उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रकरण में की गई ‘‘महत्वपूर्ण अनदेखी’’।
‘‘यौन हिंसा’’ एक व्यापक अर्थ लिया हुआ अपराध है। इसमें बिना सहमति के किसी भी प्रकार की यौन क्रिया (कृत्य) अथवा प्रयास, अश्लील क्रिया, टिप्पणी व संदेश, छेड़छाड़, गलत निगाहों से घूरना, यौन अत्याचार, बलात्कार तथा शारीरिक व मानसिक शोषण शामिल है। यौन हिंसा भारतीय दंड संहिता की धारा 354 एवं धारा 376 के अंतर्गत एक अपराध है। अप्राकृतिक कृत्य के अपराध की धारा 377 को उच्चतम न्यायालय ने अवैध घोषित कर दिया था। वर्ष 1997 में विशाखा व अन्य वि. राजस्थान राज्य (ए.आई.आर.1997 एससी 3011) में उच्चतम न्यायालय के लेंडमार्क निर्णय द्वारा महत्वपूर्ण दिशा-निर्देश दिये गये थे। जिसके पालनार्थ काफी समय बाद वर्ष 2013 में ‘‘कार्यस्थल पर महिलाओं को यौन उत्पीड़न (रोकथाम निषेध निवारण) अधिनियम 2013’’ संक्षेप में ‘‘यौन उत्पीड़न अधिनियम’’(पॉश) बनाया गया। तुकाराम और अन्य वि. महाराष्ट्र राज्य, जो बहुचर्चित ‘‘मथुरा रेप कांड’’ के नाम से जाना जाता है, में उच्चतम न्यायालय के निर्णय से उत्पन्न ‘‘रोष’’ के चलते वर्ष 1983 में आपराधिक कानून (द्वितीय) संशोधन अधिनियम 1983 लाया गया। इसके द्वारा धारा 228ए (पीडि़त की पहचान गुप्त), 376ए, 376बी, 376सी, 376डी जोड़ने के साथ कई और महत्वपूर्ण संशोधन किये गये। साथ ही "बंद कमरे" में ( इन कैमरा) ट्रायल व सबूत का भार अपराधी पर के प्रावधान लाए गए। देश को झकझोर कर देने वाला ‘‘निर्भया कांड’’ के बाद बने वर्मा आयोग की रिपोर्ट के आधार पर ‘‘अपराधिक कानून संशोधन अधिनियम 2013’’ जो ‘‘बलात्कार विरोधी अधिनियम’’ भी जाना जाता है, के द्वारा बलात्कार से संबंधित धारा 375 एवं 376 में महत्वपूर्ण संशोधन करते हुए नई धारा 326ए (एसिड हमला) 354ंए (यौन उत्पीड़न) 354बी,(कपडे़ उतारना) 354सी (ताकझाक करना) 354डी (पीछा करना), 376ए (सामूहिक बलात्कार) के प्रावधान जोड़े गये। साथ ही धारा 166ए एवं 166बी जोड़ी गई, जिसमें पुलिस अधिकारी द्वारा यौन हिंसा के अपराधों (धारा 354 से 376 D तक) के संबंध में सूचना मिलने पर प्राथमिकी दर्ज न करने पर अपने कर्तव्य की अवहेलना के लिए सजा का प्रावधान किया गया। ‘नाबालिग’ की स्थिति में ‘यौन हिंसा’ होने पर नया ‘‘पास्को एक्ट’’ 2013 बनाया गया। सहमति की उम्र भी 16 से 18 वर्ष की गई।
यौन हिंसा के अपराध के संबंध में ‘‘प्राथमिकी’’ दर्ज करने से लेकर जांच की प्रक्रिया, अभियुक्त की गिरफ्तारी और जमानत देने देने के संबंध में उच्चतम न्यायालय ने बार-बार अपने न्यायिक निर्णयों द्वारा विस्तृत स्पष्ट सिद्धांत प्रतिपादित किए हैं। "ललिता कुमारी विरुद्ध उत्तर प्रदेश सरकार" के निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने "अभिनंदन झा विरुद्ध दिनेश मिश्रा" में दिए अपने पूर्व के निर्णय के विपरीत यह महत्वपूर्ण सिद्धांत प्रतिपादित किया कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 154 में यौन हिंसा से संबंधित सूचना मिलने पर जांच पुलिस अधिकारी को "प्राथमिकी" दर्ज करना अनिवार्य है। लेकिन अत्यंत दुख का विषय यह है कि इन प्रतिपादित सिद्धांतों का संबंधित क्षेत्रों अर्थात शासन-प्रशासन, जांच पुलिस अधिकारियों और अधीनस्थ न्यायालयों द्वारा पूर्णतः पालन नहीं किया जाता रहा है। यानी कि ‘‘बातें लाख की और करनी ख़ाक की’’। ज्यादा दुख और चिंता का विषय यह इसलिए भी है की उच्चतम न्यायालय की आंख के नीचे ही नहीं, बल्कि स्वयं उच्चतम न्यायालय के सामने कभी ऐसी स्थिति आने पर न्यायालय का ध्यान उनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों के पालन की ओर नहीं जाता है, जैसा कि इन महिला पहलवानों के प्रकरण में हुआ है।
आरोपी सांसद बृजभूषण शरण सिंह के विरूद्व 21 अप्रैल को दिल्ली के कनॉट प्लेस थाने में यौन हिंसा की शिकायत देने के बावजूद 24 अप्रैल तक ‘‘प्राथमिकी’’ दर्ज नहीं हुई। तब महिला पहलवानों द्वारा प्राथमिकी दर्ज कराने के लिए दिनांक 25 अप्रैल को दाखिल की गई याचिका पर उच्चतम न्यायालय ने प्रांरभिक हिचक के बाद आरोपों को गंभीर बताते हुए मामले की तुरंत सुनवाई करते हुए दिल्ली पुलिस प्रशासन को नोटिस जारी करते हुए 28 तारीख को प्रकरण सुनवाई हेतु रखा। तीसरी बार जब दिनांक 4 मई को सुनवाई हुई, तब उच्चतम न्यायालय ने यह कहते हुए याचिका कर्ता की याचिका को ‘‘ पूर्ण ’’ मानकर समाप्त ( खारिज नहीं) कर दिया कि जो अनुतोष (प्रार्थना) मांगी गई है, 28 अप्रैल की हुई सुनवाई में वह ‘‘पूर्ण’’ कर दी गई है। अब ‘‘पंच कहें बिल्ली तो बिल्ली ही सही’’। हालांकि तकनीकी रूप से उच्चतम न्यायालय का उक्त निष्कर्ष/अवलोकन (ऑब्जरवेशन) सही होने के बावजूद अधूरा है। वह इसलिए कि जब 28 तारीख को सुनवाई के लिए मामला उच्चतम न्यायालय के पास आया, तब उच्चतम न्यायालय के कोई आदेश-निर्देश देने के पूर्व ही दिल्ली पुलिस के ओर से इस बात का हलफनामा तसदीक कर प्रस्तुत की गई कि वह महिला पहलवानों द्वारा दायर की गई शिकायत पर प्राथमिकी दर्ज कर लेंगे। तदनुसार प्राथमिकी परन्तु उसी दिन दर्ज न होकर दूसरे दिन दर्ज हुई। 6 दिन बाद 3 तारीख की रात्रि को कनॉट प्लेस में पुलिस द्वारा उनसे दुर्व्यवहार व मारपीट की हुई घटना के बाद दिनांक 4 मई को उच्चतम न्यायालय में जब महिला पहलवानों की ओर से मामले को तीसरी बार पुनः मेंशन (उल्लेख) कर उक्त दुर्व्यवहार का उल्लेख के साथ न्यायाधीश सेवानिवृत्त न्यायाधीश की अध्यक्षता में जांच की मांग की गई, तब उच्चतम न्यायालय द्वारा सुनवाई करते समय तक मात्र दो महिला पहलवानों के बयान ही दर्ज हुए थे। तब तक अभियुक्त का कोई बयान न तो दर्ज किए गया था और न ही दर्ज करने का कोई प्रयास पुलिस द्वारा अपनी केस डायरी में बतलाया गया। साथ ही मजिस्ट्रेट के समक्ष धारा 164 के अंतर्गत भी बयान नहीं हुए थे, जैसा कि स्वयं न्यायालय ने दिल्ली पुलिस को फटकार लगाते हुए पुछा था। कहते हैं ना कि ‘‘कच्ची सरसों पैर के खाली होय ना तेल’’। विपरीत किसके बृजभूषण सिंह बेशर्मी के साथ विभिन्न न्यूज चैनलों में आकर ‘‘खूंटे के दम पर कूदने वाले बछड़े’’ के समान ख़ुद को बाहुबली समझने वाले अपनी दंभता को प्रदर्शित करते हुए महिला पहलवानों को एक तरह से डराने का ही काम कर रहा था।
उच्चतम न्यायालय अपने पूर्व निर्णयों में स्पष्ट रूप से यह सिद्धांत प्रतिपादित कर चुका है की ‘‘यौन हिंसा’’ जैसे संज्ञेय अपराध मामलों में शिकायत आने पर बिना कोई प्राथमिक जांच किए तुरंत ‘‘प्राथमिकी’’ दर्ज न करने पर संबंधित पुलिस अधिकारी के विरुद्ध धारा 166 ए के अंतर्गत ड्यूटी व कर्तव्य न निभाने के अपराध का प्रकरण दर्ज किया जाएगा। ऐसी स्पष्ट कानूनी स्थिति में उच्चतम न्यायालय ने महिला पहलवानों द्वारा प्रथम बार जनवरी में शिकायत करने पर और बाद में 21 अप्रैल को थाने में शिकायत करने पर भी प्राथमिकी दर्ज न करके कानून की अवहेलना की गई। प्रकरण में हुई इस गंभीर त्रुटि की स्थिति के उच्चतम न्यायालय में सुनवाई के समय विद्यमान रहने के बावजूद उच्चतम न्यायालय ने प्रथम दृष्टया उक्त घटित अपराध का संज्ञान लेकर दिल्ली ललिता कुमारी विरुद्ध उत्तर प्रदेश सरकार (वर्ष 2013) में स्वयं के प्रतिपादित सिद्धांत (प्रिंसिपल लेडडाउन) के प्रकाश में दिल्ली पुलिस के वकील सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता को जांच पुलिस अधिकारियों के विरूद्ध आपराधिक प्रकरण दर्ज करने के लिए नोटिस क्यों नहीं जारी किया? जो न केवल न्यायालय के क्षेत्राधिकार में था, बल्कि पूरा न्याय दिलाने के लिए उनका यह "न्यायिक कर्तव्य" भी था। ठीक वैसे ही जैसे मोहम्मद अतीक अहमद की हत्या के मामले में दायर याचिका पर सुनवाई करते समय उच्चतम न्यायालय ने केंद्रीय सरकार से उसके पूर्व एनकाउंटर में मारे गए दोनों अपराधी अरशद एवं अशरफ की स्टेटस रिपोर्ट को भी मांगा था, यद्यपि जिसकी सुनवाई उस समय उच्चतम न्यायालय के समक्ष नहीं थी। वास्तव में महिला पहलवानों की याचिका में ‘‘‘जांच अधिकारियों द्वारा अपने कर्तव्य पालन में असफल रहने का अपराध इन-बिल्ट’’ (छुपा हुआ) होकर शामिल था। यद्यपि यह बात भी सत्य है कि याचिकाकर्ता के वकील को भी इस अपराध का संज्ञान लेने के लिए उच्चतम न्यायालय का ध्यान आकर्षित करना चाहिए था। लेकिन यह बात भी तो सही है कि उच्चतम न्यायालय तो कई बार समाचार पत्रों में छपी खबरों का टीवी चैनल में आए न्यूज का संज्ञान लेते रहे हैं।
वास्तव में उपरोक्त कानूनी और न्यायिक स्थिति को देखते हुए प्रस्तुत प्रकरण में ‘‘निम्न कमियां प्रथम दृष्टया’’ स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर हो रही है। प्रथम पुलिस द्वारा 6 महिलाओं की एक ही एफआईआर दर्ज की गई, जो कानूनन बिल्कुल गलत है। प्रत्येक पीडि़ता महिला की ‘‘प्राथमिकी’’ अलग-अलग दर्ज की जानी चाहिए थी। द्वितीय पॉक्सो एक्ट के अंतर्गत प्राथमिकी दर्ज हो जाने पर अभियुक्त की गिरफ्तारी आम तौर पर अनिवार्य होती है, जो प्रकरण में अभी तक नहीं की गई है। तृतीय समस्त पीडि़तों के धारा 161 के तहत बयान लेने में न केवल काफी देरी की गई बल्कि समस्त पीडि़तों के बयान भी अभी तक नहीं लिए गए। चतुर्थ पुलिस द्वारा धारा 161 के अंतर्गत बयान लिये जाने के बाद धारा 164 के अंतर्गत मजिस्ट्रेट के समक्ष पीडि़तों के बयान पुलिस द्वारा कराये जाने का कोई प्रयास अभी तक नहीं किया गया। पंचम त्रुटि अपराध जहां-जहां घटित हुए हैं, वे घटना स्थलों की कोई जांच पुलिस द्वारा अभी तक नहीं की गई। छठवीं गंभीर त्रुटि पीडि़तों की मेडिकल जांच भी नहीं की गई, जो यौन अपराधों में निहायत जरूरी होती है। शिकायतकर्ता से गवाहों की कोई सूची भी नहीं मांगी गई है, जो भी एक लापरवाही है। अभियुक्त बृजभूषण शरण सिंह के विरुद्ध अपराध धारा 354, 354A एवं D के अलावा धारा 34 के अंतर्गत दर्ज होना भी समझ से परे है। क्योंकि यहां पर तो अभियुक्त मात्र एक ही व्यक्ति है, जब की धारा 34 के लिए एक से अधिक व्यक्तियों का समान (कॉमन) आशय के साथ होना आवश्यक है।
इन सब गंभीर त्रुटियों लापरवाहियों को देखते हुए स्पष्ट है कि, जांच पुलिस दल द्वारा जांच को किस दिशा में ले जाने का प्रयास किया जा रहा है? यह अपने आप में स्पष्ट है। यदि आप यह तथ्य भी दिमाग में लायेंगे कि अपराधी एक बाहुबली होकर सत्ताधारी पार्टी का सांसद बृजभूषण सिंह की बजाए एक सामान्य नागरिक होता, क्या तब भी पुलिस जांच की कार्रवाई इसी तरह से दिशाहीन व धीमी गति से होती? मामला जब एक बार उच्चतम न्यायालय में जा चुका है और जांच प्रक्रिया के दौरान हुई किन्ही भी कमियों को सुधारें जाने के लिए पीडि़ता मामले को पुनः उच्चतम न्यायालय अथवा उच्च न्यायालय में ले जा सकती है। इस तथ्य के बावजूद पुलिस जांच दल की कार्य प्रणाली, साहस की नहीं बल्कि ‘‘दुःसाहस’’ की दाद तो देनी ही होगी।
उच्चतम न्यायालय के समक्ष जब प्रकरण अंतिम बार सुनवाई हेतु आया, तब पुलिसिया जांच प्रक्रिया में हुई उपरोक्त लगभग समस्त त्रुटियों/कमियों न्यायालय के समक्ष मौजूद थी जिसमें से कुछ त्रुटियों पर तो न्यायालय ने दिल्ली पुलिस को फटकार तक लगाई थी। बावजूद इसके उच्चतम न्यायालय ने कर्तव्य का पालन न करने वाले त्रुटिकर्ता पुलिस अधिकारियों के विरूद्ध कोई कार्रवाई करने के निर्देश नहीं दिये। बावजूद इसके मुख्य न्यायाधीश के यह कहने के कि स्वयं व्यक्तिगत रूप से इस मामले का परिर्वेक्षण करेगें। ऐसी स्थिति में उपरोक्त त्रुटियों/कमियों के रहते उनका उपचार किए बिना 4 मई को प्रकरण को पूरा होकर समाप्त करना ‘‘पूर्ण न्याय नहीं’’ है। वैसे भी अनुच्छेद 142 के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय के पास अंतर्निहित शक्तियां (इन्हेरेंट पावर्स) है, जिसका उपयोग करके उच्चतम न्यायालय उपरोक्त समस्त कमियों को दूर करने के लिए आवश्यक निर्देश जारी कर सकता था, जो करना चाहिए था, परंतु न्यायालय ने नहीं किया। यह उच्चतम न्यायालय की त्रुटि है जैसा कि मैं पहले ही ऊपर पैरा में स्पष्ट कर चुका हूं।
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