कब, क्यों, किसका, कैसे और किसके द्वारा ?
मानव ही इस सृष्टि में एकमात्र ऐसा जीव है, जो अन्य समस्त प्राणियों की तुलना में सम्मान से जीने की राह, इच्छा रखते हुए जीने का यथा संभव प्रयास करता है। यदि व्यक्ति के जीवन में सम्मान नहीं है, तो उस मानव की तुलना जानवर से तक कर ली जाती है। जैसा कि कहा जाता है कि ‘‘अपमान का अमृत पीने से सम्मान का विष पीना अच्छा है’’। आखिर ‘‘सम्मान’’ है क्या? ‘‘मान’’, ‘‘स्वाभिमान’’, ‘‘अभिमान’’ सम्मान से जुड़े विभिन्न शब्द सब में ‘‘मान’’ तो है ही। परन्तु उन सबकी परिभाषा की ‘‘डिग्री’’ (परिमाण) और मंशा (आशय) अलग-अलग है। जिसकी अंतिम सीमा प्राय: ‘‘अहंकार’’ तक में बदल जाती है। ‘‘अहंभाव बड़ा मायावी होता है’’ यह व्यक्ति में किसी न किसी रूप में मौजूद होता ही है। आज यहां ‘‘सम्मान’’ की बात इसलिए की जा रही है कि ‘‘विश्व रक्तदाता दिवस’’ पर बैतूल में आयोजित काफी सफल रही ‘‘रक्त क्रांति रैली’’ का समापन रक्त क्रांति सम्मान समारोह संपन्न कर जिस तरीके से हुआ, उससे उत्पन्न हुआ उक्त प्रश्न है। जो समस्त सम्मान समारोह में कमोबेश लागू होता है। ‘‘सम्मान’’ ‘‘किसका’’, ‘‘किसने’’ व ‘‘कैसे’’ होना चाहिए? ये सब प्रश्न तीेनों पक्षों को अर्थात एक सम्मान देने वाला, दूसरा जिनके हाथों से सम्मान दिलाया जाना है तथा तीसरा सम्मान पाने वाले को एक साथ चिंतन करने के लिए एक गंभीर अवसर प्रदान करता है।
वास्तव में तो ‘‘सम्मान’’ के योग्य वे लोग होते हैं, जिन्हें उसकी जरूरत ही नहीं है’’, क्यों कि ‘‘रूप को अलंकार की जरूरत नहीं होती’’, लेकिन यह भी सच है कि सम्मान की भूख न केवल ‘‘मानवीय कमजोरी’’ भी है, बल्कि एक व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास की आवश्यकता की कड़ी में एक महत्वपूर्ण जुड़ाव भी है। ‘‘किसी को सम्मान के दो बोल बोल कर आप जीवन भर के लिये उसके दिल में जगह बना सकते हैं’’। सम्मान का यह भी एक महत्वपूर्ण पहलू है। जीवन के बहुआयामी या किसी भी क्षेत्र में कोई भी व्यक्ति या विभिन्न व्यक्तियों के विभिन्न दिशाओं में विकास, सफलता की ओर अग्रसर होने में ‘‘सम्मान’’ एक बड़ा ‘‘सहायक तत्व’’ होता है। इसलिए व्यक्ति अपने जीवन में जिस भी क्षेत्र में सम्मान प्राप्त करने की प्रबल इच्छा रखता है, तब वह उस हेतु लक्ष्य बनाकर कार्य करता है। जब वह लक्ष्य प्राप्त कर सफल हो जाता है, तो वह सम्मान का हकदार हो जाता है और समाज में भी उसके प्रति सम्मान की स्वीकृति हो जाती है। व्यक्ति को भी आत्म संतोष हो जाता है। फिर वह अगले और उच्चतर पड़ाव तथा लक्ष्य को निर्धारित कर और उच्चतम सम्मान की प्राप्ति हेतु कार्य करने की ओर अग्रसर हो जाता है। ‘‘ज्यों ज्यों भीगे कामरी त्यों त्यों भारी होय’’। जैसे कि सेना में परमवीर चक्र से लेकर अशोक चक्र, पद्मश्री से लेकर भारत रत्न राष्ट्रीय सम्मान, ओलंपिक खेलों में कांस्य से लेकर गोल्ड और अन्य खेलों में विजेता, उपविजेता आदि सम्मानों की विभिन्न श्रेणियां, सीढ़ियां होती हैं।
प्रश्न यह है कि आज ‘‘सम्मान’’ की पूरी प्रक्रिया का जो रूप स्थापित हो गया है, यदि बारीकी से उसे देखा जाय तो शायद ‘‘सम्मान’’ से ज्यादा ‘‘असम्मान’’ ही हो रहा है। प्रथम प्रश्न तो यही है कि किस व्यक्ति का सम्मान होना किया जाना चाहिए, इसे किसी सीमा में परिभाषित करना बहुत दुष्कर कार्य है। फिर भी सम्मान किये जाने व्यक्ति का चुनाव सही तभी कहलायेगा, जब उसके सम्मान पर सामान्यतया उंगली न उठे। कुछ उंगलियां उठना तो लाजमी है, क्योंकि वैसे भी सर्वानुमति तो इस देश में "कल्पना लोक" में जा चुकी है। तब प्रश्न फिर यह उत्पन्न होता है कि जिस व्यक्ति का सम्मान किया जा रहा है, उसका सम्मान कैसे करना चाहिए? याद रहे कि ‘‘सम्मान व्यक्ति के लिये है, व्यक्ति सम्मान के लिये नहीं’’। जिन हाथों से सम्मान दिलाया जा रहा है, वह उस क्षेत्र में सम्मान प्राप्त करने वाले प्रतिभागी से ज्यादा गुण वाला हो। अर्थात यदि किसी क्रिकेटर का सम्मान किया जा रहा है, तो उसका सम्मान सचिन तेंदुलकर, सुनील गावस्कर जैसे क्रिकेट की आइकॉन व्यक्ति ही कर सकते है, खेल मंत्री अनुराग ठाकुर नहीं। तभी सम्मानित व्यक्ति को यह एहसास होता है कि उस क्षेत्र के ‘‘आईकॉन’’ के हाथों से उसे यथोचित सम्मान मिला है। तब वह गर्व से फूला नहीं समाता और सम्मान करने वाला भी स्वयं को गौरवान्वित महसूस करता है क्योंकि "जब आप किसी का सम्मान कर रहे होते हैं तब आप स्वयं को भी सम्मानित कर रहे होते हैं"। किसी नेता का सम्मान हो तो निश्चित रूप से प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री या पदों पर बैठे राजनेताओं द्वारा किया जाना उचित है। क्या यह हंसी की बात नहीं होगी कि स्वर कोकिला लता मंगेशकर या क्रिकेट सम्राट सचिन तेंदुलकर का सम्मान कोई मंत्री-संतरी करे? ‘‘ओस चाटे प्यास नहीं बुझती’’। परन्तु आज की राजनीति व सार्वजनिक जीवन में जो प्रचलन में है, समाज के किसी भी क्षेत्र के व्यक्ति का सम्मान अमूमन आज कल राजनेताओं द्वारा ही किये जाने की परम्परा सी बन गई है। इसे ‘‘आपद् काले मर्यादा नास्ति’’ कह कर टाला नहीं जा सकता।
आज की राजनीति नीतिगत न रहकर राजनेताओं के कारण विशुद्ध दल-दल की राजनीति हो गई है। इस कारण किसी पद पर बैठे राजनेताओं, मंत्रियों इत्यादि द्वारा ही सामान्यतया ‘‘प्रतिभाओं’’ का सम्मान किया जाता है, यह एक कटु सत्य है। वर्तमान राजनीति के आकर्षण को देखते हुए वे सम्मान समारोह की शोभा अवश्य बढ़ाये, उनकी ‘‘ठकुर सुहाती’’ भी हो जायेगी। परन्तु जिस व्यक्ति, कलाकार, प्रतिभा का सम्मान हो रहा है, उस क्षेत्र में काम करने वाले जो सम्मानित होकर आईकॉन बने हैं, के हाथों से ही सम्मान होने पर वास्तविक रूप से वह प्रतिभा न केवल सम्मानित होगी बल्कि स्वयं को भी गौरवान्वित महसूस करेगी। इसका एक फायदा यह होगा कि उसी सम्मानित प्रतिभा का आत्मबल व आत्मविश्वास बढ़ता हुआ होगा और व उस क्षेत्र में कड़ी मेहनत, लगन से तेजी से विकास कर उस स्थिति में पहुंचेगी, जहां से वह न केवल सर्वोच्च सम्मान ले पाने की स्थिति में हो सकेगा, बल्कि बार-बार सम्मान ले पायेगा। जिस प्रकार ‘‘पत्थर भी घिसते-घिसते महादेव बन जाता है’’, उसी प्रकार ऐसी प्रतिभा भी सर्वोच्च सम्मान का हकदार बन जायेगी। जैसे कि खेल में राजीव गांधी खेल रत्न अवार्ड, अर्जुन अवार्ड, साहित्य में ज्ञानपीठ पुरस्कार, फिल्म में दादा साहेब फाल्के पुरस्कार, चिकित्सा क्षेत्र में धनवंतरी पुरस्कार, विज्ञान के क्षेत्र में भटनागर पुरस्कार आदि आदि।
सम्मान के "प्रतीक चिन्ह" और प्रमाण पत्र का सावधानी पूर्वक चुनाव भी कार्यक्रम को भव्य बनाने में एक महत्वपूर्ण कारक सिद्ध हो सकता है। आज तो 21वीं सदी में ‘‘सम्मान’’ डिजिटल सिस्टम द्वारा मालाएं एवं प्रमाण पत्र डिलेवर कर दिए जाते हैं। जहां सम्मान व्यक्ति की भावनाओं का होना चाहिए, वहां ऐसा ‘‘भावहीन’’ ‘‘आभासी’’ सम्मान देख कर ऐसा लगता है कि व्यक्ति का सम्मान न होकर डिजिटल सिस्टम का सम्मान किया जा रहा है।
मेरे बैतूल में हुए अंतरराष्ट्रीय रक्तदान दिवस पर आम नागरिकों को जागृत करने के उद्देश्य और उनकी भागीदारी से रक्त क्रांति रैली निकाली जो आयोजक, भागीदारगणों की सहभागिता से सफल रही। परंतु रैली के समापन पर आयोजित सम्मान समारोह में जिस तरह से ब्लेंक (खाली) बिना नाम लिखे सम्मान के प्रमाण पत्र ताबड़तोड़ देे दिये गये, सम्मान की बजाय वस्तुतः असम्मान में परिवर्तित हो गए। जब प्रमाण पत्र पर नाम ही नहीं लिखा तो सम्मान किसका? यह तो वही बात हुई जैसा की दीवानी मामलों में कहा जाता है ‘‘जो कब्जा वो सच्चा’’। इस तरह के सम्मान प्रमाण चलायमान होकर जिसके कब्जे में ऐसा प्रमाण पत्र होगा वह सम्मानित होने के अहसास को तो जरूर महसूस कर सकेगा। शायद इसी कारण से गैर सम्मानित व्यक्ति के पास यह प्रमाण पत्र पहुंचने पर उनका भी सम्मान प्राप्त करने की प्रेरणा मिलेगी। ब्लैंक प्रमाण पत्र देने का उद्देश्य शायद यही होगा?। भले ही लगभग 700 से अधिक व्यक्तियों व 200 से अधिक संस्थाओं का सम्मान कार्यक्रम 2 घंटे में करना संभव नहीं है और प्रत्येक व्यक्ति को मंच पर बुलाकर सम्मान करना भी संभव नहीं है, लेकिन सम्मान पत्रों पर सम्मानित व्यक्ति का नाम तो पहले से अंकित किया जा सकता था, जब सूची पहले से ही वॉट्सअप ग्रुप में जारी कर दी गई थी। शायद इसीलिए बुलेट ट्रेन की स्पीड से मंच से नाम पढ़ दिये गये और सम्मान दे दिये गये और पा लिए गए ऐसा मान लिया गया। तकनीकी रूप से प्रशासन द्वारा आयोजित कार्यक्रम को पार्टी का कार्यकम बना दिया गया। चुने हुए जनप्रतिनिधियों की उपस्थित की बजाए हारे हुए जन प्रतिनिधि को तरजीह दी गई। ऐसे सम्मान के तरीकों से बचा जाना चाहिए। वस्तुतः यह सम्मान का मखौल है।
आज कल सम्मानों के साथ एक और चीज जुड़ गई है वह है ‘‘प्रायोजित सम्मान’’। जिस प्रकार ‘‘पेड न्यूज’’ का जमाना चल रहा है, उसी प्रकार प्रायोजित सम्मान समारोह हो रहे है। जहां पहले से सम्मानित व्यक्ति का सम्मान करने के नाम पर धन वसूली कर सम्मानित किया जा रहा है। ऐसा सम्मान ‘‘पत्थर पर दूब जमाने की नाकामयाब कोशिश करना है’’, क्योंकि जो लोग कार्य के आधार पर सम्मान प्राप्त करने की स्थिति में नहीं होते है, वे पैसे के बल पर सम्मान प्राप्त कर लेते है। इस प्रकार तीनों पक्षों की सहमति से बनी सम्मान की सहमति। धन्य हो सम्मान की ऐसी सर्वानुमति से।
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