कर्नाटक के चुनाव परिणाम का विस्तृत व्यापक आकलन मैं पूर्व में ही कर चुका हूं। चूंकि मैं मध्य-प्रदेश का निवासी हूं और मध्य-प्रदेश की राजनीति में मेरी दिलचस्पी भी है, इसलिए आइए! अब मध्य-प्रदेश की राजनीति में कर्नाटक चुनाव परिणाम से उभरे समीकरणों व चुनाव परिणाम के द्वारा तय हुए कुछ राष्ट्रीय मुद्दों का प्रदेश में आगामी होने वाले चुनाव पर क्या प्रभाव पड़ेगा? इसका अध्ययन कर लेते हैं।
कर्नाटक में ‘‘नाटक’’ (जैसा पिछले विधानसभा में किसी एक पार्टी का स्पष्ट बहुमत न मिलने के कारण हुआ था) पैदा न करने वाले चुनावी परिणाम से मध्य-प्रदेश में होने वाले विधानसभा के चुनाव पर क्या कुछ ‘नाटकीय’ अथवा प्रभावी परिवर्तन देखने को मिलेगा? कर्नाटक चुनाव के परिणाम से तय हुए मुद्दे का सिलसिलेवार अध्ययन करते हुए उनके प्रदेश में है रोकने वाले परिणाम प्रभाव का आकलन करते हैं।
हिंदुत्व का मुद्दा कर्नाटक में परवान नहीं चढ़ा। ‘‘बजरंगबली’’ भाजपा के झंडे के बजाए कांग्रेस झंडे में दृष्टिगोचर होते हुए कांग्रेस के घोड़े की चुनावी समुद्र से वैतरणी पार करा दी। संघ, जनसंघ, भाजपा ‘हिन्दुत्व’ को मजबूत जमीन मध्य-प्रदेश जा रही है, यहां पर वह हिन्दुत्व कितना प्रभावी होगी जो कर्नाटक में असफल हो गया। वास्तव में हिन्दुत्व के मुद्दे पर कमलनाथ स्वयं ‘‘हार्ड हिंदुत्व’’ की बजाय ‘‘सॉफ्ट हिंदुत्व’’ को अपनाते हुए दिख रहे हैं। इसलिए वे मध्य-प्रदेश की ‘‘चुनावी पिच’’ पर इस मुद्दे पर भाजपा को ‘‘गुगली’’ फेकने का कोई मौका शायद ही देगें।
कर्नाटक में भाजपा ने लगभग 75 अपने पुराने उम्मीदवारों को बदला। परंतु उनमें से मात्र 17 उम्मीदवार ही विजय प्राप्त कर पाए। सत्ता विरोधी कारक से निपटने के लिए गुजरात से प्रारंभ होकर कमोबेश कर्नाटक में भी सत्ता विरोधी चेहरों को बदलकर नए चेहरे चुनावी पिच में उतारने की भाजपा की अभी तक की हुई सफल नीति के कर्नाटक में आशातीत परिणाम के नहीं आये। इस कारण क्या उक्त नीति का परीक्षण कर कर्नाटक उसके सफल न होने की कमियों को दूर कर संशोधित बेहतर परिणाम उन्मूलन नीति लागू की जाएगी? क्योंकि अब प्रदेश में उसी रूप में उक्त नीति लागू करना शायद अब उतना आसान नहीं होगा। विपरीत इसके प्रदेश की राजनीति में इसका यह प्रभाव अवश्य पड़ेगा कि जहां-तहां भाजपा के वरिष्ठ नेताओं में असंतोष है, और जो एक-एक करके पार्टी छोड़ते जा रहे हैं, ऐसी स्थिति में अब वरिष्ठ नेताओं की अनदेखी, अवहेलना करना व उन्हें टिकट से वंचित करना पार्टी के लिए एक मुश्किल कार्य होगा। परिणाम स्वरूप ऐसा लगता है कि अनुभव और युवा दोनों का बेहतर संयोजन (कॉन्बिनेशन) के साथ भाजपा आगामी होने वाले चुनाव में ‘जिताऊ’ व्यक्तियों को टिकट देने की नीति अपनाईगी जायेगी।
भाजपा पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को टिकट देने के बजाय उनके पुत्र/पुत्री को टिकट देने की एक नई नीति बना कर वरिष्ठ नेताओं की टिकट काटे जाने की स्थिति में उत्पन्न असंतोष को रोकने के रास्ते पर जाने के लिए गंभीर रूप से विचार विमर्श मंत्रा कर मंथन कर रही है। इसमें शिवराज सिंह चौहान, जयंत मलैया, गोपाल भार्गव, नरोत्तम मिश्रा, नरेंद्र सिंह तोमर, प्रभात झा, गौरीशंकर बिसेन के पुत्र/पुत्री शामिल हो सकती है। साथ ही प्रदेश भाजपा नेतृत्व ‘असंतुष्टों’ को कर्नाटक में कद्दावर नेता जगदीश शेट्टार की हुई दुर्दशा का चेहरा कांग्रेस के झंडे के साथ बार-बार दिखा कर विद्रोह को रोकने का प्रयास कर सकती है। कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री व लिंगायत समुदाय के बड़े नेता, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के खाटी स्वयंसेवक, जगदीश शेट्टार भाजपा छोड़कर अपनी परंपरागत सीट जहां से वे 6 बार से लगातार चुने जा रहे थे, से कांग्रेस टिकट पर चुनाव लड़े। जहां भाजपा के उम्मीदवार जो अपने को जगदीश शेट्टार का चेला कहते रहे, ने जगदीश शेट्टार को बुरी तरह से 35000 से अधिक मतों से पछाड़ दिया, बावजूद इस तथ्य के कि कर्नाटक के चुनाव में सोनिया गांधी की एकमात्र चुनावी सभा जगदीश शेट्टार की विधानसभा क्षेत्र में ही हुई थी। उक्त निर्णायकत्मक, निश्चयात्मक, संदेशात्मक हार मध्य-प्रदेश में भाजपा के उन नेताओं के लिए एक स्पष्ट संदेश है कि यदि पार्टी छोड़कर वे कांग्रेस में जाकर चुनाव लड़ते हैं, तो उनको भी एक बड़ा खतरा उठाना पड़ सकता है। क्योंकि तब भाजपा ऐसे ‘‘भाजपाई फूल छाप कांग्रेसी उम्मीदवारों’’ को हराने के लिए पूरी ताकत से जुड़ जाएगी, जैसा कि कर्नाटक में पूर्व मुख्यमंत्री शेट्टार के मामले में हुआ। इस प्रकार जगदीश शेट्टार की हार मध्य-प्रदेश में भाजपा के लिए एक ‘‘संजीवनी’’ होकर उन लोगों के विरुद्ध एक ‘ढाल’ सिद्ध हो सकती है, जो पार्टी छोड़कर जाने की सोच रहे हैं या कगार पर है।
कर्नाटक के चुनाव परिणाम ने मध्य-प्रदेश में भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व को भी दुविधा की स्थिति में ला दिया है। केंद्रीय नेतृत्व और संघ के पास इस बात की ठोस विश्वसनीय रिपोर्ट विभिन्न स्त्रोतों, क्षेत्रों व अनुषांगिक संगठनों से बार-बार बल्कि निरंतर मिल रही हैं कि मध्य प्रदेश में एंटी इनकंबेंसी फैक्टर में सबसे बड़ा योगदान स्वयं शिवराज सिंह चौहान के चेहरे का है। अतः यदि शिवराज सिंह चौहान के चेहरे को बदला जाता है, तो जहां मध्य-प्रदेश में कर्नाटक समान ही स्थानीय नेतृत्व में एकजुटता नहीं है, वही खाटी असंतुष्ट नेताओं के साथ हटाए जाने वाले मुख्यमंत्री के असंतुष्ट हो जाने पर स्थिति को किस तरह से संभाला जाए? क्योंकि कर्नाटक चुनाव के बाद हाईकमान के उस दबाव और दबदबे में कहीं न कहीं कुछ कमी अवश्य आई है, जिसके रहते पहले हाईकमान ने दिल्ली, गुजरात में मुख्यमंत्री से लेकर मंत्रिमंडल और अधिकांश विधायकों तक की टिकट बेहिचक काट दी थी।
कर्नाटक चुनाव परिणाम के, मध्य-प्रदेश की राजनीति में पड़ने वाले असर को देखने, समझने और पढ़ने के लिए कुछ समय और आपको अवश्य देना होगा।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें