कर्नाटक विधानसभा के चुनाव परिणामों ने चुनावी राजनीति से जुड़े समस्त व्यक्ति, संस्थाएं जिनमें टीवी चैनल्स, राजनेताओं से लेकर राजनैतिक पंडित, मर्मज्ञ, विशेषज्ञ, चुनाव पूर्व एवं एग्जिट पोल का सर्वेक्षण समीक्षा करने वाले हैं, कुछ एक अपवादों को छोड़कर समस्त विश्लेषकगणों राजनेताओं को कुछ अचंभित करता हुआ, कुछ गलत सा ठहराता हुआ हतोत्साहित (सोशल मीडिया व आज तक को छोड़कर) करता है। जो लोग इन परिणामों को कर्नाटक से आगे ले जाकर राष्ट्रव्यापी या या कहे की वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव तक ले जाकर परिणामों के प्रभावों का आकलन, विश्लेषण भविष्य वक्ता के रूप में कर रहे है, वह सब भी कहीं तत्समय गलत सिद्ध न हो जाए? कर्नाटक के चुनाव परिणाम की फेस वैल्यू (अंकित मूल्य) जो दिखता है, वास्तव में ज्यादा उसके निहितार्थ छुपे हुए है जो विभिन्न दिशाओं की ओर संकेत करने वाले हैं। कर्नाटक के चुनाव परिणाम कई मायनों में सामान्य रूप से एक राज्य के चुनाव परिणामों के समान पक्ष-विपक्ष की हार जीत लिए दिखते हुए होने के बावजूद विलक्षण स्थितियों में विशिष्ट विशेष और भारतीय राजनीति की गिरगिट समान रंग बदलती स्थिति को देखते हुए एक निश्चित दिशा को देने वाले परिणाम मूलक चुनाव परिणाम है।
कर्नाटक प्रदेश के चुनाव परिणाम आ गये है। आशा से कुछ ज्यादा ही ‘‘आशातीत’’ परिणाम आए हैं। 34 वर्ष बाद (एम कृष्णा) के बाद इतना बड़ा बहुमत 43 प्रतिशत मत प्राप्त कर 136 सीटें विजयी पार्टी को मिली। सर्वप्रथम तो कर्नाटक की जनता ने पिछली बार ‘ठोस’ जनादेश न दिये जाने के कारण हुई जनादेश की दुर्दशा के अपराध बोध से ग्रसित मन भाव को इस बार बिल्कुल ही स्पष्ट व निश्चित दिशा मूलक चुनाव परिणाम दिया है। निश्चित रूप से वर्ष 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव के साथ मध्य-प्रदेश में भी वर्ष के अंत में होने वाले चुनाव में प्रदेश की राजनीति में कर्नाटक चुनाव के परिणामों का प्रभाव पड़ना लाजिमी है। परन्तु पहले कर्नाटक प्रदेश के आये चुनाव परिणामों का गहन विचार मंथन कर राजनैतिक निष्कर्ष निकालने का प्रयास करते हैं। तभी कर्नाटक चुनाव के आए परिणामों का मध्य प्रदेश की राजनीति पर होने वाले प्रभाव का सही आकलन कर पाएंगे।
चुनाव परिणाम ने कर्नाटक में भाजपा के हिंदुत्व, ‘‘संप्रभुता’’ व ‘‘गाली’’ के मुद्दे की एक तरह से हवा ही निकाल दी है। उलट इसके ‘‘हिन्दु-मुस्लिम’’ से कांग्रेस को मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में फायदा ही मिला है। ‘‘मोदी है तो मुमकिन है’’ व ‘‘डबल इंजन की सरकार’’ के नारे व नीति को भी एक धक्का अवश्य लगा है। तथापि कर्नाटक चुनाव परिणामों के विपरीत साथ में ही आये उत्तर प्रदेश के स्थानीय निकायों के आये चुनाव परिणामों ने ‘‘डबल इंजन’’ की सरकार को और मजबूती देते हुए ‘‘ट्रिपल इंजन’’ की सरकार स्थापित कर दी है। भ्रष्टाचार का मुद्दा हमेशा से कांग्रेस के लिए ‘‘गले की हड्डी’’ बन कर इसके दुष्परिणामों से कांग्रेस को हमेशा ‘‘दो-चार’’ होना पड़ता रहा है। पहली बार भाजपा के भ्रष्टाचार का उक्त मुद्दा का दाँव उलट पड़ गया, यानी पासा पलट गया। उल्टे कांग्रेस ने उक्त मुद्दे को लपक कर, झेल कर 40 प्रतिशत कमीशन के भ्रष्टाचार को भारी व प्रमुख मुद्दा बनाया, भ्रष्टाचार की रेट लिस्ट के ‘‘होल्डिंग’’ तक लगा दिए गए। इस प्रकार भ्रष्टाचार के मुद्दे को भारी प्रसारित किए जाने के कारण प्राप्त सफलता में यह मुद्दा शायद अन्य मुद्दों पर भारी पड़ गया, ऐसा प्रतीत होता है। ‘‘भारत जोड़ों यात्रा’’ व ने एक सकारात्मक वातावरण बनने से कांग्रेस के स्थानीय मजबूत नेतृत्व भी जीत में महत्वपूर्ण कारक रहे। भाजपा की ‘अंदरूनी कलह’ व ‘एकता’ की कमी भी चुनाव हार के कारणों में जुड़ गई। येदुरप्पा की ‘बेज्जती’ को दूर करने के पार्टी के प्रयासों को भी शायद जनता ने गंभीरता से नहीं लिया, हार का एक कारक यह भी है।
चुनाव परिणामों से स्पष्ट रूप से निकले उक्त विपरीत संदेशों के बावजूद उक्त परिणाम से भाजपा के हक में भी ‘‘छुपे हुए’’ तीन निष्कर्ष अवश्य निकाले जा सकते हैं। प्रथम समस्त विपरीत परिस्थितियों और सत्ता विरोधी कारक (एंटी इनकंबेंसी फैक्टर) होने के बावजूद वह अपने वोट बैंक प्रतिशत 34 प्रतिशत को बनाए रखने में सफल रही है, जो पिछले आम चुनाव में मिले कुल प्रतिशत के लगभग बराबर का ही है। मात्र .04 पर्सेंट की कमी आई है। कर्नाटक में हुए पिछले 14 आम चुनावों में से 8 चुनावों में पिछले चुनाव की तुलना में मतदान का प्रतिशत बढ़ने के कारण 8 में से 7 बार सत्ता पर बैठी सरकार बदली है। इसी प्रकार पिछले आम चुनाव की तुलना में इस बार कुल मतदान में 0.77 प्रतिशत की वृद्धि (73.19-72.36=0.77) होने के कारण परिपाटी स्वरूप सत्ता पर विराजमान सरकार को बदलने के बावजूद भाजपा अपने वोट बैंक को बनाए रखने में ‘‘सफल’’ रही है। तीसरा यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ही कमाल था और उनकी ‘‘मैराथन दौड़’’ का ही यह परिणाम रहा कि ‘कोस्टल एरिया’ में भाजपा की हार, जैसे अन्य क्षेत्रों में हुई, वैसी हार होने से प्रधानमंत्री की रैली और सभाओं ने न केवल रोका, बल्कि बेंगलुरु में तो पिछले चुनाव की तुलना में भाजपा के पक्ष में मतदान का प्रतिशत बढ़ा भी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कुछ कमजोर जरूर हुए हैं, परंतु आज भी उनकी मतदाताओं के बीच प्रभावी पहुंच व पेंठ से इनकार नहीं किया जा सकता है। मतलब ‘‘ब्रांड मोदी’’ कमोबेश बरकरार है। वैसे भी ‘‘अनेकों भारी जीतों’’ के बीच एक या दो हार से (हिमाचल प्रदेश) विपरीत निष्कर्ष निकालना खतरे से खाली नहीं होगा।
उक्त निर्णायक हार से यह अंतिम निष्कर्ष निकालना भी गलत होगा कि भाजपा का हिंदुत्व (बजरंग बली) का मुद्दा खत्म हो गया। वास्तव में कर्नाटक में हिंदुत्व का मुद्दा कृत्रिम रूप से बनाया गया, यह कहकर कि बजरंग दल पर प्रतिबंध का मतलब ‘‘बजरंगबली’’ है। इसी प्रकार ‘‘सम्प्रभुता’’ का भी मुद्दा कृत्रिम रूप से बनाया गया। इन दोनों मुद्दों के कृत्रिम रूप से निर्मित होने के कारण ही जनता ने इन मुद्दों को अस्वीकार कर दिया। इसका एक अर्थ यह भी निकलता है कि हिंदुत्व का मुद्दा जहां वास्तविक होकर धरातल पर होगा, जैसे गुजरात, उत्तर-प्रदेश में, तो वह मुद्दा ‘‘प्राकृतिक’’ होने के कारण जो पूर्व में भाजपा के लिए संजीवनी सिद्ध हो चुका है, वह पुनः भविष्य में भी संजीवनी सिद्ध हो सकता है, इस बात को ध्यान में रखना होगा।
कर्नाटक की जनता ने इस जनादेश के द्वारा एक और संदेश यह भी दिया है कि वोटों का बंटवारा न होने की स्थिति में ‘‘अपराजित, अजेय परसेप्शन’’ ली हुई भाजपा को ‘‘हराया’’ जा सकता है, जैसा कि कर्नाटक की जनता ने बहुत ही बुद्धि पूर्वक किया। कैसे! कांग्रेस, भाजपा और जेडीएस तीन प्रमुख दल के ‘‘चुनावी पिच’’ पर होने के बावजूद जनता ने त्रिकोणीय संघर्ष लगभग नहीं होने दिया। मतलब लगभग किसी भी सीट पर तीनों पार्टी के उम्मीदवारों को परस्पर प्रतिस्पर्धात्मक पूर्ण मत नहीं मिले। अर्थात जनता ने भाजपा के विरुद्ध कांग्रेस और जेडीएस के उम्मीदवार जहां-तहां मजबूत थे, और जीतने की स्थिति में लग रहे थे, वहां त्रिकोणीय संघर्ष न होने देकर सीधे-सीधे जिताऊ उम्मीदवारों (कांग्रेस/जेडीएस)को वोट देकर जिताया। यह महत्वपूर्ण संदेश कर्नाटक से ज्यादा वर्ष 2024 में देश के लोकसभा के होने वाले आम चुनाव के लिए ज्यादा महत्व रखता है। इसका एक अर्थ यह भी निकलता है कि यदि विपक्ष वन टू वन के सिद्धांत का लोकसभा में पूरी तरह न भी अपनाये, तब भी ‘जनता’ इतनी समझदार होकर अपना मत पक्ष-विपक्ष के बीच निर्णय कर ‘‘धु्रवीकरण’’ कर सकती है। हां ऐसा होने के लिए इस बात का होना बहुत जरूरी है कि चुनावी मैदान में उतरी सत्ता की आकांक्षी मुख्य विपक्षी पार्टी जनता को पूर्ण रूप से यह विश्वास दिला सके की जनता की प्रदर्शित होने वाली परिवर्तन की इच्छाओं की पूर्ति की मांग को वह पूर्ण करने में सक्षम होकर संजीदगी से गंभीर है।
अंत में दक्षिण के द्वार कहा जाने वाला महत्वपूर्ण प्रदेश कर्नाटक के चुनाव परिणाम ने एक तरफ नरेन्द्र मोदी के ‘तिलिस्म’ को पहली बार कुछ खंडित किया है कि मोदी हार ‘‘जीत की गारंटी’’ नहीं रह गई है। वहीं दूसरी ओर राहुल की हार की बदहवासी छाप को भी धोकर साफ कर दिया है।
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