मंगलवार, 9 मई 2023

‘‘दो महिला पहलवानों’’ के मामले में ‘‘मीडिया’’ भी ‘‘यौन अत्याचार’’ का अपराधी है।


देश की ओलंपियाड एवं विश्व, एशियन एवं कॉमनवेल्थ खेलों की गोल्ड, सिल्वर व कांस्य पदक विजेता रही, सात (जिसमें एक नाबालिग है) अंतरराष्ट्रीय महिला पहलवानों द्वारा बाहुबली भाजपा सांसद बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ दर्ज कराई गई प्राथमिकी (एफआईआर) के संबंध में इंडियन एक्सप्रेस ने इन सात में से दो भुक्तभोगी पीडि़ता महिला शिकायतकर्ताओं की एफआईआर के तथ्यों को मुख्य पृष्ठ (फ्रंट पेज) पर पूरी तरह से उजागर कर उभारा है। यह प्रकाशन व इलेक्ट्रॉनिक चैनलों द्वारा किया गया प्रसारण ‘‘नैतिकता’’ की समस्त हदों को पार करते हुए ‘‘शर्मसार’’ करने वाला है। यह तो ‘‘किसी को दोषी साबित करने के लिये अपनी नाक कटाने जैसा ही है’’।
लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहलाने वाले और स्वयं को लोकतंत्र का सबसे बड़ा प्रहरी बताने वाली आत्ममुग्ध प्रेस-मीडिया की पत्रकारिता के धर्म की कड़ी में समाज की पीड़ित महिलाओं के विरुद्ध हुए यौन शोषण, उत्पीड़न, अत्याचार जैसे गंभीर अपराधों से संबंधित समाचारों घटनाओं को जनता के सामने लाने का दायित्व है। यह कर्तव्य युक्त दायित्व उच्चतम न्यायालय के यौन अपराधों के संबंध में समाचार छापने या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में प्रसारित करने के बाबत दिए गए निर्देशों के तहत पीड़िता की पहचान को उजागर किए बिना प्रमुखता से छापे/प्रसारित किए जाने का दायित्व सींची गई सीमा रेखा के अंदर ही है। ताकि वह अपराधी, जो समाज का एक सदस्य है और कई बार तो ऐसे मामलों में अपराधी एक प्रभावशाली, शक्तिशाली व्यक्तित्व भी होता है, जो कि देश की बेटियों को ‘‘अपने हाथों का खिलौना’’ समझता है, जैसा कि वर्तमान प्रकरण में है, का घिनौना चेहरा जनता के सामने आता है। तभी समाज उस अपराधी व्यक्ति के ऐसे घिनौने कृत्य से अवगत होता है। तभी तो समाज ऐसे व्यक्तियों को पहचान कर उन्हें सामाजिक व्यवस्थाओं से दूर करने का प्रयास कर उनका सामाजिक बहिष्कार तक कर सकता है। हां पीड़िता की पहचान सामने न आने के कारण जरूर जागरूक नागरिक गणों को ऐसे पीड़ितों को सहायता करने में आगे आने में उन्हे कुछ मुश्किलें अवश्य होती हैं।
उच्चतम न्यायालय के उपरोक्त दिशा निर्देशों को ध्यान में रखते हुए पीड़िता की पहचान को उजागर किए बिना परंतु कृत्य (घटना) का ‘‘चीर - फाड’’ कर यौन अत्याचार का विस्तृत विवरण सेकंड टू सेकंड रूबरू दिया गया है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि, मीडिया चाहे प्रिंट हो या इलेक्ट्रॉनिक ने उच्चतम न्यायालय को ‘‘बेशर्मी से मुंह चिढ़ाते हुए’’ अपनी जिम्मेदारी का वहन बहुत ही गैर जिम्मेदारी पूर्ण तरीके से किया है। मीडिया के लिए पत्रकारिता धर्म निभाने के लिए क्या यह जरूरी था कि विभिन्न समयों में हुई यौनाचार की घटनाओं का जो विस्तृत विवरण प्राथमिकी में पीड़िता ने दिया था, उसको रूबरू वैसे ही छापा जाए, प्रसारित किया जाए? और पीड़िताओं को बार बार ‘‘अपने आंसू पीने के लिये मजबूर’’ किया जाये?
      क्या मीडिया के इस कृत्य से अपने आप ही मीडिया द्वारा यौन अत्याचार (सेक्सुअल एसॉल्ट) का अपराध करना घटित नहीं होता है? आज आप जब पीड़िता के साथ हुए  यौन अत्याचार के गलत व्यवहार का वर्णन (डिस्क्राइब) कर रहे हैं, तब आपको कहीं न कहीं पीड़िता की समाज में स्थिति, हमारी सामाजिक व्यवस्था और नैतिकता के साथ इस बात पर भी ध्यान रखना होगा, गौर करना होगा कि, ऐसे प्रसारण, पठन से हमारी देश की युवा बालक बालिकाएं (टीनएजर्स) के मन पर कितना बुरा असर पड़ेगा? क्या यौन उत्पीड़न को सेकंड टू सेकंड क्रियाओं का विस्तृत विवरण प्रसारित करने के बजाय मीडिया उक्त घटनाओं को इस तरह से प्रसारित नहीं कर सकता था कि पीड़िता के साथ यौन हिंसा, अत्याचार हुआ है, गलत व्यवहार हुआ है, छेड़छाड़ की गई है, बलात्कार हुआ है, शारीरिक एवं मानसिक शोषण हुआ है, आदि आदि। जिस तरह शब्दों से यौन अत्याचार का विवरण दिया गया है उन शब्दों का यहां उपयोग करना कम से कम मेरे लिए तो संभव नहीं है। जैसे ... छूना। क्या बलात्कार होने पर भी मीडिया बलात्कार की पूरी ‘‘क्रिया’’ को भी इसी तरह से प्रसारित करता? 
मीडिया का स्तर इतना नीचा हो सकता है, इसकी कल्पना तो शायद इसके पूर्व किसी को भी नहीं रही होगी? क्योंकि इस तरह का प्रसारण इसके पूर्व कभी हमने न तो देखा है, और न ही सुना है। इससे तो यही लगता है मीडिया के सामने ‘‘टीआरपी’’ तो सिर्फ एक बहाना है। वस्तुतः ऐसे प्रसारण को आम नागरिक कदापि सुनना पसंद नहीं करेगा। ‘‘टीआरपी’’ की आड़ में इस तरह से न्यूज़ व घटना का ‘‘लाइव सामान’’ प्रसारण करना, प्रसारित करना घोर अनैतिकता लिए हुए एक तरह से फिर से इन महिलाओं के साथ मीडिया द्वारा किया गया वही यौनाचार है, जो बृजभूषण शरण सिंह ने किया था। याद कीजिए उच्चतम न्यायालय ने बलात्कार के मामलों में इस प्रकार वर्ष 1997 में ‘‘विशाखा जजमेंट’’ में गाइड लाइन बनाते हुए व्यापक दिशा निर्देश देते हुए यह कहा कि अदालत में साक्ष्य देना एक ‘‘दर्दनाक’’ अनुभव है जो ‘‘बलात्कार से भी बदतर’’ होता है। न्यायालय का यह दायित्व होता है कि प्रति-परीक्षण पुनः उत्पीड़न, अपराध का कारण नहीं बनना चाहिए। इसी आधार पर 16 वर्ष बाद यौन उत्पीड़न अधिनियम 2013 (पॉश) लाया गया। मथुरा रेप कांड में उच्चतम न्यायालय के निर्णय से उत्पन्न रोष के चलते वर्ष 1983 में आपराधिक कानून संशोधन अधिनियम वर्ष 1983 में लाया गया जिसके द्वारा भा.द.स. में नई धाराएं 228 ए, 376 ए, 370 बी, 376सी, 376 डी अंतर्विष्ट की गई। देश को झकझोर करने वाला ‘‘निर्भया कांड’’ के बाद भी वर्ष 2013 में बलात्कार से संबंधित धाराओं में कई और महत्वपूर्ण परिवर्तन किये गये। अभियुक्त के वकील द्वारा प्रति-परीक्षण में बलपूर्वक संभोग के संबंध में (क्रॉस एग्जामिनेशन) आपत्तिजनक प्रश्न पूछे जाने पर पूर्व में प्रतिबंध लगा दिया गया था। साथ ही ऐसे प्रकरणों में सुनवाई बंद कमरों में की जाने लगी। क्योंकि ‘‘घायल की गति घायल ही जान सकती है’’। कुछ इसी तरह के प्रतिबंध मीडिया के लिए यौन हिंसा के समाचार को छापने/प्रसारित करने के लिए होते हैं।  
       6 मई को अंग्रेजी का प्रमुख समाचार पत्र ‘‘इंडियन एक्सप्रेस’’ के मुख्य पृष्ठ पर दो पीड़ितों के साथ हुए यौन अत्याचारों की घटना का विस्तृत विवरण कि कब-कब पीडि़ता के साथ यौन शोषण किस-किस तरीकों से होता रहा, के छपने पर, विजय विद्रोही पत्रकार का यूट्यूब पर एक वीडियो आया। फिर तो इस संबंध में चैनलों और ‘यूट्यूब’ में इसके प्रसारण करने की होड़ सी लग गई। क्या ऐसे विषय पर मीडिया, मीडिया पर्सन के बीच अपनी ‘‘साख को दांव पर लगाते हुए’’ परस्पर गला काट स्पर्धा (कंपटीशन) होनी चाहिए? मीडिया को यह नहीं भूलना चाहिये कि ‘‘सर सलामत तो पगड़ी हजार’’। इसलिये मीडिया को अपने अंदर झांकने की गंभीर आवश्यकता है। वह स्वयं का आत्मावलोकन करें और तुरंत देश की जनता से ऐसे प्रसारण के लिए माफी मांगे। साथ ही लिखित में दोनों महिला पीड़ितों से भी माफी मांगे।
इलेक्ट्रॉनिक न्यूज चैनलों द्वारा महिला पहलवानों के साथ घटी घटना को उक्त निम्न स्तरीय तरीको से प्रसारण किया गया। दुखद पहलू यह भी है कि न्यूज चैनल्स जैसे ‘‘न्यूज 24’’ के एंकर संदीप चौधरी जो अन्य एंकरों के सामान बहती हवा के साथ नहीं चलते हैं, के द्वारा भी प्रारंभिक हिचक को दर्शाते हुए उक्त विषय पर बहस कराई गई, जिसमें यशोवर्धन आजाद, रिटायर्ड डीजी, मीरन बोरवनकर, आईपीएस वरिष्ठ पुलिस अधिकारी भी शामिल थे। परन्तु एक भी (अतिथि) गेस्ट ने उक्त तरह के प्रसारण पर न तो एंकर को रोका, न टोका, न बहिष्कार किया। क्या बुद्धिजीवियों का भी बौद्धिक स्तर गिरते जा रहा है?

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