बिना एजेंडा के ‘‘सत्र’’ क्या ‘‘नये तरीका का एजेंडा’’ फिक्स करने का प्रयास तो नहीं है?
विशेष सत्र की संवैधानिक स्थिति।
मुंबई में ‘‘इंडिया’’ गठबंधन की बैठक के ठीक पहले संसदीय कार्यमंत्री प्रहलाद जोशी ने पत्रकार वार्ता के माध्यम से देश के सामने आकर नहीं, बल्कि सर्वप्रथम पहले एक ट्वीट (सोशल मीडिया) के माध्यम से 18 से 22 सितंबर के बीच पांच दिवसीय ‘‘संसद का विशेष सत्र’’ बुलाने की जानकारी देश को दी। यह 17 वीं लोकसभा का 13 वां और राज्यसभा का 261 वां सत्र होगा। देश की संसदीय परम्परानुसार नियम नहीं संसद की तीन सामान्य बैठक मानसून, शीतकालीन व बजट सत्र के अतिरिक्त यदि कोई सत्र बुलाया जाता है, तो वह ‘‘विशेष सत्र’’ कहलाता है। तथापि यह नियम या कानून में परिभाषित नहीं है। यह सरकार का विशेषाधिकार है कि वह विशेष सत्र "कब, कैसे और कारण-अकारण" बुलाए। अनुच्छेद 85 के अनुसार संसद की वर्ष में कम से कम दो बैठके होनी चाहिए, तथा दो सत्रों के बीच छः महीने से अधिक का अंतर नही होना चाहिए। न्यूनतम 10 प्रतिशत से अधिक सांसदों की मांग पर भी विशेष सत्र बुलाया जा सकता है। यही संवैधानिक, वैधानिक स्थिति है।
अभी तक देश में कुल सात बार:- जून 2017 (आधी रात को जीएसटी के लिए), नवम्बर 2015 (125वीं आंबेडकर जयंती), अगस्त 1997 (स्वतंत्रता के 50 साल पूरे होने पर मध्य रात्रि में) अगस्त 1992 (भारत छोड़ो आंदोलन के 50 वर्ष पूरे होने पर) अगस्त 1972 (आजादी के 25 वर्ष) एवं 1962 (अटलजी के अनुरोध पर चीन युद्ध को लेकर) 14-15 अगस्त1947 को रात्रि को देश की आजादी के औपचारिक ऐलान के लिए पहला विशेष सत्र बुलाये जा चुके हैं। इसके अतिरिक्त राष्ट्रपति शासन लागू करने व विस्तार करने के लिए भी विशेष सत्र बुलाये गये हैं। परंतु "प्रभुता पाइ काहि मद नाहीं" को चरित्र करती हुई वर्तमान में सीजीपीए (संसदीय कार्यों के लिए कैबिनेट मंत्रियों की कमेटी) द्वारा विपक्षी दलों को विश्वास में लिए बिना (हालांकि ऐसा न तो कोई नियम है और न ही परंपरा) केंद्रीय सरकार ने उक्त निर्णय लेकर विपक्ष को ‘‘अनावश्यक रूप’’ से आलोचना करने का एक अवसर अवश्य दे दिया है।
‘‘विशेष सत्र’’ फिलहाल बिना ‘‘विषय’’ के।
प्रश्न यही नहीं रुकता है, बल्कि ‘‘विशेष सत्र’’ बुलाए जाने की सूचना के तुरंत बाद ‘‘सूत्रों’’ के हवाले से समस्त मीडिया में यह समाचार ब्रेकिंग न्यूज के रूप में चलने लग जाता हैं कि इस विशिष्ट सत्र में ‘‘वन नेशन वन इलेक्शन’’ लागू करने के लिए कानून में संशोधन करने के लिए एक विधेयक लाया जाएगा। सूत्र यही नहीं रूकते हैं, बल्कि आगे यह भी कहते हैं कि ‘‘सत्र’’ में 10 से ज्यादा महत्वपूर्ण बिल पेश किये जा सकते है, जिसमें जम्मू-कश्मीर में चुनाव, यूसीसी, नये दो आपराधिक कानून विधेयक, महिला आरक्षण बिल आदि शामिल हो सकते हैं। ‘‘सूत्रों’’ की उक्त ब्रेकिंग न्यूज को ‘‘सही’’ ठहराने के लिए ही अगले दिन पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय कमेटी बनाई जाने की घोषणा कर दी जाती है, जो ‘‘वन नेशन वन इलेक्शन’’ के संबंध में अपनी रिपोर्ट/सुझाव देगी। तत्पश्चात अभी एक और ब्रेकिंग न्यूज़ चलने लग गई है कि उक्त विशेष सत्र में इंडिया का नाम भारत किए जाने का विधेयक लाया जाएगा। जबकि सरकार की ओर से यह कहा गया कि ‘‘अमृतकाल में सार्थक चर्चा’’ के लिए यह विशेष सत्र बुलाया गया है। इन सब से हटकर केन्द्रीय सरकार के प्रवक्ता केन्द्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने इन सब अटकलों का खंडन करते हुए स्पष्ट रूप से यह कहा कि आम चुनाव ‘‘समय से पहले या बाद में’’ कराने का सरकार का कोई ‘‘इरादा नहीं’’ है। शायद अरुण जेटली के ‘‘शाइनिंग इंडिया’’ के दुष्परिणाम को देखकर तो नहीं? कहीं ऐसा न हो की "कच्ची सरसों पेर की खली होय न तेल"।
समिति की ‘‘निष्पक्षता की गुणक्ता’’।
देश के इतिहास में यह भी शायद पहली बार हुआ है, जब पूर्व राष्ट्रपति को किसी ‘‘कमेटी का अध्यक्ष’’ बनाया गया हो, जो ‘‘राजनैतिक सक्रियता’’ का एक भाग है। इसके साथ नहीं, बल्कि 24 घंटे के भीतर इस कमेटी में 7 सदस्य जोड़कर उनका गजट नोटिफिकेशन भी जारी कर दिया गया। पूर्व राष्ट्रपति की अध्यक्षता में बनी समिति को एक ‘‘नोटंकी’’ बताने वाले कांग्रेस ने कमेटी में शामिल किये गये लोकसभा में विपक्ष के नेता अधीर रंजन चौधरी ने समिति की "शुचिता", वैधता पर प्रश्नचिन्ह न लगाकर इस्तीफा नहीं दिया? बल्कि राज्यसभा में विपक्ष के नेता व कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे को समिति में शामिल न करने के विरोध में दिया। अब स्पष्ट है कि कमेटी की वैधता, शुचिता, आवश्यकता, गुण व बिना एजेंडा या कहें कोई गुप्त एजेंडा लिए अस्पष्ट कार्यकाल के साथ यह विशेष सत्र बुलाया गया है। यानी कि "प्रारब्ध बन गया है, शरीर रचना भर शेष है"।
वर्ष 2022 में भी चुनाव आयोग ने स्पष्ट रूप से कहा कि वह एक साथ चुनाव कराने के लिए तैयार है, परंतु इसके पहले संविधान में आवश्यक संशोधन करना होगा। केंद्र सरकार ने भी पूर्व राष्ट्रपति की अध्यक्षता में गठित कमेटी के नोट में अपने कदम के समर्थन में वर्ष 1999 की जस्टिस पी जीवन रेड्डी के लॉ कमीशन की 170 वीं रिपोर्ट का उल्लेख किया है। अतः उक्त कारणों से इस मुद्दे पर सिद्धांत रूप से समस्त लोगों की सहमति होने के बावजूद यह ‘‘राजनीति’’ ही है, जो ‘‘श्रेय लेने-देने’’ की राजनीति के चक्कर में "विरोध के स्वर" उठाए जा रहे हैं।
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