मोदी है तो ‘‘मुमकिन है ही नहीं’’ बल्कि ‘‘नामुमकिन कुछ भी नहीं है’’।
तीनों हिन्दी प्रदेशों में अप्रत्याशित अभूतपूर्व जीत के साथ ही मुख्यमंत्रियों की नियुक्तियां भी चुनावी परिणाम समान अभूतपूर्व व अप्रत्याशित रही हैं। अभी तक की प्रधानमंत्री नरेन्द्री मोदी की कार्यप्रणाली और निर्णयों से यह सिद्ध हो चुका है कि किसी भी राजनैतिक विश्लेषक, विशेषज्ञ, पंडित, ज्योतिष के लिए राजनैतिक निर्णयों के संबंध में भविष्यवाणी भूल कर भी करने की त्रुटि नहीं करनी चाहिए। ‘‘कबीरदास की उल्टी बानी भीगे कंबल बरसे पानी’’। नरेन्द्र मोदी की राजनैतिक निर्णय की कार्यप्रणाली पर यह जुमला फिट होता है, जो एक समय कांग्रेस के तत्कालीन कोषाध्यक्ष सीताराम केसरी के लिए बनाया गया था ‘‘न खाता न बही, जो केसरी कहे वही सही’’। ठीक इसी प्रकार ‘‘न खाता न बही जो ....?’’।
प्रथम मोदी-शाह युक्ति के उक्त मुख्यमंत्रियों को मनोनीत करने के निर्णयों से भौंचक्का विपक्ष जैसे कि ‘‘बिजली कड़की कहीं और गिरी कहीं’’, राजनैतिक विश्लेषकों को आश्चर्यचकित कर देने के बावजूद कहीं न कहीं उपरोक्त निर्णयों के कुछ हल्के से संकेत सांकेतिक रूप से ही सही, मोदी ने अवश्य दे दिये थे। यह अलग बात है कि मीडिया से लेकर समस्त विशेषज्ञ, विश्लेषक, दावा करने वाले लोग उसे पढ़ नहीं पाए। याद कीजिए! तीनों प्रदेशों के लिये नियुक्त पर्यवेक्षकों में ही यह संकेत छुपा हुआ था कि तीनों प्रदेश में भविष्य की, खासकर लोकसभा चुनाव की व्यूह रचना को देखते हुए विपक्ष की जातिगत गणना के हथियार को बोथल करने के लिए जातिगत समीकरण को साधते हुए और कौन-कौन प्रदेश के प्रमुख चेहरा बनेंगे। छत्तीसगढ़ में आदिवासी मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अर्जुन मुड्ढा को भेजकर आदिवासी मुख्यमंत्री, मध्यप्रदेश में राष्ट्रीय पिछडा वर्ग मोर्चा अध्यक्ष के लक्ष्मण को भेजकर पिछडा वर्ग के मुख्यमंत्री, राजस्थान में ब्राह्मण चेहरा सांसद सरोज पांडे को भेजकर ब्राम्हण चेहरा मुख्यमंत्री बनाने के संकेत दे दिये थे। तीन-तीन पर्यवेक्षकों की कदापि आवश्यकता नहीं थी। क्योंकि न तो विधायकों से मिलकर रायशुमारी करना था और न ही एक-एक विधायक को समझाकर केन्द्र के नामंकित नाम पर सहमति बनानी थी। क्योंकि यह तो ज्ञात ही नहीं था कि हाईकमान का निर्णय क्या है? इसलिए एक पर्यवेक्षक न भेजकर तीन-तीन भेजे गये, ताकि संकेत देने वाले पर्यवेक्षक पर ध्यान केन्द्रित न हो।
लेकिन मोदी है, तो मुमकिन ही नहीं है बल्कि नामुमकिन कुछ भी नहीं है। ‘‘मोदी कभी कच्चे घड़े में पानी नहीं भरता’’, मोदी मैजिक है, तो इतिहास की नई-नई उचांईओं को गढ़ना मोदी को आता है। मोदी ने 77 साल के स्वतंत्र भारत के इतिहास में बिल्कुल नया इतिहास रच दिया, जब राजस्थान में भजनलाल शर्मा के सिर पर मुख्यमंत्री का साफा पहनवा दिया। शर्मा देश के ऐसे पहले मुख्यमंत्री होंगे, जो विधानसभा में प्रथम दिवस प्रवेश ही मुख्यमंत्री के रूप में करेगें। यद्यपि इसके पूर्व देश में प्रथम बार विधानसभा अथवा सीधे विधायक से मुख्यमंत्री कई बन चुके है। गुजरात में भूपेंद्र भाई पटेल, मनोहर लाल खट्टर, सुंदरलाल पटवा आदि अनेक नाम है। लेकिन विधायक के रूप में चुनकर नव निवार्चित विधानसभा का प्रथम दिन ही उनका मुख्यमंत्री बनना यह अभी पहली बार हुआ है। तीनों मुख्यमंत्री की संघ पृष्ठभूमि है, जो आज की एक राजनीतिक योग्यता व आवश्यकता है।
बात मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव की भी कर ले! यह भाजपा ही है, जो देश ‘‘चाय वाले’’ को प्रधानमंत्री को बना सकते हैं, एक पकोड़े बेचने वाले (होटल व्यवसायी) को महाकाल के आशीर्वाद से मुख्यमंत्री बनाने के निर्णय के साहस (दुःसाहस) लिए भाजपा नेतृत्व मोदी शाह की जोडी की वंदना तो की ही जानी चाहिए। एक सिक्के के हमेशा दो पहलू होते है। आधा गिलास खाली है अथवा आधा गिलास भरा है। ठीक उसी प्रकार प्रधानमंत्री के उक्त निर्णयों की भी समीक्षा की जानी चाहिए। निर्णय के पक्ष के पीछे एक बड़ा कारण एक दरी उठाने वाले कार्यकर्ता को मुख्यमंत्री के सिंहासन पर बैठालने का है। तो दूसरा बडा प्रश्न छिपा हुआ यह भी है कि क्या इससे उन नेताओं व कार्यकर्ताओं के बीच में, जो यह मान कर चल रहे थे कि ‘‘खि़दमत से ही अज़मत है’’, यह मैसेज नहीं जाएगा कि काम करने से फायदा क्या? क्योंकि परिणाम, शाबाशी तो मिलने से रही? इसलिए कार्यकर्ताओं की मेहनत से जब कार्यकर्ता अपने नेता को आगे बढ़ता है और उस नेतृत्व को केन्द्रीय हाईकमान स्वीकार नहीं करता है तो क्षोभ, गुस्सा निराश होना स्वाभाविक ही है। शिवराज सिंह चौहान से लेकर अन्य क्षत्रप नेताओं प्रहलाद सिंह पटेल, नरेन्द्र सिंह तोमर, कैलाश विजयवर्गीय को चुनावी मैदान में उतारकर उनके अथक प्रयासों से उक्त भारी मिली जीत के बावजूद हाईकमान ने उन्हें नेता नहीं चुना। न ही प्रदेश का चेहरा चुनने में उनसे चर्चा की गई। यह संदेश भविष्य के लिए ठीक नहीं है, इससे बचा जाना चाहिए।
बावजूद इसके हाईकमान का मोहन यादव का चयन सही मायनों में लोकसभा को देखते हुए बहुत महत्वपूर्ण और आशाजनक परिणाम की आशा लिए हुए है। जमीन से जुड़ा व्यक्ति जब शीर्ष पर पहुंचता है, तब उसकी कार्य क्षमता और बढ जाती है। वो दिन हवा हुए जब ‘‘ख़ुशामद ही आमद है’’ राजनीति का ध्येय वाक्य हुआ करता था। मोहन यादव ऐसे ही व्यक्ति है जिन्हें अब अपने कार्य क्षमता को बढ़ाने के साथ सिद्ध करने अवसर है। प्रथम महती दायित्व लोकसभा की समस्त सीटों को जिताने का है। इस दायित्व को निभाने की घोषणा 29 की 29 लोकसभा सीट जीतकर लाने की शिवराज सिंह चौहान ने की है। प्रश्न यह है कि क्या वे घोषणाओं को धरातल पर उतारने में मुख्यमंत्री का सहयोग करके श्रेय मुख्यमंत्री मोहन यादव को लेने व देने में तो कोई द्वंद तो उनके मन नहीं होगा? निश्चित रूप से शिवराज सिंह का अनुभव और मोहन यादव की ऊर्जा जिस पर हाईकमान का आशीर्वाद हो, सिर पर हाथ रखा हो, यह कार्य बखूबी कर पायेगें। खासकर उस स्थिति में जब हारी हुई कांग्रेस की आत्मावलोकन की वह क्षमता ही नहीं बची हो, जिस पर कार्य कर अवसाद से उभर कर आगे बढ़ सके, जो क्षमता भाजपा नेतृत्व के पास है। छः महीने पूर्व 70 सीटें के स्वयं व अन्य समस्त आकलन को 163 में बदल दिया। मध्य प्रदेश के नये मुख्यमंत्री के रूप में भाई मोहन यादव को प्रदेश की जनता की ओर से हृदय की गहराइयों से हार्दिक बधाइयां। वे सफल हो मध्यप्रदेश आगे बढ़े इन्हीं शुभकामनाओं के साथ।
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