देश के राजनीतिक इतिहास में 18 जुलाई जैसा दिन शायद ही कभी आया होगा। इसलिए कि 18 जुलाई को एक ही दिन सत्ता पक्ष-विपक्ष दोनों अलग-अलग स्थानों पर गठबंधन का विस्तार करने के लिए एकत्रित हुए। दोपहर में विपक्ष जो पूर्व में यूपीए गठबंधन के नाम से कार्य कर रहा था, कुछ नए दलों को जोड़कर कुल 28 दलों का नया गठबंधन इंडिया नाम से अस्तित्व में आया। तो वहीं दूसरी ओर रात्रि के समय एनडीए का विस्तार होकर पुराने सहयोगियों सहित कुल 39 राजनीतिक दल अंततः शामिल हुए। यद्यपि आपातकाल के समय 1977 में जनता पार्टी बनाते समय समस्त विपक्षी लोग एक साथ जरूर इकट्ठे हुए थे। तब एक नई राजनीतिक पार्टी ‘‘जनता पार्टी’’ के निर्माण के साथ मात्र विपक्ष ही एकत्रित हुआ था। सत्ता पक्ष नहीं। तथापि यदि हम इतिहास देखें तो ‘‘गठबंधन की राजनीति’’ देश की राजनीति का आवश्यक अंग रही है, जिसकी अनिवार्यता वर्तमान में जरूरत हो गई है।
देश में गठबंधन की सरकार सर्वप्रथम दिसंबर 1989 में राष्ट्रीय मोर्चा के नाम से गठित होकर विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में बनी। तथापि पहली शुद्ध गैर कांग्रेसी सरकार मई 1998 में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) गठित किया जाकर प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बनी। वैसे स्वतंत्रता के पूर्व भी 1946 में ‘‘गठबंधन की राजनीति’’ से ही अंतरिम सरकार जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में बनी थी। तथापि राज्यों के स्तर पर तो ‘‘गठबंधन’’ स्वतंत्र भारत में वर्ष 1953 में ही प्रारंभ हो गया था, जब प्रदेश में संयुक्त मंत्रिमंडल बनाया गया। 1989 से 1999 के बीच 8 गठबंधनों की सरकारें बनी। इन गठबंधन की सरकारों में कभी भी किसी एक पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं मिला, जैसा कि 2014 और 2019 में भाजपा को अकेले मिल गया था।
अटल बिहारी वाजपेयी के जमाने से बनाई गई एनडीए को वर्ष 2014 में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में अकेली भाजपा को ही बहुमत (282 सीटें) प्राप्त हो गया था। जबकि तत्समय एनडीए में मात्र 14 दल ही शामिल थे। तत्पश्चात वर्ष 2019 में एनडीए को मिले बहुमत में भाजपा की संख्या में भी वृद्धि होकर 303 सीटों पर विजय प्राप्त की थी। बावजूद उक्त सीटों की वृद्धि के यदि आज एनडीए को अपना कुनबा बढ़ाकर 39 करने की आवश्यकता पड़ रही है, तो इसका राजनीतिक अर्थ तो यही निकलेगा कि ‘‘आवाजे ख़लक को नक्कारा ए ख़ुदा समझ कर चलिये’’। ‘‘एक अकेला सब को भारी’’ बजट सत्र में राज्यसभा में बयान देने वाले 56 इंच का सीना फुलाए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपना कुनबा बढ़ाने के विचार की सुनिश्चित आवश्यकता शायद तब पड़ी, जब कुछ समय पूर्व ही पटना में विपक्ष एकजुट होने के लिए 15 दल कुछ समय पूर्व एकत्रित हुए थे।
हिमाचल प्रदेश और तत्पश्चात कर्नाटक चुनाव में तगड़ी हार के बाद अभी वर्ष के अंत में मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में होने वाले विधानसभा चुनावों में कम से कम दो राज्यों मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में लगातार विपरीत सर्वेक्षण रिपोर्ट मिलने से चिंतित भाजपा की ‘‘आंतों में बल पड़े हुए हैं’’। इसलिये हाईकमान 2024 के लोकसभा के आम चुनावों में पुनः सत्ता पर आने के लिए किसी भी आशंका व शक की सुई को आशा और विश्वास में बदलना चाहता है। इसी ‘‘परसेप्शन’’ व ‘‘नरेशन’’ को बनाए रखने के लिए शायद 39 दलों का कुनबा बनाया गया, यद्यपि इसे वर्तमान संसद सदस्यों की संख्या में वृद्धि मात्र 3 सदस्यों की ही हुई है। यद्यपि सत्ता की दृष्टि से एनडीए 16 राज्यों में शासित है, तो ‘‘इडिया’’ 11 राज्यों में। जबकि असलग्न दलों की तीन राज्यों में सरकारे है।
सवाल ‘‘इंडिया’’ नाम रखने से क्या वास्तव में ‘‘इंडिया’’ हो जाएंगे। वर्ष 1884 में ‘‘ए. ओ ह्यूम’’ (एलेन ओक्टेवियन ह्यूम,) एक अंग्रेज द्वारा स्थापित कांग्रेस का क्या भारतीयकरण हो जायेगा? नामकरण और नाम बदलने की प्रक्रिया राजनीति में पिछले कुछ समय से राजनीतिक उद्देश्यों को लेकर लगातार की जाती रही है। वास्तव में क्या यह सही है कि नाम के अनुरूप ही कार्य होता है? जवाब है बिल्कुल नहीं। अंकल शेक्सपीयर पहले ही फरमा गए हैं कि ‘‘नाम में क्या रक्खा है’’। उनकी इस उक्ति को चरितार्थ करती हुई ‘‘आंख के अंधे नाम नयनसुख’’ जैसी कई कहावतें हिंदी में भी चलन में हैं। तब फिर नामकरण या नाम परिवर्तन पर इतनी बहस क्यों की जाए? जालम सिंह, नरसिंहपुर विधानसभा क्षेत्र के लोकप्रिय विधायक दूसरी बार लगातार चुनकर इसलिए आए हैं कि वे ‘‘जालम’’ न होकर मृदुभाषी और सरल स्वभाव वाले ‘‘मुन्ना भैया’’ के नाम से लोकप्रिय हैं। भोपाल के शैतान सिंह पाल को दो-दो बार शिवराज सिंह की सरकार ने निगम का अध्यक्ष इसलिए नहीं बनाया कि, वह ‘‘शैतान’’ है। हबीबगंज रेलवे स्टेशन का नाम गिन्नौरगढ़ रियासत जिसमें तत्समय भोपाल शामिल था, के गोंड राजा निजाम साहब की रानी कमलापति के नाम पर रख देने से आदिवासियों के वोट मिल जाएंगे, यह मात्र एक गलतफहमी ही होगी। ‘‘नाम’’ भर बदल देने से ‘‘कि़ला फतह’’ नहीं होता।
यदि 26 दलों का गठबंधन ‘‘इंडिया’’ नाम रखकर अपने को ‘‘संपूर्ण इंडिया’’ समझ रहे हैं, जैसा कि गठबंधन के कुछ नेता ऐसा ही कुछ व्यक्त कर रहे हैं, तो यह गलत है। यदि उक्त गठबंधन के आव-भाव वास्तव में उक्त समान है, जैसा कि ममता बनर्जी ने कहा कि अब मुकाबला ‘‘एनडीए का इंडिया से होगा’’, ‘‘इंडिया जीतेगी एनडीए हारेगी’’। तब उसके पीछे छुपे आशय को समझने का प्रयास अवश्य कीजिए। खासकर उस संदर्भ में जब कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष देवकांत बरूआ नें ‘‘इंदिरा इज इंडिया’’ का नारा दिया था। अतः ‘इंडिया’ के नेता गणों का पहला कदम, बयान ही इंडिया शब्द की भावना के विपरीत होकर ‘‘इंडिया’’ को शर्मसार कर रहा है। ‘‘इंडिया’’ मतलब ‘‘होल ऑफ इंडिया’’ अर्थात ‘‘संपूर्ण देश’’ है। आप सिर्फ 26 दलों के गठबंधन हैं, जबकि आपके सामने एनडीए 39 दलों का गठबंधन बन रहा है। इसके अतिरिक्त कुछ और प्रमुख राज्य उड़ीसा, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश व पंजाब हैं, जहां के राज्य स्तरीय दल किसी भी गठबंधन में फिलहाल शामिल नहीं हैं। 26 दलों के नेता, उनके समर्थक, उनके सदस्य ही इंडिया है, बाकी क्या इंडिया नहीं है? यह विचारणीय है।
दूसरा ‘झूठ’ ‘इंडिया’ शब्द को लेकर यह है कि यह शब्द न होकर ‘‘लघु रूप’’ (एबरीविएशन) है, जिसका फुल फॉर्म इंडिया ‘‘नेशनल डेवलपमेंटल इंक्लूसिव एलाइंस’’ है। यद्यपि विकास संबंधी शब्द शायद किसी भी राजनीतिक दल या गठबंधन ने पहली बार नाम में जोड़ा है जो उनके एजेंडे की प्राथमिकता को दिखाता है। जैसा कि अधिकतर नेताओं ने यह कहा भी है कि यह व्यक्ति के विरूद्ध न होकर भाजपा के सिद्धांतों के विरूद्ध हमारी लड़ाई है। ‘‘इंडिया व (भारत) आई’’ जोड़ने की कवायद को भी भाजपा के राष्ट्रवाद को चुनौती देने के रूप में देखा जा रहा है।
कांग्रेस के प्रवक्ता उनके विपक्षियों द्वारा यह पूछे जाने पर कि ‘इंडिया’ का हिन्दी अर्थ क्या भारत है, जिसका जवाब तो नहीं है। इस प्रकार आप शॉर्ट फॉर्म ‘‘इंडिया’’ का उपयोग कर जनता को गुमराह कर रहे हैं। और ‘‘उघरे अंत न होहिं निबाहू’’ की गति को प्राप्त हो रहे हैं। इसलिए आकर्षित शब्दों का नामकरण के लिए उपयोग जरूर कीजिए। परंतु नामकरण शब्दों के फेस वैल्यू के ‘‘अर्थ’’ पर मत जाइए अन्यथा ‘‘अनर्थ’’ होकर आपको शर्मसार ही होना पड़ेगा। जिस प्रकार ‘‘जालम’’ नाम होने के बावजूद वे दो बार लगातार विधायक बन सकते हैं। तब ठीक उसी प्रकार ‘‘इंडिया’’ नाम रख देने से गठबंधन की जन विरोधी, देश विरोधी या लोकतंत्र विरोधी होने वाली कोई भी हरकतों पर पर्दा नहीं डाला जा सकता है। ‘‘अच्छी जीन बांध देने पर कोई घोड़ा अच्छा नहीं हो जाता’’। इस बात को वे लोग जरूर ध्यान में रखें, जो नाम को लेकर ‘‘अतिरेक’’ खुशी व संतोष व्यक्त कर रहे हैं। इंडिया के घटक दलों को इस बात से जरूर संतोष हो सकता है कि काफी अध्ययन व मशक्कत के बाद सर्वसम्मति से ‘इंडिया’ नाम चुना गया।
इन गठबंधनों की राजनीति ने देश में एक नई प्रथा चला दी है। विपक्ष के गठबंधन को सत्ता के लिए लालायित ‘‘ठग-बंधन’’ बताने वाले भाजपा के प्रवक्ता अपने गठबंधन को उक्त श्रेणी से कैसे अलग कर सकते हैं? अभी तक तो पक्ष और विपक्ष द्वारा किन्ही मुद्दे को लेकर परस्पर आरोप लगाए जाने पर पीछे मुड़कर इतिहास दिखा कर यह कहा जाता रहा है कि आरोप लगाने के पहले आप अपने गिरेबान में झांक तो लीजिये। परंतु गठबंधन की इस राजनीति ने जहां दोनों पक्ष गठबंधन के विचार लिए एक ही प्लेटफार्म पर खड़े हुए हैं, परन्तु बेशर्मी के साथ एक दूसरे पर ‘‘ऐसे’ आरोप लगाने में संकोच नहीं कर रहे हैं जिनसे (आरोपो से) वे स्वयं को भी अलग नहीं कर सकते हैं। मतलब सिद्धांतों की दृष्टि से कोई भी गठबंधन पाक साफ नहीं है। इसलिए देश की राजनीति के लिये हमेशा यह कहा जाता है कि ‘‘इस हमाम में हम सब नंगे है’’। वैसे आज की राजनीति की कहावत को गलत सिद्ध कर दिया है कि ‘‘चोर-चोर मौसेरे भाई’’। शायद उसका एक कारण यह भी हो सकता है कोई एक चोर है, तो कोई एक डाकू।
गठबंधन मतलब राजनीतिक मजबूरी। जैसा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘‘इंडिया’’ गठबंधन के संबंध में नकारात्मक ठहराते हुए उसे सत्ता, भ्रष्टाचार, परिवारवाद भ्रष्टाचार, और जातिवाद क्षेत्रवाद मजबूरी बतलाई। परन्तु 26 दलों के गठबंधन को ‘‘मजबूरी’’ ठहराने वाले प्रधानमंत्री उसी सांस में 39 दलों के एनडीए गठबंधन को ‘‘मजबूत’’ कह देने मात्र से ही वे कैसे व किस प्रकार उक्त मजबूरी से स्वयं को दूर रख सकते हैं? जबकि प्रधानमंत्री द्वारा उल्लेखित किए गए उक्त तथ्य (या आरोप?) कमोबेश एनडीए में भी मौजूद हैं? मतलब सिद्धांतों के साथ समझौता कर वैचारिक रूप से अलग धरातल लिए हुए दूसरे दलों के साथ गठजोड़ मजबूती नहीं मजबूरी ही है।
संख्या में 28 की तुलना में 39 दलों के इकट्ठा हो जाने से संख्या बल में बढ़त लेने के बावजूद जो नए दल एनडीए में जुड़े हैं, तुलनात्मक रूप से, गुणात्मक रूप से उनकी राजनीतिक पहचान लगभग नहीं के बराबर है। तथापि एनडीए के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की साख पिछले कुछ समय से हल्की से ढलान पर होने के बावजूद वे ‘‘इंडिया गठबंधन’’ की तुलना में ही नहीं, बल्कि देश के अभी भी निसंदेह सर्वाधिक लोकप्रिय नेता है। विपरीत इसके भाजपा का कुनबा ‘‘इंडिया’’ के नेताओं की साख के अस्तित्वहीन हो जाने की आशंका में ही ‘‘इंडिया’’ अस्तित्व में आया है। अभी तक कोई चेहरा ही नहीं है, तो ‘साख’ का प्रश्न ही कहां उत्पन्न होता है। यद्यपि प्रधानमंत्री ने एनडीए के 25 वर्ष पूर्ण हो जाने पर एनडीए का अर्थ (एन) न्यू इंडिया, (डी) विकसित राष्ट्र, व (ए) लोगों की आकांक्षा बतलाया। आप, ‘‘तुलमुल कॉन्ग्रेस’’ और समाजवादी पार्टी अपने-अपने राज्यों में हितों की टकराहट के बावजूद ‘‘इंडिया’’ का भाग बनना महत्वपूर्ण होते हुए भी इस बात का तो इंतजार करना ही होगा कि ये तीनों ‘‘कब तक’’ साथ में रहेंगे। वस्तुतः आज कोई भी दल या राजनेता दीवार पर अपने विरुद्ध लिखें सत्य से परिपूर्ण शब्दों को देखना पढ़ना ही नहीं चाहता है? मतलब कटु वास्तविकता से मुंह मोड़ लेता है। राजनीति के गिरावट का सबसे बड़ा कारण भी यही है।
हां यदि विपक्षी गठबंधन ने यह तय कर लिया है कि वे नाम के अनुरूप कार्य भी करेंगे। तब तो उनका स्वागत कुछ समय के लिए अवश्य किया ही जाना चाहिए, जब तक उनका आचरण धरातल पर नाम ‘‘इंडिया’’ के विपरीत प्रदर्शित न हो जाए।
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