14 पत्रकारों के साथ असहयोग/बहिष्कार
‘‘असावधानी’’ बरतने पर क्रिकेट में ‘‘हिट विकेट’’ और फुटबॉल, हॉकी के खेल में ‘‘गलत पास’’ दे देने से ‘‘आत्मघाती गोल’’ कभी कभार हो ही जाते हैं। परन्तु कांग्रेस की ‘‘राजनीतिक पिच’’ पर पिछले कुछ समय से ऐसा लग रहा है कि ‘‘आत्मघाती गोल’’ मारने का अभ्यास कर कांग्रेस पार्टी उसकी विशेषज्ञ होकर शायद भाजपा की ‘‘चिंता व भार’’ को ‘‘हल्का’’ करने का प्रयास कर रही है? ‘‘औरों को नसीहत और खुद मियां फजीहत’’ उक्ति की प्रतीक कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता सांसद रणदीप सिंह सुरजेवाला का बयान भाजपा का जो समर्थन करता है या जो भी उन्हें वोट देता है, वह, ‘‘राक्षस प्रवृत्ति’’ का हैं। विदेशी धरती पर देश की आर्थिक, राजनीतिक और विदेश नीति पर तथ्य परक न होकर तथ्यों से दूर राहुल गांधी के कथन, टिप्पणियां चाहे-अनचाहे अथवा जाने-अनजाने में कहीं न कहीं देश के सम्मान को विश्व पटल पर कमजोर करती हुई दिखती है। भगवान राम के जन्म, जन्म स्थल और अपमान, रामसेतु, सर्जिकल स्ट्राइक पर प्रश्न, अनुच्छेद 370 हटाए जाने को मुस्लिम बहुल होने के कारण हिंदू-मुस्लिम कार्ड तथा कश्मीर को ‘‘फिलिस्तीन’’ ठहराए जाने का बयान, समान नागरिक संहिता, चाय वाला, नीच इंसान, मौत का सौदागर, मोदी तेरी कब्र खुदेगी, आदि से लेकर नवीन एक राष्ट्र-एक चुनाव, सफल ऐतिहासिक जी-20 के आयोजन पर भी आलोचनात्मक टिप्पणी, सनातन पर और ‘‘इंडिया गठबंधन’’ के एक महत्वपूर्ण घटक डीएमके के नेता मुख्यमंत्री एम के स्टालिन के पुत्र उदय निधि स्टालिन के बयान का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष समर्थन करने (कांग्रेस द्वारा उक्त बयान की आलोचना नहीं की गई) जैसे कि ‘‘एक कील ठोंके दूसरा उस पर टोपी टांगे’’ जैसे उदाहरण कांग्रेस के आत्मघाती गोल नहीं है, तो क्या आम जनों को उद्वेलित कर उनके (कांग्रेस के) पक्ष में करने वाले बयान है? नवीनतम उदाहरण तथाकथित ‘‘गोदी मीडिया’’ हालांकि इस ‘‘शब्द’’ का उपयोग नहीं किया गया है, लेकिन अंदाजे बयान तो वही है, चैदह पत्रकारों व चैनल के बहिष्कार का इंडिया गठबंधन जिसमें कांग्रेस प्रमुख भागीदार है, का निर्णय ‘‘जैसी रातों के ऐसे ही सबेरे होते हैं’’ भी इन्हीं आत्मघाती गोलो की कड़ी की एक और कड़ी है। सनातन पर जारी संग्राम अभी ठंडा भी नहीं हुआ है कि उक्त नये मुद्दे को इंडिया गठबंधन ने देवर ‘‘एंचन छोड़ घसीटन में पड़ कर’’ एनडीए को आलोचना करने का पुनः एक मौका अवश्य दे दिया है।
प्रेस की निष्पक्षता व स्वतंत्रता पर कहीं प्रहार तो नहीं?
मजबूत परिपक्व लोकतंत्र जिसका चैथा स्तम्भ ‘‘प्रेस’’ है, ऐसा समस्त पक्षों द्वारा कहा ही नहीं गया है, बल्कि माना भी जाता है। परंतु उलट इसके कांग्रेस द्वारा मीडिया के एंकरों पत्रकारों पर उक्त प्रतिबंध, बहिष्कार या अभी कांग्रेस जिसे असहयोग कह रही है, से प्रेस की स्वतंत्रता व निष्पक्षता पर खतरा है, जिस पर दोनों पक्ष समय-समय पर अपनी चिंता व्यक्त करते रहे हैं। एक पक्ष प्रेस की स्वतंत्रता पर खतरे के कारण बहिष्कार कर रहा है, तो दूसरा पक्ष उक्त प्रतिबंध लगाए जाने को प्रेस की स्वतंत्रता व निष्पक्षता पर खतरा बता रहा है। इस प्रकार प्रेस के स्वास्थ्य को लेकर दोनों पक्ष की चिंता के बावजूद क्या प्रेस स्वयं भी स्वयं की स्वतंत्रता के बाबत चिंतित भी है, बड़ा प्रश्न यह है? यदि प्रेस वास्तव में धरातल पर ‘‘निष्पक्ष’ व शाब्दिक नहीं वास्तविक अर्थों में स्वतंत्र होती तो, किसी भी पक्ष को उसकी स्वतंत्रता, निष्पक्षता बनाए रखने पर चिंता करने की जरूरत ही नहीं होती। कहते हैं न कि ‘‘औघट चले न चैपट गिरे’’ इसलिए मुद्दा यह नहीं है कि इंडिया गठबंधन के उक्त निर्णय से देश की प्रेस की स्वतंत्रता अच्छुण रह सकती है या खतरे में पड़ सकती है। प्रश्न यह है कि क्या यह कदम संविधान में विचारों के व्यक्त करने के संवैधानिक अधिकार जिस पर ही प्रेस की स्वतंत्रता टिकी हुई है, को देखते हुए क्या उक्त असहयोग का निर्णय उचित है? अथवा ‘‘ओछी नार के समान उधार गिनाने से’’ से बचा जा सकता था? अथवा बैगर किसी शोर-शराबे से इस तरह के निर्णय को व्यवहार में लागू किया जा सकता था, प्रश्न यह हैं? वैसे कांग्रेस के प्रवक्ता पवन खेड़ा ने बहिष्कार की जगह गांधी जी के ऐतिहासिक ‘‘असहयोग आंदोलन’’ के असहयोग शब्द का प्रयोग कर असहयोग आंदोलन पर एक मालिन ही पोता है।
‘‘बहिष्कार’’ मतलब अपनी बात को जनता के सामने रखने का एक ‘‘अवसर खोना’’ है।
इसमें कोई शक नहीं है देश में अधिकांश मीडिया लगभग 90 प्रतिशत अंबानी, अडानी और भाजपा समर्थकों (जैसे कि डॉ. सुभाष चन्द्रा का ‘‘जी न्यूज’’) का मालिकाना हक है। इस कारण से उन मीडिया हाउसेस में काम करने वाले निष्पक्षता व स्वतंत्रता से काम नहीं करते है बल्कि चाह कर भी नहीं कर पाते है और अपनी ‘‘पत्रकारिता धर्म’’ नहीं निभा पाते हैं, जो उनकी पहचान के लिए आवश्यक है। इसलिए ऐसे मीडिया हाउसेस की डिबेटों में या उनको साक्षात्कार देने पर कहीं न कहीं विपक्ष के लोगों को असुविधा या असहज स्थिति हो जाती है। परन्तु बड़ा प्रश्न यह है कि घेरे में लिए गए उक्त मीडिया के प्रश्न ‘‘निष्पक्ष’’ न होकर ‘‘गाइडेड’’ प्रश्न होते है, जिसे कानून की भाषा में ‘‘लीडिंग प्रश्न’’ भी कह सकते है। परन्तु उत्तर तो आपके (विपक्ष के) ‘जबान’ बुद्धि, क्षमता पर निर्भर करता है। यद्यपि एंकरों गाइडेड उत्तरों को आपकी जुबान पर ठूंसने का प्रयास अवश्य करते है, परन्तु यहीं तो आपके व्यक्तित्व की परीक्षा होती है। इसलिए आपको तो इस बात की खुशी होना चाहिए, किन्ही मुद्दे बिन्दु पर हो रही बहस में आपको बुलाये बिना वे आपके खिलाफ अपने मीडिया पटल पर किसी अवधारणा को प्रसारित नहीं करते हैं। विपरीत इसके निश्चित की गई अवधारणा में आपको बुलाकर एक अवसर उसी प्रकार प्रदान अवश्य करते है, जिस प्रकार कानून का यह मूल सिद्धांत होता है कि कोई भी अपराधी या डिफॉल्टर को सुनवाई का अवसर दिये बिना उसे सजा नहीं दी जा सकती। इसलिए इंडिया गठबंधन को दिए जाने वाले अवसरों को चूकने के बजाय भुनाने का करतब दिखाने का प्रयास करना चाहिए। अन्यथा विपक्ष का हाल ‘‘औसर चुकी डोमनी गावे ताल बेताल’’, जैसा हो सकता है। इसलिए इंडिया गठबंधन को पत्रकारिता के हित में नहीं स्वयं के हित में इस निर्णय पर पुनर्विचार करना चाहिए और जहां जिस भी चैनल में नहीं बुलाया जाता है, वहां भी उनको बुलाये जाने का प्रयास किया जाना चाहिए ताकि वह अपनी बात वजनदारी से जनता व श्रोता के सामने रख सके। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। वर्ष 2014 में एनडीटीवी का भाजपा प्रवक्ताओं द्वारा बहिष्कार किया गया था। बीच-बीच में भी कई व्यक्तियों द्वारा घोषित/अघोषित रूप से बायकाट किया जाता रहा है। परंतु लोकतंत्र को स्वस्थ बनाए रखने जिसका महत्वपूर्ण खंभा मीडिया है, को भी स्वस्थ बनाये रखने के लिए तीनों पक्ष, पक्ष-विपक्ष तथा स्वयं मीडिया इस पर गहराई से आत्मचिंतन करे, मनन करे, आरोप-प्रत्यारोप अथवा ‘‘टूल’’ बनने की बजाए जिस उद्देश्य के लिए मीडिया की अवधारणा की गई है, की पूर्ति में समस्त लोग अपनी ‘‘आहुति दे’’। देश के स्वस्थ लोकतंत्र को मजबूत बनाए रखने के इन्ही आशाओं के साथ
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