भारतीय रिजर्व बैंक की अधिसूचना दिनांकित 19 मई द्वारा की गई इस घोषणा का क्या वास्तविक उद्देश्य ‘काले धन’ पर अंकुश लगाना है अथवा इस खेल के जरिये काला धन संग्रहकर्ताओं व उत्पादकों को बचाना है। भारतीय स्टेट बैंक द्वारा आज जारी के एक सर्कुलर से यह स्पष्ट हुआ हैं कि आपको 2000 के नोट बदलवाने के लिए किसी भी तरह का कोई फार्म भरना या पहचान देनी नहीं है। इससे अब आप यह समझिए कि काला धन संग्रहकर्ता का कोई रिकॉर्ड या पहचान बैंकों और अंततः सरकार के पास नहीं होगी कि किस व्यक्ति ने कितना पैसा स्वयं, अन्य साधनों तथा दिहाड़ी मजदूरों के माध्यम से बदलवाया है जैसा कि 2016 में हुई नोटबंदी के समय देश की जनता ने देखा है। यह समझ से परे है कि सरकार इन व्यक्तियों की पहचान क्यों नहीं करना चाहती है? और न ही सरकार की तरफ से कोई नीतिगत बयान इस संबंध में आया है।
स्पष्ट है कि पिछली बार की ‘‘नोटबंदी’’ ‘‘नोेट बदली’’ होकर (कुल 99.30 प्रतिशत ) सफेद धन में परिवर्तित हो गई। तब आज तो भारतीय स्टेट बैंक के अपने जारी सर्कुलर ने तो नोटबंदी-2 को कानूनन् ‘‘नोेेट बदली’’ में (काला धन नोट जब्ती में नहीं) परिवर्तित कर दिया है। स्वच्छ मुद्रा नीति की घोषणा के समय भारतीय रिजर्व बैंक के अनुसार प्रचलन में काला धन में लगा कुल 3.62 लाख करोड़ 2000 के नोट के में से न्यूनतम 50 प्रतिशत वैसे यह मात्र 90 प्रतिशत तक हो सकती हैं मान लिया जाए तो 2016 में नोटबंदी लागू कर काला धन समाप्त करने के बाद इन साढ़े छः सालों में ही लगभग 1.50 लाख करोड़ काला धन भ्रष्टाचार की जीरो टॉलरेंस की नीति अपनाने वाली सरकार के ‘‘नाक के नीचे’’ यह भारी भरकम काला धन कैसे पैदा हो गया? शायद इसीलिए ‘‘पिंक इज न्यू ब्लैक’’ जुमला चल पड़ा था। (2000 की नोट पिंक कलर के थे)। जो जुमला न होकर आरबीआई, एसबीआई के उक्त कदम से उक्त जुमला सच होता हुआ दिखा हुआ दिख रहा है। तो क्या यह मान लिया जाए कि काले धन की समानांतर आर्थिक व्यवस्था चलेगी? सरकार शायद देश के भीतर काला धन की उस आर्थिक व्यवस्था का हिस्सा बनाने निकल चुकी है, जहां उसकी काला धन वालों से नहीं, बल्कि ट्रांजेक्शन जो ‘पेपर करेंसी’ होती हैं, उसकी तादाद बैंकों में बनी रहे और आर्थिक व्यवस्था उसी हिसाब से चलती रहे।
इस प्रकार इस नीति के उद्देश्यों की पूर्ति पर आशंका तो उपरोक्त अनुसार आरंभ से ही दिख रही है। लेकिन इसका एक दूसरा पहलू नोट छापने में खर्च हुए करोड़ों रुपए की बर्बादी भी है, जिस पर जनता से टैक्स भी वसूला गया है। भारतीय रिजर्व बैंक के अनुसार 2000 का एक नोट छापने में रू. 4.18 पैसे का खर्च आता है, वही रू. 500 का नोट छापने में रू. 2.57 पैसे का खर्च आता है। एक अनुमान के अनुसार 2000 के नोट छापने में कुल खर्चा 1400 करोड़ रुपए का हुआ है। अमुद्रिकृत किए गए 2000 के नोट की पूर्ति हेतु 500 के 4 गुना नोट छापने होंगे। अब आप अंदाजा लगा लीजिए दूसरे मूल्यांक के नोटों को छापने में जो पैसा खर्च होगा वह अतिरिक्त बर्बादी होगी। नोटों को बाजार में लाने फिर वापस लेने के लिए जो मशक्कत श्रम एटीएम और बैंकों में के चेस्ट में रखी नकली नोटों को जांच करने की मशीन में सुधार लाने पड़ेंगे, यह सब खर्चे अलग है, जो जनता पर एक अतिरिक्त बोझ है। वापिस लिये गये नोटों को नष्ट करने में भी तो खर्चा होगा। ये सब खर्चे अनुत्पादक होकर घोषित उद्देश्य के लिए न होकर एक छिपे हुए एजेंडे के लिए प्रतीत होते दिखते है।
दूसरी महत्वपूर्ण बात आरबीआई, सरकार व भाजपा का यह दावा है कि 2000 के नोट पिछली योजना के समान तुरंत (चार घंटे बाद) अमुद्रिक (अवैध) नहीं किये गये हैं, बल्कि वह आज भी एक वैध मुद्रा है, जो कि 30 सितंबर तक बाजार में प्रचलन में वैध रहेगी। उक्त बात अंशतः शब्दशः कागज पर बिल्कुल सही है। पिछले बार भी 30 दिसंबर तक अवैध घोषित मुद्रा को बदलने का समय दिया गया था, जिस प्रकार अभी 30 सितंबर तक। हां अभी की कार्रवाई में मुद्रा को तुरंत अवैध घोषित नहीं किया गया है, परन्तु व्यवहार में क्या 1 प्रतिशत भी यह सही है? 30 सितंबर के बाद भी क्या वह वैध मुद्रा होकर प्रचलन में होगी? यदि नहीं तो फिर यह मुद्रा ‘‘वैध’’ है, इस दावे का ‘‘यथार्थ’’ मतलब क्या है? या मकसद सिर्फ जनता को गुमराह करना है? सूक्ति है कि ‘संशयात्मक विनश्यति’। जब एक नागरिक को यह मालूम है कि 2000 के नोट 1 अक्टूबर से ‘‘कागज की रद्दी’’ हो जाएंगे, तब वह आज किसी भी ट्रांजेक्शन में 2000 का नोट लेकर बैंक के चक्कर क्यों लगाएगा। भुगतान करने वाला तो कानूनन जोर (दबाव) कर सकता है, परन्तु भुगतान प्राप्त करने वाला व्यावहारिक रूप से उसे हर हाल में अस्वीकार ही करेगा। इस प्रकार ऐसा व्यक्ति कानून की नजर में भी अकारण ही अपराधी हो जाएगा, क्योंकि लीगल टेंडर को अस्वीकार करना भारतीय दंड संहिता की धारा 124 ए के अंतर्गत एक अपराध है। मतलब यह कि ‘‘पठ्ठों की जान गई, पहलवान का दांव ठहरा’’। याद कीजिए! जब कभी बीच-बीच में किसी भी नोट के अमुद्रीकरण की अफवाह फैलती या फैला दी जाती रही, तब जनता सतर्क होकर उन मूल्यांकन के नोटों को स्वीकार करने में हिचकती है। खतरे की आशंका से बचने का सबसे सुरक्षित तरीका भी यही है कि खतरे से दूर रहो। इस प्रकार शब्दों के भ्रमजाल से भ्रम पैदा कर धरातल पर मौजूद वास्तविक स्थिति को बदला नहीं जा सकता है।
कर्नाटक विधानसभा चुनाव में भी 375 करोड़ से ऊपर की नकदी (नोट) जब्त किये गये थे, जो पिछले विधानसभा चुनाव की तुलना में 4.05 गुना ज्यादा थे। इससे एक अंदाजा यह भी लगाया जा सकता है कि इस योजना का एक उद्देश्य आगामी होने वाले विधानसभा व लोकसभा के चुनाव में कालेधन के उपयोग को रोकना भी हो सकता है। तथापि इसका प्रभाव सत्ताधारी दल की बजाए विपक्ष पर पड़ने की संभावनाएं ज्यादा है। शायद यह बात समझ में आने पर ही पूरा विपक्ष इस मामले में एकमत होकर आक्रमण आलोचना कर इस नीति के विरुद्ध खड़ा हो गया है। इसके अतिरिक्त भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कर्नाटक में मिली कड़ी हार को देखते हुए वर्ष 2023 के अंत में विधानसभाओं के चुनाव तथा 2024 में होने वाले लोकसभा के चुनाव को दृष्टिगत रखते हुए भाजपा भ्रष्टाचार को समाप्त करने के मोर्चे पर अपने को आगे दिखाने के लिए भी काला धन जिसकी उत्पत्ति भ्रष्टाचार से ही होती है, की समाप्ति के लिए उक्त कदम उठाने का श्रेय ले सकती है।
अंत में एक महत्वपूर्ण बात और! जिस कारण से इसे (स्वच्छ मुद्रा नीति को) तुगलकी फैसला कहा अथवा ठहराया जा रहा है। या यूँ समझिये की सरकार ने एक ही सांस में यह कह दिया है कि ‘‘गिलास आधा खाली है और आधा भरा है’’, जिसको जो अर्थ निकालना हो, उसके लिए वह स्वतंत्र है। क्योंकि नवंबर 2016 को की गई नोटबंदी के समय जारी 2000 के नोटों के लिए जो आवश्यक कारण बतलाये गये थे, आज उसे प्रचलन से वापस लेने का कारण भी वही नोटबंदी के समय कहा गया मुख्य उद्देश्य काले धन की समाप्ति को बताया जा रहा है। अर्थात सरकार ने ‘‘न उगलते बने न निगलते बने’’ की स्थिति को विपरीत कर ‘‘उगलना भी पड़ेगा और निगलना भी पड़ेगा’’ बनाने का जादुई करिश्मा किया है। यदि ऐसा नहीं है तो इसका एक अर्थ यह भी हो सकता है, जो शायद सरकार कहना नहीं चाह रही हो कि वर्ष 2016 में नोटबंदी के समय की तुलना में आज 2000 रुपए का वास्तविक मूल्य महंगाई व मुद्रास्फीति के कारण घटकर रुपए 1000 के बराबर हो गया है। उस 1000 के बराबर जिसे पिछले नोटबंदी में अमुद्रीकृत कर दिया गया था। तब आज वह बाजार में चलन में कैसे रह सकता है? इतनी छोटी सी बात आप नहीं समझ पा रहे हैं? इसीलिए तो इस नीति की घोषणा शोर-शराबे के साथ राष्ट्र के नाम प्रधानमंत्री द्वारा संबोधन न की जाकर गहन शांति की योग मुद्रा में आरबीआई के एक अदने से सर्कुलर द्वारा कर दी गई। ‘विवाह’ व लिव-इन-रिलेशनशिप दो पृथक शब्दों के परिणाम एक ही है। ठीक इसी प्रकार नोटबंदी (अमुद्धिकरण) व ‘स्वच्छ मुद्रा नीति’ की भी स्थिति है। भले ही सरकार बार-बार यह घोषणा करके कि यह नोटबंदी (अमुद्रीकरण) नहीं है, इसलिए 2000 के नोट के एक वैध मुद्रा है। जिस प्रकार 2000 के मूल्यांकन वैध मुद्रा होने के बावजूद 30 सितंबर के बाद 2000 के नोटों का बाजार में लेन-देन नहीं हो पाएगा। ठीक उसी प्रकार लिव-इन-रिलेशनशिप वैध रूप से शादी न होने के बावजूद शादी के बराबर ही है, जब तक कि कोई एक पक्ष शिकायत न करें।
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