दिलाएंगे? फर्जी एनकाउंटर, मानवाधिकार, मानवता व इंसानियत के खिलाफ है। "एक बार ख़ून मुंह लग जाये तो छूटता नहीं है"। हम जंगलराज में नहीं रह रहे हैं, रामराज्य, सुशासन में रह रहे हैं। आक्रोश, गुस्सा आवेश व भावुक होना एक सामान्य मानवीय प्रक्रिया का हिस्सा है। परंतु हमें उस पर उचित नियंत्रण रखना ही होगा, अन्यथा हम दूसरों के लिये मिसाल क्या बनेंगे? ‘‘घर में दिया जला कर ही चौराहे पर दिया जलाया जाता है’’।
विश्व में गांधी के देश के रूप में भारत की पहचान होने के बावजूद क्या देश में गांधीवाद गांधीजी के सिद्धांतों का पालन हो रहा है? गांधी जी के ‘‘अनतिक्रमणीयो हि विधिः’’ और ‘‘अहिंसा परमो धर्मः’’ के सिद्धांत के साथ एक मुख्य सिद्धांत यह भी था कि साध्य की पवित्रता के साथ-साथ साधन की भी उतनी ही पवित्रता होना आवश्यक है, अन्यथा ‘‘करि कुचाल अंतहीन पछतानी’’ वाली स्थिति अवश्यंभावी है। एनकाउंटर में लक्ष्य को पाने के लिए अपनाया गया तरीका उतना ही पवित्र स्वच्छ और कानूनी हो, इस पर विचार करने की आवश्यकता है। खासकर उन नेताओं को भी जो प्रत्येक वर्ष गांधी जयंती पर गांधी जी के स्मारक राजघाट जाकर प्रणाम कर श्रद्धांजलि देते हैं, और उन्हें याद करते हैं।
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