राजनीतिक दलों द्वारा ‘मलहम’ के नाम पर सिर्फ ‘‘वाणी’’ रूपी ‘‘पेट्रोल का छिडकाव’’।
76 साल के हमारे स्वतंत्र देश के इतिहास में अनेक राज्यों में हिंसक, अलगाववादी, आतंकवादी, नक्सलवादी, जातीय संघर्ष की घटनाएं होती रही हैं। इन्हे कानून, सेना के डंडे के बल पर या बातचीत के टेबल पर लाकर अधिकतर मामलों व मुद्दों को निपटा कर, शांत कर, सामान्य स्थिति बहाल की गई है। चाहे सरकार किसी भी दल की रही हो। फिर चाहे पंजाब में भिंडरावाले का खालिस्तान का आंदोलन रहा हो, जिस कारण से हुए ‘‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’’ के कारण देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को अपनी जान तक का बलिदान करना पड़ा । अथवा नागालैंड, मिजोरम, त्रिपुरा, असम की बोडो समस्या हो, पश्चिम बंगाल की गोरखालैंड की समस्या हो या विभिन्न राज्यों में राज्य विभाजन (अलग राज्य) की मांग रही हो, लगभग सभी समस्याओं से कमोबेश निपटा गया है। शेष रह गई कुछ समस्याओं को भी सुलझाने के प्रयास लगातार चलते रहे हैं।
याद कीजिए! इंदिरा गांधी ने पंजाब केसरी अखबार के मालिक लाला जगत नारायण, डीआईजी ए एस अटवाल की हत्या होने पर बिना देर किये अनुच्छेद 356 का उपयोग कर अपनी ही पार्टी के मुख्यमंत्री दरबारा सिंह को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लागू किया था। इसी प्रकार पी वी नरसिम्हा राव ने वर्ष दिसम्बर 1993 में मणिपुर प्रदेश में अपनी ही पार्टी के मुख्यमंत्री राजकुमार दोरेंद्र सिंह को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लागू किया था। जून 2001 में जब मणिपुर में हिंसा का पुनः दौर शुरू हुआ, तब तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 6 दिन के भीतर ही विपक्षी दलों से मुलाकात कर मणिपुर के लोगों से ‘‘शांति की अपील’’ की थी। स्वतंत्र भारत के इतिहास में अभी तक 121 बार राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू किया जा चुका है। जिसमें अधिकतम 10 बार जनसंख्या की दृष्टि से सबसे बड़ा राज्य उत्तर प्रदेश के साथ पूर्वोत्तर का सबसे छोटा राज्य मणिपुर, जिसकी जनसंख्या मात्र लगभग 30 लाख है, में भी 10 बार राष्ट्रपति शासन लागू किया जा चुका है। तब आज विकल्प हीन आवश्यकता होने पर भी फिर क्यों नहीं? 54 ईस्वी में ‘रोम जल रहा था’, तो एक कहावत प्रसिद्ध हो गई थी। आज मणिपुर जल रहा है तब...?
तथापि भारत का ‘‘गहना’’ (जवाहर लाल नेहरू ने नाम दिया था) कहे जाने वाले राज्य मणिपुर (पुराना नाम कंलैपाक्) में पिछले लगभग 3 महीनों से पुलिस शस्त्रागार से हजारों स्वचालित हथियार लूटे गये या सुरक्षा बलों द्वारा लुटाए गए हथियारों के कारण फैली हिंसा ने दो राज्य के बीच बफर जोन बनने की स्थिति जैसी बफर जोन की स्थिति दो जातियों मैतेई व कुकी-जोमी के बीच जातीय संघर्ष के कारण पैदा हो गई। 40000 से अधिक सैनिकों, अर्द्धसैनिकों व पुलिस बल की तैनाती होने के बावजूद हिंसक घटनाओं व क्रूरता का अभूतपूर्व ‘‘तांडव’’ चल रहा है, जिसमें अभी तक 160 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं और लगभग 300 से अधिक घायल है। 17 सौ से अधिक मकान जलाए जा चुके हैं। लगभग 50,000 से अधिक लोग विस्थापित हो चुके हैं। अनेक चर्च व मंदिर जलाएं व तोड़े जा चुके हैं। इस हिंसा के चलते ही दो महिलाओं जिनमें से एक महिला के पहले पिता और बाद में बचाव में आने पर भाई की हत्या कर दी गई, के यौन उत्पीड़न, अत्याचार व सार्वजनिक परेड का शर्मसार करने वाला वीडियो वायरल हुआ है। मानो ‘‘इक नागिन अरू पंख लगायी’’, वह निसंदेह देश की अभी तक की हुई समस्त समस्याओं व घटनाओं से मणिपुर की इस अभूतपूर्व समस्या को अलग-थलग करता है। इस वीडियो का सबसे दुखद व सिर झुका देने वाला पहलू यह भी है कि परेड में शामिल एक नग्न की गई महिला के पति, जो कारगिल में लडाई लड़ चुके हैं, का बड़ा ही अफसोस जनक व मार्मिक बयान आया कि मैंने कारगिल युद्ध में लड़ाई की व देश की रक्षा की, पर अपने घर अपनी पत्नी और साथ ही ग्रामीणों की रक्षा नहीं कर सका। इसलिए इस समस्या से वास्तविक रूप से निपटने के लिए भी बिल्कुल ही अलग रूख अपनाना होेगा। परन्तु क्या राजनैतिक दलों, यहां तक की स्वयं सरकार में यह इच्छाशक्ति है? इंदिरा गांधी के बाद से अभी तक के सबसे दृढ़ इच्छाशक्ति वाले 56 इंच सीना फुलाए ‘‘विश्व गुरू’’ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इंदिरा गांधी एवं नरसिम्हा राव समान अनुच्छेद 356 का उपयोग अभी तक मणिपुर में क्यों नहीं किया? इसका जवाब व हल खोजना दोनो मुश्किल है।
मणिपुर भारत के उत्तर-पूर्वी भाग का प्रदेश है, जिसकी राजधानी इंफाल है। मणिपुर प्रदेश के कुल क्षेत्रफल का 10 प्रतिशत भाग इंफाल है, जबकि वहां 57 प्रतिशत आबादी रहती है। बाकी आबादी 43 प्रतिशत 90 प्रतिशत पहाड़ी इलाके में रहती है। इंफाल घाटी में मैतेई समुदाय के लोग रहते है, जो ज्यादातर हिंदू है, जिनकी कुल भागीदारी 53 प्रतिशत है। 60 में से 40 विधायक मैतेई समुदाय के है और शेष नगा-कुकी जाति के है, जिनमें 33 मान्यता प्राप्त जनजाति है जो मुख्य रूप से ईसाई धर्म को मानती हैं। लगभग 8-8 प्रतिशत मुस्लिम व सनमही समुदाय है। संविधान के अनुच्छेद 371 सी के अनुसार मणिपुर पहाड़ी जनजातियों को विशेष दर्जा व सुविधाएं मिली है, जो बहुसंख्यक मैतेई समुदाय को नहीं मिलती हैं।
केन्द्रीय जनजातीय मामलों के मंत्रालय की सिफारिश के आधार पर 19 अप्रैल को उच्च न्यायालय का ‘‘मैतेई समुदाय’’ को अनुसूचित जनजाति में शामिल करने के निर्णय आने के बाद से ही तनाव बढ़ गया। इंसानी तासीर है कि वह ‘‘अपने दुःख से ज्यादा दूसरे के सुख से दुखी होता है’’। इसके विरोध में 3 मई को ऑल इंडिया ट्राइबल स्टूडेंट यूनियन मणिपुर ने आदिवासी एकता मार्च निकाला। यही से स्थिति बिगड़नी चालू हो गई। ‘‘एक आंख फूटे तो दूसरी पर हाथ रखते हैं’’ लेकिन इसी बीच मणिपुर सरकार की आदिवासी समुदायों के बीच मणिपुर फॉरेस्ट एक्ट 2021 के तहत फारेस्ट लैड से अवैध अतिक्रमण हटाने की कार्रवाई ने ‘‘आग में घी’’ डालने का काम किया। इसके पूर्व 2008 में केंद्र सरकार व कुकी विद्रोहियों के बीच सरकार की सैन्य कार्यवाही में दखल देने तथा राजनीतिक बातचीत को बढ़ावा देने के लिए हुए एक समझौता ‘‘एसओएस’’ हुआ था जिसका कार्यकाल समय-समय पर बढ़ाया गया। लेकिन 10 मार्च को कुकी समुदाय के दो हथियार बंद संगठन ऑर्म्ड फोर्स स्पेशल पावर्स एक्ट यानी व कुकी नेशनल आर्मी समझौते से पीछे हट गये। ये लोग ही बाद में मणिपुर की हिंसा में शामिल हो गये है, ऐसा बताया जाता है।
यह मणिपुर का संक्षिप्त भौगोलिक, जातिगत व राजनीतिक समीकरण है। जैसा कि मैं पिछले लेख में लिख चुका कि इस घटना पर किसी भी तरह की ‘‘राजनीति’’ किसी भी पक्ष द्वारा नहीं की जानी चाहिए। परन्तु यह बात सिर्फ शब्दों व पेपर पर ही सिमट कर रह गई है। लेकिन विपरीत इसके जैसा कि कहा जाता है ‘‘अंग लगी मक्खियां पीछा नहीं छोड़तीं’’, इस पर ‘‘राजनीति’’ ही की जा रही है। ऐसी निम्नतम स्तर की घृणित घटना के साथ राजनीति करने का ‘‘साहस’’ आ कैसे जाता है? इसलिए घटना से ज्यादा ऐसी राजनीति निंदनीय व शर्मनाक है। मेरा मणिपुर तेरा राजस्थान, मेरा छत्तीसगढ़, तेरा मणिपुर मेघालय कर देने से क्या हम पीड़ितों व उनके परिवार को व समाज को सांत्वना दे सकते हैं? ‘‘ओस चाटने से प्यास नहीं बुझती’’। यद्यपि ‘‘इल्ली को मसलने से आटा वापस नहीं मिलता‘‘। क्या इससे घटना की तह पर पहुंचा जा सकता है? और क्या इससे भविष्य में ऐसी घटना पर रोक लगाई जा सकती है? जनता से लेकर राजनैतिक दल, मीडिया तक इस संबंध में गंभीर लगते नहीं हैं। आखिर ‘‘कौन’’ ‘कब’ व ‘‘कितने’’ गंभीर होंगे यह भी बड़ा यक्ष प्रश्न है? जिसका उत्तर दूर-दूर तक फिलहाल कहीं दिखता नहीं है, जब जनता स्वयं जाग्रत होकर, उठकर ऐसी घटना पर राजनीति करने वाले दलों को ‘‘उघरे अंत न होहिं निबाहू’’ की उक्ति अनुसार उनके घर बैठाल न दे। क्या यह संभव भी होगा, यह भी यक्ष प्रश्न है?
बात मणिपुर घटना की क्रोनोलॉजी और इस पर आ रही क्रिया-प्रतिक्रिया की कर ले। 4 तारीख की घटना का वीडियो 19 तारीख को वायरल होने बाद ही विश्व जगत को घटना के संबंध में जानकारी हुई, जिसमें मणिपुर के मुख्यमंत्री जो गृहमंत्री भी है, शामिल है। भारत सरकार के गृह मंत्री, प्रधानमंत्री, और ‘‘आंख न दीदा काढ़े कसीदा’’ की उक्ति को चरितार्थ करती हुई विभिन्न खुफिया एजेंसी आईबी, सीबीआई, ईडी, एनआईवी इत्यादि क्या किसी को इस संबंध में कोई जानकारी नहीं थी? और यदि जानकारी किसी को भी थी, तो तुरन्त आवश्यक कार्रवाई करने के लिए व संस्थाएं या व्यक्ति सामने क्यों नहीं आये। और यदि नहीं थी, तो अंतरराष्ट्रीय सीमा से लगे राज्य होने के कारण केन्द्र व राज्य की खुफिया एजेंसी की असफलता से क्या देश की सुरक्षा पर गंभीर प्रश्न नहीं लगता है? और इस पर यह कह देना कि घटना के वीडियो के वायरल होने के समय की क्रोनोलॉजी (टाइमिंग) देखिये! सदन प्रारंभ होने के तुरंत पहले ही क्यों हुआ पहले या बाद में क्यों नहीं? मतलब ‘‘वीडियो महत्वपूर्ण नहीं’’ है, वीडियो के ‘‘वायरल होने का समय महत्वपूर्ण’’ है। यदि राजनीतिक उद्देश्यों व षड़यंत्र के तहत ही किन्ही विपक्षियों द्वारा वीडियो को संसद प्रारंभ होने के समय वायरल कराया गया, तब भी घटना का गंभीर, वीभत्स व माथे पर कलंक लगाने वाला स्वरूप तो नहीं बदल जाता? क्या ‘‘अंधेरे में भी हाथ का कौर मुंह की जगह कान में चला जाता है’’? यदि वास्तव में षड़यंत्र के तहत वीडियो की तय ‘‘टाइमिंग’’ के तहत वायरल हुई है, तो समस्त जांच एजेंसी जो राज्य व केन्द्र सरकार के पास है, के द्वारा सत्य जनता के सामने वह क्यों नहीं लाया जा रहा है? वीडियो वायरल होने के 8 दिन बाद जांच हेतु सीबीआई को उक्त मामला सौंपने से सरकार की इस समस्या के प्रति ‘‘गंभीरता’’ व ‘‘संवेदनशीलता’’ को समझा जा सकता है?