बुधवार, 31 मई 2023

‘‘संवादहीनता’’ ‘‘विवाद’’ ‘‘बवाल’’ ‘‘अर्द्ध सत्य’’ व ‘‘असम्मान’’ की ‘कमजोर’ ‘नीव’ व ‘‘दीवार’’ पर ‘‘मजबूत’’ बनी/टिकी! विश्व की ‘श्रेष्ठतम’ हमारी ‘‘संसद भवन’’।

‘‘राष्ट्रपति का अपमान स्वयं राष्ट्रपति द्वारा’’? 

-ःलेख का सारः-   ‘संदेश’ किसी ‘कार्यक्रम’ में किसी ‘व्यक्ति’ का तभी पढ़ा जाता है, जब उस व्यक्ति को ‘निमंत्रित’ किया जाता है और वह किसी कारण से व्यक्तिगत रूप से आने में असमर्थ हो। तभी उसके द्वारा ‘संदेश’ द्वारा अपनी शुभकामनाएं भेजी जाती है। यह तो ‘बिना बुलाए’ महामहिम ने संदेश भेजकर स्वयं को ही अपमानित नहीं कर लिया है? ‘‘मान न मान मैं तेरा मेहमान’’। इसके लिए भाजपा/ प्रधानमंत्री या स्पीकर कैसे जिम्मेदार?

निसंदेह विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश भारत है। यहां एक सफल ‘‘संसदीय प्रणाली’’ अपनाई गई है। इसकी सर्वोच्च संस्था लोकसभा व राज्यसभा दो ‘सदन’ होते हैं। इन्हें  संयुक्त रूप से ‘संसद’ कहा जाता है। ‘संसद’ का शाब्दिक अर्थ ‘सभा’ ‘मंडली’ होता है। वास्तव में ‘संसद’ अंग्रेजी शब्द ‘‘एंग्लो नॉर्मल’’ से लिया गया है। इसका अर्थ ‘बात करना’ होता है। ‘‘विधायिका’’, ‘‘कार्यपालिका’’ और ‘‘न्यायपालिका’’ लोकतंत्र व भारतीय संविधान की लिखित ‘‘रीढ़ की हड्डी’’ है। ‘‘अलिखित’’ रूप से लोकतंत्र का ‘‘चौथा स्तंभ’’ ‘‘मीडिया’’ है। उक्त चारों खंभों में से सबसे प्रमुख खंबा "विधायिका" की सर्वोच्च संस्था यह संसद ही है, जो संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों के तहत नागरिकों के हितों व सर्वांगीण विकास के लिए संपूर्ण भारत देश (अब तो जम्मू-कश्मीर सहित) के लिए कानून बनाती है।

वर्तमान संसद भवन (जो ब्रिटिश शासन काल में वर्ष 1927 में बनी थी) के लगभग 95 वर्ष बाद एक अद्भुत, अलौकिक व चकाचौंध करने वाली वर्तमान 870 सदस्यों की जगह 1272 सदस्यों के एक साथ बैठने की व्यवस्था के साथ 1200 रू करोड़ से अधिक की लागत आत्मनिर्भर भारत की भावना का प्रतीक होकर, अभी तक की विश्व की सबसे बड़ी नई संसद भवन का निर्माण लगभग 28 महीने की अल्प अवधि में पूर्ण हुआ है। ऐसी संसद भवन को 28 मई को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के हस्ते ‘मंत्रोच्चार’ के बीच देश की जनता को सौंप दिया गया। विवाद यहीं से प्रारंभ नहीं होता है, बल्कि इसके जन्म (निर्माण) ‘‘शिलान्यास’’ से लेकर इसे जनता को ‘‘सौंपने तक लगातार व तत्पश्चात भी विभिन्न स्तरों पर विभिन्न विषयों को लेकर अभी भी चालू है व आगे भी जारी रहेगा। कहते हैं ना "कदली और कार्टों  में कैसे प्रीत"। नई संसद बनाने की योजना को ही उच्चतम न्यायालय में असफल चुनौती दी गई थी। कोरोना काल में चालू निर्माण कार्य पर भी गंभीर आपत्तियां की गई थी। पर्यावरण, डिजाइन कंसलटेंट, स्थापित राष्ट्रीय प्रतीक शेर की मूर्ति के लुक को लेकर भी विवाद हुए। फिलहाल विवाद का मुख्य विषय राष्ट्रपति के द्वारा उद्घाटन न करवाना अथवा उन्हे न बुलाने से उनके ‘‘अपमान’’ होने को लेकर है। साथ ही "भवन" से ज्यादा "भावना" का सवाल है।

मैंने पिछले लेख में भी सुझाव दिया था कि ‘स्वस्थ्य’ व मजबूत लोकतंत्र के लिए नई संसद भवन में नई पारी प्रारंभ करने के लिए यह एक श्रेष्ठतम स्थिति होती, यदि राष्ट्रपति की अध्यक्षता में उपराष्ट्रपति जो (उच्च सदन) राज्यसभा के स्पीकर होते है, लोकसभा स्पीकर एवं विपक्ष के नेता की गरिमामय उपस्थिति में विश्व में भारत का डंका बजाने वाले दृढ़, दूर दृष्टि रखने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के द्वारा उद्घाटन कराया जाता तो यह ‘‘सोने पर सुहागा’’ होता। तब विवाद की कोई स्थिति ही नहीं रहती। परन्तु दुर्भाग्य कि वर्तमान में हमारी ‘‘लोकतंत्र का मुखौटा रह गई संसद’’ (जहां पिछले वर्ष मात्र 9 मिनट में बिना चर्चा के वर्ष 2023-24 के लिए बजट पारित कर दिया गया था), विवादों को समाप्त करने के लिए नहीं बल्कि नये-नये विवादों को जन्म देने के रूप में जानी जाती है।

‘‘प्रोटोकॉल’’ के तहत प्रधानमंत्री का नम्बर तीसरी पायदान (राष्ट्रपति व उपराष्ट्रपति के बाद) पर आता है। राष्ट्रपति को उद्घाटन के लिए बुलाए जाने पर शायद प्रधानमंत्री की एकमात्र, एकछत्र गरिमाय उपस्थिति के सम्मुख राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति का प्रोटोकॉल एक बड़े अवरोध के रूप में आ जाती? इसलिए शायद राष्ट्रपति से उद्घाटन नहीं करवाया गया। अतः यदि राष्ट्रपति की अध्यक्षता में प्रधानमंत्री उद्घाटन करते तो निश्चित रूप से ‘‘प्रोटोकॉल’’ आड़े नहीं आता। परन्तु प्रधानमंत्री ने यह रास्ता क्यों नहीं अपनाया? शायद उनकी इस कार्य योजना के पीछे राजनीति के कुछ ‘‘गूढ़ अर्थ’’ हो सकते हैं? यद्यपि इस पूरे मामले में स्पीकर जो संसद सचिवालय का प्रमुख होता है, के द्वारा ही तकनीकी रूप से उद्घाटन के संबंध में निर्णय लिया जाते है। प्रधानमंत्री से उद्घाटन के निर्णय के लिए "तकनीकी" रूप से प्रधानमंत्री को उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता है। परन्तु भाजपा का यह जवाब बे-मतलब का है कि संविधान में प्रधानमंत्री को संसद के उद्घाटन से रोकने का कोई प्रावधान नहीं है। यद्यपि यह यर्थाथ कानूनी सत्य है। परन्तु हर कानूनी सत्य का राजनीति के मैदान में भी वैसा ही प्रभाव होगा, यह जरूरी नहीं है। क्योंकि वर्तमान में राजनीति ‘ऐक्शन’ की बजाय ‘परसेप्शन’ व ‘नोशन’ से ज्यादा चलती है। वैसे जब राष्ट्रपति दोनों सदन के दोनों सदनों को संयुक्त रूप से संबोधित करते हैं, तब प्रधानमंत्री वहां पर उपस्थित होते हैं। तब उद्घाटन के अवसर पर प्रोटोकॉल को बनाए रखते हुए दोनों महामहिम व महानुभाव एक साथ एक ही कार्यक्रम में क्यों नहीं रह सकते हैं? यह बात गले से उतरती नहीं है।

राष्ट्रपति को आमंत्रित न करने से ‘अपमान’ होने से ज्यादा ‘‘बुरी अपमान की स्थिति’’ अनिमित्रिंत राष्ट्रपति व उपराष्ट्रपति का इस उद्घाटन अवसर पर संदेश भेजना था, जिसका उद्घाटन कार्यक्रम में राज्यसभा के उपसभापति ने संदेश वाचन किया गया। क्या अपने इस बात पर गंभीरता से विचार किया है कि संदेश (वाचन) क्यों पढ़े जाते हैं। ‘संदेश’ किसी ‘कार्यक्रम’ में किसी ‘व्यक्ति’ का तभी पढ़ा जाता है, जब उस व्यक्ति को ‘निमंत्रित’ किया जाता है और वह किसी कारण से व्यक्तिगत रूप से आने में असमर्थ हो। तभी उसके द्वारा ‘संदेश’ द्वारा अपनी शुभकामनाएं भेजी जाती है। यह तो ‘बिना बुलाए’ महामहिम ने संदेश भेजकर स्वयं को ही अपमानित नहीं कर लिया है? ‘‘मान न मान मैं तेरा मेहमान’’। इसके लिए भाजपा/प्रधानमंत्री या स्पीकर कैसे जिम्मेदार? जब तक कि महामहिम यह नहीं कह देते है कि उन्हें संदेश भेजने के लिए अथवा कार्यक्रम में शामिल होने के लिए आग्रह, निमंत्रित किया गया था। ऐसा कोई दावा दूसरे पक्ष लोकसभा सचिवालय द्वारा अभी तक नहीं किया गया है। यानी की "खामोशी नीम रजा"। वस्तुत: यदि ऐसा हुआ है, तब राष्ट्रपति लोकतंत्र के मंदिर संसद भवन के बहिष्कार की दोषी नही मानी जाएंगी? 

शिलान्यास, लोकार्पण,वैवाहिक कार्यक्रम या शोकसभा में संदेश भेजे जाने की प्रथा है व किताबों के विमोचन के लिए संदेश भेजे जाते है, जो छापे जाते है। प्रत्येक स्थिति में ‘निमत्रंण’ या ‘अनुरोध’ अवश्य होता है। अब यदि यह दावा भी किया जाता है (जो अभी तक नहीं किया गया है) कि संदेश भेजने के लिए संसद (पार्लियामेंट) सचिवालय ने अनुरोध किया था, तब भी ‘‘बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना’’। क्योंकि ‘‘आपको’’ तो उद्घाटन कार्यक्रम में शरीक होने के लिए भी बुलाया नहीं गया था (जिसका कोई जवाब स्पष्टीकरण अभी तक लोकसभा सचिवालय से नहीं आया है), परंतु घाव पर नमक छिड़कने के लिए कार्यक्रम के लिए शुभ संदेश भेजने के लिए शायद मजबूर किया जा रहा है। एक व्यक्ति को उसका दोस्त वैवाहिक कार्यक्रम में बुलाए ना और उससे नव दंपति के लिए शुभ संदेश भेजने के लिए कहे। उसकी प्रतिक्रिया क्या होगी? यह लिखने की आवश्यकता है? फिर तो राष्ट्रपति देश की प्रथम नागरिक हैं। पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद भवन के शिलान्यास के समय राष्ट्रपति नहीं थे, उद्घाटन के समय उपस्थिति क्या एक संदेश है कि इस तरह के कार्यक्रमों में राष्ट्रपति पूर्व राष्ट्रपति के रूप में ही उपस्थित हो सकते हैं?

इसका दूसरा पहलू यह भी है कि संविधान में ऐसी कोई व्यवस्था या नियम नहीं है कि संसद संविधान का सर्वोच्च संवैधानिक पद ‘‘राष्ट्रपति’’ जो देश का प्रथम नागरिक होता है, के द्वारा किया जावे। (एक तरफ हमारे देश में डॉक्टर की डिग्री न लिए स्वास्थ्य मंत्री, अशिक्षित शिक्षा मंत्री और इसी तरह न जाने कौन-कौन से विभाग लिये हुए व्यक्ति जो उस विभाग के विशेषज्ञ नहीं होते है, मंत्री बन जाते है। तब इन राजनेताओं को यह समझ में नहीं आता है कि वह विभाग ऐसे अज्ञानी लोगों से कैसे चलेगा? क्या देश में अस्पतालों अथवा कॉलेजों का उद्घाटन हमेशा स्वास्थ्य मंत्री या शिक्षा मंत्री द्वारा ही किया जाते रहे है।) तब अनुच्छेद 79 का हवाला देकर संवैधानिक प्रमुख होने के साथ ही प्रथम नागरिक होने के नाते तथा अनुच्छेद 87 के अधीन संसद सत्र का प्रारंभ राष्ट्रपति द्वारा दोनों सदनों को संयुक्त रूप से संबोधन से ही होता है। इस कारण से राष्ट्रपति से संसद भवन का उद्घाटन कराने की मांग कितनी संवैधानिक, वैधानिक, नैतिक, अथवा औचित्यपूर्ण है, या सिर्फ और सिर्फ ‘‘अंध राजनीतिक विरोध’’ पर टिकी है, इस बात को समझना होगा। राष्ट्रपति द्वारा उद्घाटन के मुद्दे पर दायर की गई एक याचिका पर स्वयं उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 79 का हवाला देते हुए याचिका को प्रथम दृष्टया सुनवाई हेतु योग्य न मानते हुए अस्वीकार कर दिया। सही कहा है! "करघा छोड़ तमाशा जाए, नाहक चोट जुलाहा खाए"।

कोई प्रश्न; निरुत्तर हो चुके विपक्ष से करना बेईमानी ही होगी। जातिवाद-जातिपात का गर्जना के साथ विरोध व सर्व सद्भाव की बात करने वाले नेताओं ने ‘‘आपदा को अवसर’’ में बदलने की अपनी पुरानी ‘‘बद-आदत’’ के चलते सत्ता पक्ष (महिला आदिवासी को प्रथम राष्ट्रपति बनाने का श्रेय लेने वाला) व विपक्ष ने संसद के उद्घाटन के अवसर को ही महिला व आदिवासी (राष्ट्रपति के) उत्थान व असम्मान से जोड़ कर चुनाव आयोग की ठीक ‘‘आंख, नाक के नीचे’’ खुले आम ‘‘जातिवादी राजनीति के रंग’’ से राजनीति को भर दिया। वास्तव में विपक्ष को आगे बढ़कर प्रधानमंत्री द्वारा उद्घाटन का हृदय से इसआधार पर स्वागत करना चाहिए, एक संवैधानिक पद पर बैठे हुए अधिकार विहीन राष्ट्रपति की तुलना में एक मजबूत दृढ़ इरादा रखने वाले शक्तिमान प्रधानमंत्री के हाथों हुआ है। इससे देश में ही नहीं विश्व में दृढ़ता, दृढ़ निश्चय और निर्भीकता का संदेश हमारी संसद के प्रति जायेगा। मुझे लगता है, विरोधी दल पहली बार अपने नाम और कार्यो के अनुरूप विरोध को सार्थक बनाने के लिए 21 विपक्षी दलों ने संयुक्त रूप से लिखित चिट्ठी लिखकर बायकाट किया। ताकि जनता उन्हे यह न कहें सके कि आप अपने ‘‘विरोध’’ करने का ‘‘कर्तव्य’’ भी संसद भवन की भव्यता के आकर्षण तथा चकाचौंध में भूल गये।

एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या भव्यता की चकाचौंध से चमकने वाले संसद भवन के देश की जनता को सौंपने के अवसर पर एक काला धब्बा लगाने वाले इस अप्रिय विवाद से बचा जा सकता था? या बचने का कोई गंभीर प्रयास किये गए? साथ ही लोकतंत्र के नवीन मंदिर के समीप ही अनशन पर बैठी कुश्ती पहलवानों के विरुद्ध आज ही की गई कार्रवाई को टालकर या "पहले" कार्रवाई कर लोकतंत्र पर इस कारण से पड़े "काले छीटों" से क्या बचा नहीं जा सकता था? इसके लिए पहले आप संसद की परिभाषा जिसका उल्लेख मैंने ऊपर किया है, उसे समझिये! संसद अर्थात ‘‘बात करना’’ है। जबकि यहां पर पूरे मामले में संवादहीनता की स्थिति दिन-प्रतिदिन मजबूत होते हुई ही दिख रही थी।"कहि रहीम कैसे निभे केर बेर को संग"। 

जब विपक्ष ने समय पूर्व ही यह कह दिया था कि वे संसद के उद्घाटन के रंगारंग कार्यक्रम में राष्ट्रपति की उपस्थिति न होने के कारण कार्यक्रम का बायकॉट करेंगे, तब सर्वदलीय बैठक क्यों नहीं बुलाई गई जैसा कि प्रधानमंत्री संसद के हर सत्र के प्रारंभ होने के पूर्व बुलाते रहे हैं, जो एक परिपाटी है, यद्यपि कानून या नियम नहीं है! फिर सिर्फ ‘‘निमंत्रण पत्र’’ दिया गया। संसदीय कार्य मंत्री प्रहलाद जोशी जिनका मूलभूत कार्य और कर्तव्य संवाद के जरिए संसद के गतिरोध को दूर करने का प्रयास करना है, संवाद सुनने को देश तरस गया था। यदि वे अथवा प्रधानमंत्री कुछ प्रमुख विपक्षी दलों के नेताओं तथा संसद में विपक्ष के नेता को चाय पर बुलाकर या फोन कर इस संबंध में बातचीत करते तो बातचीत की ‘गर्मी’ से ‘‘बहिष्कार की बर्फ को’’ पिघलाने में कुछ तो मदद होती?लेकिन यह मुमकिन न हुआ, "खुदी और खुदाई में बैर" जो ठहरा।

अंत में लेख के शीर्षक में जिन शब्दों का उपयोग मैंने किया है, उन सब का आधार व विस्तृत विवरण मैंने ऊपर लेख में लिखा है। ‘‘अर्ध सत्य’’ (जो कई बार सत्य से भी ज्यादा खतरनाक होता है) शब्द का उपयोग भी मैंने संसद भवन के उद्घाटन के संबंध में इसलिए किया है की जिस पवित्र "सैंगोल" (तमिल शब्द, धर्म दंड, राजदंड) जिसे सत्ता का प्रतीक माना जाता है, को लार्ड माउंटबेटन ने पं. जवाहरलाल नेहरू को सत्ता के हस्तांतरण के प्रतीक के रूप में चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य के सुझाव पर तमिलनाडु के एक मठ से बुलाया जाकर सौंपा गया। जिसे बाद में पं. नेहरू ने ‘‘सोने की वाकिंग ‘‘छड़ी’’ के रूप में इलाहाबाद के संग्रहालय में रखवा दिया गया था। अब इसे स्पीकर की कुर्सी के पास स्थापित इसलिए किया गया कि वह "कर्तव्य पथ" की याद दिलाता रहेगा। इस सैंगोल के बाबत जो भी जानकारी, कथन किया जा रहा है, वह अधिकतर मिथ्या होकर तथ्यों के विपरीत है। वास्तव में राजगोपालाचार्य की जीवनी की किसी भी किताब में सैंगोल का उल्लेख नहीं मिलता है। उसी प्रकार इस सत्ता के प्रतीक के हस्तांतरण के रूप में दिया गया वह तथ्य भी सत्यापित नहीं होते हैं। तथापि तंजौर के धार्मिक मठ प्रमुख ने यह दावा जरूर किया है कि सैंगोल थम्बीरन स्वामी ने लार्ड माउंटबेटन को सौंपा, उन्होंने इसे भेंट स्वरूप उन्हें वापस दे दिया गया था। तब एक शोभायात्रा के रूप में सैंगोल को पं. नेहरू के आवास पर ले जाया जाकर उन्हे भेट किया गया था।

गुरुवार, 25 मई 2023

लोकतंत्र की सर्वोच्च नीति निर्धारण करने वाली संस्था ‘‘संसद के मनमंदिर’’ के उद्घाटन में भी ‘‘नीति’’ नहीं ‘‘दलगत राजनीति’!

‘‘राष्ट्रपति की बजाय प्रधानमंत्री से उद्घाटन कराने का एकमात्र उद्देश्य शायद यही हो सकता है कि राष्ट्रपति मात्र ‘‘संवैधानिक’’ प्रमुख हैं। जबकि ‘‘सत्ता’’ (पावर) की शक्ति का केंद्र बिंदु ‘‘प्रधानमंत्री’’ है। संसद पूरी विधायिकी की शक्ति की एकमात्र केंद्र बिंदु है। इसलिए विधायिका और कार्यपालिका का शक्तिपुंज ‘‘प्रधानमंत्री’’ से संसद भवन का उद्घाटन करा कर विश्व में यह संदेश देना हो सकता है कि, जितनी हमारी संसद सर्वशक्तिमान है, उतने ही हमारे प्रधानमंत्री भी लोकतंत्र होने के बावजूद लोकतांत्रिक रूप से सर्वशक्तिमान हैं। खासकर उस स्थिति को देखते हुए जहां-तहां राष्ट्रपति के बाबत यह कहा जाता रहा है कि, वे एक ‘‘रबर स्टैंप’’ मात्र रह गए हैं।’’

सर्वोच्च शक्ति प्राप्त ऐसी संसद का भवन या सबसे बड़ा ‘मन’ ‘‘मंदिर’’ जहां मन मोहने वाले वातावरण में बैठकर देश के सांसद देश के लिए भी जनता के मन को भाने वाले कानून बना पाएंगे, जो 862 करोड़ रुपए से अधिक की लागत से 21वीं सदी की समस्त आधुनिक सुविधाओं से युक्त भविष्य के अगले 100 वर्ष की आवश्यकताओं की दृष्टि को ध्यान में रखते हुए भव्यतम भवन बना है। इसका उसका उद्घाटन 28 तारीख को देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथों होना है। 

देश की एक और महत्वपूर्ण उपलब्धि और खुशी के बीच दुर्भाग्यवश अधिकतर विरोधी पक्ष जिसमें कांग्रेस के नेतृत्व में 21 पार्टियां शामिल है, ने उद्घाटन का विरोध करने का मजबूत डंडा (झंडा नहीं) गाड़ दिया है। विपरीत इसके एनडीए के 16 दलों के नेताओं ने विपक्षी दलों से अपने रुख पर पुनर्विचार करने का लिखित अनुरोध किया है। संविधान का अनुच्छेद 60 और 111 का सहारा लेकर विपक्षी दलों द्वारा यह कहा जा रहा है कि लोकतंत्र के इस मंदिर का उद्घाटन राष्ट्रपति द्वारा किया जाना चाहिए। जबकि वास्तव में इन दोनों अनुच्छेद का उद्घाटन अथवा उसकी प्रक्रिया से कोई लेना देना नहीं है। अनुच्छेद 60 राष्ट्रपति द्वारा शपथ का उल्लेख करता है, तो अनुच्छेद 111 किसी विधेयक में राष्ट्रपति की स्वीकृति का उल्लेख करता है। तथापि अनुच्छेद 79 में यह अवश्य कहा गया है की ‘‘भारत संघ’’ के लिए संसद होगी जिसमें ‘‘राष्ट्रपति’’ और दो सदन शामिल होंगे। संसद या विधान सभा के भवनों के उद्घाटन के संबंध में क्या संवैधानिक, कानूनी स्थिति है, अथवा अभी तक की क्या परिपाटी रही है, इसको यदि आप समझ लेंगे, तब ही आप समझ पाएंगे की प्रधानमंत्री द्वारा किए जाने वाले संसद भवन की उद्घाटन की स्थिति कितनी जायज अथवा नाजायज है?

निश्चित रूप से अनुच्छेद 87 के अनुसार राष्ट्रपति संसद की दोनों सदनों को आहूत कर सत्र के पहले दिन संबोधित करता है। इसलिए वह सदन के नेता के रूप में श्रेष्ठतम प्रधानमंत्री की तुलना में उच्चतम स्थिति में है। परंतु साथ में इस बात को भी आपको ध्यान में रखना होगा कि राष्ट्रपति दोनों सदनों में से किसी के भी सदस्य नहीं होते हैं, जबकि प्रधानमंत्री का होना अनिवार्य है। (अपवाद स्वरूप छः महीने की अवधि को छोड़कर) अतः जिस संसद के राष्ट्रपति सदस्य नहीं है, उसके भवन का उद्घाटन उनसे न कराने से राष्ट्रपति की गरिमा गिरती, जैसा कि विपक्ष का आरोप है, यह तथ्यात्मक और संवैधानिक दोनों रूप से उचित नहीं जान पड़ता है।

दूसरा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी प्रथम व्यक्ति नहीं है, जो संसद भवन का उद्घाटन करने जा रहे हैं। इसके पूर्व वर्ष 2017 में तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष और उपाध्यक्ष की उपस्थिति में ‘‘संसद भवन एनेक्सी विस्तार भवन’’ (जिसकी आधारशिला तत्कालीन उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी और लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने रखी थी), का उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा किया गया था, तब कोई विरोध नहीं हुआ था। ‘‘पार्लियामेंट लाइब्रेरी’’ की आधारशिला तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने और इसके पूर्व ‘‘पार्लियामेंट हाउस एनेक्सी’’ की आधारशिला का उद्घाटन अक्टूबर 1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने किया था। यही नहीं वर्ष 2009 में असम के नए विधानसभा भवन का शिलान्यास मुख्यमंत्री ने, मार्च 2010 में यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी जो किसी भी संवैधानिक पद पर नहीं थी, द्वारा तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ तमिलनाडु के नए विधानसभा परिसर तथा दिसंबर 2011 में मणिपुर के नए विधानसभा भवन, वर्ष 2019 में बिहार विधानसभा का उद्घाटन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने तथा वर्ष 2020 में सोनिया गांधी ने छत्तीसगढ़ के नए विधानसभा भवन का शिलान्यास किया गया था। इन सब कार्यक्रमों में महामहिम राष्ट्रपति अथवा राज्यपाल को प्रायः आमंत्रित नहीं किया गया था। 

यदि राष्ट्रपति के सर्वोच्च होने के आधार पर संसद का उद्घाटन उनसे कराने की बात विपक्ष कह रहा है, तो यह बात भी ‘‘अर्ध-सत्य’’ ही है। क्योंकि राष्ट्रपति पर "महाभियोग" संसद ही लगा सकती है। इस प्रकार इस स्थिति में संसद राष्ट्रपति से ऊपर सर्वोपरि हो जाती है। वैसे भी जिस राष्ट्रपति को संसद को भंग करने का अधिकार हो, तब उसके निर्माण अर्थात निर्मित भवन के उद्घाटन के लिए राष्ट्रपति को कैसे बुलाया जा सकता है? यदि ऐसा होता है तो वह प्रेमवत नहीं, बल्कि भय के भाव के कारण ही। वैसे यदि लोकसभा के स्पीकर की अध्यक्षता में और राज्यसभा के स्पीकर की विशिष्ट उपस्थिति में प्रधानमंत्री से उद्घाटन कराया जाता तो निश्चित रूप से ऐसी विवाद की स्थिति शायद बनती ही नहीं।

वैसे इस पूरे उद्घाटन कार्यक्रम का सबसे दुखद पहलू यह है कि आजादी के अमृत महोत्सव काल में हो रहे इस स्वर्णिम अवसर का ‘‘साक्षी’’ बनने  के लिए राष्ट्रपति को आमंत्रित ही नहीं किया गया है। मुझे नहीं मालूम है कि राष्ट्रपति को आमंत्रित करने के प्रोटोकॉल क्या है? राष्ट्रपति की अध्यक्षता में प्रधानमंत्री द्वारा उद्घाटन कराने पर प्रोटोकॉल आड़े आता है क्या? मुझे याद आता है, जब रजत शर्मा की इंडिया टीवी की "आप की अदालत" की 21वीं वर्षगांठ के जश्न "सिग्नेचर शोसी कार्यक्रम का उद्घाटन भाषण प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने दिया, तो वहीं उसी कार्यक्रम में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी शिरकत की थी। सरकार के पास अभी भी समय है। यदि इस त्रुटि को उपरोक्त तरीके से सुधारा जाए, तो देश के लोकतंत्र की मजबूती के लिए एक बड़ा कदम होगा। तब विपक्ष को दाएं बाएं झांकने का अवसर नहीं होगा और उन्हें भी इस अवसर पर जन दबाव के चलते अपनी भागीदारी प्रदर्शित करनी ही होगी।

‘‘राष्ट्रपति की बजाय प्रधानमंत्री से उद्घाटन कराने का एकमात्र उद्देश्य शायद यही हो सकता है कि राष्ट्रपति मात्र ‘‘संवैधानिक प्रमुख’’ हैं। जबकि ‘‘सत्ता’’ (पावर) की शक्ति का वास्तविक केंद्र बिंदु ‘‘प्रधानमंत्री’’ है। संसद पूरी विधायिकी की शक्ति की एकमात्र केंद्र बिंदु है इसलिए विधायिका और कार्यपालिका का शक्तिपुंज प्रधानमंत्री से संसद भवन का उद्घाटन करा कर विश्व में यह संदेश देना हो सकता है कि जितनी हमारी संसद सर्वशक्तिमान है, उतने ही हमारे प्रधानमंत्री भी लोकतंत्र होने के बावजूद लोकतांत्रिक रूप से सर्वशक्तिमान है। खासकर उस स्थिति को देखते हुए जहां-तहां राष्ट्रपति के बाबत यह कहा जाता रहा है कि, वे मात्र एक रबर स्टैंप रह गए हैं।’’

विरोधी दलों द्वारा राष्ट्रपति के उद्घाटन न करने की बात को दलित आदिवासी महिला के अपमान से जोड़कर देखने से पहले विपक्ष को अपना गिरेबान में झांकना होगा। क्या द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति पद के चुनाव के समय उनके सर्वसम्मति से न बनने देकर बल्कि उनके खिलाफ उम्मीदवार उतारे जाने से क्या विपक्ष ने उनका मान बढ़ा दिया मान-मर्दन किया? आज की राजनीति गिरगिट से भी ज्यादा रंग बदलने वाली है। इसलिए आज की राजनीति को लिए आपको वस्तुतः गिरगिट शब्द की जगह नया शब्द का लाना होगा। राष्ट्रपति चुने जाने के बाद भी उनके राष्ट्रपति का अपमान गाहे बगाहे किया जा रहा है।

देश यह का दुर्भाग्य ही है कि लोकतंत्र का पवित्र मंदिर संसद भवन कुछ अदूरदर्शिता के चलते, बेवजह, अनावश्यक रूप से राजनैतिक अखाड़े का दंगल बन गया है जैसे एक और दंगल जंतर मंतर पर लगभग एक महीने से कुश्ती संघ और देश के ख्याति प्राप्त अंतरराष्ट्रीय कुश्ती पहलवानों के बीच चल रहा है।

सोमवार, 22 मई 2023

काला धन संग्रहकर्ता तथा उत्पादनकर्ता पर कोई शिकंजा नहीं! बल्कि ‘‘बल्ले-बल्ले’’।

भारतीय रिजर्व बैंक की अधिसूचना दिनांकित 19 मई द्वारा की गई इस घोषणा का क्या वास्तविक उद्देश्य ‘काले धन’ पर अंकुश लगाना है अथवा इस खेल के जरिये काला धन संग्रहकर्ताओं व उत्पादकों को बचाना है। भारतीय स्टेट बैंक द्वारा आज जारी के एक सर्कुलर से यह स्पष्ट हुआ हैं कि आपको 2000 के नोट बदलवाने के लिए किसी भी तरह का कोई फार्म भरना या पहचान देनी नहीं है। इससे अब आप यह समझिए कि काला धन संग्रहकर्ता का कोई रिकॉर्ड या पहचान बैंकों और अंततः सरकार के पास नहीं होगी कि किस व्यक्ति ने कितना पैसा स्वयं, अन्य साधनों तथा दिहाड़ी मजदूरों के माध्यम से बदलवाया है जैसा कि 2016 में हुई नोटबंदी के समय देश की जनता ने देखा है। यह समझ से परे है कि सरकार इन व्यक्तियों की पहचान क्यों नहीं करना चाहती है? और न ही सरकार की तरफ से कोई नीतिगत बयान इस संबंध में आया है। 

स्पष्ट है कि पिछली बार की ‘‘नोटबंदी’’ ‘‘नोेट बदली’’ होकर (कुल 99.30 प्रतिशत ) सफेद धन में परिवर्तित हो गई। तब आज तो भारतीय स्टेट बैंक के अपने जारी सर्कुलर ने तो नोटबंदी-2 को कानूनन् ‘‘नोेेट बदली’’ में (काला धन नोट जब्ती में नहीं) परिवर्तित कर दिया है। स्वच्छ मुद्रा नीति की घोषणा के समय भारतीय रिजर्व बैंक के अनुसार प्रचलन में काला धन में लगा कुल 3.62 लाख करोड़ 2000 के नोट के में से न्यूनतम 50 प्रतिशत वैसे यह मात्र 90 प्रतिशत तक हो सकती हैं मान लिया जाए तो 2016 में नोटबंदी लागू कर काला धन समाप्त करने के बाद इन साढ़े छः सालों में ही लगभग 1.50 लाख करोड़ काला धन भ्रष्टाचार की जीरो टॉलरेंस की नीति अपनाने वाली सरकार के ‘‘नाक के नीचे’’ यह भारी भरकम काला धन कैसे पैदा हो गया? शायद इसीलिए ‘‘पिंक इज न्यू ब्लैक’’ जुमला चल पड़ा था। (2000 की नोट पिंक कलर के थे)। जो जुमला न होकर आरबीआई, एसबीआई के उक्त कदम से उक्त जुमला सच होता हुआ दिखा हुआ दिख रहा है। तो क्या यह मान लिया जाए कि काले धन की समानांतर आर्थिक व्यवस्था चलेगी? सरकार शायद देश के भीतर काला धन की उस आर्थिक व्यवस्था का हिस्सा बनाने निकल चुकी है, जहां उसकी काला धन वालों से नहीं, बल्कि ट्रांजेक्शन जो ‘पेपर करेंसी’ होती हैं, उसकी तादाद बैंकों में बनी रहे और आर्थिक व्यवस्था उसी हिसाब से चलती रहे। 

इस प्रकार इस नीति के उद्देश्यों की पूर्ति पर आशंका तो उपरोक्त अनुसार आरंभ से ही दिख रही है। लेकिन इसका एक दूसरा पहलू नोट छापने में खर्च हुए करोड़ों रुपए की बर्बादी भी है, जिस पर जनता से टैक्स भी वसूला गया है। भारतीय रिजर्व बैंक के अनुसार 2000 का एक नोट छापने में रू. 4.18 पैसे का खर्च आता है, वही रू. 500 का नोट छापने में रू. 2.57 पैसे का खर्च आता है। एक अनुमान के अनुसार 2000 के नोट छापने में कुल खर्चा 1400 करोड़ रुपए का हुआ है। अमुद्रिकृत किए गए 2000 के नोट की पूर्ति हेतु 500 के 4 गुना नोट छापने होंगे। अब आप अंदाजा लगा लीजिए दूसरे मूल्यांक के नोटों को छापने में जो पैसा खर्च होगा वह अतिरिक्त बर्बादी होगी। नोटों को बाजार में लाने फिर वापस लेने के लिए जो मशक्कत श्रम एटीएम और बैंकों में के चेस्ट में रखी नकली नोटों को जांच करने की मशीन में सुधार लाने पड़ेंगे, यह सब खर्चे अलग है, जो जनता पर एक अतिरिक्त बोझ है। वापिस लिये गये नोटों को नष्ट करने में भी तो खर्चा होगा। ये सब खर्चे अनुत्पादक होकर घोषित उद्देश्य के लिए न होकर एक छिपे हुए एजेंडे के लिए प्रतीत होते दिखते है।

दूसरी महत्वपूर्ण बात आरबीआई, सरकार व भाजपा का यह दावा है कि 2000 के नोट पिछली योजना के समान तुरंत (चार घंटे बाद) अमुद्रिक (अवैध) नहीं किये गये हैं, बल्कि वह आज भी एक वैध मुद्रा है, जो कि 30 सितंबर तक बाजार में प्रचलन में वैध रहेगी। उक्त बात अंशतः शब्दशः कागज पर बिल्कुल सही है। पिछले बार भी 30 दिसंबर तक अवैध घोषित मुद्रा को बदलने का समय दिया गया था, जिस प्रकार अभी 30 सितंबर तक। हां अभी की कार्रवाई में मुद्रा को तुरंत अवैध घोषित नहीं किया गया है, परन्तु व्यवहार में क्या 1 प्रतिशत भी यह सही है? 30 सितंबर के बाद भी क्या वह वैध मुद्रा होकर प्रचलन में होगी? यदि नहीं तो फिर यह मुद्रा ‘‘वैध’’ है, इस दावे का ‘‘यथार्थ’’ मतलब क्या है? या मकसद सिर्फ जनता को गुमराह करना है? सूक्ति है कि ‘संशयात्मक विनश्यति’। जब एक नागरिक को यह मालूम है कि 2000 के नोट 1 अक्टूबर से ‘‘कागज की रद्दी’’ हो जाएंगे, तब वह आज किसी भी ट्रांजेक्शन में 2000 का नोट लेकर बैंक के चक्कर क्यों लगाएगा। भुगतान करने वाला तो कानूनन जोर (दबाव) कर सकता है, परन्तु भुगतान प्राप्त करने वाला व्यावहारिक रूप से उसे हर हाल में अस्वीकार ही करेगा। इस प्रकार ऐसा व्यक्ति कानून की नजर में भी अकारण ही अपराधी हो जाएगा, क्योंकि लीगल टेंडर को अस्वीकार करना भारतीय दंड संहिता की धारा 124 ए के अंतर्गत एक अपराध है। मतलब यह कि ‘‘पठ्ठों की जान गई, पहलवान का दांव ठहरा’’। याद कीजिए! जब कभी बीच-बीच में किसी भी नोट के अमुद्रीकरण की अफवाह फैलती या फैला दी जाती रही, तब जनता सतर्क होकर उन मूल्यांकन के नोटों को स्वीकार करने में हिचकती है। खतरे की आशंका से बचने का सबसे सुरक्षित तरीका भी यही है कि खतरे से दूर रहो। इस प्रकार शब्दों के भ्रमजाल से भ्रम पैदा कर धरातल पर मौजूद वास्तविक स्थिति को बदला नहीं जा सकता है।

कर्नाटक विधानसभा चुनाव में भी 375 करोड़ से ऊपर की नकदी (नोट) जब्त किये गये थे, जो पिछले विधानसभा चुनाव की तुलना में 4.05 गुना ज्यादा थे। इससे एक अंदाजा यह भी लगाया जा सकता है कि इस योजना का एक उद्देश्य आगामी होने वाले विधानसभा व लोकसभा के चुनाव में कालेधन के उपयोग को रोकना भी हो सकता है। तथापि इसका प्रभाव सत्ताधारी दल की बजाए विपक्ष पर पड़ने की संभावनाएं ज्यादा है। शायद यह बात समझ में आने पर ही पूरा विपक्ष इस मामले में एकमत होकर आक्रमण आलोचना कर इस नीति के विरुद्ध खड़ा हो गया है। इसके अतिरिक्त भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कर्नाटक में मिली कड़ी हार को देखते हुए वर्ष 2023 के अंत में विधानसभाओं के चुनाव तथा 2024 में होने वाले लोकसभा के चुनाव को दृष्टिगत रखते हुए भाजपा भ्रष्टाचार को समाप्त करने के मोर्चे पर अपने को आगे दिखाने के लिए भी काला धन  जिसकी उत्पत्ति भ्रष्टाचार से ही होती है, की समाप्ति के लिए उक्त कदम उठाने का श्रेय ले सकती है।

अंत में एक महत्वपूर्ण बात और! जिस कारण से इसे (स्वच्छ मुद्रा नीति को) तुगलकी फैसला कहा अथवा ठहराया जा रहा है। या यूँ समझिये की सरकार ने एक ही सांस में यह कह दिया है कि ‘‘गिलास आधा खाली है और आधा भरा है’’, जिसको जो अर्थ निकालना हो, उसके लिए वह स्वतंत्र है। क्योंकि नवंबर 2016 को की गई नोटबंदी के समय जारी 2000 के नोटों के लिए जो आवश्यक कारण बतलाये गये थे, आज उसे प्रचलन से वापस लेने का कारण भी वही नोटबंदी के समय कहा गया मुख्य उद्देश्य काले धन की समाप्ति को बताया जा रहा है। अर्थात सरकार ने ‘‘न उगलते बने न निगलते बने’’ की स्थिति को विपरीत कर ‘‘उगलना भी पड़ेगा और निगलना भी पड़ेगा’’ बनाने का जादुई करिश्मा किया है। यदि ऐसा नहीं है तो इसका एक अर्थ यह भी हो सकता है, जो शायद सरकार कहना नहीं चाह रही हो कि वर्ष 2016 में नोटबंदी के समय की तुलना में आज 2000 रुपए का वास्तविक मूल्य महंगाई व मुद्रास्फीति के कारण घटकर रुपए 1000 के बराबर हो गया है। उस 1000 के बराबर जिसे पिछले नोटबंदी में अमुद्रीकृत कर दिया गया था। तब आज वह बाजार में चलन में कैसे रह सकता है? इतनी छोटी सी बात आप नहीं समझ पा रहे हैं? इसीलिए तो इस नीति की घोषणा शोर-शराबे के साथ राष्ट्र के नाम प्रधानमंत्री द्वारा संबोधन न की जाकर गहन शांति की योग मुद्रा में आरबीआई के एक अदने से सर्कुलर द्वारा कर दी गई। ‘विवाह’ व लिव-इन-रिलेशनशिप दो पृथक शब्दों के परिणाम एक ही है। ठीक इसी प्रकार नोटबंदी (अमुद्धिकरण) व ‘स्वच्छ मुद्रा नीति’ की भी स्थिति है। भले ही सरकार बार-बार यह घोषणा करके कि यह नोटबंदी (अमुद्रीकरण) नहीं है, इसलिए 2000 के नोट के एक वैध मुद्रा है। जिस प्रकार 2000 के मूल्यांकन वैध मुद्रा होने के बावजूद 30 सितंबर के बाद 2000 के नोटों का बाजार में लेन-देन नहीं हो पाएगा। ठीक उसी प्रकार लिव-इन-रिलेशनशिप वैध रूप से शादी न होने के बावजूद शादी के बराबर ही है, जब तक कि कोई एक पक्ष शिकायत न करें।

शनिवार, 20 मई 2023

2000 के नोट चलने अथवा बंद करने के लिए देश से माफी अथवा नीतिगत त्रुटि को स्वीकारा नहीं जाना चाहिए?

स्वच्छ मुद्रा नीति (क्लीन नोट पॉलिसी) के तहत भारतीय रिजर्व बैंक ने 19 मई को एक अधिसूचना जारी कर पूर्व में 10 नवम्बर 2016 को भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम 1934 की धारा 24(1) के अंतर्गत जारी 2000 मूल्याँक के नोट को बाजार से "संचलन से वापस" लेने की घोषणा की। साथ ही उक्त मुद्रा को तत्काल अवैध घोषित न करते हुए अर्थात 2000 मूल्य वर्ग के नोट को वैध मुद्रा (लीगल टेंडर) जारी रखते हुए 30 सितंबर के बाद उसके ट्रांजेक्शन को बाजार में प्रतिबंधित कर दिया, जिसे आम भाषा में ‘‘नोटबंदी द्वितीय’’ कहा/ठहराया जा रहा है। प्रश्न यह खड़ा किया जा रहा है कि आरबीआई की उक्त कार्रवाई क्या  विमुद्रीकरण/ नोटबंदी है? जैसा कि प्रधानमंत्री ने दिनांक 8.11.2016 को घोषणा कर की थी। उत्तर उसका यही है कि तकनीकी रूप से न तो यह कदम विमुद्रीकरण है और न ही नोट बंदी। वस्तुतः विमुद्रीकरण वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा विमुद्रीकृत किए गए नोटों को किसी भी प्रकार के लेनदेन के लिए वैध मुद्रा के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता है। अर्थात किसी करेंसी यूनिट के लीगल टेंडर के दर्जे को हटा लेना विमुद्रीकरण है। जबकि ‘‘क्लीन नोट पॉलिसी’’ में 4-5 साल के बाद नोट के खराब हो जाने के कारण उसे क्रमशः प्रचलन से बाहर कर दिया जाता है, परंतु वह मूल्यांक वैध रहता है।
अबकी बार "नोटबंदी भाग दो" की घोषणा प्रधानमंत्री द्वारा नहीं की गई, जैसा कि पिछली बार प्रधानमंत्री ने स्वयं मीडिया के माध्यम से देश को संबोधित करते हुए नोटबंदी की घोषणा की थी। विपरीत इसके प्रधानमंत्री के विदेशी दौरे में होने के कारण उनकी अनुपस्थिति में बिना कोई शोर शराबा किए (पत्रकार वार्ता इत्यादि) शांति से एक अधिसूचना द्वारा जारी करके कर दी गई। आम जनता के लिए अचानक लेकिन आर्थिक क्षेत्रों के जानकार लोगों के लिए नवंबर 2016 में आई नोट बंदी की योजना के समय ही बाजार में नकदी उपलब्ध कराने की उद्देश्य से 2000 के नोट छापने की नीति लागू की गई थी। तब ही यह स्पष्ट था कि धीरे-धीरे उद्देश्य पूरा होते होते इसे बंद कर दिया जाएगा। इसी नीति के तहत आरबीआई द्वारा 2018 से 2000 के नोट छापना बंद कर दिया गया था। इसी प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुए भारतीय रिजर्व बैंक की दृष्टि में रू. 2000 के अंकन का नोट जारी करने का उद्देश्य पूरा होने से अंतिम कड़ी के रूप में उक्त अधिसूचना जारी हुई है। यद्यपि आरबीआई के सूत्रों के अनुसार बड़े नोटों को काले धन के रूप में इकट्ठा करने की जानकारी आने के बाद ही यह कदम उठाया गया है। आंकड़ों की नजर से भारतीय रिजर्व बैंक की इस नीति को आगे इस तरह से समझिए।
8 नवंबर 2016 को देश में हुई नोटबंदी के समय चलन में मौजूद 15.50 लाख करोड़ बेकार हो गए, जो बाजार में चलन कुल नगदी का 89% था। चूंकि बाजार की नगदी की आवश्यकता की आपूर्ति में छोटे नोट छापने में लंबा समय लग जाता, इसलिए 2000 के हाई डिनॉमिनेशन (मूल्य वर्ग) के नए नोट लाने की नीति अपनाई जा कर वर्ष 16-17 में 2000 रुपए के 6.30 लाख करोड़ के नोट छाप कर डाले गए। आरबीआई के अनुसार मार्च 2017 में ही 89% 2000 के नोट जारी कर दिए गए थे, जिस कारण से 5-6वर्ष की आयु पूर्ण हो जाने के कारण स्वच्छ मुद्रा नीति के तहत उक्त मुद्रा बाजार से प्रचलन के बाहर किए जाने की परिधि में आती थी। वर्ष 2016  में की गई नोट बंदी के बाद बाजार में नकदी घटने की उम्मीद थी, परंतु वह घटने के बजाय बढ़ गई। नोटबंदी के समय चलन में नकदी 17.7 लाख करोड़ थी, जो एक समय दोगुनी से ज्यादा होकर 36 लाख करोड़ तक हो गई। यानी "मर्ज बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की"। इस कारण से आरबीआई द्वारा 2000 के नोट छापने बंद किये जाने से 31 मार्च 2018 को इन नोटों की अधिकतम मात्रा 6.73 लाख करोड़ रुपए रह गई थी, जो बाजार में मुद्रा के कुल संचलन का 37.3 थी। यह पुनः घटकर 31 मार्च 2023 को घटकर मात्र 3.60 लाख करोड़ रह गई जो कुल मुद्रा संचलन का मात्र 10.8 है। इस प्रकार बाजार में आज लगभग 3.62 लाख करोड़ रूपये 2000 के नोट है, को ही हटाया गया है। इसके लिए अब नए मूल्य के नोट छापने की आवश्यकता इसलिए नहीं है, क्योंकि अन्य मूल्यांक के नोट आवश्यकता के अनुरूप पर्याप्त संख्या में बाजार में उपलब्ध हैं। अतः जनता को कोई असुविधा नहीं होगी। इस कार्रवाई का यह एक पक्ष आरबीआई व उसके पीछे खड़ी सरकार का है।
अब सिक्के के दूसरे पहलु सरकार के दावे व ‘‘नोटबंदी भाग-1’’ के समय किए गए दावों व उनकी प्राप्ति (उपलब्धि) का परीक्षण कर ले तभी हम नोटबंदी भाग-2 के निर्णय पर सही निष्कर्ष पर पहुंच पायेगें। सरकार का यह कहना है कि अमेरिका, ब्रिटेन जैसे देशों में बड़े नोटों का प्रचलन नहीं है। भारत भी वही मौद्रिक नीति अपना रहा हैं। प्रश्न यह है कि फिर प्रथम बार नवम्बर 2016 में 2000 के उच्च मूल्यांकन के नये नोट जारी ही क्यों किये गये? जब तब भी यह दूसरे देशों में नहीं था। रू. 500 व 1000 की नोटबंदी के समय यह तर्क दिया था कि इससे "काला धन" व "टेरर फंडिंग" पर लगाम कसेगी। तब फिर उससे भी ज्यादा मूल्यांक 2000 के नोट जारी करते समय क्या सरकार इस तथ्य से अवगत नहीं थी कि काला धन के संचयन के लिए बड़े मूल्याँक 2000 के नोट ज्यादा सुविधाजनक होंगे? सरकार के पक्ष घर लोगों का यह कथन की आम गरीब जनता के पास 2000 के नोट होते कहां हैं। तो क्या सरकार  तत्समय अमीरों के लिए ही ₹2000 के नोट लाई थी? फिर यदि काला धन को समाप्त करने के लिए ही 2000 के नोट चलन से बाहर किए जा रहे हैं तब इस काले धन की उत्पत्ति के लिए जिम्मेदार कौन? 2016 की नोटबंदी के बाद काला धन फिर कैसे उत्पन्न हो गया?  इसकी पूरी जिम्मेदारी भाजपा सरकार की ही तो है, क्योंकि भ्रष्टाचार विमुक्त तंत्र व शासन देने का हर समय भरोसा देने वाली सरकार के नेतृत्व में ही तो भ्रष्टाचार के कारण यह काला धन उत्पन्न हुआ है। परंतु आरबीआई ने 2000 के नोट जारी करने के संबंध में  दिया स्पष्टीकरण उचित व मान्य है कि बाजार में रूपये की तरलता के लिए छोटे नोटों के अवैध हो जाने से बची वैध नोटों की मुद्रा के बाजार की आवश्यकतानुसार जरूरत की पूर्ति में काफी समय छापने में लगेगा? इसलिए 2000 के नये नोट छापने की नीति बनाई गई। क्या उक्त नीति जो आज 2000 के नोट को प्रचलन से बाहर करते समय बताई जा रही है, जारी करते समय जनता को बताई गई थी क्या? या "आगे देखी जाएगी" सोचकर "नाव पानी में उतार दी" थी। एक तरफ जब यह दावा किया जा रहा है कि  तकनीकी रूप से "नोटबंदी' और बाजार से "नोट को प्रचलन से बाहर" करना अलग-अलग क्रिया एवं प्रक्रिया है, तब फिर आज की कार्रवाई के औचित्य को सही ठहराने के लिए पूर्व की नोटबंदी का हवाला क्यों  दिया जा रहा है? क्या पूर्व नोटबंदी का "पत्थर घिसते घिसते  महादेव बन चुका है"? फिर क्या एक ‘कमी’ की पूर्ति के लिए दूसरी ‘‘बड़ी गल्ती’’ कर कमी की पूर्ति कर उसे सुधारा जा सकता हैं? दूसरा आरबीआई ने जो स्थिति 2000 रू. के नोट के संबंध में अपने स्पष्टीकरण में बतलाई है, कमोबेश वही स्थिति 500 रू. के नोट के मामले में भी हैं। तब क्या 500 मूल्यांकन के नोट फिर से बंद किये जाने वाले है? क्या आरबीआई खुद को "हरफनमौला हरफन अधूरा" साबित करने में लगा हुआ है? प्रथम नोटबंदी के घोषित लक्ष्य भ्रष्टाचार, काला धन, टेरर फंडिंग, आतंकवाद, नक्सलवाद को रोकना,नकली नोट आर्थिक स्थिति को तीव्रगति देना तथा डिजिटल ट्रांजैक्शन को बढ़ावा देने की थी। डिजिटल ट्रांजिशन को छोड़कर बाकी किसी भी लक्ष्य की प्राप्ति वांछित सीमा तक नही हो पाई। तब क्या उक्त कमियों की पूर्ति के लिए आरबीआई द्वारा यह अधिसूचना जारी की गई है जिसके परिणाम भी क्या वही ढाक के तीन पात तो नहीं होंगे?
एक दूसरी महत्वपूर्ण बात आरबीआई व सरकार, भाजपा का यह दावा है कि 2000 के नोट पिछली योजना के समान तुरंत (चार घंटे बाद) अमुद्रिक (अवैध) नहीं किये गये है, बल्कि वह आज भी एक वैध मुद्रा है, जो कि 30 सितंबर तक बाजार में प्रचलन में वैध रहेगीं। उक्त बात अंशत: शब्दशः कागज पर बिल्कुल सही है। पिछले बार भी 30 दिसंबर तक अवैध घोषित मुद्रा को बदलने का समय दिया गया था जिस प्रकार अभी 30 सितंबर तक। हां अभी की कार्रवाई में मुद्रा को तुरंत अवैध घोषित नहीं किया गया है, परन्तु व्यवहार में क्या 1 प्रतिशत भी यह सही है? 30 सितंबर के बाद भी क्या वह वैध मुद्रा होकर प्रचलन में होगी? यदि नहीं तो फिर यह  मुद्रा वैध है, इस दावे का "यथार्थ" मतलब क्या है?  या मकसद सिर्फ जनता को  गुमराह करना है? सूक्ति है कि "संशयात्मक  विनश्यति'। जब एक नागरिक को यह मालूम है कि 2000 के नोट 1 अक्टूबर से कागज की रद्दी हो जाएंगे, तब वह आज किसी भी ट्रांजैक्शन में 2000 का नोट लेकर बैंक के चक्कर क्यों लगायेगा। भुगतान करने वाला तो कानूनन जोर (दबाव) कर सकता है, परन्तु भुगतान प्राप्त करने वाला व्यवहारिक रूप से उसे हर हाल में अस्वीकार ही करेगा। इस प्रकार ऐसा व्यक्ति कानून की नजर में भी अकारण ही अपराधी हो जाएगा क्योंकि लीगल टेंडर को अस्वीकार करना भारतीय दंड संहिता की धारा 124 A के अंतर्गत एक अपराध है। मतलब यह की "पठ्ठों की जान गई, पहलवान का दांव ठहरा"। याद कीजिए! जब कभी बीच-बीच में किसी भी नोट के अमुद्रीकरण की अफवाह फैलती या फैला दी जाती रही, तब जनता सतर्क होकर उन मूल्यांकन के नोटों को स्वीकार करने में हिचकती है। खतरे की आशंका से बचने का सबसे सुरक्षित तरीका भी यही है कि खतरे से दूर रहो। इस प्रकार शब्दों के भ्रमजाल से भ्रम पैदा कर धरातल पर मौजूद वास्तविक स्थिति को बदला नहीं जा सकता है।
‘‘नकली नोटों’’ को बाजार से हटाने के लिए भी ‘‘विमुद्रीकरण’’ की नीति लाई जाती है, जैसा कि  पिछली नोटबंदी में प्रचलित समस्त 500 के नोटों का विमुद्रीकरण कर 500 के नोटों की नई सीरीज जारी की गई थी। परन्तु क्या उससे नकली नोटों का छपना बंद हो गया? नवंबर 2016 की नोटबंदी से लेकर आज की गई स्वच्छ मुद्रा नीति के बीच देश के विभिन्न भागों में कई बार 2000 व 500 के नकली नोट जब्त कियेे गये है। कर्नाटक विधानसभा के चुनाव में भी 375 करोड़ से उपर की नगदी (नोट) जब्त किये गये थे पिछले विधानसभा चुनाव की तुलना में 4.05 गुना ज्यादा थी। इससे यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि  इस योजना का एक उद्देश्य आगामी होने वाले विधानसभा व लोकसभा के चुनाव में कालेधन के उपयोग को रोकना भी हो सकता है। तथापि इसका प्रभाव सत्ताधारी दल की बजाए विपक्ष पर ज्यादा पड़ने की संभावनाएं है। शायद यह बात समझ कर ही  पूरा विपक्ष इस मामले में एकमत होकर आक्रमण आलोचना कर इस नीति के विरुद्ध खड़ा हो गया है। इसके अतिरिक्त भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कर्नाटक में मिली कड़ी हार को देखते हुए वर्ष 2023 के अंत में विधानसभाओं के चुनाव तथा 2024 में होने वाले लोकसभा के चुनाव को दृष्टिगत रखते हुए भाजपा भ्रष्टाचार को समाप्त करने के मोर्चे पर अपने को आगे दिखाने के लिए भी काला धन  जिसकी उत्पत्ति भ्रष्टाचार से ही होती है, की समाप्ति के लिए उक्त कदम उठाने का श्रेय ले सकती है।
रिजर्व बैंक द्वारा वर्ष 1999 में लागू की गई स्वच्छ मुद्रा नीति (क्लीन नोट पॉलिसी) का एक कारण  4-5 साल बाजार में चले नोटों को खराब हो जाने से उन्हें बाजार से हटाना भी होता है। इसका उद्देश्य ग्राहकों को अच्छी गुणवक्ता वाले करंसी नोट देना है। यदि इस कारण से भी 2000 के नोट वापस लिये जा रहे हो तो शेष मूल्यांक के खराब हो रहे नोटों को वापिस लेने के लिए आरबीआई ने क्या कदम उठाये हैं? साथ ही इस नीति के तहत उसी मूल्यांकन के नये सीरीज के नोट जारी किये जाते हैं। क्या भविष्य में भी "स्वच्छ मुद्रा नीति" के तहत रू. 2000 के बाजार से वापिस लेने के बावजूद वैध होने के कारण भविष्य में पुनः नई सीरीज का 2000 के नोट जारी किये जायेगें?
किसी भी सरकार की सबसे बड़ी साख उसका "पाक दामन और पारदर्शिता" होना ही नहीं बल्कि दिखना भी चाहिए। मतलब एक्शन के साथ वही परसेप्शन का होना भी आवश्यक है। बार-बार कम समय के अंतराल में इस तरह नोटबंदी किये जाने से सरकार, आरबीआई व बैंकों की साख पर भी उंगली उठती है खासकर जब ऐसी कार्रवाइयों से इच्छित वांछित परिणाम न निकले हो। कहीं इन कारवाइयों में रिजर्व बैंक की उपलब्धि "भूसा ज्यादा, आटा कम" की तो नहीं रही है? ऐसी कार्रवाईयो से भारत जैसे देश में जहां ग्रामीण इलाकों में जहां आज भी लगभग 40-45% जनता अशिक्षित है, का सरकार व उन बैंकों के प्रति जहां जन धन योजना के अंतर्गत ग्रामीण जनता ने प्रधानमंत्री के आव्हान पर खाता खोलें, के प्रति विश्वास को कहीं न कहीं चोट व धक्का नहीं लगता है? कहीं ऐसा तो नहीं हो जाएगा जब करेंसी की साख के प्रति विश्वास की बजाय अविश्वास की खाई इतनी बढ़ जाए कि नागरिकों का एक बड़ा वर्ग वैध करेंसी की बजाएं सोने को करेंसी मानकर ट्रांजेक्शन करने लगे और संचय करने लगे तो? क्योंकि अंतंतः करेंसी तो साख पर ही चलती है। यदि करेंसी की साख का बेड़ा गर्क हो जाए तो अर्थव्यवस्था का बेड़ा गर्क होने में देर नहीं  लगेगी? अतः सरकार को आर्थिक नीतियों के मामले में बहुत सोच समझकर और राजनीतिक नफा नुकसान को परे रखकर सिर्फ और सिर्फ देश हित में निर्णय लेना चाहिए और यदि संभव हो तो निर्णय के पूर्व जनता को भी विश्वास में लेना चाहिए।
अंत में एक महत्वपूर्ण बात और!  जिस कारण से इसे (स्वच्छ मुद्रा नीति को) तुगलकी फैसला कहा अथवा ठहराया जा रहा है, या यूं कहिए की सरकार ने एक ही सांस में यह कह दिया है कि गिलास आधा खाली है और आधा भरा है जिसको जो अर्थ निकालना हो उसके लिए वह स्वतंत्र है। क्योंकि नवंबर 2016 को की गई नोटबंदी के समय जारी 2000 के नोटो को नोटबंदी के उद्देश्य के लिए जहां आवश्यक बतलाया गया था, आज उसे प्रचलन से वापस लेने का कारण भी वही नोटबंदी के समय का कहा गया मुख्य उद्देश काले धन की समाप्ति का है। अर्थात सरकार ने उगलते बने न निगलते बने की स्थिति को विपरीत कर उगलना भी पड़ेगा, निगलना भी पड़ेगा बनाने का जादुई करिश्मा किया है। यदि ऐसा नहीं है तो इसका एक अर्थ यह भी हो सकता है जो शायद सरकार कहना नहीं चाह रही वह यह कि 2016 की तुलना में आज  2000 रुपए का वास्तविक मूल्य महंगाई व मुद्रास्फीति के कारण घटकर ₹1000 के बराबर हो गया है उस 1000 के बराबर जिसे पिछले नोटबंदी में अमुद्रिकृत कर दिया गया था। तब आज वह बाजार में चलन में कैसे रह सकता है? इतनी छोटी सी बात आप नहीं समझ पा रहे हैं? इसीलिए तो इस नीति की घोषणा शोर-शराबे के साथ राष्ट्र के नाम संबोधन करके प्रधानमंत्री द्वारा न की जाकर गहन शांति की योग मुद्रा में एक अदने से आरबीआई के सर्कुलर द्वारा कर दी गई।

शुक्रवार, 19 मई 2023

मध्य-प्रदेश की राजनीति पर कर्नाटक के परिणाम का पड़ने वाला प्रभाव!

कर्नाटक के चुनाव परिणाम का विस्तृत व्यापक आकलन मैं पूर्व में ही कर चुका हूं। चूंकि मैं मध्य-प्रदेश का निवासी हूं और मध्य-प्रदेश की राजनीति में मेरी दिलचस्पी भी है, इसलिए आइए! अब मध्य-प्रदेश की राजनीति में कर्नाटक चुनाव परिणाम से उभरे समीकरणों व चुनाव परिणाम के द्वारा तय हुए कुछ राष्ट्रीय मुद्दों का प्रदेश में आगामी होने वाले चुनाव पर क्या प्रभाव पड़ेगा? इसका अध्ययन कर लेते हैं। 

कर्नाटक में ‘‘नाटक’’ (जैसा पिछले विधानसभा में किसी एक पार्टी का स्पष्ट बहुमत न मिलने के कारण हुआ था) पैदा न करने वाले चुनावी परिणाम से मध्य-प्रदेश में होने वाले विधानसभा के चुनाव पर क्या कुछ ‘नाटकीय’ अथवा प्रभावी परिवर्तन देखने को मिलेगा? कर्नाटक चुनाव के परिणाम से तय हुए मुद्दे का सिलसिलेवार अध्ययन करते हुए उनके प्रदेश में है रोकने वाले परिणाम प्रभाव का आकलन करते हैं। 

हिंदुत्व का मुद्दा कर्नाटक में परवान नहीं चढ़ा। ‘‘बजरंगबली’’ भाजपा के झंडे के बजाए कांग्रेस झंडे में दृष्टिगोचर होते हुए कांग्रेस के घोड़े की चुनावी समुद्र से वैतरणी पार करा दी। संघ, जनसंघ, भाजपा ‘हिन्दुत्व’ को मजबूत जमीन मध्य-प्रदेश जा रही है, यहां पर वह हिन्दुत्व कितना प्रभावी होगी जो कर्नाटक में असफल हो गया। वास्तव में हिन्दुत्व के मुद्दे पर कमलनाथ स्वयं ‘‘हार्ड हिंदुत्व’’ की बजाय ‘‘सॉफ्ट हिंदुत्व’’ को अपनाते हुए दिख रहे हैं। इसलिए वे मध्य-प्रदेश की ‘‘चुनावी पिच’’ पर इस मुद्दे पर भाजपा को ‘‘गुगली’’ फेकने का कोई मौका शायद ही देगें।

कर्नाटक में भाजपा ने लगभग 75 अपने पुराने उम्मीदवारों को बदला। परंतु उनमें से मात्र 17 उम्मीदवार ही विजय प्राप्त कर पाए। सत्ता विरोधी कारक से निपटने के लिए गुजरात से प्रारंभ होकर कमोबेश कर्नाटक में भी सत्ता विरोधी चेहरों को बदलकर नए चेहरे चुनावी पिच में उतारने की भाजपा की अभी तक की हुई सफल नीति के कर्नाटक में आशातीत परिणाम के नहीं आये। इस कारण क्या उक्त नीति का परीक्षण कर कर्नाटक उसके सफल न होने की कमियों को दूर कर संशोधित बेहतर परिणाम उन्मूलन नीति लागू की जाएगी? क्योंकि अब प्रदेश में उसी रूप में उक्त नीति लागू करना शायद अब उतना आसान नहीं होगा। विपरीत इसके प्रदेश की राजनीति में इसका यह प्रभाव अवश्य पड़ेगा कि जहां-तहां भाजपा के वरिष्ठ नेताओं में असंतोष है, और जो एक-एक करके पार्टी छोड़ते जा रहे हैं, ऐसी स्थिति में अब वरिष्ठ नेताओं की अनदेखी, अवहेलना करना व उन्हें टिकट से वंचित करना पार्टी के लिए एक मुश्किल कार्य होगा। परिणाम स्वरूप ऐसा लगता है कि अनुभव और युवा दोनों का बेहतर संयोजन (कॉन्बिनेशन) के साथ भाजपा आगामी होने वाले चुनाव में ‘जिताऊ’ व्यक्तियों को टिकट देने की नीति अपनाईगी जायेगी। 

भाजपा पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को टिकट देने के बजाय उनके पुत्र/पुत्री को टिकट देने की एक नई नीति बना कर वरिष्ठ नेताओं की टिकट काटे जाने की स्थिति में उत्पन्न असंतोष को रोकने के रास्ते पर जाने के लिए गंभीर रूप से विचार विमर्श मंत्रा कर मंथन कर रही है। इसमें शिवराज सिंह चौहान, जयंत मलैया, गोपाल भार्गव, नरोत्तम मिश्रा, नरेंद्र सिंह तोमर, प्रभात झा, गौरीशंकर बिसेन के पुत्र/पुत्री शामिल हो सकती है। साथ ही प्रदेश भाजपा नेतृत्व ‘असंतुष्टों’ को कर्नाटक में कद्दावर नेता जगदीश शेट्टार की हुई दुर्दशा का चेहरा कांग्रेस के झंडे के साथ बार-बार दिखा कर विद्रोह को रोकने का प्रयास कर सकती है। कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री व लिंगायत समुदाय के बड़े नेता, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के खाटी स्वयंसेवक, जगदीश शेट्टार भाजपा छोड़कर अपनी परंपरागत सीट जहां से वे 6 बार से लगातार चुने जा रहे थे, से कांग्रेस टिकट पर चुनाव लड़े। जहां भाजपा के उम्मीदवार जो अपने को जगदीश शेट्टार का चेला कहते रहे, ने जगदीश शेट्टार को बुरी तरह से 35000 से अधिक मतों से पछाड़ दिया, बावजूद इस तथ्य के कि कर्नाटक के चुनाव में सोनिया गांधी की एकमात्र चुनावी सभा जगदीश शेट्टार की विधानसभा क्षेत्र में ही हुई थी। उक्त निर्णायकत्मक, निश्चयात्मक, संदेशात्मक हार मध्य-प्रदेश में भाजपा के उन नेताओं के लिए एक स्पष्ट संदेश है कि यदि पार्टी छोड़कर वे कांग्रेस में जाकर चुनाव लड़ते हैं, तो उनको भी एक बड़ा खतरा उठाना पड़ सकता है। क्योंकि तब भाजपा ऐसे ‘‘भाजपाई फूल छाप कांग्रेसी उम्मीदवारों’’ को हराने के लिए पूरी ताकत से जुड़ जाएगी, जैसा कि कर्नाटक में पूर्व मुख्यमंत्री शेट्टार के मामले में हुआ। इस प्रकार जगदीश शेट्टार की हार मध्य-प्रदेश में भाजपा के लिए एक ‘‘संजीवनी’’ होकर उन लोगों के विरुद्ध एक ‘ढाल’ सिद्ध हो सकती है, जो पार्टी छोड़कर जाने की सोच रहे हैं या कगार पर है।

कर्नाटक के चुनाव परिणाम ने मध्य-प्रदेश में भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व को भी दुविधा की स्थिति में ला दिया है। केंद्रीय नेतृत्व और संघ के पास इस बात की ठोस विश्वसनीय रिपोर्ट विभिन्न स्त्रोतों, क्षेत्रों व अनुषांगिक संगठनों से बार-बार बल्कि निरंतर मिल रही हैं कि मध्य प्रदेश में एंटी इनकंबेंसी फैक्टर में सबसे बड़ा योगदान स्वयं शिवराज सिंह चौहान के चेहरे का है। अतः यदि शिवराज सिंह चौहान के चेहरे को बदला जाता है, तो जहां मध्य-प्रदेश में कर्नाटक समान ही स्थानीय नेतृत्व में एकजुटता नहीं है, वही खाटी असंतुष्ट नेताओं के साथ हटाए जाने वाले मुख्यमंत्री के असंतुष्ट हो जाने पर स्थिति को किस तरह से संभाला जाए? क्योंकि कर्नाटक चुनाव के बाद हाईकमान के उस दबाव और दबदबे में कहीं न कहीं कुछ कमी अवश्य आई है, जिसके रहते पहले हाईकमान ने दिल्ली, गुजरात में मुख्यमंत्री से लेकर मंत्रिमंडल और अधिकांश विधायकों तक की टिकट बेहिचक काट दी थी।

कर्नाटक चुनाव परिणाम के, मध्य-प्रदेश की राजनीति में पड़ने वाले असर को देखने, समझने और पढ़ने के लिए  कुछ समय और आपको अवश्य देना होगा।

सोमवार, 15 मई 2023

कर्नाटक! जनादेश !‘‘नाटक’’ ‘‘नाटकीय,‘‘नौटंकी’’ आकलन, परिणाम, प्रभाव से बिल्कुल ‘‘मेहरुम’’

कर्नाटक विधानसभा के चुनाव परिणामों ने चुनावी राजनीति से जुड़े समस्त व्यक्ति, संस्थाएं जिनमें टीवी चैनल्स, राजनेताओं से लेकर राजनैतिक पंडित, मर्मज्ञ, विशेषज्ञ, चुनाव पूर्व एवं एग्जिट पोल का सर्वेक्षण समीक्षा करने वाले हैं, कुछ एक अपवादों को छोड़कर समस्त विश्लेषकगणों राजनेताओं को कुछ अचंभित करता हुआ, कुछ गलत सा ठहराता हुआ हतोत्साहित (सोशल मीडिया व आज तक को छोड़कर) करता है। जो लोग इन परिणामों को कर्नाटक से आगे ले जाकर राष्ट्रव्यापी या या कहे की वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव तक ले जाकर परिणामों के प्रभावों का आकलन, विश्लेषण भविष्य वक्ता के रूप में कर रहे है, वह सब भी कहीं तत्समय गलत सिद्ध न हो जाए? कर्नाटक के चुनाव परिणाम की फेस वैल्यू (अंकित मूल्य) जो दिखता है, वास्तव में ज्यादा उसके निहितार्थ छुपे हुए है जो विभिन्न दिशाओं की ओर संकेत करने वाले हैं। कर्नाटक के चुनाव परिणाम कई मायनों में सामान्य रूप से एक राज्य के चुनाव परिणामों के समान पक्ष-विपक्ष की हार जीत लिए दिखते हुए होने के बावजूद विलक्षण स्थितियों में विशिष्ट विशेष और भारतीय राजनीति की गिरगिट समान रंग बदलती स्थिति को देखते हुए एक निश्चित दिशा को देने वाले परिणाम मूलक चुनाव परिणाम है। 

कर्नाटक प्रदेश के चुनाव परिणाम आ गये है। आशा से कुछ ज्यादा ही ‘‘आशातीत’’ परिणाम आए हैं। 34 वर्ष बाद (एम कृष्णा) के बाद इतना बड़ा बहुमत 43 प्रतिशत मत प्राप्त कर 136 सीटें विजयी पार्टी को मिली। सर्वप्रथम तो कर्नाटक की जनता ने पिछली बार ‘ठोस’ जनादेश न दिये जाने के कारण हुई जनादेश की दुर्दशा के अपराध बोध से ग्रसित मन भाव को इस बार बिल्कुल ही स्पष्ट व निश्चित दिशा मूलक चुनाव परिणाम दिया है। निश्चित रूप से वर्ष 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव के साथ मध्य-प्रदेश में भी वर्ष के अंत में होने वाले चुनाव में प्रदेश की राजनीति में कर्नाटक चुनाव के परिणामों का प्रभाव पड़ना लाजिमी है। परन्तु पहले कर्नाटक प्रदेश के आये चुनाव परिणामों का गहन विचार मंथन कर राजनैतिक निष्कर्ष निकालने का प्रयास करते हैं। तभी कर्नाटक चुनाव के आए परिणामों का मध्य प्रदेश की राजनीति पर होने वाले प्रभाव का सही आकलन कर पाएंगे। 

चुनाव परिणाम ने कर्नाटक में भाजपा के हिंदुत्व, ‘‘संप्रभुता’’ व ‘‘गाली’’ के मुद्दे की एक तरह से हवा ही निकाल दी है। उलट इसके ‘‘हिन्दु-मुस्लिम’’ से कांग्रेस को मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में फायदा ही मिला है। ‘‘मोदी है तो मुमकिन है’’ व ‘‘डबल इंजन की सरकार’’ के नारे व नीति को भी एक धक्का अवश्य लगा है। तथापि कर्नाटक चुनाव परिणामों के विपरीत साथ में ही आये उत्तर प्रदेश के स्थानीय निकायों के आये चुनाव परिणामों ने ‘‘डबल इंजन’’ की सरकार को और मजबूती देते हुए ‘‘ट्रिपल इंजन’’ की सरकार स्थापित कर दी है। भ्रष्टाचार का मुद्दा हमेशा से कांग्रेस के लिए ‘‘गले की हड्डी’’ बन कर इसके दुष्परिणामों से कांग्रेस को हमेशा ‘‘दो-चार’’ होना पड़ता रहा है। पहली बार भाजपा के भ्रष्टाचार का उक्त मुद्दा का दाँव उलट पड़ गया, यानी पासा पलट गया। उल्टे कांग्रेस ने उक्त मुद्दे को लपक कर, झेल कर 40 प्रतिशत कमीशन के भ्रष्टाचार को भारी व प्रमुख मुद्दा बनाया, भ्रष्टाचार की रेट लिस्ट के ‘‘होल्डिंग’’ तक लगा दिए गए। इस प्रकार भ्रष्टाचार के मुद्दे को भारी प्रसारित किए जाने के कारण प्राप्त सफलता में यह मुद्दा शायद अन्य मुद्दों पर भारी पड़ गया, ऐसा प्रतीत होता है। ‘‘भारत जोड़ों यात्रा’’ व ने एक सकारात्मक वातावरण बनने से कांग्रेस के स्थानीय मजबूत नेतृत्व भी जीत में महत्वपूर्ण कारक रहे। भाजपा की ‘अंदरूनी कलह’ व ‘एकता’ की कमी भी चुनाव हार के कारणों में जुड़ गई। येदुरप्पा की ‘बेज्जती’ को दूर करने के पार्टी के प्रयासों को भी शायद जनता ने गंभीरता से नहीं लिया, हार का एक कारक यह भी है।

चुनाव परिणामों से स्पष्ट रूप से निकले उक्त विपरीत संदेशों के बावजूद उक्त परिणाम से भाजपा के हक में भी ‘‘छुपे हुए’’ तीन निष्कर्ष अवश्य निकाले जा सकते हैं। प्रथम समस्त विपरीत परिस्थितियों और सत्ता विरोधी कारक (एंटी इनकंबेंसी फैक्टर) होने के बावजूद वह अपने वोट बैंक प्रतिशत 34 प्रतिशत को बनाए रखने में सफल रही है, जो पिछले आम चुनाव में मिले कुल प्रतिशत के लगभग बराबर का ही है। मात्र .04 पर्सेंट की कमी आई है। कर्नाटक में हुए पिछले 14 आम चुनावों में से 8 चुनावों में पिछले चुनाव की तुलना में मतदान का प्रतिशत बढ़ने के कारण 8 में से 7 बार सत्ता पर बैठी सरकार बदली है। इसी प्रकार पिछले आम चुनाव की तुलना में इस बार कुल मतदान में 0.77 प्रतिशत की वृद्धि (73.19-72.36=0.77) होने के कारण परिपाटी स्वरूप सत्ता पर विराजमान सरकार को बदलने के बावजूद भाजपा अपने वोट बैंक को बनाए रखने में ‘‘सफल’’ रही है। तीसरा यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ही कमाल था और उनकी ‘‘मैराथन दौड़’’ का ही यह परिणाम रहा कि ‘कोस्टल एरिया’ में भाजपा की हार, जैसे अन्य क्षेत्रों में हुई, वैसी हार होने से प्रधानमंत्री की रैली और सभाओं ने न केवल रोका, बल्कि बेंगलुरु में तो पिछले चुनाव की तुलना में भाजपा के पक्ष में मतदान का प्रतिशत बढ़ा भी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कुछ कमजोर जरूर हुए हैं, परंतु आज भी उनकी मतदाताओं के बीच प्रभावी पहुंच व पेंठ से इनकार नहीं किया जा सकता है। मतलब ‘‘ब्रांड मोदी’’ कमोबेश बरकरार है। वैसे भी ‘‘अनेकों भारी जीतों’’ के बीच एक या दो हार से (हिमाचल प्रदेश) विपरीत निष्कर्ष निकालना खतरे से खाली नहीं होगा।

उक्त निर्णायक हार से यह अंतिम निष्कर्ष निकालना भी गलत होगा कि भाजपा का हिंदुत्व (बजरंग बली) का मुद्दा खत्म हो गया। वास्तव में कर्नाटक में हिंदुत्व का मुद्दा कृत्रिम रूप से बनाया गया, यह कहकर कि बजरंग दल पर प्रतिबंध का मतलब ‘‘बजरंगबली’’ है। इसी प्रकार ‘‘सम्प्रभुता’’ का भी मुद्दा कृत्रिम रूप से बनाया गया। इन दोनों मुद्दों के कृत्रिम रूप से निर्मित होने के कारण ही जनता ने इन मुद्दों को अस्वीकार कर दिया। इसका एक अर्थ यह भी निकलता है कि हिंदुत्व का मुद्दा जहां वास्तविक होकर धरातल पर होगा, जैसे गुजरात, उत्तर-प्रदेश में, तो वह मुद्दा ‘‘प्राकृतिक’’ होने के कारण जो पूर्व में भाजपा के लिए संजीवनी सिद्ध हो चुका है, वह पुनः भविष्य में भी संजीवनी सिद्ध हो सकता है, इस बात को ध्यान में रखना होगा। 

कर्नाटक की जनता ने इस जनादेश के द्वारा एक और संदेश यह भी दिया है कि वोटों का बंटवारा न होने की स्थिति में ‘‘अपराजित, अजेय परसेप्शन’’ ली हुई भाजपा को ‘‘हराया’’ जा सकता है, जैसा कि कर्नाटक की जनता ने बहुत ही बुद्धि पूर्वक किया। कैसे! कांग्रेस, भाजपा और जेडीएस तीन प्रमुख दल के ‘‘चुनावी पिच’’ पर होने के बावजूद जनता ने त्रिकोणीय संघर्ष लगभग नहीं होने दिया। मतलब लगभग किसी भी सीट पर तीनों पार्टी के उम्मीदवारों को परस्पर प्रतिस्पर्धात्मक पूर्ण मत नहीं मिले। अर्थात जनता ने भाजपा के विरुद्ध कांग्रेस और जेडीएस के उम्मीदवार जहां-तहां मजबूत थे, और जीतने की स्थिति में लग रहे थे, वहां त्रिकोणीय संघर्ष न होने देकर सीधे-सीधे जिताऊ उम्मीदवारों (कांग्रेस/जेडीएस)को वोट देकर जिताया। यह महत्वपूर्ण संदेश कर्नाटक से ज्यादा वर्ष 2024 में देश के लोकसभा के होने वाले आम चुनाव के लिए ज्यादा महत्व रखता है। इसका एक अर्थ यह भी निकलता है कि यदि विपक्ष वन टू वन के सिद्धांत का लोकसभा में पूरी तरह न भी अपनाये, तब भी ‘जनता’ इतनी समझदार होकर अपना मत पक्ष-विपक्ष के बीच निर्णय कर ‘‘धु्रवीकरण’’ कर सकती है। हां ऐसा होने के लिए इस बात का होना बहुत जरूरी है कि चुनावी मैदान में उतरी सत्ता की आकांक्षी मुख्य विपक्षी पार्टी जनता को पूर्ण रूप से यह विश्वास दिला सके की जनता की प्रदर्शित होने वाली परिवर्तन की इच्छाओं की पूर्ति की मांग को वह पूर्ण करने में सक्षम होकर संजीदगी से गंभीर है।

अंत में दक्षिण के द्वार कहा जाने वाला महत्वपूर्ण प्रदेश कर्नाटक के चुनाव परिणाम ने एक तरफ नरेन्द्र मोदी के ‘तिलिस्म’ को पहली बार कुछ खंडित किया है कि मोदी हार ‘‘जीत की गारंटी’’ नहीं रह गई है। वहीं दूसरी ओर राहुल की हार की बदहवासी छाप को भी धोकर साफ कर दिया है।

गुरुवार, 11 मई 2023

बृजभूषण सिंह के ‘‘यौन हिंसा’’ के अपराध के संबंध में सही कानूनी व्यवस्था व प्रावधान क्या है

उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रकरण में की गई ‘‘महत्वपूर्ण अनदेखी’’।

‘‘यौन हिंसा’’ एक व्यापक अर्थ लिया हुआ अपराध है। इसमें बिना सहमति के किसी भी प्रकार की यौन क्रिया (कृत्य) अथवा प्रयास, अश्लील क्रिया, टिप्पणी व संदेश, छेड़छाड़, गलत निगाहों से घूरना, यौन अत्याचार, बलात्कार तथा शारीरिक व मानसिक शोषण शामिल है। यौन हिंसा भारतीय दंड संहिता की धारा 354 एवं धारा 376 के अंतर्गत एक अपराध है। अप्राकृतिक कृत्य के अपराध की धारा 377 को उच्चतम न्यायालय ने अवैध घोषित कर दिया था। वर्ष 1997 में विशाखा व अन्य वि. राजस्थान राज्य (ए.आई.आर.1997 एससी 3011) में उच्चतम न्यायालय के लेंडमार्क निर्णय द्वारा महत्वपूर्ण दिशा-निर्देश दिये गये थे। जिसके पालनार्थ काफी समय बाद वर्ष 2013 में ‘‘कार्यस्थल पर महिलाओं को यौन उत्पीड़न (रोकथाम निषेध निवारण) अधिनियम 2013’’ संक्षेप में ‘‘यौन उत्पीड़न अधिनियम’’(पॉश) बनाया गया। तुकाराम और अन्य वि. महाराष्ट्र राज्य, जो बहुचर्चित ‘‘मथुरा रेप कांड’’ के नाम से जाना जाता है, में उच्चतम न्यायालय के निर्णय से उत्पन्न ‘‘रोष’’ के चलते वर्ष 1983 में आपराधिक कानून (द्वितीय) संशोधन अधिनियम 1983 लाया गया। इसके द्वारा धारा 228ए (पीडि़त की पहचान गुप्त), 376ए, 376बी, 376सी, 376डी जोड़ने के साथ कई और महत्वपूर्ण संशोधन किये गये। साथ ही "बंद कमरे" में ( इन कैमरा) ट्रायल व सबूत का भार अपराधी पर के प्रावधान लाए गए। देश को झकझोर कर देने वाला ‘‘निर्भया कांड’’ के बाद बने वर्मा आयोग की रिपोर्ट के आधार पर ‘‘अपराधिक कानून संशोधन अधिनियम 2013’’ जो ‘‘बलात्कार विरोधी अधिनियम’’ भी जाना जाता है, के द्वारा बलात्कार से संबंधित धारा 375 एवं 376 में महत्वपूर्ण संशोधन करते हुए नई धारा 326ए (एसिड हमला) 354ंए (यौन उत्पीड़न) 354बी,(कपडे़ उतारना) 354सी (ताकझाक करना) 354डी (पीछा करना), 376ए (सामूहिक बलात्कार) के प्रावधान जोड़े गये। साथ ही धारा 166ए एवं 166बी जोड़ी गई, जिसमें पुलिस अधिकारी द्वारा यौन हिंसा के अपराधों (धारा 354 से 376 D तक) के संबंध में सूचना मिलने पर प्राथमिकी दर्ज न करने पर अपने कर्तव्य की अवहेलना के लिए सजा का प्रावधान किया गया। ‘नाबालिग’ की स्थिति में ‘यौन हिंसा’ होने पर नया ‘‘पास्को एक्ट’’ 2013 बनाया गया। सहमति की उम्र भी 16 से 18 वर्ष की गई। 

यौन हिंसा के अपराध के संबंध में ‘‘प्राथमिकी’’ दर्ज करने से लेकर जांच की प्रक्रिया, अभियुक्त की गिरफ्तारी और जमानत देने देने के संबंध में उच्चतम न्यायालय ने बार-बार अपने न्यायिक निर्णयों द्वारा विस्तृत स्पष्ट सिद्धांत प्रतिपादित किए हैं। "ललिता कुमारी विरुद्ध उत्तर प्रदेश सरकार" के निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने "अभिनंदन  झा विरुद्ध दिनेश मिश्रा" में दिए अपने पूर्व के निर्णय के विपरीत यह महत्वपूर्ण सिद्धांत प्रतिपादित किया कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 154 में यौन हिंसा से संबंधित सूचना मिलने पर जांच पुलिस अधिकारी को "प्राथमिकी" दर्ज करना अनिवार्य है। लेकिन  अत्यंत दुख का विषय यह है कि इन प्रतिपादित सिद्धांतों का संबंधित क्षेत्रों अर्थात शासन-प्रशासन, जांच पुलिस अधिकारियों और अधीनस्थ न्यायालयों द्वारा पूर्णतः पालन नहीं किया जाता रहा है। यानी कि ‘‘बातें लाख की और करनी ख़ाक की’’। ज्यादा दुख और चिंता का विषय यह इसलिए भी है की उच्चतम न्यायालय की आंख के नीचे ही नहीं, बल्कि स्वयं उच्चतम न्यायालय के सामने कभी ऐसी स्थिति आने पर न्यायालय का  ध्यान उनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों के पालन की ओर नहीं जाता है, जैसा कि इन महिला पहलवानों के प्रकरण में हुआ है। 

आरोपी सांसद बृजभूषण शरण सिंह के विरूद्व 21 अप्रैल को दिल्ली के कनॉट प्लेस थाने में यौन हिंसा की शिकायत देने के बावजूद 24 अप्रैल तक ‘‘प्राथमिकी’’ दर्ज नहीं हुई। तब महिला पहलवानों द्वारा प्राथमिकी दर्ज कराने के लिए दिनांक 25 अप्रैल को दाखिल की गई याचिका पर उच्चतम न्यायालय ने प्रांरभिक हिचक के बाद आरोपों को गंभीर बताते हुए मामले की तुरंत सुनवाई करते हुए दिल्ली पुलिस प्रशासन को नोटिस जारी करते हुए 28 तारीख को प्रकरण सुनवाई हेतु रखा। तीसरी बार जब दिनांक 4 मई को सुनवाई हुई, तब उच्चतम न्यायालय ने यह कहते हुए याचिका कर्ता की याचिका को ‘‘ पूर्ण ’’ मानकर समाप्त ( खारिज नहीं) कर दिया कि जो अनुतोष (प्रार्थना) मांगी गई है, 28 अप्रैल की हुई सुनवाई में वह ‘‘पूर्ण’’ कर दी गई है। अब ‘‘पंच कहें बिल्ली तो बिल्ली ही सही’’। हालांकि तकनीकी रूप से उच्चतम न्यायालय का उक्त निष्कर्ष/अवलोकन (ऑब्जरवेशन) सही होने के बावजूद अधूरा है। वह इसलिए कि जब 28 तारीख को सुनवाई के लिए मामला उच्चतम न्यायालय के पास आया, तब उच्चतम न्यायालय के कोई आदेश-निर्देश देने के पूर्व ही दिल्ली पुलिस के ओर से इस बात का हलफनामा तसदीक कर प्रस्तुत की गई कि वह महिला पहलवानों द्वारा दायर की गई शिकायत पर प्राथमिकी दर्ज कर लेंगे। तदनुसार प्राथमिकी परन्तु उसी दिन दर्ज न होकर दूसरे दिन दर्ज हुई। 6 दिन बाद 3 तारीख की रात्रि को कनॉट प्लेस में पुलिस द्वारा उनसे दुर्व्यवहार व मारपीट की हुई घटना के बाद दिनांक 4 मई को उच्चतम न्यायालय में जब महिला पहलवानों की ओर से मामले को तीसरी बार पुनः मेंशन (उल्लेख) कर उक्त दुर्व्यवहार का उल्लेख के साथ न्यायाधीश सेवानिवृत्त न्यायाधीश की अध्यक्षता में जांच की मांग की गई, तब उच्चतम न्यायालय द्वारा सुनवाई करते समय तक मात्र दो महिला पहलवानों के बयान ही दर्ज हुए थे। तब तक अभियुक्त का कोई बयान न तो दर्ज किए गया था और न ही दर्ज करने का कोई प्रयास पुलिस द्वारा अपनी केस डायरी में बतलाया गया। साथ ही मजिस्ट्रेट के समक्ष धारा 164 के अंतर्गत भी बयान नहीं हुए थे, जैसा कि स्वयं न्यायालय ने दिल्ली पुलिस को फटकार लगाते हुए पुछा था। कहते हैं ना कि ‘‘कच्ची सरसों पैर के खाली होय ना तेल’’। विपरीत किसके बृजभूषण सिंह बेशर्मी के साथ विभिन्न न्यूज चैनलों में आकर ‘‘खूंटे के दम पर कूदने वाले बछड़े’’ के समान ख़ुद को बाहुबली समझने वाले अपनी दंभता को प्रदर्शित करते हुए महिला पहलवानों को एक तरह से डराने का ही काम कर रहा था। 

उच्चतम न्यायालय अपने पूर्व निर्णयों में स्पष्ट रूप से यह सिद्धांत प्रतिपादित कर चुका है की ‘‘यौन हिंसा’’ जैसे संज्ञेय अपराध मामलों में शिकायत आने पर बिना कोई प्राथमिक जांच किए तुरंत ‘‘प्राथमिकी’’ दर्ज न करने पर संबंधित पुलिस अधिकारी के विरुद्ध धारा 166 ए के अंतर्गत ड्यूटी व कर्तव्य न निभाने के अपराध का प्रकरण दर्ज किया जाएगा। ऐसी स्पष्ट कानूनी स्थिति में उच्चतम न्यायालय ने महिला पहलवानों द्वारा प्रथम बार जनवरी में शिकायत करने पर और बाद में 21 अप्रैल को थाने में शिकायत करने पर भी प्राथमिकी दर्ज न करके कानून की अवहेलना की गई। प्रकरण में हुई इस गंभीर त्रुटि की स्थिति के उच्चतम न्यायालय में सुनवाई के समय विद्यमान रहने के बावजूद उच्चतम न्यायालय ने  प्रथम दृष्टया उक्त घटित अपराध का संज्ञान लेकर दिल्ली ललिता कुमारी विरुद्ध उत्तर प्रदेश सरकार (वर्ष 2013) में स्वयं के प्रतिपादित सिद्धांत (प्रिंसिपल लेडडाउन) के प्रकाश में दिल्ली पुलिस के वकील सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता को जांच पुलिस अधिकारियों के विरूद्ध आपराधिक प्रकरण दर्ज करने के लिए नोटिस क्यों नहीं जारी किया? जो न केवल न्यायालय के क्षेत्राधिकार में था, बल्कि पूरा न्याय दिलाने के लिए उनका यह "न्यायिक कर्तव्य" भी था। ठीक वैसे ही जैसे मोहम्मद अतीक अहमद की हत्या के मामले में दायर याचिका पर सुनवाई करते समय उच्चतम न्यायालय ने केंद्रीय सरकार से उसके पूर्व एनकाउंटर में मारे गए दोनों अपराधी अरशद एवं अशरफ की स्टेटस रिपोर्ट को भी मांगा था, यद्यपि जिसकी सुनवाई उस समय उच्चतम न्यायालय के समक्ष नहीं थी। वास्तव में महिला पहलवानों की याचिका में ‘‘‘जांच अधिकारियों द्वारा अपने कर्तव्य पालन में असफल रहने का अपराध इन-बिल्ट’’ (छुपा हुआ) होकर शामिल था। यद्यपि यह बात भी सत्य है कि याचिकाकर्ता के वकील को भी इस अपराध का संज्ञान लेने के लिए उच्चतम न्यायालय का ध्यान आकर्षित करना चाहिए था। लेकिन यह बात भी तो सही है कि उच्चतम न्यायालय तो कई बार समाचार पत्रों में छपी खबरों का टीवी चैनल में आए न्यूज का संज्ञान लेते रहे हैं। 

वास्तव में उपरोक्त कानूनी और न्यायिक स्थिति को देखते हुए प्रस्तुत प्रकरण में ‘‘निम्न कमियां प्रथम दृष्टया’’ स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर हो रही है। प्रथम पुलिस द्वारा 6 महिलाओं की एक ही एफआईआर दर्ज की गई, जो कानूनन बिल्कुल गलत है। प्रत्येक पीडि़ता महिला की ‘‘प्राथमिकी’’ अलग-अलग दर्ज की जानी चाहिए थी। द्वितीय पॉक्सो एक्ट के अंतर्गत प्राथमिकी दर्ज हो जाने पर अभियुक्त की गिरफ्तारी आम तौर पर अनिवार्य होती है, जो प्रकरण में अभी तक नहीं की गई है। तृतीय समस्त पीडि़तों के धारा 161 के तहत बयान लेने में न केवल काफी देरी की गई बल्कि समस्त पीडि़तों के बयान भी अभी तक नहीं लिए गए। चतुर्थ पुलिस द्वारा धारा 161 के अंतर्गत बयान लिये जाने के बाद धारा 164 के अंतर्गत मजिस्ट्रेट के समक्ष पीडि़तों के बयान पुलिस द्वारा कराये जाने का कोई प्रयास अभी तक नहीं किया गया। पंचम त्रुटि अपराध जहां-जहां घटित हुए हैं, वे घटना स्थलों की कोई जांच पुलिस द्वारा अभी तक नहीं की गई। छठवीं गंभीर त्रुटि पीडि़तों की मेडिकल जांच भी नहीं की गई, जो यौन अपराधों में निहायत जरूरी होती है। शिकायतकर्ता से गवाहों की कोई सूची भी नहीं मांगी गई है, जो भी एक लापरवाही है। अभियुक्त बृजभूषण शरण सिंह के विरुद्ध अपराध धारा 354, 354A एवं D के अलावा धारा 34 के अंतर्गत दर्ज होना भी समझ से परे है। क्योंकि यहां पर तो अभियुक्त मात्र एक ही व्यक्ति है, जब की धारा 34 के लिए एक से अधिक व्यक्तियों का समान (कॉमन) आशय के साथ होना आवश्यक है।

इन सब गंभीर त्रुटियों लापरवाहियों को देखते हुए स्पष्ट है कि, जांच पुलिस दल द्वारा जांच को किस दिशा में ले जाने का प्रयास किया जा रहा है? यह अपने आप में स्पष्ट है। यदि आप यह तथ्य भी दिमाग में लायेंगे कि अपराधी एक बाहुबली होकर सत्ताधारी पार्टी का सांसद बृजभूषण सिंह की बजाए एक सामान्य नागरिक होता, क्या तब भी पुलिस जांच की कार्रवाई इसी तरह से दिशाहीन व धीमी गति से होती? मामला जब एक बार उच्चतम न्यायालय में जा चुका है और जांच प्रक्रिया के दौरान हुई  किन्ही भी कमियों को सुधारें जाने के लिए पीडि़ता मामले को पुनः उच्चतम न्यायालय अथवा उच्च न्यायालय में ले जा सकती है। इस तथ्य के बावजूद पुलिस जांच दल की कार्य प्रणाली, साहस की नहीं बल्कि ‘‘दुःसाहस’’ की दाद तो देनी ही होगी।

उच्चतम न्यायालय के समक्ष जब प्रकरण अंतिम बार सुनवाई हेतु आया, तब पुलिसिया  जांच प्रक्रिया में हुई उपरोक्त लगभग समस्त त्रुटियों/कमियों न्यायालय के समक्ष मौजूद थी जिसमें से कुछ त्रुटियों पर तो न्यायालय ने दिल्ली पुलिस को फटकार तक लगाई थी। बावजूद इसके उच्चतम न्यायालय ने कर्तव्य का पालन न करने वाले त्रुटिकर्ता पुलिस अधिकारियों के विरूद्ध कोई कार्रवाई करने के निर्देश नहीं दिये। बावजूद इसके मुख्य न्यायाधीश के यह कहने के कि स्वयं व्यक्तिगत रूप से इस मामले का परिर्वेक्षण करेगें। ऐसी स्थिति में उपरोक्त त्रुटियों/कमियों के रहते उनका उपचार किए बिना 4 मई को प्रकरण को पूरा होकर समाप्त करना ‘‘पूर्ण न्याय नहीं’’ है। वैसे भी अनुच्छेद 142 के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय के पास अंतर्निहित शक्तियां (इन्हेरेंट पावर्स) है, जिसका उपयोग करके उच्चतम न्यायालय उपरोक्त समस्त कमियों को दूर करने के लिए आवश्यक निर्देश जारी कर सकता था, जो करना चाहिए था, परंतु न्यायालय ने नहीं किया। यह उच्चतम न्यायालय की त्रुटि है जैसा कि मैं पहले ही ऊपर पैरा में स्पष्ट कर चुका हूं।

मंगलवार, 9 मई 2023

‘‘दो महिला पहलवानों’’ के मामले में ‘‘मीडिया’’ भी ‘‘यौन अत्याचार’’ का अपराधी है।


देश की ओलंपियाड एवं विश्व, एशियन एवं कॉमनवेल्थ खेलों की गोल्ड, सिल्वर व कांस्य पदक विजेता रही, सात (जिसमें एक नाबालिग है) अंतरराष्ट्रीय महिला पहलवानों द्वारा बाहुबली भाजपा सांसद बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ दर्ज कराई गई प्राथमिकी (एफआईआर) के संबंध में इंडियन एक्सप्रेस ने इन सात में से दो भुक्तभोगी पीडि़ता महिला शिकायतकर्ताओं की एफआईआर के तथ्यों को मुख्य पृष्ठ (फ्रंट पेज) पर पूरी तरह से उजागर कर उभारा है। यह प्रकाशन व इलेक्ट्रॉनिक चैनलों द्वारा किया गया प्रसारण ‘‘नैतिकता’’ की समस्त हदों को पार करते हुए ‘‘शर्मसार’’ करने वाला है। यह तो ‘‘किसी को दोषी साबित करने के लिये अपनी नाक कटाने जैसा ही है’’।
लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहलाने वाले और स्वयं को लोकतंत्र का सबसे बड़ा प्रहरी बताने वाली आत्ममुग्ध प्रेस-मीडिया की पत्रकारिता के धर्म की कड़ी में समाज की पीड़ित महिलाओं के विरुद्ध हुए यौन शोषण, उत्पीड़न, अत्याचार जैसे गंभीर अपराधों से संबंधित समाचारों घटनाओं को जनता के सामने लाने का दायित्व है। यह कर्तव्य युक्त दायित्व उच्चतम न्यायालय के यौन अपराधों के संबंध में समाचार छापने या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में प्रसारित करने के बाबत दिए गए निर्देशों के तहत पीड़िता की पहचान को उजागर किए बिना प्रमुखता से छापे/प्रसारित किए जाने का दायित्व सींची गई सीमा रेखा के अंदर ही है। ताकि वह अपराधी, जो समाज का एक सदस्य है और कई बार तो ऐसे मामलों में अपराधी एक प्रभावशाली, शक्तिशाली व्यक्तित्व भी होता है, जो कि देश की बेटियों को ‘‘अपने हाथों का खिलौना’’ समझता है, जैसा कि वर्तमान प्रकरण में है, का घिनौना चेहरा जनता के सामने आता है। तभी समाज उस अपराधी व्यक्ति के ऐसे घिनौने कृत्य से अवगत होता है। तभी तो समाज ऐसे व्यक्तियों को पहचान कर उन्हें सामाजिक व्यवस्थाओं से दूर करने का प्रयास कर उनका सामाजिक बहिष्कार तक कर सकता है। हां पीड़िता की पहचान सामने न आने के कारण जरूर जागरूक नागरिक गणों को ऐसे पीड़ितों को सहायता करने में आगे आने में उन्हे कुछ मुश्किलें अवश्य होती हैं।
उच्चतम न्यायालय के उपरोक्त दिशा निर्देशों को ध्यान में रखते हुए पीड़िता की पहचान को उजागर किए बिना परंतु कृत्य (घटना) का ‘‘चीर - फाड’’ कर यौन अत्याचार का विस्तृत विवरण सेकंड टू सेकंड रूबरू दिया गया है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि, मीडिया चाहे प्रिंट हो या इलेक्ट्रॉनिक ने उच्चतम न्यायालय को ‘‘बेशर्मी से मुंह चिढ़ाते हुए’’ अपनी जिम्मेदारी का वहन बहुत ही गैर जिम्मेदारी पूर्ण तरीके से किया है। मीडिया के लिए पत्रकारिता धर्म निभाने के लिए क्या यह जरूरी था कि विभिन्न समयों में हुई यौनाचार की घटनाओं का जो विस्तृत विवरण प्राथमिकी में पीड़िता ने दिया था, उसको रूबरू वैसे ही छापा जाए, प्रसारित किया जाए? और पीड़िताओं को बार बार ‘‘अपने आंसू पीने के लिये मजबूर’’ किया जाये?
      क्या मीडिया के इस कृत्य से अपने आप ही मीडिया द्वारा यौन अत्याचार (सेक्सुअल एसॉल्ट) का अपराध करना घटित नहीं होता है? आज आप जब पीड़िता के साथ हुए  यौन अत्याचार के गलत व्यवहार का वर्णन (डिस्क्राइब) कर रहे हैं, तब आपको कहीं न कहीं पीड़िता की समाज में स्थिति, हमारी सामाजिक व्यवस्था और नैतिकता के साथ इस बात पर भी ध्यान रखना होगा, गौर करना होगा कि, ऐसे प्रसारण, पठन से हमारी देश की युवा बालक बालिकाएं (टीनएजर्स) के मन पर कितना बुरा असर पड़ेगा? क्या यौन उत्पीड़न को सेकंड टू सेकंड क्रियाओं का विस्तृत विवरण प्रसारित करने के बजाय मीडिया उक्त घटनाओं को इस तरह से प्रसारित नहीं कर सकता था कि पीड़िता के साथ यौन हिंसा, अत्याचार हुआ है, गलत व्यवहार हुआ है, छेड़छाड़ की गई है, बलात्कार हुआ है, शारीरिक एवं मानसिक शोषण हुआ है, आदि आदि। जिस तरह शब्दों से यौन अत्याचार का विवरण दिया गया है उन शब्दों का यहां उपयोग करना कम से कम मेरे लिए तो संभव नहीं है। जैसे ... छूना। क्या बलात्कार होने पर भी मीडिया बलात्कार की पूरी ‘‘क्रिया’’ को भी इसी तरह से प्रसारित करता? 
मीडिया का स्तर इतना नीचा हो सकता है, इसकी कल्पना तो शायद इसके पूर्व किसी को भी नहीं रही होगी? क्योंकि इस तरह का प्रसारण इसके पूर्व कभी हमने न तो देखा है, और न ही सुना है। इससे तो यही लगता है मीडिया के सामने ‘‘टीआरपी’’ तो सिर्फ एक बहाना है। वस्तुतः ऐसे प्रसारण को आम नागरिक कदापि सुनना पसंद नहीं करेगा। ‘‘टीआरपी’’ की आड़ में इस तरह से न्यूज़ व घटना का ‘‘लाइव सामान’’ प्रसारण करना, प्रसारित करना घोर अनैतिकता लिए हुए एक तरह से फिर से इन महिलाओं के साथ मीडिया द्वारा किया गया वही यौनाचार है, जो बृजभूषण शरण सिंह ने किया था। याद कीजिए उच्चतम न्यायालय ने बलात्कार के मामलों में इस प्रकार वर्ष 1997 में ‘‘विशाखा जजमेंट’’ में गाइड लाइन बनाते हुए व्यापक दिशा निर्देश देते हुए यह कहा कि अदालत में साक्ष्य देना एक ‘‘दर्दनाक’’ अनुभव है जो ‘‘बलात्कार से भी बदतर’’ होता है। न्यायालय का यह दायित्व होता है कि प्रति-परीक्षण पुनः उत्पीड़न, अपराध का कारण नहीं बनना चाहिए। इसी आधार पर 16 वर्ष बाद यौन उत्पीड़न अधिनियम 2013 (पॉश) लाया गया। मथुरा रेप कांड में उच्चतम न्यायालय के निर्णय से उत्पन्न रोष के चलते वर्ष 1983 में आपराधिक कानून संशोधन अधिनियम वर्ष 1983 में लाया गया जिसके द्वारा भा.द.स. में नई धाराएं 228 ए, 376 ए, 370 बी, 376सी, 376 डी अंतर्विष्ट की गई। देश को झकझोर करने वाला ‘‘निर्भया कांड’’ के बाद भी वर्ष 2013 में बलात्कार से संबंधित धाराओं में कई और महत्वपूर्ण परिवर्तन किये गये। अभियुक्त के वकील द्वारा प्रति-परीक्षण में बलपूर्वक संभोग के संबंध में (क्रॉस एग्जामिनेशन) आपत्तिजनक प्रश्न पूछे जाने पर पूर्व में प्रतिबंध लगा दिया गया था। साथ ही ऐसे प्रकरणों में सुनवाई बंद कमरों में की जाने लगी। क्योंकि ‘‘घायल की गति घायल ही जान सकती है’’। कुछ इसी तरह के प्रतिबंध मीडिया के लिए यौन हिंसा के समाचार को छापने/प्रसारित करने के लिए होते हैं।  
       6 मई को अंग्रेजी का प्रमुख समाचार पत्र ‘‘इंडियन एक्सप्रेस’’ के मुख्य पृष्ठ पर दो पीड़ितों के साथ हुए यौन अत्याचारों की घटना का विस्तृत विवरण कि कब-कब पीडि़ता के साथ यौन शोषण किस-किस तरीकों से होता रहा, के छपने पर, विजय विद्रोही पत्रकार का यूट्यूब पर एक वीडियो आया। फिर तो इस संबंध में चैनलों और ‘यूट्यूब’ में इसके प्रसारण करने की होड़ सी लग गई। क्या ऐसे विषय पर मीडिया, मीडिया पर्सन के बीच अपनी ‘‘साख को दांव पर लगाते हुए’’ परस्पर गला काट स्पर्धा (कंपटीशन) होनी चाहिए? मीडिया को यह नहीं भूलना चाहिये कि ‘‘सर सलामत तो पगड़ी हजार’’। इसलिये मीडिया को अपने अंदर झांकने की गंभीर आवश्यकता है। वह स्वयं का आत्मावलोकन करें और तुरंत देश की जनता से ऐसे प्रसारण के लिए माफी मांगे। साथ ही लिखित में दोनों महिला पीड़ितों से भी माफी मांगे।
इलेक्ट्रॉनिक न्यूज चैनलों द्वारा महिला पहलवानों के साथ घटी घटना को उक्त निम्न स्तरीय तरीको से प्रसारण किया गया। दुखद पहलू यह भी है कि न्यूज चैनल्स जैसे ‘‘न्यूज 24’’ के एंकर संदीप चौधरी जो अन्य एंकरों के सामान बहती हवा के साथ नहीं चलते हैं, के द्वारा भी प्रारंभिक हिचक को दर्शाते हुए उक्त विषय पर बहस कराई गई, जिसमें यशोवर्धन आजाद, रिटायर्ड डीजी, मीरन बोरवनकर, आईपीएस वरिष्ठ पुलिस अधिकारी भी शामिल थे। परन्तु एक भी (अतिथि) गेस्ट ने उक्त तरह के प्रसारण पर न तो एंकर को रोका, न टोका, न बहिष्कार किया। क्या बुद्धिजीवियों का भी बौद्धिक स्तर गिरते जा रहा है?

गुरुवार, 4 मई 2023

"मन की बात" "30 अप्रैल" "प्रतिवर्ष सत्य दिवस"! मनाया जाए।

जब कभी मन की बात की जाती है, तो वह "मन व दिल" से निकलती है। इसलिए वह सत्य होती है। चूंकि वह एक "डिवाइन फ़िनाॅमिनन" है, इसलिए प्रधानमंत्री नरेंद मोदी के मन से निकली बात सत्य ही होनी चाहिए। 30 अप्रैल को प्रधानमंत्री की "मन की बात" का 100 वां प्रसारण हुआ है। इस कारण से पूरे देश में 30 अप्रैल के प्रसारण को शताब्दी दिवस के रूप में हर्षोल्लास के साथ व्यापक रूप से आम जनता की भागीदारी के साथ मनाया गया। मैंने भी पहली बार सांसद के निमंत्रण पर नागरिकों के साथ बैठकर 100 वे प्रसारण को सुना। प्रधानमंत्री ने पहली बार वर्ष 3 अक्टूबर 2014 को मन की बात का प्रसारण प्रारंभ किया था, जो आज देश का एक जन आंदोलन बन गया है। प्रधानमंत्री मोदी के मन की बात कबीर की उक्ति "मैं कहता आंखन देखी" का पर्याय बन चुकी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा देश के लिए यह बिल्कुल नई अनोखी पहल थी। पहले इसके कभी भी देश के प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति को "जनता के दिलों की गांठें खोलते हुए" उनसे सीधे इंटरेक्ट होते हुए  देखा नहीं गया है, सिवाय 15 अगस्त एवं 26 जनवरी को जब देश के नाम उद्बोधन में  प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को अभी तक सुना जाता रहा था। या कभी प्राकृतिक आपदा, युद्ध का संकट या कोई संवैधानिक संकट खड़ा होने पर प्रधानमंत्री देश की जनता से सीधे संवाद करते थे।प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस रिवाज परिपाटी (कस्टम) को तोड़ा है। प्रधानमंत्री ने अपनी कार्य पद्धति एवं प्रणाली से देश में कई नए-नए आयाम स्थापित किए हैं। उनमें से एक महत्वपूर्ण "मन की बात" भी है। "मन मनुष्य के व्यक्तित्व का दर्पण है"। फ़िल्म काजल का एक बहुत सुंदर गीत है "तोरा मन दर्पण कहलाये"।

प्रधानमंत्री द्वारा नए आयामों को स्थापित करने की सूची का यदि अवलोकन करें तो वह काफी लंबी हो जाएगी। कुछ प्रमुख है जो आगे उल्लेखित है:- स्वच्छत भारत अभियान, कोरोना काल में सबसे अधिक टीके, 150 से अधिक देशों को कोरोना काल में टीके दवाइयां आदि की सहायता दी है, जन धन योजना, मेक इन इंडिया, लोकल फॉर वोकल,सरहदों पर जाकर सैनिकों के साथ प्रत्येक वर्ष दीपावली मनाने वाले एकमात्र प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही रहे हैं। देश- विदेश में सबसे अधिक घूमने वाले, अभी तक के प्रधानमंत्रियों में से सबसे अधिक चुनावी सभाओं को संबोधित करने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रहे हैं। 21वीं सदी के 4G, 5G के युग में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कार्यप्रणाली की एक सबसे महत्वपूर्ण विशेषता उच्च स्तर की जमकर की गई ब्रांडिंग की नई प्रणाली अवश्य रही है। मोदी अपनी हर नई नीति व प्रोग्राम की लॉन्चिंग और धरातल पर उतारने के लिए बड़े स्तर पर ब्रांडिंग कर अवसर को एक बड़े कार्यक्रम में परिवर्तित कर देते हैं, जो पूर्व के प्रधानमंत्री कभी नहीं करते रहे हैं। नरेंद्र मोदी का "आपदा को अवसर" में बदलने का नारा भी रहा है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक केंद्र सरकार की योजनाएं अथवा भाजपा शासित राज्यों की योजनाओं के विज्ञापनों में आपको हर जगह मात्र एक  चेहरा सिर्फ नरेंद्र मोदी या प्रदेश की योजनाओं में प्रधानमंत्री के साथ प्रदेश के मुख्यमंत्रियों के चेहरे ही दिखेंगे, जो इसके पूर्व अन्य किसी पार्टी के शासन में कभी देखने को  नहीं मिला। हां सो वे एपिसोड में एक बात जरूर खटकने वाली रही। पूरा देश इस बात की उम्मीद कर रहा था, प्रधानमंत्री आज जरूर जंतर-मंतर पर धरने पर बैठी राष्ट्र की अंतर्राष्ट्रीय महिला पहलवानों जिन्होंने देश का नाम विश्व में रोशन किया है, के संबंध में दो शब्द जरूर कहेंगे? क्योंकि मोदी का एक महत्वपूर्ण आयाम बेटी बचाओ का यह एक महत्वपूर्ण भाग है। य देश की परिवार की वे बेटियां हैं जिन्होंने देश के लिए कुश्ती के खेल में गोल्ड मेडल्स प्राप्त करने पर प्रधानमंत्री ने अपने निवास पर चाय पर बुलाकर उन्हें यह कहकर सम्मानित किया था विनेश फोगाट तुम मेरे परिवार की बेटी हो।

आइए अब प्रत्येक वर्ष 30 तारीख को सत्य वचन दिवस के रूप में क्यों मनाया जाना चाहिए? इस पर मनन करते हैं। हम शौर्य दिवस, बलिदान दिवस, गांधी जयंती, बाल दिवस, शिक्षक दिवस, पंडित दीनदयाल जयंती, अंबेडकर जयंती, बिरसा मुंडा जयंती आदि अनेक महानुभाव के नाम की जयंती बनाते हैं। योग दिवस, महिला दिवस, युवा दिवस इत्यादि बनाते हैं। जहां हम इन सब गणमान्य व्यक्तियों के योगदान और महत्व को याद कर उन्हें अपने जीवन में आत्मसात करने की बात उस दिवस पर करते हैं। इसी कारण से यदि हम 30 अप्रैल को "सत्य दिवस" के रूप में मनाया जाए तो निश्चित रूप से हमें उस दिन इस बात पर सोचने का एक अवसर मिलेगा कि जिंदगी में अधिकतम सत्य वचन बोलने का प्रयास करना चाहिए। क्योंकि कहते हैं न कि "मन चंगा तो कठौती में गंगा"और सत्य वचन कहने वाला "अपनी बात का धनी होता है"। कलयुग में तो अधिकतम सत्य की ओर ही चला जा सकता है, यही संभव है, पूर्ण सत्य की ओर नहीं। क्योंकि कोई भी चीज एब्सोल्यूट (पूर्ण) नहीं होती है। तथापि पूर्ण सत्य सतयुग में राजा हरिश्चंद्र के पास ही था। यह तो एक बात हो गई। अब जरा इसके दूसरे पहलू पर भी बात कर ली जाए।

"मन की बात" जो अभी तक प्रधानमंत्री करते रहे हैं, वह अपने मन की बात करते रहे हैं या आपके मन की बात ? यद्यपि 100 वे प्रसारण पर मन की बात पर प्रधानमंत्री ने जो कुछ कहा व उद्धरण दिए, उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने "जनता की मन की बात" को पढ़ने का प्रयास ज्यादा किया और पढ़ने पर जो कुछ  कमियां या समस्या परिलक्षित हुई, उसको पूरा करने का प्रयास  किया जिसके कुछ उदाहरण प्रधानमंत्री ने भी मन की बात में दिए। परंतु यहां इस बात पर विचार करना होगा जब "मन की बात" स्वयं के दिल की बात होती है, तब वह बिना प्रयास के (ईफोर्टलैस) "खरी बात फ़र्रूख़ाबादी" होती है। इसलिए वह शुद्ध मन की अंतर्मन, अंतःकरण की सात्विक, सत्य बात होती है। यही बात दूसरे के "मन के दरवाज़े खटखटाने" की क्षमता भी रखती है। लेकिन जब आप मन की बात में "स्वयं की नहीं बल्कि दूसरे के मन की बात" को बोलते हैं, पढ़ते हैं या पढ़ने का प्रयास करते है, तब आपको निश्चित रूप से मन के साथ दिलो-दिमाग व विवेक के उपयोग का प्रयास कुछ न कुछ करना होता है। यह प्रयास आपकी मन की बात को प्राकृतिक न रहने देकर बुद्धि व विवेक दूसरे के मन की बात करते समय लाभ-हानि का आकलन  करने के कारण तब वह मन की बात पूर्ण रूप से सत्य न होकर लाभ हानि की दृष्टि के दृष्टिकोण में आ जाती है। यह बात इस तथ्य से भी सिद्ध होती है कि प्रधानमंत्री ने मन की बात के 100 वे संस्करण में किसी भी कमी का उल्लेख नहीं किया जो उन्होंने जनता के मन को पढ़ते हुए महसूस की और न ही उन कमियों को दूर करने की भविष्य की कोई योजना का उल्लेख किया। हालांकि यह व्यक्ति का  मूल अधिकार होता है कि वह 'लाभ-हानि" को ध्यान में रखते हुए आपकी मन की बात को अपने मन के माध्यम से कह सके। वैसे सामान्यतया यह कहा जाता है, विवेकशील होने के लिए व्यक्ति को अपनी बुद्धि विवेक कौशल से काम करना चाहिए। परंतु "जो हृदय-मन की गहराइयों से बात करते हैं, उन्हें बुद्धि से जवाब देना उचित नहीं"। इस सत्य के बावजूद मेरा यह दृढ़ मत है कि 30 अप्रैल को सत्य दिवस को पूरे देश में अगले वर्ष से मनाया जाना चाहिए। इससे कम से कम हमें आत्म मनन चिंतन व सोचने का एक अवसर मिलेगा, जब हम यह सोच कर रूप से गर्व महसूस करेंगे कि हम राजा  हरिश्चंद्र के पीढ़ी दर पीढ़ी के लोग है। इसलिए इस एक अवसर पर हम कम से कम पूर्ण सच नहीं तो अधिकतम सच बोलने का प्रण लेकर उस दिशा में अग्रसर होने का प्रयास अवश्य कर सकते हैं।

मंगलवार, 2 मई 2023

‘‘आनंद’’ ‘‘सर्वानंद’’ ‘‘परमानंद’’! विहारे, बिहारी "मोहन आनंद"।

बिहार के बाहुबली पूर्व सांसद आनंद मोहन जिन्हें एक आईएएस पदस्थ डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट (जिला दंडाधिकारी जी कृष्णैया) की हत्या के आरोप में आजीवन कारावास की सजा दी गई थी, जो 14 वर्ष से अधिक समय से जेल में थे। बिहार सरकार ने जेल मैनुअल में बिहार कारा हस्तक 2012 के नियम 481(आई) मैं संशोधन कर जिसके द्वारा सरकारी सेवक की हत्या को अपराध की श्रेणी से हटा कर सजायाफ्ता आनंद मोहन को अन्य 27 दोषियों के साथ रिहाई कर दी। निर्जीव (डिफंट) बिहार पीपुल्स पार्टी के नेता रहे और राष्ट्रीय जनता पार्टी के नेता आनंद मोहन सिर्फ एक बाहुबली ही नहीं हैं, बल्कि उनकी पत्नी लवली आनंद भी सांसद रही है, और बेटा चेतन आनंद बिहार विधानसभा का सदस्य हैं। इससे ज्यादा महत्वपूर्ण बात वे राजपूत समाज के लोकप्रिय प्रभावशाली बाहुबली राजनेता है। खासतौर पर राजपूत वर्ग में उनकी काफी अधिक पकड़ रुतबा व लोकप्रियता है। आनंद मोहन प्रसिद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानी राम बहादुर सिंह के परिवार से आते हैं। इस परिवार ने जेपी आंदोलन में भी सक्रिय रूप से भाग लेकर आपातकाल को भी भोगा है। बिहार में राजपूत वोटरों की आबादी छः से सात प्रतिशत है। सूबे में 30 से 35 विधानसभा सीटों और 6 से 7 लोकसभा सीटों में गहरी पकड़ है। इस पकड़ का ही कारण यह है कि "सुशासन बाबु" कहे जाने वाले नीतीश कुमार को अब शायद सुशासन नहीं शासन चलाने में ही दिक्कत हो रही है, क्योंकि "हंस थे सो तो उड़ गए कागा भय दीवान"। आगे शासन में आने की उम्मीदें, संभावनाएं कहीं धूमिल लग रही होगी, तभी तो पुनः शासन पर आने की उम्मीदों को सुनिश्चित करने के लिए "अंतड़ियों को बल खोलने में लगे हैं"। इसी क्रम में बाकायदा नियम में परिवर्तन कर कानूनी जामा पहनाकर उनके साथ खड़े होकर फोटो सेशन कर एक नये शासन या कहे कुशासन का संकेत दिया है। ‘सुशासन’ तो "लुप्त" ही हो गया है।

इससे यह तथ्य हमेशा की तरह पुनः सिद्ध हो जाता है कि राजनीति के इस हमाम में समस्त राजनीतिक पार्टियां नंगी है। इस मामले में भी बिहार में कांग्रेस एक सहयोगी दल है, सरकार में हिस्सेदारी बनाये हुए है, सत्ता की मलाई चख रही है। कांग्रेस एक तरफ तो गुजरात में अगस्त 2022 में बिलकिस बानो के सामूहिक बलात्कार हत्या के के अपराध में आजन्म कारावास सजा पाए सजायाफ्ता 16 अपराधियों को गुजरात सरकार द्वारा केंद्र सरकार की सिफारिश व सहमति पर इसी तरह से छोड़े जाने पर हुल्लड़ व हंगामा मचा देती हैं, तो वहीं दूसरी ओर बिहार में सत्ता की मलाई चखने के बदले अपना मुंह राजनैतिक शुद्धता के मुद्दे पर सिल लेती है। परन्तु सत्ता का स्वाद चखने के लिए बेशर्मी से बार-बार मुंह खोल देती हैं। स्थिति यहीं तक नहीं रूकती है। भाजपा जो एक तरफ नीतीश कुमार को इस निर्णय को लेकर कटघरे में खड़ा करने का प्रयास करती हुई जनता को वह नीतीश कुमार की इस गलत नीति का विरोध करते हुए दिखना भी चाहती है। परंतु साथ ही यह भी नहीं दिखना चाहिए कि वह आनंद मोहन का सीधे विरोध कर रही है। इसी कारण से भाजपा के प्रमुख नेतागण उसी स्वास में यह कह जाते है कि हमें आनंद मोहन की रिहाई से व्यक्तिगत रूप से कोई परहेज नहीं है, लेकिन नीतीश कुमार ने जो किया वह गलत किया। बतौर नीतीश कुमार भाजपा के नेता पूर्व मंत्री सुशील मोदी ने 2 महीने पूर्व यह कहा था कि यदि राजीव गांधी के हत्यारे को रिहा किया जा सकता है, तो आनंद मोहन को रिहा करने में समस्या क्या है? भाजपा इस रिहाई के मामले में भारी दुविधा में है। कारण स्पष्ट है ! 34 ऊंची जाति (सवर्ण एवं राजपूत) के विधायक भाजपा के ही हैं। भाजपा के बड़बोले, बयानवीर केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह के बयान पर जरा गौर कीजिए। "बेचारा आनंद मोहन को नीतीश ने बलि का बकरा बना दिया है। उसकी रिहाई पर किसी को आपत्ति नहीं है"। इसी को कहते हैं "गुड़ खाएं और गुलगुले से परहेज"। यानी एक साथ मीठा कड़वा खाने का अनर्थक प्रयास किया जा रहा है। परन्तु ‘‘न माया मिली न राम’’ जैसी स्थिति पैदा हो रही है। 

क्या देश की राजनीति में नेताओं द्वारा पैदा किये गये उक्त दोहरेपन की नीति को प्रतिबंधित करने के लिए चुनाव आयोग और उच्चतम न्यायालय केंद्रीय सरकार को ऐसा निर्देश, आदेश अथवा अनुरोध या फिर सरकार के ध्यान में यह बात नहीं ला सकता है कि इस संबंध में कोई कानून बनाया जाए। खासकर उस स्थिति को देखते हुए जब उच्चतम न्यायालय हेट स्पीच के मामले में राज्य सरकारों को स्वयं ही आगे आकर संज्ञान लेकर प्राथमिकी दर्ज करने  के निर्देश देता है। इसी प्रकार ऐसे मामलों जहां किसी भी प्रकार की घटना, दुर्घटना, हत्या, दंगा, मॉब लिंचिंग बलात्कार आतंकी घटना आदि घटित होने पर यदि कोई पार्टी एक स्टैंड (रूख) एक राज्य में ले लेती है, तो उसे दूसरे राज्य में भी उसी तरह की घटना घटने पर उसे वही रुख अपनाना होगा। याने कि 'या तो चने चबा लो, या फिर शहनाई बजा लो"। उसे कानूनी रूप से बाध्यता होने के लिए आवश्यक कानून बनाने पर गंभीरता से विचार करना होगा। वैसे दोहरेपन की नीति का यह एक अकेला उदाहरण नहीं है। बल्कि यदि यह कहा जाए कि भारतीय राजनीति पूर्ण रूप से इस दोहरेपन की नीति से ही भरी हुई है, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। बात चाहे महंगाई की हो, पेट्रोलियम पदार्थ (पेट्रोल डीजल) की मूल्य वृद्धि की हो, चुनावी घोषणा पत्रों में मुफ्त देने की घोषणा हो (तेरी रेवड़ी परंतु मेरी जनता की जरूरत) आदि अनेकोनेक उदाहरणों से राजनीति भरी पड़ी है। जब हम एक देश, एक झंडा, एक संविधान, एक नागरिकता, एक सिविल संहिता, एक कर, एक राशन, एक आधार कार्ड की बात करते हैं, तब एक ही तरह की घटनाएं अलग-अलग प्रदेशों में घटित होने पर राजनीतिक पार्टियों की ऐसी घटनाओं पर क्रियाएं-प्रतिक्रियाएं पूरे देश में एक ही होनी चाहिए। "खरे सोने को कसौटी से डर कैसा"? वास्तव में यदि ऐसा हो गया, तो नेतागण दाएं बाएं नहीं हो पाएंगे और न ही जिम्मेदारी से भाग पाएंगे। यकीन मानिये!  राष्ट्रहित में, पार्टी हित या स्वार्थ से युक्त राज्य हित में नहीं, यह स्टैंड निश्चित रूप से सभी के लिए फायदेमंद है । अतः राजनीतिक पार्टियों के दोहरेपन (डबल स्टैंडर्ड) की नीतियों पर रोक लगाने के लिए एक सक्षम देशव्यापी कानून बनाए जाने की नितांत आवश्यकता वर्तमान मौजूदा परिस्थितियों को देखते हुए है। अब यह मत कहिएगा कि यह संविधान प्रदत बोलने के की स्वतंत्रता के मूल अधिकार का उल्लंघन होगा। संविधान में कोई भी अधिकार  एब्सोल्यूट (पूर्ण) नहीं है। प्रत्येक अधिकार उचित प्रतिबंधों के साथ है।

अंत में फिल्म "अमर प्रेम" में राजेश खन्ना पर फिल्माया गया यह गाना याद आ रहा है "लोग तो कुछ कहेंगे ही, लोगों का काम ही कहना है, छोड़ो बेकार की बातें..."।  हम आनंद मोहन सर्व आनंद ,परम आनंद  लिए कंठ तक डूबे हुए हैं, बिहार की समस्त राजनीतिक जनता को ह्रदय की गहराइयों से धन्यवाद।

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