भारत की विश्व विख्यात ओलंपिक विजेता, भारतीय ओलंपिक एसोसिएशन की अध्यक्षा, एवं राज्यसभा सदस्य (नामित) पी.टी. उषा जो फर्राटेदार दौड़ के कारण बनी ‘‘पायली एक्सप्रेस’’ उड़न परी का कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष पद पर ‘‘अंगद के पांव की तरह जमे हुए’’ सांसद बाहुबली बृजभूषण शरण सिंह के विरुद्ध यौन शोषण की महिला पहलवानों की जारी लड़ाई पर दिया गया बयान बेहद अपमानजनक होकर अफसोसजनक है। एक महिला होने के नाते तो उनका यह बयान बेहद शर्मनाक व आश्चर्यचकित करने वाला है। हो सकता है कि केन्द्रीय सरकार की सिफारिश से राज्य सभा की सदस्यता नामित होने के कारण शायद सरकार को प्रसन्नचित करने हेतु उक्त बयान हो सकता है। पी.टी. उषा के उक्त बयान ने उनकी ‘‘असंदिगध साख’’ पर कुछ दरार अवश्य पैदा कर दी है।
उल्लेखनीय है कि देश की प्रसिद्ध विनेश फोगाट, साक्षी मलिक, बजरंग पूनिया, सहित 7 महिला (एक नाबालिग) पहलवानों ने भारतीय कुश्ती संघ के ‘‘अपने ही घर में डाका डालने वाले’’ अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह के विरुद्ध यौन शोषण का मुकदमा दर्ज करने के लिए पिछले 7 दिवस से जंतर मंतर पर अपने समर्थकों साथियों सहित धरने पर बैठी हुई हैं। इसी मुद्दे को लेकर वे सब महिलाएं पूर्व में 3 महीने पहले जनवरी में भी धरने पर बैठ चुकी हैं। लेकिन ‘‘नक्कारख़ाने में तूती की आवाज’’ सुने कौन? देश के लिए मेडलों की बौछार लाने वाली, देश का सम्मान बढ़ाने वाली महिला पहलवानों को अन्य खिलाड़ियों के साथ प्रधानमंत्री ने अपने निवास में बुलाकर न केवल सम्मानित किया, बल्कि एक पुरानी कहावत ‘‘पढ़ोगे लिखोगे बनोगे नवाब, खेलोगे कूदोगे होगे खराब’’ का उल्लेख करते हुए कहा कि उक्त कहावत वर्तमान में गलत सिद्ध हो गई है। तत्कालीन खेल मंत्री राज्यवर्धन सिंह और किरण रिजिजू ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की वर्ष 2017 में शुरू की गई खेलो इंडिया नीति को उद्हरण करते हुए खिलाड़ियों की उपलब्धियों को उसका ही परिणाम बतलाया।
एक बात तो समझ से बिल्कुल परे है, जहां उच्चतम न्यायालय पूर्व में दिए गए अपने निर्णय (ललिता कुमारी विरूद्ध उत्तर प्रदेश सरकार) में यह सिद्धांत प्रतिपादित कर चुका हूं कि ऐसे मामलों में प्राथमिक जांच किए बिना ही तुरंत प्राथमिकी (एफआईआर) दर्ज की जानी चाहिए। विपरीत इसके यहां पर यह पीडि़त महिला पहलवानों को अपने साथ हुए यौन शोषण के विरुद्ध अपराधी के विरुद्ध एफआईआर दर्ज करने के लिए ही 3 महीनों से ज्यादा अवधि से एड़ी चोटी का संघर्ष करना पड़ रहा है। देश के इतिहास में इसके पूर्व ऐसा शायद कभी नहीं देखा गया कि यौन शोषण जैसे संज्ञेय गंभीर अपराध के लिए एफआईआर दर्ज करने के लिए धरने पर बैठना पड़ा हो, उस स्थिति में जहां भा.दं.स.की धारा 154 व 156 अंतर्गत संज्ञेय यौन अपराधों में एफआईआर तुरन्त दर्ज हो जाने का प्रावधान है। सिर्फ इसलिए की अपराधी एक कुश्ती महासंघ का राष्ट्रीय अध्यक्ष होने के कारण शायद केंद्रीय खेल मंत्री के निकट होकर सत्ताधारी पार्टी का सांसद है।
सुप्रीम कोर्ट में आज जब सुनवाई के लिए मामला आया तो सुनवाई प्रारंभ होने के पूर्व ही दिल्ली पुलिस ने आज ही एफआईआर दर्ज करने की बात का शपथ पत्र न्यायालय में दिया। यानी कि ‘‘औंधे मुंह गिरे तो दंडवत प्रणाम’’! अभी तक तो देश में न्याय मिलने में देरी की बात ही कही जाती रही थी, और इस कारण से ही ‘‘अतीक’’ जैसे गुर्गों की हत्या को सही तक ठहराया जा रहा था। परन्तु अब महिलाओं द्वारा अपने विरुद्ध किए गए यौन शोषण के विरुद्ध एफआईआर दर्ज कराने के लिए लंबा संघर्ष, जो कि अब तक ‘‘अरण्य रोदन’’ ही साबित हुआ है, किस ‘‘न्याय व राज व्यवस्था’’ की ओर इंगित करता है? यह इस देश की बेहाल कानूनी व राजनीतिक व्यवस्था के सांठगांठ (कोलुजन) का बेशर्म चेहरा ही प्रदर्शित करता है। ऐसा पहले कभी नहीं देखा गया कि जहां एफआईआर दर्ज करने की बात की जा रही हो, वहां पर महिला खिलाड़ियों के रक्षक खेल मंत्री अनुराग ठाकुर इन खिलाड़ियों के भक्षक बने, ‘‘वीर भोग्या वसुंधरा’’ की उक्ति को चरितार्थ करने वाले कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह को संघ की अध्यक्ष की कुर्सी से हटाने के बजाय उन्हें बचाने के लिए एक कमेटी गठित कर मामले को ठंडे बस्ते में डालने का वैसा ही प्रयास कर देते हैं, जैसा कि इस देश में कभी भी कोई भी गंभीर अपराध, घटना, दुर्घटना घटने पर जांच आयोग या कमेटी गठित कर दी जाने की परम्परा सी हो गई है। क्या बात है, ‘‘औरों को नसीहत और खुद मियां फजीहत’’!
हमारे देश में खेल संघों का खिलाड़ियों के खेल जीवन पर कितना महत्वपूर्ण हस्तक्षेप व नियंत्रण होता है कि यदि कोई खिलाड़ी से संघ के पदाधिकारी नाराज हो जाएं तो उन्हें राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय खेलों में खेलने का मौका मिलना प्रायः लगभग असंभव सा हो जाता है, इतनी पकड़ चंगुल पदाधिकारियों की तो होती ही है। ऐसी स्थिति में जब महिला पहलवान संघ के अध्यक्ष के विरुद्ध ही गंभीर आरोप लगा रही हैं, तब सुरक्षित निष्पक्ष जांच के लिए उनके भविष्य के सुरक्षित खेल जीवन के लिए और नैतिकता के आधार पर भी अध्यक्ष को अपने पद से तब तक हटाया जाना चाहिए, जब तक की जांच पूरी होकर प्रकरण न्यायालय में प्रस्तुत कर नहीं दिया जाता है।
ऐसी स्थिति में एक ‘‘संबल’’ के रूप में एक महिला दूसरी महिला से सपोर्ट (समर्थन) की उम्मीद करती है। परंतु उल्टे यहां तो पी टी उषा ने इन महिलाओं के साथ हुए अत्याचार के संबंध में कोई सहयोग, सांत्वना, ढाढस देने की बजाय अपने अधिकारों के लिए धरने पर बैठने पर उन्हें अनुशासन का पाठ पढ़ाने के दुस्साहस के साथ यह कथन किया कि यह देश के लिए अच्छा नहीं हैं, भारत की छवि खराब हो रही है। उक्त बयान किसी भी रूप कानूनी, नैतिक या खेल की दृष्टि से उचित नहीं ठहराया जा सकता हैं। निश्चित रूप से इससे देश की प्रतिष्ठा पर आंच आती है, परन्तु यह महिलाओं के धरने के कारण नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक कानूनी व्यवस्था में द.प्र.सं.की धारा 166 ए के प्रावधान के बावजूद यौन प्रकरण का मामला दर्ज न करने से। यह धरना प्रदर्शन कुश्ती संघ में तथाकथित व्याप्त भ्रष्टाचार व अनियमितताओं के विरुद्ध नहीं था, जिसके लिए अनुशासन का पाठ पढ़ाया जाए? अनुशासन का पाठ यदि कोई पढ़ा सकता है तो वह कुश्ती संघ ही। अन्य कोई खेल संगठन या भारतीय ओलंपिक संघ अध्यक्ष नहीं। क्योंकि यदि कोई तथाकथित अनुशासन भंग हुआ है, तो वह कुश्ती संघ का हुआ है, जिनकी वे महिला पहलवान सदस्य हैं। महिला पहलवान भारतीय ओलंपिक संघ के विरुद्ध भी धरना प्रदर्शन में बैठी नहीं है। अतः ओलंपिक संघ को बोलने का क्या अधिकार बनता है? यानी कि ‘‘जबरन तू कौन मैं ख्वाब-मखाह’’। सिर्फ इसलिए कि महिला पहलवानों ने एक महिला होने के नाते व ओलंपिक संघ के अध्यक्ष होने के नाते पी टी उषा की ओर राहत व सहानुभूति की टकटक निगाहे से देखने की जुर्रत की?
पी.टी. उषा को इस बात से सबक लेना चाहिए कि विभिन्न खेलों के मेडल और पुरस्कार प्राप्त खिलाड़ियों जिसमें प्रसिद्ध क्रिकेटर कपिल देव, हरभजन सिंह, वीरेंद्र सहवाग, इरफान पठान, मदनलाल, ओलंपिक चैंपियन नीरज चोपड़ा अभिनव बिंद्रा, निकहत जरीन चैंपियन बॉक्सर, सानिया मिर्जा टेनिस चैंपियन, रानी रामपाल हॉकी खिलाड़ी आदि खिलाड़ी गण और सोनू सूद, पूजा भट्ट जैसे कलाकारों ने महिला पहलवानों के समर्थन में कथन, बयान, ट्वीट्स किए हैं, जिन्हें देखते हुए पीटी उषा को अपना ‘‘क्षते क्षार प्रक्षेप रूपी’’ बयान तुरंत वापस ले लेना चाहिए। खासकर इस स्थिति को देखते हुए जब आज अपराधी के खिलाफ दो अधिनियम के अंतर्गत एफआईआर दर्ज हो गई है। हां इन महिलाओं द्वारा 10-12 वर्ष पूर्व किये गये यौन अत्याचार को भी प्राथमिकी में दर्ज कराया है, जिस विलम्ब का कोई स्पष्टीकरण अभी तक उनकी ओर से नहीं आया है। यौन अत्याचार की घटना की जगह, दिन व समय के बाबत भी परस्पर विरोधाभासी कथन तथाकथित रूप से आये है। साथ ही कुछ क्षेत्रों में इस कुश्ती संघ के विरूद्ध लड़ाई के लिये एक मोहरा बनाये जाने की बात भी कही जा रही है। इसके अतिरिक्त आपराधिक मामले दर्ज करने के लिए एक अधिकारहीन सिविल कमेटी जिसे आपराधिक मामला दर्ज करवाने का कोई अधिकार नहीं है, के लिए ये महिला पहलवान क्यों सहमत हो गई? ऐसी अस्पष्ट स्थिति में पी.टी.उषा की नजर में यदि महिलाओं का यौन अत्याचार के आरोप प्रथम दृष्टया गलत है, तब जरूर पी टी उषा के स्टैंड (रुख) का समर्थन किया जा सकता है। परंतु ऐसा करने के पूर्व पी.टी. उषा को अपना रुख उक्त इस संबंध में स्पष्ट करना होगा।
एक बात और! जब महिला पहलवानों को यौन शोषण जैसे गंभीर अपराध के लिए उच्चतम न्यायालय के द्वारा एफ आई आर दर्ज करने के संबंध में प्रतिपादित सिद्धांत के बावजूद एफआईआर दर्ज करने के लिए लिए 3 महीनों से अधिक से संघर्ष करना पड़ रहा है। ‘‘जब बेशर्मी तेरा ही आसरा’’ हो तो, क्या ऐसी स्थिति में वह पुलिस थाना जो अभी तक एफआईआर दर्ज करने में आनाकानी कर रहा था, उच्चतम न्यायालय के निर्देश के बाद एफ आईआर दर्ज करके त्वरित जांच सही दिशा में कर पाएगी या करेगी? हालाकि मुख्य न्यायाधीश ने सुनवाई के दौरान यह जरूर कहा कि वे व्यक्तिगत रूप से मामले का पर्यवेक्षण करेगें। ऐसे प्रभावशाली अपराधी व्यक्ति के विरुद्ध जिस पर 84 गंभीर आपराधिक प्रकरण दर्ज होकर बाहुबली हैं, जो सत्ताधारी पार्टी का सांसद है, जिसका राजपूत समाज पर बड़ा व्यापक प्रभाव है? तब क्या महिला पहलवानों को सीबीआई जांच अथवा उच्चतम न्यायालय के पर्यवेक्षण में जांच की मांग नहीं करना चाहिए?
अंत में उच्चतम न्यायालय ने 3 महीने तक प्राथमिक जांच (जिसकी आवश्यकता बिल्कुल भी नहीं है) पूरी कर अपराध दर्ज न करने के लिए दिल्ली पुलिस को फटकार क्यों नहीं लगाई? सुप्रीम कोर्ट द्वारा सुनवाई का नोटिस जारी करने के बाद भी तुरंत एफआईआर दर्ज नहीं की गई और तीन दिन बाद सुनवाई के दिन जब दिल्ली पुलिस को यह लगा कि उच्चतम न्यायालय उन्हें बत्ती दे सकता है, तब दिल्ली पुलिस की ओर से एफआईआर दर्ज करने के आशय का शपथ पत्र प्रस्तुत किया गया। पुलिस अधिकारियों द्वारा द.प्र.सं. की धारा 154, 156 के अनुसार यौन शोषण जो कि धारा 354 ए के अंतर्गत एक संज्ञेय अपराध है के लिए प्राथमिकी दर्ज न करने पर धारा 166 ए के अंतर्गत ऐसे दोषी पुलिस अधिकारियों के विरुद्ध मुकदमा दर्ज करने के निर्देश क्यों नहीं दिए? अगली सुनवाई में शायद इन प्रश्नों के उत्तर मिल सके?
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