गुजरात के अहमदाबाद के ‘‘नरेन्द्र मोदी क्रिकेट स्टेडियम’’ में अंततः वर्ल्ड कप क्रिकेट का महाकुंभ का भव्य रंगारंग कार्यक्रम के साथ समापन हो गया। तथापि भारतीय टीम की पूरे वर्ल्ड कप में सकारात्मक लगातार विजय यात्रा के कारण उपजी उन्मादी उम्मीद के बावजूद परिणाम हमारे पक्ष में नहीं रहे। इससे प्रत्येक भारतीय को कहीं न कहीं कुछ चुभ रही गहरी निराशा, हताशा अवश्य हाथ लगी। बावजूद इसके 11 में से 10 मैच लगातार जीतकर भारतीय क्रिकेट ने विश्व क्रिकेट में अपना डंका निः संदेह स्थापित किया। खेल के विभिन्न क्षेत्रों में बल्लेबाजी एवं बाॅलिंग में भारत के खिलाड़ियों का जलवा होकर वे सर्वश्रेष्ठ रहे। विराट कोहली सबसे बेस्ट बैट्समैन, मोहम्मद शमी सबसे बेस्ट बॉलर और मैन ऑफ द टूर्नामेंट विराट कोहली रहे। इसलिए तो क्रिकेट को ‘‘अनिश्चितताओं का खेल’’ कहा जाता है। वर्ल्ड कप के फाइनल के परिणाम ने एक बार फिर पूरी तरह से इसी धारणा को पुनः सिद्ध किया है। इसलिए जनता का उन्माद कर देने वाला असीम उत्साह व भारत के प्रधानमंत्री की प्रेरक उपस्थिति के बावजूद जिस परिणाम की चाहत व आकलन विश्व क्रिकेट के विशेषज्ञ पंडित कर रहे थे, दुर्भाग्यवश उससे हम वंचित रह गए। वस्तुतः शायद वह दिन हमारा था ही नहीं, आस्ट्रेलिया का दिन था। ‘‘जिससे अलख राजी, उससे खलक राजी’’! परन्तु इसका विलोम भी उतना ही सही है। शायद इसी को ‘‘भाग्य’’ कहते हैं। इसलिए ‘खेल’ को खेल मैदान में खेल भावना से ही लिया जाना चाहिए। जिसका अभाव शायद इस फाइनल में देखने को मिला।
विश्व का सबसे धनी क्रिकेट संघ ‘‘भारतीय क्रिकेट बोर्ड’’ है, जिसकी सालाना आय लगभग 6558 करोड़ रू है। हारने के बावजूद भारतीय क्रिकेट टीम को 16.62 करोड़ रुपए की राशि मिली। क्रिकेट के ‘‘तीनों फॉर्मेट’’ में भारत की रैंकिंग टॉप में है। धन बल व खेल में अपनी श्रेष्ठता कई वर्षो से बनाये रखने के कारण भारतीय क्रिकेट संघ का विश्व क्रिकेट पर इतना दबाव रहा है कि अनेकों बार भारतीय क्रिकेटर्स अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट संघ व एशियन क्रिकेट संघ के अध्यक्ष व पदाधिकारी रहे हैं। यह भी कहा जाता है विश्व क्रिकेट में भारतीय क्रिकेट संघ की तूती बोलती है और वह विश्व क्रिकेट संघ पर अपनी शर्त लागू (डिकटेटर) करता रहता है। भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड का इतना बड़ा वैभव, ब्राडिंग व सक्षमता होने के बावजूद उनके द्वारा आयोजित क्रिकेट के विश्व के सबसे बड़े आयोजन वल्र्ड कप का सबसे बड़ा काला अध्याय जो रहा, वह न केवल मैच की टिकटों की अकल्पनीय कालाबाजारी रही, बल्कि खान-पान से लेकर होटल, टैक्सी व अन्य सुविधाओं के रेट भी सातवें आसमान को उसी तरह से छूने लगे, जिस तरह से हमारे ‘‘चंद्रयान ने चांद को छुआ’’। इस कमर तोड़ कालाबाजारी (महंगाई नहीं) के लिए न केवल भारतीय क्रिकेट संघ जिम्मेदार है, बल्कि गुजरात सरकार और अहमदाबाद नगर निगल भी पूर्णतः जिम्मेदार हैं।
हम क्रिकेट के खेल में और उसकी चकाचौंध में हाथी के समान इतने मतवाले हो गये कि क्रिकेट की चमक-धमक में अंध होकर शासन-प्रशासन क्या होता है, उनका क्या उत्तरदायित्व है, शायद उसे हम भूल ही गये, निभाने का प्रयास करना तो दूर की कौड़ी हो गई। हां हमने उस उत्तरदायित्व को पूरे जज्बे और ताकत के साथ निभाया जब वीवीआईपी लोगों के स्वागत आवभगत और सुरक्षा की बात रही हो। शासन-प्रशासन की उदासीनता व अव्यवस्था से आम जनता इस सदी के अभी तक के सबसे बड़े क्रिकेट के महाकुंभ के दर्शन लाभ व प्रसाद से वंचित रह गई। हमारे यहां तो ‘‘कुंभ’’ के दर्शन से प्रसाद तो मिलता ही है।
आम जनों की हितैषी का दावा करने वाली सरकार का क्या यह दायित्व नहीं था कि कि वह इस तरह की उपभोक्ताओं के साथ हुई कालाबाजारी के विरूद्ध समय पूर्व कड़े कदम उठाकर उस पर रोक लगाती, नियंत्रित करती? क्या खेल के कुंभ के समान भी धार्मिक कुंभ में भी ऐसा ही होता? या सरकार ने यह मान लिया था कि धार्मिक कुंभ में तो बहुसंख्यक आम सामान्य व्यक्ति आता है, ‘‘जिसकी कमाई हुई तो रोजी, नहीं तो रोजा’’। लेकिन खेल के कुंभ में खासकर अभिजात वर्ग का कहलाने वाला खेल क्रिकेट के खेल को देखकर न तो सामान्य वर्ग आता है और न ही उसे आने का अधिकार है। सिर्फ एलीट (अभिजात) वर्ग को ही यह अधिकार शायद इसलिए है क्योंकि ‘‘अघाए हुए को ही मल्हार सूझता है’’। इसलिए वह क्रिकेट बोर्ड और प्रशासन द्वारा की गई कालाबाजारी व उच्च दामों की व्यवस्था में ‘‘फिट’’ बैठता है। ‘‘अंधे ससुर से घूंघट क्या और क्या परदा’’।
देश में विश्व स्तर के किसी भी आयोजन से हमारे देश की प्रतिष्ठा जुड़ी हुई होती है। ठीक जिस प्रकार जी-20 का बेहद सफल आयोजन अभी हाल में ही दिल्ली में हुआ था। हमारी अत्यंत सुदृढ़, दुरुस्त सुंदर चकाचौंध कर देने वाली व्यवस्था ने विदेशी मेहमानों का दिल जीत लिया था और विश्व की मीडिया का भी सकारात्मक ध्यान आकर्षित हुआ। क्या यही सोच विचार के साथ व्यवस्था जब विदेशों से भी हजारों दर्शक वर्ल्ड कप देखने आ रहे हो, भले ही वे राष्ट्राध्यक्ष न हो, के प्रति नहीं होनी चाहिये? जिस प्रकार हम धार्मिक कुंभ में आम जनता की सुविधाओं को ध्यान में रखकर सुरक्षा सहित समस्त आवश्यक मूलभूत व्यवस्था बनाते हैं, वैसी ही सामान्य जनों को ‘‘सामान्य प्रचलित रेट’’ पर वे व्यवस्थाएं इस क्रिकेट कुंभ में क्यों नहीं उपलब्ध कराई गई? यह समझ से परे है। सामान्यतया होटलों की केटेगिरी व रेट फिक्स होते है, फ्लाइट के रेट भी फिक्स होते है। तथापि सीजंस में और भीड़ ज्यादा होने पर रेट में बढ़ोतरी होती है। परंतु उसकी भी कोई तार्किक (लॉजिकल) सीमा होती है और नहीं है, तो अवश्य होनी चाहिए। रेलवे विशिष्ट अवसरों पर होने वाली भीड़-भाड़ से निपटने के लिए उपभोक्ता मांग के अनुसार अतिरिक्त ट्रेन चलाती है, बोगी लगाती हैं, मुनाफाखोरी नहीं करती हैं। लेकिन जब मांग व पूर्ति में अंतर बहुत बढ़ जाये तो क्या सरकार भी स्थिति को हाथ पर हाथ धरे रखकर बाजार के हाथों में छोड देती है? ऐसी स्थिति में क्या सरकार को सामान्य दर्शक उपभोक्ताओं की पहुंच (एक्सेस) के लिए बाजार पर नियंत्रण नहीं करना चाहिए था?
याद कीजिए! कोरोना काल में जब हॉस्पिटल व डॉक्टर्स ने इसी प्रकार कोरोना पीड़ित बीमार जनता की बीमारू मन और शारीरिक स्थिति का फायदा उठाते हुए इलाज के रेट अत्यधिक कर दिये थे। दस गुना तक इजाफा कर दिया था। चूंकि मामला जीवन से संबंधित था, इसलिए जनता ने मजबूर होकर अपनी चल-अचल संपत्तियों को बेचकर भी अति महंगा इलाज जान बचाने के लिए करवाये थे। स्थिति को गंभीर होते देख तब शासन-प्रशासन तथा जिलों के कलेक्टरों ने डॉक्टर्स अस्पताल, नर्सिंग होम संचालकों के साथ प्रमुख प्रबुद्ध नागरिकों की बैठक बुलाकर इलाज के रेट की अधिकता सीमा तय कर कुछ राहत अवश्य प्रदान की थी। ‘‘एक नजीर सौ नसीहत के बराबर होती है’’। क्या ऐसा ही सुप्रबंध अहमदाबाद में संपन्न हुए खेल के महाकुंभ में नहीं किया जा सकता था? निश्चित रूप से यह सब कुछ सरकार की व बोर्ड इच्छा शक्ति पर ही निर्भर करता है। कहा भी गया है ‘‘जहां चाह वहां राह’’। आश्चर्य की बात यह भी है कि इस मुनाफाखोरी में सिर्फ व्यापारी वर्ग या ‘‘सेवा-प्रदाता’’ ही शामिल नहीं है, बल्कि चुनी हुई सरकार भी शामिल है। क्योंकि मुनाफाखोरी का एक हिस्सा टैक्स के रूप में सरकार को भी मिलता है। अतः सरकार की भी मुनाफाखोरी में हिस्सेदारी मानी जायेगी। परन्तु सरकार को यह नहीं भूलना चाहिए कि ‘‘ख़ता लम्हों की होती है, और सजा सदियां पाती हैं’’।
दूसरे आश्चर्य की बात यह भी है कि सरकार की इस मुनाफाखोरी के विरुद्ध न तो मीडिया खड़ा हुआ और न ही आम जनता जिसे भी मैच देखने में भागीदारी करने का अधिकार था। सरकार व क्रिकेट बोर्ड की अनदेखी व उपेक्षा के कारण एक दर्शक के रूप में वंचित रहा है। ‘‘सब अपने-अपने खेल में मस्त हैं’’, क्योंकि मीडिया तो वीवीआईपी पास के चक्कर में ही लगा हुआ होगा। तब मजबूत शक्तिशाली प्रबंधक के विरुद्ध खड़ा होने का ‘‘नैतिक बल’’ मीडिया कहां से ला पाता? क्या 5 हजार करोड़ से अधिक आय प्राप्त करने वाला भारतीय क्रिकेट बोर्ड ‘‘बीपीएल कार्ड धारक खेल प्रेमी’’ नागरिकों को लॉटरी सिस्टम के तहत कुछ सौ टिकटे एक लाख तीस हजार की क्षमता नरेन्द्र मोदी स्टेडियम मेें मुफ्त में बांटी नहीं जा सकती थी? खासकर जब देश में इस समय रेवड़िया, मुफ्त बांटने का प्रचलन तेजी से चल रहा हो। प्रश्न है इच्छाशक्ति व भावना का है? तभी तो उस दिशा में कार्य कर पायेगें? देश में अमीरो-गरीबो का अंतर अत्यधिक बढ़ते जा रहा है! आखिर गुजरात के मुख्यमंत्री व वहां से आने वाले हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का ध्यान इस ओर क्यों नहीं गया? यानी कि ‘‘घर में औलिया होकर भी घर के भूत पर ध्यान नहीं’’!
इस मैच के अन्य कई भी दुखद पहलू हैं। एक और दुखद पहलू इस आयोजन से निकल कर यह भी आया है कि देश के विभिन्न अंचलों में वर्ल्ड कप के फाइनल में भारत की जीत के लिए दुआएं, प्रार्थनाएं यज्ञ, हवन इत्यादि मंदिर, मस्जिद, गिरजाघरों में की गई। परंतु दुर्भाग्य देखिए 41 मजदूरों का; जो निर्माणाधीन सुरंग के गिरने से अपनी जान हथेली पर लिए हुए कई दिनों से फंसे हुए हैं, उनकी सुरक्षित जान की सुरक्षा के लिए देश में ऐसी ‘‘आवश्यक दुआओं का उन्माद’’ नहीं देखा गया। कम से कम उन आठ प्रदेशों में तो जरूर होनी चाहिए थी, जहां के ये मजदूर रहवासी थे। इस मानवीय व राष्ट्रीय कमी को शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता है। खेल के दौरान भारतीय दर्शक द्वारा ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों के अच्छी शाट/बाॅल पर तालियाँ उत्साहवर्धन न बजाना व पुरस्कार समारोह के दौरान प्रधानमंत्री की उपस्थिति के बावजूद स्टेडियम का लगभग खाली हो जाना मात्र 1.5-2 हजार लोगों की उपस्थिति रही जो हमारी ‘‘अतिथि देवो भवः’’ की भावना व मूल पहचान पर चोट करती है। प्रधानमंत्री की मैच में पूर्व से नियत उपस्थिति के बाबत राहुल गांधी की अशोभनीय टिप्पणी भी बेहद निंदनीय है। यह भी मैच के परिणाम के बाद उत्पन्न परिस्थिति का एक और दुर्भाग्यपूर्ण पहलू है। कपिल देव व महेन्द्र सिंह धोनी को आमंत्रित न करना भी सिर्फ दुखद पहलू ही नहीं है, बल्कि बेहद शर्मनाक व खेल भावना के एकदम विपरीत कदम है। भारतीय क्रिकेट बोर्ड ‘‘जय शाह’’ देश व खेल प्रेमी को इसका जवाब देंगे?