भारत विश्व का सबसे बडा लोकतांत्रिक देश है। लोकतंत्र को मजबूत बनाने के लिए देखी-परखी श्रेष्ठ प्रणाली संसदीय प्रणाली अपनाई गई है। लोकतंत्र के चार खम्भों में से दो खंभे एक संसद व दूसरी सर्वोच्च न्यायालय धरातल पर एक दूसरे के ऊपर सर्वोच्च न होकर पूरक है। परन्तु ‘‘वास्तविकता सत्ता’’ तो संसद में ही निहित है, जो जनता को प्रतिबिंबित करती है। संसद लोकतंत्र की वह संस्था है, जहां जनता की समस्त समस्याएं, मुद्दों का सकारात्मक हल खुली बहस के बाद सर्वसम्मति या बहुमत से निर्णय लिया जाकर न्यायलीन समीक्षा के अधीन रहते लागू किया जाता है। यही हमारे संसदीय लोकतंत्र की एक बड़ी छाप रही है।
यदि हमारे संसदीय इतिहास को पलट कर देखा जाए तो दो शताब्दि पूर्व तक जहां पर सांसदों खासकर विपक्षी सांसदों को न केवल अपनी बात प्रस्तुत करने का पूरा अवसर स्पीकर सहित सत्ता पक्ष द्वारा दिया जाता रहा है, बल्कि वे अपनी वाक्पटुता व बौद्धिकता लिए हुए भाषणों से पूरी संसद को प्रभावित करते रहे हंै। याद कीजिए अटल बिहारी वाजपेयी का विपक्ष के नेता के रूप में उनके शेरो शायरी से युक्त भाषणों को आज भी सदन व सदन के बाहर उद्धरित किया जाता है। आचार्य जेपी कृपलानी, डाॅ राममनोहर लोहिया, डॉ. भीमराव अम्बेड़कर, डाॅ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी, जगन्नाथ राव जोशी जैसे न जाने अनेक महान हस्तियां रही है, जिन्हे संसद में देखकर शायद संसद भी अपने को गौरवान्वित महसूस करती रही है। परन्तु पिछले कुछ दशकों से संसद में संसदीय व्यवहार व वचनों में जो गिरावट आई है, संसदीय परम्पराओं का जो खुलेआम उल्लंघन हो रहा है, उससे संसद को एक तरह से चुनावी सभा का मंच बना दिया है, ‘‘जहां उलझना आसान सुलझना मुश्किल’’, और जो तू-तू, मैं-मैं गाली-गलौज की एक पहचान बन गई है।
ताजा मामला कैश-फाॅर क्वेरी में टीएमसी की सांसद महुआ मोइत्रा को संसद से निष्कासन का है। मामला गंभीर प्रकृति का होने के बावजूद क्या मामला इतना गंभीर व संगीन था, जहां मात्र ‘‘लाॅग इन’’ का पासवर्ड अनाधिकृत व्यक्ति को देने के आधार पर एक चुने हुए सांसद को अधिकतम सजा सदस्यता समाप्त की दी जानी चाहिए थी, प्रश्न यह है? यद्यपि ‘‘लाॅग-इन’’ शेयर न करने का कोई संसदीय नियम नहीं हैं। तथापि नैतिकता के स्तर पर तो यह निश्चित रूप से यह मामला बहुत गंभीर है, इसमें भी कोई शक ही नहीं है। संसद में प्रश्न पूछने का अपना ‘‘लॉग इन पासवर्ड’’ किसी अधिकृत दूसरे व्यक्ति को देना निश्चित रूप से गंभीर नैतिक अपराध है, जिसके गंभीर दुरुपयोग की संभावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता है। परन्तु यह त्रुटि आपराधिक तभी होगा, जब देश की सुरक्षा पर कोई आंच आ जाती, जैसा कि आरोप में शिकायतकर्ता ने लगाया था। हिरानंदानी द्वारा विदेश (दुबई) से प्रश्न पूछने मात्र से ही महुआ मोइत्रा देशद्रोही नहीं हो जाती हैं। देश के कई नागरिक विदेशों सहित दुश्मन देश के नागरिकों से आईएसडी द्वारा बात करते हैं। क्या वे सब भारत के हितों को नुकसान कर देशद्रोही हो जाते है? ‘‘ऐब को भी हुनर की दरकार होती है’’। असावधानी, अज्ञानता अथवा बेवकूफी के कारण दुबई में बैठे व्यक्ति को दिया ‘‘लाॅग इन’’ से देश की सुरक्षा को खतरा वस्तुतः उत्पन्न हुआ क्या? ऐसा कोई दावा अथवा तथ्य सामने नहीं आया। उक्त लाॅग इन का (दुरू) प्रयोग? कर सब प्रश्न ‘‘अडानी’’ के संबंध में तब पूछे गये थे, जब अडानी के संबंध में पूरा विपक्ष संसद में लगातार प्रश्न पूछ रहा था।
यह वही संसद है, जहां वर्तमान संविधान को लागू किया है, जिसके द्वारा ही ‘‘कानून का राज’’ का निर्माण हुआ है। कानून सबके के लिए बराबर है। संसद द्वारा स्थापित उसी न्याय प्रणाली में यह व्यवस्था है, जहां हर अपराधी को अपने बचाव में सुरक्षा का अधिकार प्राप्त है और उसको उक्त अधिकार दिये बिना देश की कोई भी अदालत चाहे वह संसद ही क्यों न हो, न्याय नहीं दिला सकती है। यह एक प्राकृतिक न्याय का मूलभूत सर्वमान्य, सर्वकालीन सिद्धांत है। कानून का यह भी सिद्धांत है ‘‘न्याय न केवल मिलना चाहिए, बल्कि न्याय मिलते हुए दिखना भी चाहिए’’। न्याय का यह सिद्धांत भी दशकों से चला आ रहा है। अन्यथा तो ‘‘उघरहिं अंत न होई निबाहू .....’’।
उक्त पूरे प्रकरण में कितनी गंभीर कानूनी त्रुटि हुई और किस तरह से जल्दबाजी में महुआ मोइत्रा को अडानी के खिलाफ प्रश्न पूछने पर ‘‘सूली पर लटकाया’’ गया है, यह प्रथम दृष्टया स्पष्ट दिखाता है कि "रहना है तो कहना नहीं और कहना है तो रहना नहीं"। प्रथम उच्चतम न्यायालय वकील जय अनंत देहाद्राई (जो मोइत्रा के पूर्व मित्र थे) के पत्र के आधार पर सांसद निशिकांत दुबे (जिसके खिलाफ महुआ मोइत्रा ने फर्जी डिग्री के आरोप लगाये थे) के अक्टूबर 2022 में लिखे पत्र के आधार पर स्पीकर ने संसद की एथिक्स कमेटी के पास उक्त मामले को भेजा। वह मूल भुगतयमान शिकायतकर्ता न होकर मात्र एक माध्यम है, जिसने उस व्यवसायी दर्शन हिरानंदानी की शिकायत दर्ज कराई जिसके द्वारा पहले इंकार के चार दिन बाद शपथ पत्र प्रस्तुत किया गया था। दर्शन हिरानंदानी सीधे शिकायतकर्ता नहीं थे। मोइत्रा और दुबई में बैठा व्यक्ति ( हिरानंदानी) के बीच हुए कुछ ‘‘चैट’’ और लाॅग इन पासवर्ड को शेयर कर यह आरोप लगाया कि महंगे उपहार व नगदी के बदले में मोइत्रा ने संसद में प्रश्न पूछने के लिये अपना ‘‘लॉग इन’’ पासवर्ड हिरानंदानी के साथ शेयर किया और दुबई में रहकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बदनाम करने के लिए अडानी के विरुद्ध प्रश्न पूछे गये। ‘‘ऊंट की चोरी ऐसे निहुरे निहुरे थोड़े ही होती है’’।
वास्तविक शिकायतकर्ता हिरानंदानी का एक शपथ पत्र जो एक सादे कागज पर (लेटर हेड या स्टांप पेपर पर नहीं) एथिक कमेटी के सामने प्रस्तुत किया गया। परन्तु आश्चर्य की बात यह थी न तो उस व्यक्ति को एथिक कमेटी के दौरान जांच के लिए बुलाया गया और न ही उससे ऑनलाइन किसी तरह की पूछताछ की गई, जिस तरह की पूछताछ महुआ मोइत्रा को आचार समिति में बुलाकर की गई। शिकायतकर्ता एवं गवाह से प्रतिप्रश्न (क्राॅस एग्जामिनेशन) का अधिकार एक आरोपी सांसद का संवैधानिक अधिकार है, जिसका पालन न करने पर पूरी कार्यवाही स्वयमेव अवैध होकर प्रारंभ से ही शून्य हो जाती है, जैसा कि उच्चतम न्यायालय ने उनके निर्णयों में यह न्यायिक सिद्धान्त प्रतिपादित किया।
परन्तु सवाल यह है कि ‘‘लाॅग इन’’ का उपयोग अथवा दुरुपयोग करके संसद या देश की कौन सी सार्वभौमिकता, अखंडता पर ‘‘प्रहार’’ हुआ है, यह बात जब तक सिद्ध न हो जाये, तब तक कोई भी कार्यवाही बेमानी होगी। इस अपराध के लिए कोई एफआईआर भी दर्ज नहीं कराई गई है। न ही हिरानंदानी के खिलाफ और न ही महुआ मोइत्रा के खिलाफ। इस मामले के पहले के एक मामले में दिल्ली के सांसद रमेश बिधूड़ी द्वारा संसद में साथी सांसद को अपशब्द, गाली आदि देने पर इसी तीव्रता से कोई कार्यवाही अभी तक नहीं हुई है। प्रारंभिक जांच भी प्रारंभ हुई कि नहीं यह भी संज्ञान में नहीं है। लोकतंत्र में विपक्ष को यदि इस तरह से कुचलते रहेंगे तो, लोकतंत्र कैसे मजबूत होगा? यह सबको सोचने की आवश्यकता है। तथापि यह सत्ता पक्ष का काम नहीं है कि विपक्ष को मजबूत करे। परन्तु साथ ही सत्ता पक्ष का यह भी काम नहीं है कि वह विपक्ष को क्षेत्राधिकार के बाहर जाकर प्रचंड बहुमत के आधार पर कुचलने का कार्य करे।
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