मंगलवार, 24 दिसंबर 2024

‘‘संविधान निर्माता भारत रत्न ‘‘बोधिसत्व’’ बाबासाहेब डॉ भीमराव अंबेडकर को ‘‘आज’’ कौन ‘‘अपमानित’’ कर रहा है’’?

वर्तमान वोट की राजनीति में डॉ अंबेडकर का अपमान हो ही नहीं सकता है? 

आधुनिक भारत देश के ‘‘लौह पुरुष’’ कहे जाने वाले ‘‘चाणक्य’’ गृहमंत्री अमित शाह का लोकसभा में 11 सेकंड का डॉ भीमराव अंबेडकर के संबंध में कहा गया कथन का वीडियो पूरे देश में विपक्ष द्वारा वायरल करवाया गया। जिसे पहले कांग्रेस, फिर पूरे विपक्ष ने लपक कर उसे डॉक्टर अंबेडकर का अपमान ठहरा दिया। पूरे देश में डॉ अंबेडकर को लेकर यह बहस चल गई की उसका कब-कब किस-किस ने कैसे-कैसे अपमान किया। इतिहास खंगाला जाने लगा। मीडिया में बहस बाजी से लेकर देश के आम लोगों के बीच इस पर चर्चा होने लगी। दोनों पक्ष अंबेडकर के अपमान की घटनाओं को ‘इतिहास’ से निकाल एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोपों की झड़ी लगा दी हैं। साथ ही दोनों पक्ष अपने को डॉ. अंबेडकर का झंडाबरदार कहलाने का दावा करते है, वो सिर्फ इसलिए कि इस देश में वर्तमान में कोई ‘‘माई का लाल’’ राजनेता या पार्टी (कुछ अपवादों को छोड़कर) नहीं है जो डॉ. अंबेडकर का अपमान करने का सोच भी सकती है? क्योंकि वर्तमान वोट की राजनीतिके चलते 17 प्रतिशत दलित वर्ग जो प्रायः अंबेड़कर वादी माना जाता है, को नाराज नहीं कर सकता है। भला "अपना घर जला कर उजाला कौन करता है"। अतः यह विशुद्ध राजनैतिक ‘‘नुरा-कुश्ती’’ या दांव पेंच के अलावा कुछ नहीं l

डॉ. अंबेडकर के समय ‘‘गुलामी’’ नहीं, ‘‘स्वतंत्र विचारों’’ की राजनीति?

डॉ. अंबेडकर पर चली बहस से एक फायदा जरूर हुआ कि देश की नई पीढ़ी को डॉक्टर अंबेडकर के बाबत बहुत सी जानकारी प्राप्त हुई जो शायद पहले उन्हें नहीं थी। इस बहस ने इस बात को भी सिद्ध किया उस जमाने (वर्ष 1920-56) में विचारों की स्वतंत्रता को मान, सम्मान व मान्यता दी जाती थी। खुला राजनीतिक वातावरण था। बोलने की स्वतंत्रता थी। प्रमुख नेता गण अपनी पार्टी में रहकर भी मुखरता से अपने व्यक्तिगत विचारों को दमदारी व दृढ़ता से रखते थे, जिस पर विचार विमर्श किया जाता था, जिन विचारों व बोलने की पार्टी फोरम में स्वतंत्रता का आज पूरी तरह से समापन हो चुका है। कुछ कानून द्वारा जैसा की दल बदल विरोधी कानून और शेष नेताओं की सत्ता के प्रति ‘‘गुलामी की मानसिकता’’ के चलते। शायद स्वतंत्र विचार उत्पन्न होना ही बंद हो गए हैं, तो उनके ‘‘प्रकटीकरण’’ होने का प्रश्न कहां रह जाता है? हमारा पूरा सिस्टम ही कुछ इस प्रकार का है कि इसने व्यक्तियों की सोच को एक दायरे में कैद कर दिया है। लोग सोच ही नहीं सकते कि जो कुछ चल रहा है, उसके अलावा, उससे हट कर या उससे बेहतर भी कुछ हो सकता है) ‘‘मूंड़ी गयी भेड़ की तरह अमीर’’ इन नेताओं पर सिर्फ एकमात्र सत्ता में कैसे बने रहे यह तत्व हावी है और उसके लिए शब्दावली व कार्यों का ‘‘पराक्रम’’ नहीं ‘‘परिक्रमा’’ और अंध गुणगान की ही आवश्यकता मात्र रह गई है। 

विपक्ष द्वारा बार-बार तथाकथित गलत कथनों को दोहराना ही अपमान है। 

खैर मूल विषय पर चलते हैं। अमित शाह ने राज्यसभा में बाबा अंबेडकर का नाम लेकर 11 सेकंड की जो शब्दावली कही, वह भाषण के ‘‘फ्लो’’ में बोला गया कथन मुंह से निकल गया, जिसे आगे भाषण में उन्होंने संभाल तो लिया, परंतु ‘‘प्रथम ग्रासे मक्षिका पात’’ तो हो ही गया। "कंकड़ बीनते हीरा मिल गया हो" अमित शाह सहित पूरी बीजेपी उस शब्दावली को पूरे भाषण के संदर्भ में देखने के लिए कहकर उसे कदापि अपमान नहीं मान रही है। जबकि उलट इसके संपूर्ण विपक्ष उसे डॉक्टर अंबेडकर का अपमान ठहरा रहा है। विपक्ष के इसी हंगामें के चलते ‘‘बाबा (साहब) के भरोसे फौजदारी करने वालों के बीच’’ संसद के मुख्य द्वार ‘‘मकड़ द्वार’’ पर धक्का मुक्की की शर्मसार घटना हो गई जिसमें तीन सांसद घायल हो गए। परिणाम स्वरूप भाजपा- कांग्रेस ने संसद मार्ग थाने में शिकायत की। यदि यह मान लिया जाए कि अमित शाह की शब्दावली  डॉक्टर अंबेडकर के प्रति अपमानजनक हैं, जिन्हें वे तथा उनकी पार्टी अपमानजनक नहीं मान रही हैं, तब उन शब्दों को, जिन्हें विपक्ष गलत मान रहा है, भाजपा को कटघरे में खड़ा करने के लिए उनका बार-बार उपयोग करना क्या यह डॉ अंबेडकर का अपमान नहीं है? क्या विपक्ष उन शब्दों को बार-बार दोहराये बिना भाजपा को कटघरे में खड़ा नहीं कर सकता था? इसे इस उदाहरण से समझइए। यदि किसी व्यक्ति ने किसी को गाली दी और उसका उल्लेख आप किसी तीसरे व्यक्ति से करते हैं, तब आप क्या गाली के शब्दों को ‘‘रूबरू’’ कहते हैं या सिर्फ यह कहते हैं कि बुरी बुरी गाली दी गई? इस ‘‘अंतर’’ को यदि विपक्ष समझ लेता तो डॉक्टर अंबेडकर का अपमान किए बिना समझदार तरीके से अपनी बात को सलीके से रख सकता था। वह यह कह सकता था जो कुछ अमित शाह ने संसद में डॉक्टर अंबेडकर का नाम लेकर कहा है, उन अपमानजनक शब्दों का उच्चारण किया जाना उचित नहीं है, लेकिन वे शब्द गलत है। और तब अपनी बात आगे कहता। लेकिन विपक्ष का शब्दों को बार-बार दोहराना यह साबित करता है कि उनके ख़ुद के दिल में बाबा साहेब के प्रति कोई इज्जत नहीं है, ये केवल अपनी क्षुद्र राजनीति के चलते बाबा साहेब अम्बेडकर को कांधे पर उठाये घूमते हैं और शोर मचा कर मतदाता को गुमराह करने के अलावा इनका कोई और मक़सद नहीं है। क्योंकि अंतिम लक्ष्य तो मतदाता ही है। हम टीवी डिबेटस में कई बार ऐसी स्थिति को देखते हैं, जब संसद में व संसद के बाहर नेतागण एक दूसरे को गाली बकते हैं, अपशब्दों का प्रयोग करते हैं, तो उस पर बहस इसी तरह से की जाती है कि उन गाली के शब्दों को रूबरू दोहराया नहीं जाता है। चूंकि यहां पर विपक्ष उन शब्दों को बार-बार रूबरू कह रहा है, इसलिए आज तो डॉ आंबेडकर का अपमान विपक्ष उन शब्दों को दोहरा कर रहा है। "गाते गाते वह कीर्तनिया बन जायेगा" तो वास्तव में अपमानजनक शब्दों को बार-बार दोहराना ही अपमान करना है। और फिलहाल यह काम बीजेपी नहीं विपक्ष कर रहा है।

संसद की गरिमा ‘‘तार-तार’’ बारम्बार! ‘‘गर्राएं’’ सांसदों द्वारा।

शर्मनाक ‘‘शर्मशार’’ करने वाली घटना।

संसद परिसर में ‘‘मकड़ द्वार’’ पर धक्का-मुक्की होकर, नारेबाजी, गाली गलौज, अश्लील शब्दों से आगे बढ़कर तीन सांसदों (दो भाजपा, एक कांग्रेस) को शारीरिक चोट पहुंची, वह वास्तव में लोकतंत्र की ‘‘आत्मा पर चोट’’ है। इस देश में ‘‘विधायिका’’ के सदनों व परिसरों में उनकी गरिमा, अस्मिता पहली बार तार-तार नहीं हुई है, बल्कि यह सिलसिला काफी समय से चला आ रहा है। परन्तु अभी जो कुछ जिस तरीके से संसद की गरिमा व अस्मिता खंड-खंड हुई, शायद यह पूर्व की शर्मनाक घटनाओं से अलग-थलग होकर निम्नतर है l गोया सियासत बिना रियासत नहीं l कुछ बुद्धिजीवी, प्रबुद्ध वर्ग, मीडिया का एक वर्ग, जो अपने को ‘‘आलोचक’’ कहलाने में गर्व महसूस करता है, और आम जनता की एक बहुत ही अल्प संख्या, संसद की गरिमा तार-तार होते देख चिंतित होकर चिंता व्यक्त कर रही है। अन्यथा आम जनता पर इस घटना का अथवा इस तरह की पूर्व में हुई घटना का कोई प्रभाव उनके मन-मस्ष्कि में पड़ता हो, पड़ा हो, ऐसा लगता नहीं है। अन्यथा जनता के क्रोध व दबाव होने पर इस तरह की घटना बारम्बार नहीं होती। क्या देश में इस तरह की घटनाओं के आधिक्य के कारण उन घटनाओं के प्रति-क्रिया ‘शून्य’ हो गई है या इन घटनाओं के हम इतने आदी हो गये है कि, हमारे दिल-दिमाग की तरंगों की घटनाओं की तरंगों से गहरा मेल मिलाप हो जाने के कारण ‘प्रतिक्रिया’ उत्पन्न ही नहीं होती है? क्या यह "यत पिंडे तत  ब्रह्मांडे" का उदाहरण नहीं है?

पक्ष-विपक्ष कौन जिम्मेदार?

प्रश्न यह नहीं है कि उक्त घटना से संसद की गरिमा को तार-तार करने वाला पक्ष है अथवा विपक्ष है। मुद्दा यह भी नहीं है कि अस्मिता तार-तार हुई है। बल्कि मुद्दा यह है कि जो अस्मिता तार तार हुई, उसको ‘‘महसूस कौन’’ कर रहा है? उसके लिए पश्चाताप कौन कर रहा है, शर्मिदा कौन है? चाहे  घटना को अंजाम किसी ने भी दिया हो, या गलती किसी की भी हो ? तर्क के लिए हम मान भी ले दोनों पक्षों के आरोप-प्रत्यारोप उनकी दृष्टि में 100 प्रतिशत सही है। तब, क्या किसी भी दल ने संसद की अस्मिता के साथ खिलवाड़ करने से दुखी होकर पश्चाताप के रूप में व सामने वाले को सबक सिखाने के उद्देश्य से राजघाट या डॉ. अंबेडकर की मूर्ति के सामने दिन भर उपवास कर, चिंतन कर प्रायश्चित किया? जैसा कि पूर्व में कई बार इस तरह की घटनाओं के घटित होने पर राजनीतिक दृष्टि से अरविंद केजरीवाल सहित कई नेताओं ने पश्चाताप (या नाटक?) किया है। मतलब साफ है, दोनों पक्ष उक्त दुर्भाग्यपूर्ण घटना के लिए जिम्मेदार है। कोई कम कोई ज्यादा। हां यदि लोकसभा स्पीकर चाहते तो इस घटना को रोका जा सकता था। अब स्पीकर सख्त निर्देश जारी कर यह कह रहे है कि किसी को भी संसद के किसी भी गेट पर प्रदर्शन की अनुमति नहीं दी जायेगी। पिछले कुछ दिनों से कांग्रेस इस गेट पर प्रदर्शन कर रही थी, तभी स्पीकर ने उक्त निर्देश क्यों नहीं दिए? स्पीकर तुरंत उस घटना का वीडियो फुटेज सार्वजनिक क्यों नहीं कर देते, जिससे ‘‘दूध का दूध पानी का पानी’’ हो जाता। शायद इसलिए कि स्पीकर जानते हैं कि इस घटना के लिए आरोपित पक्ष जिम्मेदार नहीं है? जांच के लिए वीडियो तो रिलीज करना ही पड़ेगा। राख से आग़ थोड़ी छूपती है। स्पीकर की लिखित अनुमति के बिना प्राथमिकी दर्ज की गई है। संसद परिसर क्षेत्र में हुई घटना की कोई प्राथमिकी तब तक दर्ज नहीं हो सकती है, जब तक लोकसभा सचिववालय से लिखित शिकायत संसद मार्ग थाने में न भेजी जाये। जिस प्रकार कॉलेज कैंपस में बिना प्रिंसिपल की अनुमति के पुलिस प्रवेश नहीं कर सकती है l

’सड़क से संसद तक’

अभी तक नारा दिया जाता रहा, ‘‘संसद से सड़क’’ तक मुद्दों की लड़ाई लड़ेंगे। परन्तु इस धक्का मुक्की की घटना ने इस नारे को अब पलट दिया है। अब सड़क से संसद तक धक्का-मुक्की हो रही है। आप जानते हैं जिस प्रकार सड़क पर दो पक्षों में विवाद होकर झगड़ा-फसाद, गाली-गलौज, धक्का-मुक्की और मुक्का-लाठी  चल जाती है, तब पीटने वाला पक्ष अपने बचाव में सामने वाले पीड़ित पक्ष के खिलाफ  रिपोर्ट लिखा देता है।  कुछ इस तरह की स्थिति संसद परिसर की इस धक्का मुक्की की घटना में हुई है, जहां कांग्रेस ने अपने वृद्ध बुजुर्ग राज्यसभा के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे को उनकी वृद्धावस्था का फायदा उठाते हुए भाजपा के उड़ीसा के बुजुर्ग सांसद प्रताप सिंह सारंगी के गिरने से हुई चोट के जवाब में तुरंत-फरंत सोची गई नीति के तहत बचाव में आगे कर दिया।

एक पक्षीय रूप से प्राथमिकी दर्ज

ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि शिकायत पीड़ि़त सांसदों या उनके परिवार की तरफ से न होकर दूसरे भाजपा सांसदों की तरफ से की गई। प्रश्न यह भी है उठता है कि भाजपा की शिकायत पर प्राथमिकी दर्ज कर ली गई। परन्तु कांग्रेस की शिकायत पर अभी जांच किए जाने व कानूनी राय लिये जाने की बात कही जा रही है। क्या भाजपा की प्राथमिकी दर्ज करते समय शिकायत की जांच पूरी हो गई थी? क्या मेडिकल रिपोर्ट आ गई थी, जिसमें जान पर खतरा होने की रिपोर्ट आई? जिस कारण से गंभीर अपराध हत्या के प्रयास की धारा 109 के साथ धारा 115, 117, 125, 131 और 351 लगाई गई। जब बिना कैमरा फुटेज के घटना की एक पक्ष की शिकायत पर प्राथमिकी दर्ज की गई थी, तब उसी आधार पर दूसरे पक्ष की भी प्राथमिकी भी दर्ज कर ली जाती, तो जांच प्रक्रिया की निष्पक्षता पर प्रश्न उठाने का अवसर नहीं मिलता।

अपराध की गंभीरता कितनी?

घटना पर दर्ज धाराओं के अपराधों पर गौर कीजिये और फिर इसकी तुलना सड़क हादसा में हुई मृत्यु से कीजिए! जहां सामान्य रूप से एक हुई दुर्घटना मैं मृत्यु पुरानी धारा 304ए के अंतर्गत अपराध माना जाता है, लेकिन वही मृत्यु यदि हत्या करने के उद्देश्य से एक्सीडेंट के द्वारा की गई है, तब वह धारा 302 हत्या का अपराध हो जाता है। भीड़-भाड़ में रास्ता बनाने के उद्देश्य से धक्का मुक्की की स्थिति के चलते तथाकथित रूप से राहुल गांधी के द्वारा किसी सांसद को धक्का देने से उस सांसद का दूसरे सांसद के ऊपर गिरने से उसे चोट लगने से क्या राहुल गांधी की सांसद साथी की ‘‘अप्रत्यक्ष रूप’’ से हत्या करने की मंशा हो सकती है? या यह महज एक दुर्घटना है? क्या राहुल गांधी को मालूम था कि जिस सांसद को वह धक्का मार रहे है, वह सारंगी के ऊपर ही गिरेगा? यह राजनीति की गिरावट का निम्नतर स्तर है। वस्तुतः जिसकी कल्पना कम से कम संसद भवन या परिसर में नहीं की जा सकती है। क्योंकि संसद लोकतंत्र का मंदिर होता है और जिसकी ऐसी ओछी पूजा देखकर तो बलि का बकरा भी हंसे l 

जरूरत से ज्यादा सतर्कता बरतने की जरूरत

धक्का मुक्की की इस घटना के दौरान नागालैंड की पहली एसटी महिला राज्यसभा सदस्य (भाजपा) एस फांगनोन कोन्याक ने राहुल गांधी के विरूद्ध सभापति को शिकायत की, कि राहुल गांधी ने अन्य पार्टी सदस्यों के साथ मेरे सामने आकर ऊंची  आवाज में मेरे साथ दुर्व्यवहार किया और मेरे काफी करीब आ गए जिससे में बेहद असहज हो गई। तथापि पुलिस थाने में शिकायत नहीं की गई, जैसे दूसरे सांसद सारंगी के मामले में हुई। मतलब पार्टी  (चूंकि दूसरे मामले में भाजपा नेताओं ने ही प्राथमिक दर्ज कराई थी) और स्वयं पीड़िता तथाकथित घटित अपराध पर कार्रवाई किए जाने के प्रति गंभीर नहीं है? शायद इसलिए कि वे पत्रकारों के प्रश्न कि ऊंची आवाज में क्या कहा  के जवाब में वे कहती हैं कि शोर के कारण सुन नहीं पाई l जबकि  भारतीय न्याय संहिता की धारा 79 में स्पष्ट है की शब्दों से महिला की मर्यादा को ठेस पहुंचनी चाहिए l दुर्व्यवहार का भी कोई विवरण नहीं दिया l बिना कोई हाव-भाव, भाव-भंगिमा, इशारे, हरकत के (ऐसा कोई आरोप लगाया नहीं गया) सिर्फ ऊंची आवाज से दुर्व्यवहार व करीब आने से असहज हो जाना की घटना जो अपराध नहीं है, अन्य  संभ्रांत पुरुषों के लिए अतिरिक्त सावधानी बरतने की एक सीख दे गईं है। यदि कोई संभ्रांत नागरिक किसी महिला के साथ खडा है, परिचित अथवा अपरिचित, तब उस पर असहजता (डिस्कम्मफर्ट) का आरोप कब लगा दिया जाए, इसकी कोई गारंटी नहीं है। भीड़-भाड़ में महिला पुरूष का साथ खड़े रहना एक स्वभाविक अवस्था है। संसद में महिला-पुरूष सांसद साथ-साथ जाते है, चर्चा करते हैं,खड़े होते है नारे बाजी करते हैं। प्रश्न यह क्यों न खड़ा किया जाए कि क्या रामरहीम -आशाराम के समान व्यक्ति महिला के बाजू में खड़े होने का प्रयास कर महिला को असहज कर रहे थे? क्या राहुल गांधी इस श्रेणी में आते है? ‘‘तिल का ताड़’’ तो सुना है, परन्तु यहां तो ‘तिल’ का ही पता नहीं है।  

उपसंहार।

जब सदन में स्वस्थ्य बहस कर मुद्दों की राजनीति नहीं हो पाती है, तब सदन व परिसर को ही ‘‘सड़क’’ बनाकर प्रदर्शन कर, सड़क छाप राजनीति की जा रही है। इस देश के लोकतंत्र का यह ‘‘क्रूरतम सच’’ है। खासकर तब संसद में जब संविधान के ‘‘75 वर्षो की गौरवशाली यात्रा’’ पर चर्चा चल रही थी।

गुरुवार, 19 दिसंबर 2024

‘‘एक देश एक चुनाव’’! ‘‘बुनियादी ढांचे में परिवर्तन’’ या ‘‘पुर्नस्थापना’’?

129 वां संविधान संशोधन विधेयक ‘‘संघीय ढांचे पर अतिक्रमण’’ कैसे?

'संविधान संशोधन विधेयक आवश्यकता!

संविधान लागू होने के 75 वें वर्ष पर संसद में दो दिन पूर्व से हो रही संविधान पर चर्चा के दौरान पूर्व राष्ट्रपति कोविंद की अध्यक्षता में एक वर्ष पूर्व (सितम्बर 2023 में) गठित कमेटी की रिपोर्ट की सिफारिशों को रूबरू कैबिनेट ने स्वीकार कर 129 वां संविधान संशोधन विधेयक लोकसभा में प्रस्तुत किया गया है, जिसे विस्तृत विचार हेतु ’‘जेपीसी’’ को भेजा जायेगा। यद्यपि इस संबंध में वर्ष 1983 से ही भिन्न-भिन्न समयों में चुनाव आयोग, नीति आयोग, विधि आयोग एवं संविधान समीक्षा आयोग विचार कर चुके हैं।

'एक देश-एक चुनाव’ की जरूरत क्यों?’

बेशक यह मुद्दा आज बहस के केंद्र में है। महत्वपूर्ण बात यह है कि वर्ष 1952 से 67 तक लोकसभा व विधानसभाओं के एक साथ हुए आम चुनावों (एक अपवाद को छोड़कर जब वर्ष 1960 में केरल विधानसभा के मध्यावधि चुनाव कराने से यह क्रम पहली बार टूटा) के बाद समय-समय पर विभिन्न राज्यों की विधानसभाएँ  भिन्न-भिन्न कारणों से समय पूर्व भंग कर दी गईं। बड़े पैमाने पर वर्ष 1969 में कांग्रेस पार्टी में विभाजन होने के कारण वर्ष 1971 में देश में पहली बार लोकसभा चुनाव भी समय से पहले कराये गए थे। महत्वपूर्ण ध्यान देने योग्य बात यहां यह है कि यह स्थिति कोई संवैधानिक  संशोधन के कारण नहीं हुई है? तथापि एक साथ चुनाव कराने में वापस आने के लिए जरूर प्रस्तावित संविधान संशोधन करना आवश्यक हो गया है। प्रश्न यह है कि पूर्व स्थिति की ’‘पुर्नस्थापना’’ के लिए किए जाने वाले प्रस्तावित संविधान संशोधन से क्या उच्चतम न्यायालय द्वारा ‘‘केशवानंद भारती’’ (वर्ष 1973) में प्रतिपादित सिद्धांत ‘‘संविधान के मूलभूत (बुनियादी) ढांचा’’ जिसे आगे भी कई अवसरों पर उच्चतम न्यायालय ने सही ठहराया है, पर आंच आयेगी? क्या यह संघीय ढांचे पर अतिक्रमण है’’? ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जब चार बार एक साथ चुनाव पहले भी करवाए जा चुके हैं, तो अब पुनः उक्त स्थिति को पुनर्स्थापित करने में समस्या क्या व क्यों है? इस पर समस्त पहलुओं के साथ गहनता से विचार करना आवश्यक है।

'पुरानी व्यवस्था की पुनर्स्थापना ! नई नीति नहीं!’

संविधान निर्माताओं ने जब निश्चित अवधि 5 साल के अंतराल में एक साथ लोकसभा व विधानसभा के चुनाव कराने की बात कही थी, तब उन्होंने यह कल्पना नहीं की थी कि देश में दल बदल के कारण ‘‘आयाराम-गयाराम’’ की राजनीति के गिरते स्तर, लालच, धन, बल के चलते शनै शनै एक स्थिति ऐसी बन जायेगी, जब ‘‘संवैधानिक प्रावधिक अवधि’’ का पालन करने के कारण प्रायः अधिकतर राज्यों की विधानसभाओं व केंद्र के लोकसभा चुनाव अलग-अलग होने लगेगें। अतः जब वर्ष 1967 तक चुनाव एक साथ होते रहे हैं, जब वे संघीय ढ़ाचे पर अतिक्रमण नहीं थे, तब आज कैसे? जबकि किसी भी सरकार ने संविधान संशोधन कर चुनावी अवधि की व्यवस्था में कोई परिवर्तन नहीं किया। याद कीजिए! संविधान निर्माताओं ने प्रारंभ में ‘‘एससी एसटी’’ ‘‘आरक्षण’’ के लिए मात्र 10 वर्ष का प्रावधान किया था, और उक्त उद्देश्य की प्राप्ति न होने के कारण इसे हर आगे 10 साल के लिए बढ़ाने का प्रावधान किया गया, जिसकी दूरदर्शी कल्पना तो उन्होंने तत्समय ही कर ली थी। परन्तु संविधान निर्माताओं ने शायद राजनेताओं के गिरते नैतिकता व गलत आचरण की कल्पना नहीं की थी, जिस कारण ही एक साथ चुनाव कराने का चक्र पांच साल की अवधि का क्रम टूटा है। दुर्भाग्यवश यह व्यवस्था का अभिन्न अंग बन गई है। तब फिर उसे सुधारने के लिए वही पुरानी चार चुनावों तक (52 से 67) चली व्यवस्था को पुर्नस्थापित करने के लिए यदि संविधान में आवश्यक संशोधन किये जाते हैं, तो वह संविधान के संघीय ढांचे के साथ छेड़-छाड़ या चोट कैसे! यह समझ से परे है। आख़िर "शगुन के बाजे समय पर ही सुहाते हैं"।

'विपक्ष के विरोध के आधार।

15 विपक्षी पार्टियां का विरोध का आधार है। ‘‘यह असंवैधानिक है’’। ‘‘संविधान की आत्मा पर चोट है’’। ‘‘यह संसदीय शासन प्रणाली में निहित विधायिका के प्रति कार्यपालिका की जवाब देही के मूल सिंद्धात को बिगाड़ देगा। साथ ही यह संविधान की बुनियादी संरचना का उल्लंघन करता प्रतीत होता है’’। ‘‘विधानसभा की स्वायत्तता पर खतरा है’’। ‘‘क्षेत्रीय पार्टियां खत्म हो जायेगी’’। ‘‘शासन विपक्ष युक्त देश चाहता है’’। ‘‘आरएसएस का एजेड़ा लागू करने की कोशिश’’ व ‘‘ध्यान भटकाना’’, जैसे कथनों द्वारा तीव्र विरोध प्रकट किया है। तात्पर्य यह कि "वचने किम् दरिद्रता"। इन सबका सीधा जवाब है कि प्रारंभिक 20 वर्षों तक जब एक साथ चुनाव होते रहे थे, तब क्या देश में लोकतंत्र व संविधान के मूल सिद्धांतों का उल्लंघन हो रहा था? संघीय ढांचे को चोट अनवरत बिना किसी विरोध के पहुंच रही थी? तब देश के किसी भी शख्स ने एक साथ हो रहे चुनाव के विरोध में एक शब्द भी नहीं कहा। तो अब विरोध क्यों? इसका जवाब शायद किसी के पास नहीं है। यह तो वही बात हुई कि "हंसिया रे तू टेढ़ा क्यों अपने मतलब से"।

आधारहीन विरोध!

       एक बात और जो इस कदम के विरूद्ध में कही जा रही है, विधानसभा-लोकसभा में एक साथ वोट देने पर देश में साक्षरता का स्तर कम होने के कारण लोग विवेक से सही निर्णय नहीं ले पाते हैं। इसका कुछ फायदा केन्द्र में बैठी सरकार की पार्टी को होता है। विशेषकर क्षेत्रीय दलों को नुकसान होता है क्योंकि राज्यों के चुनावी मुद्दे गौण हो जाते है। इस संबंध में अभी हाल के हुए ओडिशा विधानसभा चुनाव का उल्लेख करने वाले ओडिशा के पिछले परिणाम को भूल जाते हैं। जब एक साथ चुनाव कराने में उम्मीद के विपरीत परिणाम आये थे। अभी हाल में ही हुए महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव के साथ नादेड़ लोकसभा का उपचुनाव कराया गया था, जहां भी लोकसभा व विधानसभा में एक से परिणाम न होकर विपरीत परिणाम मिले थे। वस्तुतः यह जनता के विवेक पर ही प्रश्न-चिन्ह लगाने समान है? इसलिये "वज़ा कहे जिसे आलम उसे वज़ा कहो"।

‘चुनाव’’ ही लोकतंत्र का सबसे बड़ा ‘‘उत्सव’’ है।’

एक साथ चुनाव के पक्ष में एक कथन यह भी है कि हर वर्ष किन्हीं राज्यों में चुनाव होते ही रहते हैं जिस कारण आचार संहिता के लागू रहने से सरकार नीतिगत निर्णय नहीं ले पाती है। वर्ष 1951 से 60 -25 चुनाव, 61 से 70-46, 71 से 80-71, 81 से 90 -59, 91 से 2000 -59, 2001 से 2010-62, 2011 से 2020 -63, 2021 से 2024 में 30 चुनाव सम्पन्न हुए है। तथापि उक्त आकड़े सरकार के हर हमेशा चुनाव होने के दावे को पूरी तरह से सही नहीं ठहराते हैं। विधेयक के पक्ष में यह कथन भी पूरी तरह से सही नहीं है कि इससे न केवल प्रशासनिक और नीतिगत निर्णय प्रभावित होते हैं, बल्कि देश के खजाने पर भी भारी बोझ पड़ता है। हाल ही में हुए 17वीं लोकसभा के चुनाव में एक अनुमान के अनुसार, 60 हजार करोड़ रुपए से अधिक का खर्च आया और लगभग तीन महीने तक देश चुनावी मोड में रहा। वैसे पूर्व चुनाव आयुक्त ओ.पी. रावत के अनुसार भारत का चुनाव विश्व भर में सबसे सस्ता चुनाव है। यदि पैसों का ’‘अपव्यय’’ एक साथ चुनाव कराने का मुख्य आधार है, तब फिर राजनीतिक पार्टियों द्वारा किए गए खर्चों की कानूनी सीमा क्यों नहीं बांधी जाती है? जो उम्मीदवारों द्वारा किए गए खर्चों से कई गुना ज्यादा होती है व उम्मीदवार के चुनाव खर्च में नहीं जुड़ती है। आचार संहिता लागू होने पर सिर्फ नई नीति की घोषणा नहीं की जा सकती है। वह भी जरूर, यदि जनहित में अति आवश्यक हो तो चुनाव आयोग की अनुमति से की जा सकती है। आचार संहिता में भी आवश्यक संशोधन करके सरकार के दैनिक कार्यों में लगे अनावश्यक अंकुश को कम किया जा सकता है। इसलिए इस आधार पर एक साथ चुनाव की वकालत तथ्यात्मक नहीं है। इसलिये विपक्ष भी यह जानता है कि "यह लड्डू हैं रेत के"।तथापि ‘‘चुनाव’’ का ‘ड़र’ ही जनप्रतिनिधियों को जनता-जर्नादन के साथ जीवंत सर्म्पक व उनके निकट लाता है।

'भाजपा की वैचारिक पहचान।’

        ‘‘जनसंघ’’ से लेकर भाजपा और वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का एक सपना रहा है कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक, ‘‘विविधता में अनेकता लिये हुए’’ भारत देश की अखंडता को "क्षिति जल पावक गगन समीरा" के समान एक सूत्र में बांधने के लिए ‘‘एक देश-एक विधान’’ ‘‘एक निशान’’, ‘‘एक मोबिलिटी कार्ड, (एनसीएमसी)’’ एक पहचान (आधार कार्ड) ‘‘एक राशन कार्ड’’, ‘‘एक कर’’, ‘‘एक शिक्षा नीति’’, एवं एक देश-एक ग्रिड’’का होना आवश्यक है। इसी कड़ी में एक देश-एक चुनाव की नीति पर मोदी सरकार लगातार काम कर रही है। इसके पटल (काउंटर) में विपक्षी नेताओं ने वन नेशन-वन इनकम, वन एजुकेशन, वन इलाज का शिगूफा छोड़ा है।

'सरकार परसेप्शन बनाने में असफल।

यद्यपि आज की राजनीति में ‘‘एक्शन की बजाय पररेप्शन’’ का महत्व ज्यादा है, जिसे बनाने में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी माहिर है। उनके मुकाबले सिर्फ केजरीवाल ही ठहर पाते हैं। इसके लिए एक्शन करते हुए दिखना जरूर पड़ता है। परंतु इस मुद्दे को लेकर मोदी शायद चूक गये लगते है। क्योंकि ‘‘एक देश-एक चुनाव’’ को लेकर प्रथम अवसर मिलने पर ही एक्शन कर परसेप्शन क्यों नहीं बनाया गया? पिछले एक साल की अवधि में हुए लोकसभा और विधानसभा चुनावों को ही ले लीजिये! 7 फेसों में लोकसभा चुनाव की चुनावी प्रक्रिया की अवधि कम की जा सकती थी। उड़ीसा विधानसभा के साथ ही महाराष्ट्र, हरियाणा, जम्मू कश्मीर, झारखंड व कुछ और राज्यों के चुनाव लोकसभा के साथ एक साथ कराया जा सकते थे, यदि चुनाव आयोग इनकी अवधि को 6 महीने आगे पीछे घटा-बढ़ा कर लेता, जो उसके अधिकार क्षेत्र में है। वर्ष 2022 में गुजरात के साथ हिमाचल के भी चुनाव कराये जा सकते थे, जो पहले होते भी थे। तब शायद जनता के मन यह परसेप्शन जरूर जाता कि सरकार वास्तव में इस विषय पर गंभीर है और वह बिना संवैधानिक संशोधन किये इस दिशा में जो संभव कदम उठा सकती है, उठा रही है। एक तथ्य यह भी है कि इसके लिए दोनों सदनों में आवश्यक संख्या बल से एनडीए फिलहाल कोसों दूर है जो बिल को स्वीकार करने के लिए व्हिप जारी करने के बावजूद हुए मतदान के परिणाम से सिद्ध भी होता है। यानी सरकार भी जानती है कि "हंसी हंसी में हसनगढ़ बसने वाला नहीं" इसलिये बिल प्रस्तुतीकरण पर चर्चा पूरी होने के पूर्व ही गृहमंत्री के सुझाव पर संसदीय मंत्री का बिल को जेपीसी को भेजने का प्रस्ताव कहीं न कहीं सरकार की मंशा पर शंका पैदा करता है। पंचायती राज लागू होने के बावजूद पंचायतें, नगरपालिकाओं को इस संशोधन की परिधि में न लाने से इस मुद्दे की हवा थोड़ी जरूर निकली है। कोविंद कमेटी ने अपनी हजारों पेज की रिपोर्ट में बीच में विधानसभा भंग होने पर उसका चुनाव 5 साल के लिए न किये जाकर शेष अवधि के प्रावधान के लिए किया है। शायद यह प्रस्तावित संशोधन  संविधान की मूल अवधारणा को (अवधि कम करने के कारण) चोट पहुंचा सकता है? खासकर उस स्थिति को देखते हुए कि वर्ष 1971 में इंदिरा गांधी ने संविधान संशोधन कर लोकसभा का वर्ष 1971 की अवधि कार्यकाल 5 साल से बढ़ाकर 6 साल कर दी थी, जिसे न्यायालय में अवैध घोषित नहीं किया गया था।  इस संबंध में उच्चतम न्यायालय की राय ली जा सकती है।

'उपसंहार।

वास्तव में यदि राजनीतिक दल व जनता यह चाहती है कि, संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार चुनाव 5 साल में एक बार एक साथ हो, और यह क्रम आगे भी निरंतर चलता रहे। तब फिर दल बदल को पूर्णतः प्रतिबंधित कर और बीच में सरकार किसी भी मुद्दे के गिरने पर शेष अवधि के लिए ‘‘अल्पमत सरकार’’ को कार्य करते हुये देना होगा। अथवा पूर्व चुनाव आयुक्त ओपी रावत द्वारा वर्ष 2015 में सरकार को एक साथ चुनाव कराने के प्रस्ताव के संबंध में दिया गया यह सुझाव महत्वपूर्ण हो सकता है कि अविश्वास प्रस्ताव की जगह ‘‘रचनात्मक विश्वास प्रस्ताव’’ का प्रावधान करना होगा। वैसे यदि देश में पूर्ण रूप से न सही तो 90 प्रतिशत सभी राज्यों के चुनाव लोकसभा के साथ एक साथ हो, तब भी वह देश की राजनीतिक परिस्थितियों को देखते हुए एक नेशन एक इलेक्शन ही कहलायेगा। ठीक उसी प्रकार जैसे एक देश एक टैक्स दर की नीति के तहत जीएसटी वर्तमान में विभिन्न टैक्स दरों के साथ लागू है।

अंत में एक साथ चुनाव कराने वाले के पक्षधर विश्व के कई देश अमेरिका, कनाडा, स्लोवेनिया, अल्बानिया, पोलैंड इत्यादि में एक साथ चुनाव कराने का उदाहरण दे रहे है, तब फिर इन्हीं देशों में बैलेट पेपर से चुनाव कराये जाने का क्यों नहीं अनुसरण कर रहे है? परंतु इसका जवाब नहीं मिल पायेगा। देश की राजनीति की नियति ऐसी हो गई है, जहां सुविधा के अनुसार मुद्दों को चुनने की ’राजनीति’ प्रत्येक पक्ष कर रहा है, लेकिन कोई भी इस नीति का पालन करता नहीं दीखता कि "राज सफल तब जानिये प्रजा सुखी जब होय"।

सोमवार, 16 दिसंबर 2024

अजब देश की गजब कहानी! ‘‘राज्यसभा कैश कांड’’।

‘‘हंगामा है क्यूं बरपा? हंगामा?

भूमिका।

अभी तक तो मेरा मध्य प्रदेश समय के अंतरालों पर अजीबो गरीब हरकतें घटित होने से ‘‘अजब गजब प्रदेश’’ कहलाता रहा है। परंतु विगत दिवस राज्यसभा जो संसद का उच्च (अपर) स्थायी सदन होता है, में जिस तरह से ‘‘कैश कांड’’ का वर्णन माननीय सभापति महोदय ने दिया जिस पर आयी निम्न स्तरीय राजनीतिक प्रतिक्रियाओं ने मेरे प्रदेश की उक्त ‘‘संज्ञा मुकुट’’ को संसद ने मेरे देश के शीर्ष पर पहना दिया, यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा। आइये राज्यसभा के इस कैश कांड के ‘‘कहे-अनकहे’’ पहलुओं को ‘‘उथली बहस’’ व लगाए आरोपों के विपरीत, समझने का  प्रयास करते हैं।

कैश कांड आखिर है क्या?

संसद के शीतकालीन सत्र के नौंवे दिन जब कांग्रेस के सांसद लोकसभा के बाहर पट्टी लगाकर नारेबाजी प्रदर्शन कर रहे थे, देश के वरिष्ठम अधिवक्ता, कांग्रेस सांसद अभिषेक मनु सिंघवी, उच्चतम न्यायालय में बहस कर रहे थे, तब राज्य सभा के अंदर सभापति जगदीप धनकड़ सदन को बतला रहे थे कि कल हाउस स्थगित होने के बाद नियमित एंटी सबोटाज जांच के दौरान सीट क्रमांक 222 जो तेलंगाना से 2024-26 के लिए सदस्य बने अभिषेक मनु सिंघवी की है, की सीट के नीचे 500 की नोटों की गड्डी मिली है। सभापति ने आगे कहा, ‘‘परंपरा के अनुसार जांच का आदेश दिया गया है. यह स्पष्ट नहीं है कि करेंसी नोट ‘‘असली थे या नकली’’ (क्योंकि ‘‘उजला उजला सभी दूध नहीं होता’’।) गड्डी में 500 रुपये के नोट हैं. यह मेरा कर्तव्य था और मैं सदन को सूचित करने के लिए बाध्य हूं। उन्होंने आगे कहा, क्या लोग इस तरह नोटों की गड्डी भूल सकते हैं? अभी तक कोई दावेदार न आने से मैं यह जानकारी सदन को दे रहा हूं। बात जितनी साधारण सी दिखती है, उतनी है नहीं, यदि आप माननीय सभापति के शब्दों व पूरे कथन और उसके बाद आई राजनीतिज्ञों की प्रतिक्रियायों को जोड़कर देखें, तब आप समझ पाएंगे आखिर माजरा है क्या? जांच किस बात की, व उसका दायरा क्या है, अध्यक्ष महोदय ने स्पष्ट नहीं किया।

सदन को न चलने देना का सभापति का दांव तो नहीं?          

सभापति के उक्त खुलासे के तुरंत बाद विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा कि आपने जांच पूरी हुए बिना सांसद का नाम कैसे ले लिया? इस पर सभापति ने कहा मैंने उनका नाम नहीं लिया है, सिर्फ सीट इनकी है, यह बतलाया है। क्या सभापति सिर्फ सीट नंबर 222 कहकर अपनी बात को पूरा नहीं कर सकते थे? परन्तु उन्होंने तो तेलंगाना राज्य के 2024 से 26 के लिए चुने गए सांसद अभिषेक सिंघवी की सीट की स्थिति का सचित्र वर्णन कर दिया। शायद, नोट कहां से पाए गए, उसकी सही लोकेशन बतलाने के लिए सभापति महोदय ने इतना डिटेल विवरण दिया? तब तो फिर उस विवरण में दो बातें रह गई। उनको फिर यह भी बतलाना चाहिए था कि केंद्रीय विस्टा पुनर्विकास परियोजना के अंतर्गत भारत सरकार द्वारा निर्मित रायसीना पहाड़ी से 118 रफी मार्ग स्थित संसद भवन में राज्यसभा बैठक की तीसरी रो की चौथी सीट जो अभिषेक सिंघवी के नाम से है, के नीचे नोट पाए गए हैं। सिर्फ सीट नंबर 222 कहने से काम नहीं चल सकता था? क्या यह प्रश्न उत्पन्न नहीं होता है? सदन चलाने का प्राथमिक दायित्व सभापति व सत्ता दल का होता हैं। क्या सदन में हंगामा के उद्देश्य से उक्त अनावश्यक घोषणा की गई? अथवा सदन में पिछले कुछ दिनों में चल रहे ‘‘नरेटिव’’ को बदलने का यह प्रयास तो नहीं है? अन्यथा  संबंधित सदस्य से सीधे चर्चा कर वीडियो की जांच कर तदनुसार पैसा खजाने में जमा करा दिया जाता या कोई फॉल गेम (षड्यंत्र) होने पर कार्रवाई की जाती। मामला सम्मान पूर्वक सौहार्दपूर्ण तरीके से समाप्त हो जाता। सदन में उपरोक्त तरीके से खुलासा  करना क्या उचित था? लेकिन शायद सभापति को तो ‘‘टटिया की ओट शिकार खेलना’’था। 

‘‘नियमों का उल्लंघन’’नहीं।

आखिर कैश कांड का मुद्दा क्या है, किस नियम का उल्लंघन हुआ है और जांच की दिशा व दशा क्या है? यह पैसा अभिषेक मनु सिंघवी का है इस बाबत न तो कोई साक्ष्य है, न ही कोई आरोप सभापति द्वारा लगाया गया है। विपरीत इसके सिंघवी ने इनकार करते हुए स्पष्ट कहा है कि मैं सदन में रू. 500 से ज्यादा लेकर नहीं जाता हूं। ओफ, क्या गरीबी है ‘‘ओई की रोटी ओई की टटिया लगे दुआर’’। सदन के अंदर पैसे ले जाने की कोई पाबंदी नहीं है। इसलिए यदि यह मान भी लिया जाए कि उक्त नोट सिंघवी का है, तब भी नियमों का कोई उल्लंघन प्रस्तुत मामले में नहीं है। नवनिर्मित हाईटेक संसद भवन के प्रत्येक कोने के भीतर ही नहीं बल्कि संसद परिसर की प्रत्येक एक्टिविटीज जब कैमरे में कैद होती है, तब सभापति ने सिंघवी के सदन में आने से लेकर बाहर जाने तक के मात्र तीन मिनट के विडियो को चेक करवा कर उक्त पैसा वहां कैसे आ गया, इस बात का खुलासा सदन के सामने क्यों नहीं किया? सुरक्षा कर्मचारियों को मिली नोट की गड्डी को जब राज्यसभा सचिवालय में जमा कर दिया, तब सीट नंबर 222 के सदस्य को सूचित कर क्यों नहीं उनसे यह पूछा गया कि यह पैसा आपका तो नहीं है? जो एक सामान्य प्रक्रिया गुमशुदा वस्तु के संबंध में होती है। यानी कि ‘‘अपना कान देखने की बजाय उस कौए को ढ़ूढ़ना जो कान ले गया’’। अतः जांच का विषय तो इस बात का होना चाहिए कि उक्त नोटों का बंडल सीट क्रमांक 222 पर कैसे आ गया? यदि नोट के बदले और कुछ चीज होती तो? तब तो यह सुरक्षा में चूक का मामला होता, जिसके लिए जिम्मेदारी किसकी होती?  

‘‘कहीं पर तीर कहीं पे निशान’’।

नोट असली है कि नकली? सभापति का उक्त कथन अपरिपक्व व आपत्तिजनक होकर कहीं पर तीर कहीं पर निशाना ही लगता है। ‘‘हम तेजी से औपचारिक अर्थव्यवस्था में प्रवेश कर रहे हैं। क्या यह अर्थव्यवस्था की स्थिति को दर्शाता है कि लोग (अपनी नकदी) भूल सकते हैं? उन्होंने (सभापति ने) पूछा’’, बहुत ही गहरा आशय व तथाकथित धन के आरोप व विपरीत अर्थ लिए हुए हैं। क्या विकसित अर्थव्यवस्था होने के कारण 50000 रू. का मूल्य कुछ नहीं रह गया है इसलिए कोई दावेदार नहीं है, यह बताने का प्रयास तो नहीं है?

सियासी बयानों का बाजार।

इस मामले को लेकर हो रही सियासी राजनीति को सियासी बयानों से गुजर कर देखिए, आपको समझ में आ जाएगा ‘‘अजब देश की गजब कहानी’’। बयानों के बाजार में सबसे संतुलित और ‘‘नम्र’’ बयान  सदन के नेता भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा का हैं। यह मुद्दा ‘‘अभूतपूर्व, असाधारण व गंभीर’’ है। उन्होंने कहा कि विपक्ष और सत्ता पक्ष को विभाजित नहीं होना चाहिए क्योंकि यह सदन की ‘‘गरिमा पर हमला’’ है। वाह क्या बात है, ‘‘इक तो बुढ़िया नचनी दूजे घर भया नाती’’ परंतु प्रश्न यह है यदि उक्त पैसा अभिषेक सिंघवी का ही है जो उनकी जेब से सीट के नीचे गिर गया है, तब भी इससे सदन की गरिमा कहां व कैसे खंडित होती है? प्रश्न यदि यह काला धन है, जैसा सांसद मनोज तिवारी ने यह कहकर की कांग्रेस सांसद के आसंदी व घरों से काला धन बरामद हो रहा है,तो क्या उक्त काला धन को इनकम टैक्स विभाग के पास जमा कर दिया गया है? सिंघवी की घोषित कुल संपत्ति लगभग 360 करोड़ रुपए होकर राज्य सभा में सबसे ज्यादा आयकर देने वाले सांसद हैं, काला धन बताने वालों को शायद यह जानकारी नहीं है। यह सच है कि ‘‘इंसान अपने दुःख से इतना दुःखी नहीं है जितना दूसरे के सुख से’’।  कांग्रेस पार्टी का यह चरित्र रहा है कि वह सांसदों को घूस देकर सरकार बचाती रही है, जैसा की कुछ राजनीतिज्ञ और मीडिया पिछली हुई घटनाओं को हवाला दे रहे हैं, जो एक वास्तविकता भी है, परन्तु उन घटनाओं का इस घटना से लिंक करना कितना उचित है, जब लिंक करने वाले भूल जाते हैं कि उनके इतिहास में भी पैसे लेते हुए स्टिंग ऑपरेशन हुए हैं। किरण रिजिजू का कथन ‘‘डिजिटल वीडियो में सदन के बीच नोटो की गड्डी का क्या काम’’? वो तो हइये, ‘‘एक ने कील ठोकी दूसरे ने टोपी टांगी’’। उक्त घटना को लेकर चल रहे आरोप प्रत्यारोप क्या यह राजनीतिक अपरिपक्वता की निशानी है अथवा ‘‘निकृष्टता’’ की? यह आपको तय करना है। इस पूरी घटना को एक मुहावरे में समेटा जा सकता है। ‘‘सूत न कपास, जुलाहों में लट्ठम लट्ठ?

सोमवार, 2 दिसंबर 2024

मध्य प्रदेश विधानसभा के उपचुनावों के परिणाम l हार-जीत! परंतु "संकेत एक ही दिशा की ओर" l


विजयपुर उपचुनाव ! दल बदलू को सबक l 

छह बार से कांग्रेस से जीतते रहे  चंबल-ग्वालियर क्षेत्र के कद्दावर नेता तथा प्रदेश कांग्रेस के पूर्व कार्यकारी अध्यक्ष रामनिवास रावत की विजयपुर उपचुनाव में वन मंत्री भाजपा प्रत्याशी के रूप में हार निश्चित रूप से कई संकेतो को इंगित करती है l प्रथम पिछले कुछ समय से राजनीति में यह प्रवृति हो गई है कि राजनेता यह मानकर समझ कर ही चलते हैं कि हम जब चाहे जिस पार्टी से चुनकर, फिर इस्तीफा देकर, फिर पुनः जनता के बीच चुनाव में जाकर जीत कर विधायक बनकर सत्ता की मलाई खा सकते हैं, उनके लिए यह एक झटका है l इसी मध्य प्रदेश में वर्ष 2018 के विधानसभा के चुनाव के लगभग 15 महीनों बाद लगभग 22 कांग्रेस के विधायकों ने लगभग एकसाथ  विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा देकर भाजपा में शामिल होकर सरकार गिरा कर तत्पश्चात फिर हुए उपचुनावों में भाजपा की टिकट पर जीतकर भाजपा की सरकार बनाई थी l उस समय भी इस्तीफा देने वाले कुछ विधायक फिर से चुनकर नहीं आ पाए थे l परंतु जनता के इस आंशिक सबक को नेताओं ने अंगीकार नहीं किया कि "अच्छी जीन से ही कोई घोड़ा अच्छा नहीं हो जाता है" l विजयपुर उपचुनाव की हार यह उक्त वृत्ति पर कुछ रोक अवश्य लगाती है l यह परिणाम कम से कम ऐसे नेताओं को सावधान तो जरूर करता है कि हम हमेशा जनता को यह मानकर नहीं चल सकते हैं (टेक इट ग्रांटेड) की जनता उन्हें हमेशा ऐसी स्थितियों में गले लगाएगी ही l हम देख रहे हैं पिछले काफी समय से किसी पार्टी से एक व्यक्ति चुनकर विधायक बनता है और सत्ता की लोभ में अपनी पार्टी से इस्तीफा देकर सत्ताधारी पार्टी में चला जाता है और वहां से उप चुनाव लडकर फिर जीत कर आ जाता है l सिद्धांत व पार्टी निष्ठा तो एक तरह से खत्म ही हो गई है l लेकिन "न ख़ुदा ही मिला न विसाले सनम" की उक्ति को चरितार्थ करते हुए इस परिणाम के द्वारा जनता ने इस बढ़ते हुए महारोग पर कुछ रोक जरूर लगाई है l याद कीजिए! कमलनाथ की पत्नी सांसद अलका नाथ द्वारा दिए गए स्टीव के कारण हुए छिंदवाड़ा लोकसभा का वह उप चुनाव जब कमलनाथ की टिकट "जैन डायरी हवाला कांड" में नाम आने पर कटने पर उन्होंने अपनी पत्नी अलका नाथ को टिकट दिलाई, जिनके चुनाव जीतने के कुछ समय बाद ही जैन हवाला कांड का मामला ठंडा होने पर उनसे इस्तीफा दिला कर खुद उप चुनाव लड़ा, जहां उन्हें पहली बार जनता ने पटकनी दी और यह सबक सिखाया कि आप क्षेत्र की जनता को अपने ऑफिस का कर्मचारी नहीं समझ सकते हैं कि जब आपके मन में आया हटा दिया और जब मनमर्जी हुई वापिस ले आए l

तोमर व शिवराज सिंह की कमजोर होती स्थिति ?

इसका दूसरा संकेत पूर्व केंद्रीय कृषि मंत्री व प्रदेश के सबसे बड़े कद्दावर नेता विधानसभा के स्पीकर नरेंद्र सिंह तोमर की राजनीतिक स्थिति पर कुछ प्रभाव पड़ सकता है l रामनिवास रावत कांग्रेस की राजनीति में ज्योतिरादित्य सिंधिया के खासम खास हुआ करते थे, बावजूद इसके वे ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ भाजपा में शामिल नहीं हुए थे l नरेंद्र सिंह तोमर ने अपने प्रभाव क्षेत्र को सिंधिया के मुकाबले बढ़ाने के लिए ही रामनिवास रावत को पार्टी में शामिल करवा कर मंत्री बनवाकर चुनाव लड़वाया था l शायद इसी कारण से सिंधिया इस चुनाव में स्टार प्रचारक होने के बावजूद प्रचार करने नहीं गए l इस चुनाव परिणाम ने नरेंद्र सिंह तोमर के इस प्रयास को धक्का लगाया l अर्थात "अंधे अंधा ठेलिया दोनों कूप पड़ंत"।

भविष्य में मुख्यमंत्री को चुनौती देने वाले दावेदारों की स्थिति कमजोर हुई l 

मुख्यमंत्री मोहन यादव की दृष्टि से इस परिणाम के राजनीतिक नफा नुकसान को देखना दिलचस्प होगा l क्योंकि इन दोनों उप चुनावों की टिकटें  मुख्यमंत्री मोहन यादव ने नहीं दिलाई थी l विजयपुर की टिकट उनके एक प्रतिद्वंद्वी नरेंद्र सिंह तोमर व दूसरी टिकट दूसरे प्रतिद्वंद्वी शिवराज सिंह चौहान के कोटे से आई थी l इसलिए पार्टी के "अंदर खाने" की राजनीति में तो डा. मोहन यादव को इसका फायदा हो सकता है l परन्तु सार्वजनिक राजनीति में इन परिणामों से उनकी सरकार की कार्य क्षमता पर एक प्रश्नवाचक चिह्न जरूर लगता है?  बुधनी की "फीकी जीत" (पिछले चुनाव की तुलना में लगभग 90 हजार जीत का अंतर कम हो गया) से भी उनके जिताऊ नेतृत्व क्षमता पर उंगली जरूर उठेगी l झारखंड में भाजपा की बुरी हार से भी शिवराज सिंह की स्थिति कमजोर हुई है l

आदिवासी वर्ग का भाजपा से छिटकना l 

विजयपुर विधानसभा की एक प्रमुख बात यह भी है कि कांग्रेस के उम्मीदवार मुकेश मल्होत्रा आरक्षित आदिवासी वर्ग से आते हैं, जो पिछले चुनाव में निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में लड़े थे l जबकि भाजपा के उम्मीदवार रामनिवास रावत मीना रावत समाज से आते हैं l विजयपुर आदिवासी आरक्षित विधानसभा क्षेत्र नहीं है l अतः इस सीट पर 6 बार रामनिवास रावत के रूप में कांग्रेस की जीत से यह बात स्पष्ट रूप से सिद्ध होती है कि इस क्षेत्र का आदिवासी वर्ग रावत के कांग्रेस छोड़ने के बावजूद कांग्रेस के साथ जुड़ा हुआ है, जो भाजपा नेतृत्व के लिए चिंता का सबब होना चाहिए l एक दिलचस्प बात यह भी है की भाजपा प्रत्याशी रामनिवास रावत की कुल घोषित संपत्ति 9 करोड़ 83 लाख रुपए की है, जबकि कांग्रेस प्रत्याशी मुकेश मल्होत्रा की कुल संपत्ति मात्र 83 लाख रुपए है l एक बात और, एक ही समय दो बार शपथ ले कर "ढाई दिन की बादशाहत" का ऐतिहासिक रिकॉर्ड बनाने वाले राम निवास रावत इस चुनाव में सातवीं बार जीत का रिकॉर्ड नहीं बना पाए l यह रावत की 2018 की विधानसभा की व  2019 की लोकसभा चुनाव की हार के बाद तीसरी हार है l यदि वन मंत्री रहे विजय कुमार शाह को छोड़ दिया जाए तो वन मंत्री के रूप में हार का सिलसिला डॉ गौरीशंकर शेजवार से लेकर रावत तक बदस्तूर जारी है l

क्या कांग्रेस के लिए यह परिणाम "बूस्टर" हो पाएगा? 

विधानसभा और लोकसभा चुनाव में बुरी तरह से हारी कांग्रेस के लिए विजयपुर उपचुनाव की जीत और बुदनी उपचुनाव की भाजपा की जीत की मार्जिन में भारी कमी कहीं न कहीं एक "बूस्टर" का काम कर सकती है ? यदि कांग्रेस नेतृत्व इस संदेश को कार्यकर्ताओं के माध्यम से पूरे प्रदेश में पहुंचने का प्रयास करें तो? जो वर्तमान प्रदेश कांग्रेस नेतृत्व वह खस्ता संगठन हालत को देखते हुए संभव लगता नहीं है l क्योंकि इस जीत में स्थानीय कांग्रेस नेतृत्व की प्रमुख भागीदारी रही है न की प्रादेशिक नेताओं की l प्रदेश अध्यक्ष जीतू पटवारी की राजनीतिक सोच की हालत यह है कि वह विजयपुर की जीत पर तो उसे लोकतंत्र की रक्षा बताते हैं l तब फिर बुदनी की "हार" क्या कहलाएगी ? यदि उनका तर्क रूबरू वैसा ही मान लिया जाए तो? जीत और हार तो स्वस्थ लोकतंत्र की निशानी है। "अकल और हेकड़ी एक साथ नहीं चल सकती", पटवारी जी! यह लोकतंत्र का अभिन्न भाग है l एक पक्ष जीतेगा और दूसरा पक्ष हारेगा ही l हां यदि बुधनी उपचुनाव संवैधानिक प्रक्रियाओं का उल्लंघन और धांधली करके धन बाहुबली के दुरुपयोग से जीता गया है, तब जरूर लोकतंत्र पर प्रश्न लगता है l तथापि ऐसा कोई आरोप जीतू पटवारी का नहीं है और न ही वस्तु स्थिति है l

अंत में दोनों जीते हुए उम्मीदवार को हार्दिक बधाइयां l

गुरुवार, 28 नवंबर 2024

‘‘बटोंगे (वोट) तो कटोंगे’! ‘‘बाटेंगे तो काटेंगे’।

‘‘बाटेंगे (नोट) तो जीतेंगे-हारेंगे’’।


भूमिका
इस महीने के प्रारंभ से ही चुनाव प्रचार के अंतिम चरण व मतदान के समय तक उक्त नारे और उससे उत्पन्न जवाबी नारे ही मीडिया व चुनावी परिवेश में छाए रहे। देश की राजनीति खास कर चुनावी राजनीति में नारों का क्या महत्व है, और उनके अर्थ, अनर्थ व द्विअर्थी मतलब (मैसेज) कैसे होते हैं, इसको थोड़ा समझने का प्रयास ‘‘नारों की टाइमिंग’’ के साथ करते हैं।
‘‘योगीनाथ उवाच’’।र प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने एक आक्रमक बयान दिया ‘‘राष्ट्र से बढ़कर कुछ नहीं हो सकता और राष्ट्र कब सशक्त होगा, जब हम एक रहेंगे, नेक रहेंगे, बटेंगे तो कटेंगे, आप देख रहे हैं ना, बांग्लादेश में देख रहे हो ना, वह गलतियां यहां नहीं होनी चाहिए’। इस कथन में शामिल ‘‘बटेंगे तो कटेंगे’ ने एक नारे का रूप लेकर राजनीति की धुरी मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के आस-पास केंद्रित हो गई, जिस कारण चुनाव में योगी की मांग बढ़ गई l इसे आगे समझने का प्रयास करते हैं।

नारे की अलग-अलग व्याख्या

उक्त नारे का शाब्दिक अर्थ गलत कहां है? उक्त नारे में योगी आदित्यनाथ ने न तो धर्म का जिक्र किया है और न ही जाति का जिक्र किया है। तब फिर उक्त नारे को धर्म व जाति से जोड़कर ‘‘बयानवीर लोग क्यों अर्नगल बयानबाजी’’ आरोप-प्रत्यारोप के दौरान कर रहे हैं? इसका मात्र एक कारण शायद यह दिखता है कि चूंकि उक्त प्रारंभिक बयान में योगी द्वारा बांग्लादेश का उल्लेख किया गया है, जहां पर अल्पसंख्यकों (हिन्दुओं) पर प्रधानमंत्री शेख हसीना के सत्ता से हटने के बाद से अत्याचार काफी बढ़े है, शायद उस चिंता के संदर्भ में इस बयान को अल्पसंख्यक व बहुसंख्यक के बीच एक नैरेटिव बनाने का प्रयास ‘‘वोट’’ की राजनीति के चलते किया जा रहा है। प्रारंभ में योगी आदित्यनाथ के बयान को एक सिरे से भाजपा के अनेक नेताओं व मीडिया ने लपका। लेकिन शैनेः शैनेः उक्त बयान से कुछ नुकसान, खासकर ‘‘अल्पसंख्यकों’’ के एकजुट होने के चलते, समय-समय पर उसमें परिर्वतन किया गया। प्रधानमंत्री ने असम के मुख्यमंत्री के बयान को आगे बढ़ाया ‘‘एक रहेंगे तो सेफ रहेगें’ । बागेश्वर धाम के पंडित धीरेन्द्र शास्त्री ने योगी आदित्यनाथ का समर्थन करते हुए कहा, ‘‘बटेंगे तो चीन व पाकिस्तान वाले हमें काटेगें’’। तथापि उन्होंने जात-पात व भेदभाव को समाज के लिए जहर बताते हुए हिन्दू जागरूकता बढ़ाने व ‘‘कट्टर हिन्दु’ बनने की अपील की। परन्तु उसी सांस में वे यह भी कहते है कि हमें ब्राह्मण, वैश्य, कास्थ से पहले ‘‘हिन्दुस्तानी’’ (हिन्दु नहीं) बनना होगा। क्योंकि धर्म के नाम पर बंटवारे को खत्म करना ही रामराज की स्थापना का पहला कदम होगा। तब फिर कट्टर हिन्दु बनाने का आव्हान क्या ‘‘अंर्तविरोध’’ नहीं है? उक्त बयान के नुकसान की आशंका को देखते हुए एनडीए के समर्थन वाली पार्टीयां ही नहीं, बल्कि भाजपा के एक-एक करके नेता बयानों से अपने को उक्त नारे से अलग-थलग कर रहे हैं, जैसे अजीत पंवार, एकनाथ शिंदे, पंकजा मुंडे, नीतिन गडकरी, राजनाथ सिंह, उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री ब्रजेश पाठक व केशव प्रयाद मोर्य आदि। वैसे आज कल हमारे देश मेें कट्टरता के साथ ‘‘कट्टर’’ शब्द की भी कट्टरता के साथ शोर ‘‘कट्टर ईमानदारी, ‘‘कट्टर हिन्दु’’ कट्टर देशभक्त नारों का हो रहा है? नारे  के अर्थ का अनर्थ कैसे निकाला जाता है, इसका उदाहरण ‘‘एक रहेंगे तो सेफ रहेगें’’ के संदर्भ में राहुल गांधी के ‘‘तिजोरी’’ के साथ दो उद्योगपतियों पर किया गये कटाक्ष व व्याख्या से समझा जा सकता है।

नारों की महत्वता, प्रभाव, परिणाम!

देश की राजनीति में स्वतंत्रता के बाद से ही नारों का बड़ा योगदान रहा है। याद कीजिए! वर्ष 1965 में लाल बहादुर शास्त्री ने सैनिको व किसान के लिए दिया अराजनैतिक नारा ‘‘जय जवान जय किसान’’ वर्ष 1967 के चुनाव में कांग्रेस को फायदा मिला। वर्ष 1971 में इंदिरा गांधी ‘‘गरीबी हटाओं’’ का नारा देकर सत्ता पर आरूढ़ हो गई थी। गरीबी हटी या नहीं, यह शोध का विषय हो सकता है, परन्तु गरीब वर्ग जरूर संख्या में बढ़ गया व क्रय क्षमता में और कम हो गया। वर्ष 1977 में ‘‘इंदिरा हटाओं देश बचाओ’’ नारा सफल रहा। वर्ष 1984 में ‘‘ना जात पर, न पात पर, मोहर लगेगी हाथ पर’’ का नारे देकर ऐतेहासिक विजय प्राप्त करने वाली कांग्रेस, समय का चक्र ऐसा चला कि वर्तमान कांग्रेस नेतृत्व आज जातिवादी गणना को जोर-शोर से चुनावी मुद्दा बना रहा है। तत्पश्चात वर्ष 1990 में मंडल और कमंडल के आमने-सामने आने से नारा दिया गया ‘‘जो हिन्दू हित की बात करेगा, वही देश पर राज करेगा’ के जवाब में ‘‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी भागीदारी। वर्ष 1996 में ‘‘अबकी बारी अटल-बिहारी’ नारा भी सफल रहा। इसी वर्ष ‘‘जांचा, परखा, खरा नेतृत्व’ नारा खरा उतरा। वर्ष 1998 ‘‘सबको परखा बार-बार, हमको परखो एक बार। ‘‘अटल-अडवानी कमल निशान, मांग रहा है हिन्दुस्तान नारे हावी रहे। वर्ष 2004 के चुनाव में "कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ" नारे ने विजय श्री दिलाई। वर्ष 2014 में ‘‘अबकी बार मोदी सरकार, अच्छे दिन आने वाले है, ‘‘हर-हर मोदी घर-घर मोदी’’ नारे सफल रहे। वर्ष 2022 के उत्तर प्रदेश के चुनाव में योगी आदित्यनाथ ने नारा दिया था ‘‘80 बनाम 20’ अब इस नारे के नये संस्करण के रूप में शायद उपरोक्त नारा दिया गया। गृहमंत्री अमित शाह के शब्दों में जहां तक बांटने की बात है, वह कांग्रेस का काम है लोगों को जातियों में बांटती है, समाज को बांटती है और काटने की बात तो सबसे ज्यादा दंगे महाविकास अघाड़ी व कांग्रेस सरकार में हुए हैं।

बाटोंगें (नोट) तो जीतोगें कोई नया नेरेटिव नहीं।

अब इस नारे में एक नया मोड़ आ गया है, जब भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव विनोद तावड़े की उपस्थिति में (व्यक्तिगत उनसे नहीं) 9 लाख से अधिक की जप्ति विरार की एक होटल से की गई, जिसकी बुकिंग भाजपा द्वारा कराई गई थी। यह आरोप लगाया गया कि 5 करोड़ रूपये उक्त होटल में बंटने के लिए तावड़े लेकर आये थे और उक्त रूपये कुछ लिफाफों के माध्यम से महिलाओं को बंट गये और शेष बचा रूपया बंटने के पहले बहुजन विकास पार्टी के विधायक हिन्तेद्र ठाकुर द्वारा पुलिस से शिकायत करने पर जप्त किये गये। साथ में कुछ डायरी की भी  की गई। इन नोटों की जप्ती के कारण अब उक्त नारा में पुनः एक मोड़ आ गया ‘‘बांटोंगे तो ‘‘जीतोंगें या हारोंगें’। ‘‘वोट जिहाद’’ ‘‘नोट जिहाद’ में बदल गया। बांटने-बटने का यह खेल इस चुनावी परिणाम को किस दिशा की ओर ले जायेगा, यह तो 23 तारीख को ही पता चल पायेगा।

चुनाव आयोग की अक्षमता।

एक बात तय है कि देश में चुनाव कराने का महत्वपूर्ण तंत्र ‘‘चुनाव आयोग’’ अपनी कार्यक्षमता व विश्वसनीयता न केवल खो चुका है, बल्कि निष्पक्षता से भी कोसो दूर है। चुनाव आयोग की निष्पक्षता व कार्यक्षमता के नाम पर आज भी टी एन शेषन को ही याद करते है। अन्यथा जो जप्ति एक पार्टी के विधायक की शिकायत पर हुई, चुनाव आयोग की मशीनरी के सर्विलांस के रहते उक्त पैसा कैसे, कब व कहां से आया चुनावी मशीनरी को मालूम ही नहीं पड़ा। यह एक अक्षमता व शोध का विषय है। इस ‘‘कैश कांड’’ ने एक बात तो सिद्ध कर दी कि यदि आप जागते रहेंगे तब न तो आपकी जेब कटेगी न ही दूसरों की जेब भरी जा सकेगी। समस्त राष्ट्रीय पार्टियां निष्पक्ष चुनाव आरोप-प्रत्यारोप करने के लिए सरकारी मशीनरियों पर ही निर्भर रहती है, स्वयं ‘‘बहुजन विकास आघाडी पार्टी’’ के समान ऐसी अनियमितताओं को रोकने के लिए जाग्रत व प्रयासरत नहीं रहती हैं। वे इस तरह की गैरकानूनी और आचार संहिता के उल्लंघन को रोकने का दायित्व सिर्फ संस्थाओं को की मानते है। शायद इसका कारण एक मात्र यह है कि ये समस्त राष्ट्रीय पार्टियां जब भी उन्हें मौका मिलता है, वे इस तरह की अवैधानिक कार्रवाइयों में संलिप्त रहती है। इसका मतलब साफ है। राजनीतिक पार्टियों अक्षरशः निम्न उक्ति का पालन करती है। ‘‘कांच के घर में रहने वाले दूसरों के घरों पर पत्थर नहीं फेंकते’’।

चुनावी परिणाम की संभावनाएं।

जहां तक परिणाम की बात है, चुनावी परिणाम का उंट किस करवट बैठेगा, यह बात बिना किसी विवाद के मान्य है कि जहां तक महाराष्ट्र का सवाल है, शरद पवार इस चुनाव के सबसे बडे़ अनुभवी और व्यापक आधार वाले नेता है, जो जोड-तोड़ की राजनीति में वर्तमान चाण्क्य अमित शाह से भी ज्यादा चाणक्य नीति में माहिर है। तभी तो वह तत्समय देश के सबसे समृद्ध राज्य महाराष्ट्र के सबसे कम उम्र के मुख्यमंत्री बन गये थे। देश की जनता कुछ अवसरों पर भावुक हो जाती है, जैसा कि हमने इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए चुनाव में एकतरफा जीत को देखा था। शरद पवार दीर्घायु हो, शतायु हो। परंतु उनका राजनैतिक जीवन का यह अंतिम पड़ाव है। जहां भावुक जनता शरद परिवार के नेतृत्व में ‘‘अघाड़ी’’ की सरकार बनाकर सम्मानपूर्वक बिदाई देने की संभावना की ओर दिखती है,  परिणाम स्वरूप शायद सुप्रिया सुले या उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री बन सकते है।

शनिवार, 16 नवंबर 2024

(माननीय) ‘‘जज’’ को ‘‘जज’’ करने की ‘‘दुखद’’ स्थिति क्यों बन रही है?

मुख्य न्यायाधीश की सेवानिवृत्ति के पूर्व विवाद! अप्रिय स्थिति!क्यों?

भारत के 50 वें मुख्य न्यायाधीश माननीय डॉ. धनजय यशवंत चंद्रचूड़ का जैसे-जैसे सेवानिवृति का समय (10 नवम्बर) नजदीक आ रहा है, दिन-प्रतिदिन उनके बयानों, कथनों, कार्यो और निर्णयों से खुलासे पर खुलासे व परद-दार-परत जो स्थिति सामने आ रही है, उससे भारत के न्यायिक क्षेत्र से जुड़े समस्त व्यक्ति ही नहीं, बल्कि हर कोई एक सामान्य पढ़े-लिखे व्यक्ति द्वारा भी माननीय को ‘‘जज’’ करने की स्थिति बन रही है। मतलब जहां न्यायालय आरोपियों को ‘‘कटघरे’’ में खड़ा करता है, वहां माननीय न्यायाधीश स्वयं ‘‘जनता की अदालत’’ के कटघरे में आते/लाते दिख रहे हैं। प्रश्न यह है कि देश के इतिहास में शायद ऐसी स्थिति पहली बार बन रही है। ऐसा क्यों? वे ऐसे पहले व एकमात्र मुख्य न्यायाधीश है, जिनके पिताश्री वाय.वी. चंद्रचूड़ भी सर्वोच्च न्यायालय के स्वतंत्र भारत के इतिहास में सर्वाधिक अवधि लगभग 7.5 वर्ष के लिए मुख्य न्यायाधीश रह चुके हैं l डी वाई चंद्रचूड़ ने वर्ष 2018 में न्यायाधीश रहते अपने पिताजी के 41 वर्ष पूर्व के ‘‘निजता के अधिकार’’ (वर्ष 1976 एडीएम जबलपुर बनाम शिवाकांत शुक्ला) के निर्णय के विपरीत जाकर अनुच्छेद 21 के अंतर्गत उसे ‘‘मौलिक अधिकार’’ घोषित कर तथा दूसरा मामला भी वर्ष 2018 में ही व्यभिचार की धारा 497 के वर्ष 1985 के सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के विपरीत 158 वर्ष पुरानी धारा 497 को रद्द कर, अपनी निष्पक्षता, निर्भीकता व साहस का भी परिचय दिया है।

कुछ महत्वपूर्ण निर्णय।   

याद कीजिए! जब माननीय डी.वाई. चंद्रचूड़ ने मुख्य न्यायाधीश पद की शपथ ली। तब देश के न्यायिक प्रशासन व क्षेत्र में कई सुधारों की आशा उनके पूर्व के कई न्यायिक निर्णयों, कार्यो व बार-बेंच के प्रति व्यवहार से बनी थी। कुछ महत्वपूर्ण निर्णयों ‘‘विवाह का अधिकार’’, ‘‘अविवाहित महिलाओं का गर्भपात का अधिकार’’, ‘‘समलैंगिता अपराध नहीं’’, ‘‘टू फिंगर टेस्ट पर प्रतिबंध’’, सीएए, एनआरसी, बुलडोजर न्याय, सबरीमाला, भीमा कोरेगांव मामले इत्यादि से उक्त ‘‘परसेप्शन’’ बना। तथापि कुछ निर्णय ऐसे भी आये, जहां वे सरकार को बचाते हुए भी दिखे। वे तीन प्रमुख निर्णय चंडीगढ़ महापौर का चुनाव, (जहां चुनाव अधिकारी के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई) महाराष्ट्र की शिंदे सरकार को अवैध घोषित करने का निर्णय और चुनावी बांड को अवैध घोषित कर अवैध धन राशि के विरूद्ध कोई कार्रवाई न करने के निर्णयों के साथ कुछ हद तक संविधान की अनुच्छेद 370 (2) एवं (3) का खात्मा ऐसे मामले हैं, जिनके अंतिम परिणाम ठीक उसी तरह के हैं, जिस प्रकार किसी भवन निर्माण को सक्षम अथॉरिटी द्वारा समग्र जांच के बाद अवैध निर्माण और अतिक्रमित घोषित किया जाता है, परंतु परिणाम स्वरूप न तो उसे तोड़ा जाता है और न ही सरकार जनहित में अधिग्रहण करती है। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के संबंध में आज ही आया निर्णय को भी इसी श्रेणी में रखा जा सकता है। जहां एक तरफ 1967 के उच्चतम न्यायालय के अजीज बाशा के फैसले को पलट दिया। परन्तु वहीं दूसरी तरफ मुख्य मिथ्य वस्तु ‘‘अल्पसंख्यक दर्जे’’ पर निर्णय न देकर तीन सदस्यीय पीठ पर बाद में निर्णय लेने के लिए छोड़ दिया। जस्टिस लोया की मृत्यु की जांच का मामला भी कुछ ऐसा ही है।

स्थापित आचार संहिता का उल्लंघन?

याद कीजिए! जब भगवान श्री गणेश उत्सव की पारिवारिक पूजा में निमंत्रण पर देश के लोकप्रिय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी उनके घर गये। वहां परिवार के साथ भगवान श्री गणेश की पूजा करते हुए एक वीडियो प्रधानमंत्री के सोशल मीडिया ‘‘एक्स’’ पर हिंदी एवं मराठी भाषा में जारी करने के बाद से ‘‘माननीय’’ मुख्य न्यायाधीश लगातार विवाद के शिकार होते गये। वैसे प्रधानमंत्री द्वारा एक व्यक्तिगत निमंत्रित धार्मिक कार्यक्रम का वीडियो सार्वजनिक करना, बिलकुल गलत था। यदि यह सार्वजनिक नहीं होता तो ‘‘जंगल में मोर नाचा किसने देखा’’, और तब अनावश्यक विवाद पैदा ही नहीं होता। जब मुख्य न्यायाधीश एक प्रश्न के जवाब में यह कहते हैं कि प्रधानमंत्री की मेरे घर की यात्रा पूर्णतः नितांत निजी आयोजन था, तब फिर इसे ‘‘सार्वजनिक’’ करने के लिए क्या मुख्य न्यायाधीश की सहमति ली गई? तथापि बाद में भी अवसर मिलने के बावजूद भी मुख्य न्यायाधीश ने उक्त वीडियो जारी करने पर कोई आपत्ति नहीं की। तब फिर वह ‘‘शुद्ध निजी आयोजन’’ कैसे हो सकता है? जब वह सोशल प्लेटफार्म ‘‘एक्स’’ के माध्यम से ‘‘विश्वव्यापी’’ हो गया। एक के बाद एक बयान जैसे भगवान श्री राम जन्मभूमि विवाद मामले में उनके बयान ने आलोचना के क्षेत्र को और ‘‘विस्तार’’ दे दिया। यद्यपि इस संबंध में उन्होंने एक प्रश्न के संबंध में स्पष्ट किया कि ‘‘मैं एक आस्थावान व्यक्ति हूं; यह मेरा जीवन मंत्र है’’। इंडियन एक्सप्रेस की ‘‘अड्डा कांफ्रेस’’ में प्रधानमंत्री के साथ गणेश पूजा के संबंध में पूछे गये प्रश्न के उत्तर में देश ‘‘हैरान’’ हो जाता है, जब बकौल माननीय मुख्य न्यायाधीश, “मामले की सच्चाई यह है, जैसा कि मैंने कहा, सौदे इस तरह (ऐसी बातचीत के दौरान) कभी नहीं काटे जाते हैं। तो कृपया, हम पर भरोसा करें, हम सौदे में कटौती करने के लिए नहीं हैं’’। राजनीति में परिपक्वता होनी चाहिए। जजों पर संदेह करना व्यवस्था को बदनाम करना है। माननीय न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ के उक्त कथन का एक मतलब देश के नेताओं के साथ न्यायाधीशों का सौदा होता है, यह बात सिद्धांत, स्वीकार करते हुए ‘‘तरीका दूसरा’’ हो सकता है, एक अर्थ यह भी निकलता है। इसी कॉन्फ्रेंस में उन्होंने कहा कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता का मतलब हमेशा सरकार के खिलाफ फैसले देना नहीं है। जमानत के मुद्दे पर उन्होंने ‘‘ए टू जेड’’ (अर्नव टू जूबेर) तक को जमानत देने का हवाला दिया। परन्तु यहाँ  ‘‘एस’’ शरजील इमाम व ‘यू’ उमर खालिद का समावेश शायद संभव नहीं था।

माननीय मुख्य न्यायाधीश की निष्पक्षता के परसेप्शन पर दरार।

वास्तव में न्यायपालिका के संबंध में एक स्वीकृत विश्वव्यापी सिद्धांत यह है कि ‘‘न्याय सिर्फ मिलना ही नहीं चाहिए, बल्कि न्याय मिलते हुए दिखना भी चाहिए’’। यह तभी संभव है, जब न्यायाधीश कार्यावधि के दौरान कार्यपालन के संबंध में आचार संहिता का पूर्णतः पालन करे। निश्चित रूप से मुख्य न्यायाधीश के साथ प्रधानमंत्री की ‘‘गणेश पूजा’’ बकौल वकील प्रशांत भूषण ने हैरानी जाहिर करते हुए इसे आचार संहिता का उल्लंघन बतलाया। न्यायपालिका-कार्यपालिका के बीच एक सीमा तक दूरी बरतनी चाहिए। दूसरे, इससे न्याय के उक्त परसेप्शन पर कहीं न कहीं धक्का पहुंचा है। क्योंकि अधिकतर मामलों में केंद्र सरकार जिसके मुखिया प्रधानमंत्री होते है, एक पक्षकार होती है। यदि मुख्य न्यायाधीश अपने सहकर्मी एक-दो जजों या राजनेताओं को अपने साथ उक्त निजी आयोजन में रख लेते तो, ‘‘एकल भेट’’ होने से बनी उक्त शंका निश्चित रूप से नहीं उठती। आज के युग में ‘‘एक्शन’’ से ज्यादा ‘‘परसेप्शन’’ का महत्व होता है। न्यायाधीश निष्पक्ष हैं, कहीं न कहीं एक्शन के साथ इस परसेप्शन पर उक्त कृत्य से कुछ चोट पहुंची है।

साथी जज द्वारा आलोचना।

अभी हाल में ही निजी संपत्ति के संबंध में आये निर्णय जिसमें 46 वर्ष पुराने 1978 के निर्णय को उलट करने वाले निर्णय में आंशिक रूप से सहमत होने वाले जस्टिस बी.वी. नागरत्ना एवं सुधांशु धूलिया ने इस बात की आलोचना की है कि, उन्होंने 1978 के निर्णय देने वाले जस्टिस कृष्णा अय्यर पर अनावश्यक टिप्पणी की। देश के इतिहास में ऐसा पहली बार ऐसा हुआ था, जब जनवरी 2018 में चार वरिष्ठ जजों जे चेलमेश्वर, रंजन गोगोई, मदन भीमराव लोकुर और कुरियन जोसेफ ने (जिनमें से बाद में रंजन गोगोई मुख्य न्यायाधीश बने) मुख्य न्यायाधीश से कुछ अनियमितताओं पर बात करने के बाद संयुक्त पत्र लिखने के बाद कोई आशाजनक परिणाम न आने पर ‘‘लोकतंत्र को बचाने के नाम’’ पर बाकायदा प्रेस कांफ्रेंस कर मुख्य न्यायाधीश के कार्य पद्धति की आलोचना की थी। वर्तमान समय में जब देश की अनेक संवैधानिक संस्थाओं की स्वतंत्रता व संप्रभुता तथा संवैधानिक मूल्यों पर आंच आ रही हो, जैसे चुनाव आयोग, नियंत्रक और महालेखा कार, तब इन आंचों पर रोक लगाने वाला तंत्र उच्चतम न्यायालय ही इस आंच से झुलसने लग जाये, तो इस देश की संवैधानिक व्यवस्थाओं का क्या होगा? यह एक बड़ा प्रश्न है? जिस पर इस क्षेत्र से जुड़े समस्त बुद्धिजीवियों को गहनता से विचार करना होगा।

इतिहास कैसे याद रखेगा? माननीय मुख्य न्यायाधीश की चिंता।

माननीय मुख्य न्यायाधीश की यह चिंता जायज है कि इतिहास उन्हें कैसे याद रखेगा? क्योंकि व्यक्ति जब अपने कार्यों का सिंहावलोकन करता है, तब उसका अपने किये गए कार्यों के गुण-दोषों पर ध्यान जाता है। इस बात को ध्यान में रखते हुए माननीय चंद्रचूड़ के कुछ प्रशासनिक निणयों पर भी ध्यान डालिये! ब्रिटिश इंडिया जमाने की ‘‘न्याय की देवी की मूर्ति’’ में बदलाव, ‘‘संग्रहालय’’ के निर्माण का निर्णय (जिसके बहिष्कार करने का निर्णय उच्चतम न्यायालय बार संघ ने लिया) ग्रीष्मावकाश का नाम बदलकर ‘‘आंशिक न्यायालय का कार्य दिवस’’ व ‘‘अवकाश जज’’ को ‘‘जज’’, जजों के बैठने की ‘‘कुर्सी’’ बदली, ऐसे ही कुछ निर्णयों के द्वारा शायद ‘‘माननीय’’ स्वयं को इतिहास में दर्ज कराना चाहते हैं, जिसका मूल्यांकन भविष्य ही करेगा। कोर्ट पास, ‘‘ई-फाइलिंग’’ में सुधार, ‘‘लाइवस्ट्रीमिंग’’, डिजीटलीकरण, ‘‘पेपर लेस सबमिशन’’, ‘‘ए आई’’का प्रयोग जैसे कुछ तकनीकि सुधार की ओर कदम बढ़ाया। वरिष्ठ वकील एवं सर्वोच्च न्यायालय बार संघ के पूर्व अध्यक्ष दुष्यंत दवे की ‘नजर’ में तो मुख्य न्यायाधीश की विरासत को ‘‘नजर अंदाज’’ करना ही उचित है।

आज अंतिम कार्य दिवस पर भी 45 केस सुने। इस अवसर पर आने वाले सुनहरे भविष्य के लिए माननीय को शुभकामनाएं।

शुक्रवार, 8 नवंबर 2024

'‘दिया तले अंधेरा’’

दिये को प्रज्वलित करने का विश्व रिकॉर्ड। 

‘‘दिया तले अंधेरा’’ का सबसे नवीनतम उदाहरण अयोध्या में ‘‘दीप प्रज्वलित’’ का है। सबसे बड़ा हिन्दू त्यौहार ‘‘दीपावली’’ के शुभ अवसर पर लगभग 500 साल बाद ‘‘अयोध्या’’ के नवनिर्मित भव्य श्रीराम मंदिर परिसर में सरयू नदी के 55 घाटों में 25 लाख 12585 ‘‘दिये’’ (दीपक) प्रज्वलित कर नया ग्रीनिज विश्व रिकॉर्ड बनाया गया। साथ ही एक साथ 1121 अर्चकों के सरयू आरती का भी नया रिकॉर्ड बना है। इसके लिए हिन्दू समाज मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को बधाई प्रेषित कर रहा है। वैसे भी विश्व रिकॉर्ड बनाए जाने पर बधाई तो प्रेषित की ही जानी चाहिए। एक रिपोर्ट के अनुसार यह रिकॉर्ड बनाए जाने के लिए लगभग 91 हजार लीटर सरसों का तेल खर्च हुआ है। कुल खर्च का रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं हो पा रहा है। उत्तर प्रदेश की योगी सरकार की ओर से वर्ष 2017 से प्रारंभ किए गए दीपोत्सव में लगातार वर्ष प्रतिवर्ष नये-नये रिकॉर्ड बनते रहे हैं। वर्ष 2017 में एक साथ 1.71 लाख दीपों का प्रज्वलन हुआ था। वर्ष 2018 में 3.01 लाख दीये, 2019 में 4.04 लाख दीये, 2020 के चौथे दीपोत्सव में 6.06 लाख दीप प्रज्वलित किए गए थे। इसके उपरांत 2021 में 9.41 लाख दीये, 2022 में कुल 15.76 लाख दीये और 2023 के सातवें दीपोत्सव में 22.23 लाख दीयों के प्रज्वलन का रिकॉर्ड बना था।

कितना आवश्यक?

वर्तमान के रिकॉर्ड के साथ एक वीडियो भी वायरल हुआ है, जिसमें स्वास्थ्य कर्मचारी ‘दिये’ में बचे तेल को नदी में छोड़ रहे हैं। इसका महत्वपूर्ण कारण शायद यह रहा है कि पिछले वर्ष भी जब ऐसा ही विश्व रिकार्ड बनाया गया था, तब वहां के गरीब निवासियों केे ‘‘दिये के बचे तेल से’’ तेल इकट्ठे करने का वीडियो वायरल होने से सरकार को कहीं न कहीं शर्मिदगी उठानी पड़ी थी। बावजूद इसके इस वर्ष भी तेल इकट्ठा करने का वीडियो वायरल हुआ है। एक प्रश्न जरूर यहां उठता है कि क्या हमारा देश या कोई राज्य इस तरह के विश्व कीर्तिमान को बनाने के लिए हुए सरकारी या गैर सरकारी खर्च को वहन करने की क्षमता अथवा प्राथमिकता रखता वर्तमान में है? वह देश जिसके लोकप्रिय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का यह सपना हो कि हवाई चप्पल पहनने वाला व्यक्ति हवाई जहाज का सफर कर सके। वहां ऐसे व्यक्ति की जिंदगी की गाड़ी चलने में ही ‘‘तेल’’ निकला जा रहा है, ऐसी स्थिति में दिये की जगमगाती रोशनी से बने दिव्य नजारे के विश्व रिकॉर्ड के नीचे निर्धन जनता का दिए के बचे तेल को इकट्ठा करना रोशनी के ठीक नीचे अंधेरा नहीं तो क्या है? क्या इस स्थिति से कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न हमारे दिलों दिमाग में नहीं उठते हैं? वे क्या हो सकते हैं व समाधान क्या होने चाहिए? इसकी कुछ चर्चा आगे करते हैं।

धार्मिक आस्था के सार्वजनिक प्रदर्शन में आर्थिक व्यय पर अंकुश आवश्यक।

निश्चित रूप से हिन्दू समाज में धार्मिक आस्थाओं के उत्सव कुछ-कुछ अंतरालों से लगभग साल भर होते रहते हैं। ये हमारी धार्मिक आस्था के ‘‘प्रतीक’’ और ‘‘प्रदर्शन’’ भी है। इनमें भावनाओं का ‘‘अभिभूत दर्शन’’ कितना है, यह अलहदा बात है। प्रश्न यह है कि क्या इन आस्थाओं के सार्वजनिक प्रदर्शन की ‘‘वैभवता’’, ‘‘साधारणपन’’व ‘‘प्रतीकात्मकता’’ के बीच कोई ‘‘संतुलन’’ स्थापित किया जा सकता है, अथवा नहीं? इस ‘‘संतुलन’’ की आवश्यकता का एकमात्र कारण ‘‘आर्थिक धन के अपव्यय’’ को आर्थिक स्थिति के मद्देनजर रोकना है। एक वर्ग या कुछ लोग जरूर यह कह सकते है कि ‘‘आर्थिक अपव्यय’’ की ‘‘फिजूल बात’’ सिर्फ धार्मिक आस्थाओं के कार्यक्रम के संबंध में ही क्यों की जा रही है? क्या जनजीवन के अन्य क्षेत्रों में आर्थिक अपव्यय नहीं होता है? तर्क अपने आप में सही है, लेकिन पूर्ण नहीं है। ‘‘आर्थिक अपव्यय’’ का आधार सिर्फ धार्मिक प्रदर्शनों के लिए नहीं, बल्कि जीवन के समस्त क्षेत्रों के सार्वजनिक प्रदर्शन के साथ व्यक्तिगत कार्यक्रमों पर भी लागू होना चाहिए। और यदि वास्तव में यह ‘‘संतुलन की लक्ष्मण रेखा खींचकर’’ धरातल पर उसे उतार दिया जाये, तो यह आपका देश के प्रति ही नहीं, बल्कि स्वयं के प्रति भी एक बड़ा उपकार होगा।

अपव्ययो को कम कर गरीबी के स्तर को सुधारने की ज्यादा जरूरत है।

जब हम तेल दिए से नागरिकों द्वारा के बचे हुए तेल को एक घरेलू उपयोग के लिए इकट्ठा करते हुए देखते है, तब क्या हमारा मन तत्समय एक क्षण के लिए धार्मिक आस्था से हटकर नागरिक जीवन की उसे भयावत स्थिति पर द्रवित नहीं हो जाता है? यदि नहीं! तो हम मानवीय धर्म नहीं निभा रहे हैं और यदि हां तो हमे धार्मिक आस्था के खुले वैभव के प्रदर्शन पर अंकुश लगाकर एक प्रतीकात्मक लेकिन दृढ़ धार्मिक भावना का प्रदर्शन करना होगा। निश्चित रूप से हमारा यह कदम अप्रत्यक्षतः उस गरीब नागरिक के जीवन स्तर को ऊंचा उठाने की पूर्ति में अपनी जेब से खुद कुछ दिये बिना भी सहायक होगा। ‘‘रोटी कपड़ा और मकान’’ इस देश के नागरिकों की प्रथम मूलभूत जरूरतें हैं। धार्मिक आस्था के उक्त भावपूर्ण प्रदर्शन को उक्त जरूरतांे के बीच किस प्रकार से स्थान दिया जा सकता है, इस पर  गंभीरता से सोचने की आवश्यकता है। 

एकमात्र फायदा। 

वैसे एक तर्क जरूर दीपक जलाने के पक्ष में है। वह इससे आसपास के वातावरण में मौजूद बैक्टीरिया वायरस नष्ट होकर वातावरण शुद्ध होता है। परन्तु उक्त दीपोत्सव का यदि यही कारण है, तब दिल्ली में इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है, जिसका एयर क्वालिटी 370 होकर जो विश्व का ‘‘सबसे बड़ा प्रदुषित शहर’’ लाहौर के एयर क्वालिटी इंडेक्स 394 से दूसरे नंबर पर है।

अपव्यय का प्रदर्शन और अंकुश पर एक कानून की आवश्यकता है। 

जरा अंबानी घराने की शादी को याद कीजिए! वैभवता का फूहड़ प्रदर्शन जिसे व्याभिचारी प्रदर्शन ही कहा जायेगा, प्रदर्शित हुआ। क्या इस आधार पर इसे उचित ठहराया जा सकता है कि यह उनका एक संवैधानिक नागरिक अधिकार है, जो अपनी आय की जेब से पैसे खर्च कर रहे है? मेरी अपनी मर्जी। बिल्कुल नहीं। यह तो गलत ही है। हमारे देश में शादी ब्याह व सार्वजनिक कार्यक्रमों के लिए आमंत्रितों की संख्या व भोज के लिए खाद्य आइटम्स की एक अधिकतम संख्या की एक निश्चित सीमा तय करने के लिए संसद में अभी तक 10 बार निजी विधेयक प्रस्तुत किए जा चुके हैं परंतु, वे आज तक कानून नहीं बन पाये। वैसे भी कानून का पालन होता कहां है इस देश में? या कितना होता है? ‘‘थूकना अपराध है’’। इसके उल्लंघन पर क्या कभी आपने कोई फाईन होते आज तक देखा है?

पूर्णतः सरकारी स्तर पर धार्मिक कार्यक्रमों का आयोजन! कितना औचित्यपूर्ण?

एक प्रश्न यहां पर यह भी उठता है कि उक्त पूरा कार्यक्रम सरकारी स्तर पर उत्तर प्रदेश सरकार ने जो संपन्न किया, वह कितना उचित है? सरकार का दायित्व किसी धार्मिक कार्यक्रम के क्रियान्वयन पर आवश्यक प्रशासनिक प्रबंध करना होता है न कि उस कार्यक्रम को बनाने से लेकर धरातल पर उतारने तक आवश्यक धन मुहैया करने का दायित्व होता है। इस पर प्रश्न उठाना राजनीति नहीं है। न ही इस पर किसी को राजनीति करना चाहिए। यदि कोई इस पर राजनीति करता है, तो निश्चित रूप से उसकी धार्मिक आस्था पर भी प्रश्न उठेगा ही। इसलिए इस मुद्दे को सिर्फ आर्थिक दृष्टिकोण से ही देखना चाहिए। 

अंत में ‘‘20 साल बाद फिल्म’’ का प्रसिद्ध गाने की प्रथम लाइन याद आ रही हैः- कहीं दीप जले कहीं...........?

शनिवार, 26 अक्टूबर 2024

यूपी सरकार का बहराइच हत्याकांड का मुख्य अपराधी का अवैध निर्माण तोड़ने का कानूनी नोटिस।

उच्चतम न्यायालय के निर्देशों की भावनाओं के विरुद्ध?

उच्चतम न्यायालय के अतिक्रमण हटाने पर रोक के निर्णय का सार। 

बहराइच, महसी तहसील के महाराजगंज कस्बे में दुर्गा मूर्ति विसर्जन के दौरान एक युवा रामगोपाल मिश्रा की नृशंस हत्या के चारों नामजद आरोपी मुख्य आरोपी अब्दुल हमीद व उसके तीन लड़के गिरफ्तार कर लिये गये। उक्त जघन्य हत्या से भड़की हिंसा के मामले में दर्ज कुल 13 मुकदमों में पांच नामजद व्यक्तियों के साथ 1000 से अधिक अज्ञात व्यक्तियों के विरुद्ध प्राथमिकी दर्ज कर अभी तक गिरफ्तार 112 आरोपियों में से 23 आरोपियों के विरुद्ध शासकीय संपत्ति पर अतिक्रमण कर निर्मित अवैध भवन निर्माण को ध्वस्त करने का उत्तर प्रदेश सरकार के लोग निर्माण विभाग ने 3 दिन का कानूनन नोटिस उनके घरों पर चस्पा कर अतिक्रमण हटाने को कहा है। अभी-अभी उच्चतम न्यायालय ने भी रोक लगा दी है। इस पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने आगे की कार्रवाई पर 15 दिन की रोक लगा दी है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि उक्त नोटिस सुप्रीम कोर्ट के उस निर्देश के बाद आये हैं, जहां पर माननीय उच्चतम न्यायालय ने पूरे देश में अतिक्रमण की कार्रवाई के विरुद्ध अगले आदेश तक रोक लगा दी थी। तथापि न्यायालय ने असी आदेश में सार्वजनिक स्थानों पर अतिक्रमण हटाने की कार्रवाई पर कोई रोक न लगा कर छूट दी है। अतिक्रमण हटाने के संबंध में एक अखिल भारतीय गाइडलाइन जारी करने की बात भी न्यायालय ने कही है। जस्टिस न्यायाधिपति ने यह स्पष्ट किया कि विध्वंस (अतिक्रमण हटाना) केवल इसलिए नहीं किया जा सकता कि कोई आरोपी या दोषी है। सार में सुप्रीम कोर्ट ने उक्त आदेश में मुख्य रूप से उन कार्रवाइयों पर रोक लगाई है, जहां एक व्यक्ति के किसी अपराध में गिरफ्तार होने पर उसके विरुद्ध तुरंत या कुछ दिनों के अंदर अपराधी होने के कारण फौजदारी कार्रवाई के साथ अतिक्रमण की कार्रवाई की कानूनी खाना पूर्ति कर बुलडोजर (जिसे किसी ने समाज सुधारक राष्ट्रीय यंत्र की संज्ञा तक दे डाली)  चलाकर तथाकथित अचल संपत्ति बुलडोज कर दी जाती थी। प्रश्न यहां यह उत्पन्न होता है कि उत्तर प्रदेश सरकार की अतिक्रमण हटाने की उक्त कार्रवाई क्या उच्चतम न्यायालय के आदेश व उसमें निहित भावना के अनुरूप है?

रोड पर निर्मित अवैध निर्माण को हटाने वाले की कार्रवाई न्यायोचित है। 

यहां पर अतिक्रमण हटाने की दो तरह की कार्रवाई की गई है। एक तो सड़क चौड़ीकरण के लिए रोड पर जो अतिक्रमण है, उन्हें हटाने के लिए नोटिस जारी किए गए हैं, वहीं दूसरी ओर मुख्य आरोपी के घर का निर्माण अवैध व अतिक्रमित होने के कारण तोड़ने की कार्रवाई का नोटिस जारी किया गया है। रोड चौड़ी करने के लिए अतिक्रमण हटाने की करवाई पहले से ही प्रारंभ थी, घर चिन्हित कर दिए गए थे। इसलिए वह कार्रवाई कानूनन् उचित है और उच्चतम न्यायालय द्वारा लगाएगी रोक की सीमा में नहीं आती है। तथापि एक प्रश्न यहां फिर उठता है कि सिर्फ 23 लोगों को ही नोटिस क्यों दिया गए हैं, जबकि रोड पर इससे कहीं ज्यादा संख्या में अतिक्रमणकर्ता है। यहां पर हम मुख्य आरोपी के अवैध निर्माण और अतिक्रमण को तोड़ने की कार्रवाई की विवेचना कर रहे हैं। सरकार यह कह सकती है कि उसने उच्चतम न्यायालय के आदेशों के अनुरूप बाकायदा अतिक्रमणकत्ताओं के विरुद्ध कानूनन् नोटिस जारी कर उन्हें एक अवसर प्रदान किया गया है और तत्पश्चात ही जवाब पर विचार कर कानून के अनुसार कार्रवाई की जावेगी। प्रथम दृष्टिया यह बात सही लगती है। इसमें कुछ भी गलत नहीं दिखता है। परंतु क्या वास्तव में ऐसा ही है? इसका उत्तर ‘‘नहीं में’’ मिलेगा। इसे आप आप निम्न विवेचना से समझ जाएंगे। 

यूपी सरकार नॉरेटिव व ‘‘परसेप्शन’’ बनाने के लिए ‘‘एक्शन’’ ले रही है? 

सामान्यतया नोटिस संबंधित व्यक्ति को व्यक्तिगत रूप से दिया जाता है। ‘‘चस्पा’’ द्वारा तभी तामिल किया जाता है, जब वह व्यक्ति नोटिस लेने से इनकार करें या अन्य किसी कारण से तामिल न हो सके। जो व्यक्ति जेल में बंद है, उसका घर लूटा जा चुका है, घर में कोई है नहीं। तब उस व्यक्ति को नोटिस की जानकारी कैसे होगी? और यदि किसी तरह से जानकारी हो भी जाए तब भी, वह समयावधि में सक्षम अधिकारी के समक्ष साक्ष्य कैसे पेश कर पाएगा? यह उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रतिपादित ‘‘प्राकृतिक न्याय’’ के सिद्धांत के बिल्कुल प्रतिकूल है। शायद इसीलिए न्यायालय ने इसके क्रियान्वन पर रोक लगा दी है। यदि यह मान भी लिया जाए कि आरोपी की अचल संपत्ति अतिक्रमण व अवैध निर्माण की सीमा में आती है। तब भी यहां एक बड़ा प्रश्न यह है कि क्या इन आरोपियों के विरुद्ध अतिक्रमण की कार्यवाही पहले से ही चल रही थी या आरोपी बनने के बाद कार्रवाई प्रारंभ की गई? इसका ‘‘उत्तर’’ उत्तर प्रदेश सरकार ही दे सकती है। या यह हमेशा संयोग ही रहता है कि अतिक्रमणताओं के विरुद्ध कार्रवाई का निष्पादन तभी हो पाता है, जब वह किसी ‘‘अपराध में आरोपी’’ बन जाता हैं। वास्तव में उच्चतम न्यायालय यदि इस तरह की अतिक्रमण की कार्रवाइयों पर रोक लगाकर सरकार के ‘‘अपराध करने पर सजा के साथ संपत्ति से भी हाथ धोना पड़ेगा’’’, उक्त परसेप्शन व नरेशन को बनने नहीं देना चाहता है, तब न्यायालय को एक काम करना होगा कि वह यह निर्देश जारी करें कि कोई भी व्यक्ति जब आरोपी बनता है, तब उसके विरुद्ध अतिक्रमण हटाने की कार्रवाई न्यूनतम 6 महीने या 1 साल तक प्रारंभ न की जावे। मतलब अपराध घटित होने और अतिक्रमण की कार्रवाई होने के बीच कोई सीधा नेक्सस नहीं है, यह लक्ष्मण रेखा खींचनी ही होगी। कारण स्पष्ट है। यह संभव नहीं है कि अतिक्रमण या अवैध निर्माण अपराध घटित होने के 1 या कुछ दिन दिन पूर्व ही हो जाए? (अपवाद हर जगह हो सकते हैं) इन अधिकतर प्रकरणों में अतिक्रमण महीनों, सालों पुराने हुए रहते हैं। परंतु उन पर कोई कार्रवाई की सुध तक किसी को नहीं होती है। स्थानीय स्व शासन या शासन का ध्यान ऐसे किसी अतिक्रमण/अवैध निर्माण पर तभी जाता है, जब उसका मालिक, हितकर्ता किसी अपराध की घटना में संलग्न पाया जाता है। वह भी तब जब अपराध चर्चित होकर राज्य की कानून व्यवस्था पर एक प्रश्न वाचक चिन्ह लग जाता है। तब उस पर से ध्यान हटाने के लिए इस तरह की अतिक्रमण/अवैध निर्माण हटाने की कार्रवाई की जाती है। उच्चतम न्यायालय को इस ‘‘प्रवृत्ति’’ पर प्रभावी रोक लगाने की आवश्यकता है। अन्यथा सरकार स्वयं संबंधित कानून में तदनुसार आवश्यक संशोधन कर अपनी कारवाई को कानूनी जामा पहना दे। ‘'न रहेगा बाँस न बजेगी बांसुरी’’ मतलब सरकार की ऐसी कार्रवाई पर किसी को भी कोई उंगली उठाने का अवसर नहीं रह पायेगा।

मंगलवार, 22 अक्टूबर 2024

राज्यों का विभाजन? क्या ‘‘अखंड भारत’’ की परिकल्पना के विरुद्ध नहीं?

‘‘राज्यों का विभाजन’’ क्या 562 देशी रियासतों के एकीकरण की भावना से मेल खाता है?

एक सक्षम एवं सेवा से समय पूर्व सेवानिवृत्ति  लिए कमिशनर रहे दृढ़ता से अपनी बात स्पष्ट रखने वाले (एवं सुनने वाले) मध्य प्रदेश केड़र के आईएएस अधिकारी द्वारा मध्य प्रदेश राज्य को 4-5 भाग में बांटने के सुझाव के प्रत्युत्तर में आये सुझावों व चर्चा के परिपेक्ष में यह लेख लिखा गया है।

राज्यों के निर्माण का इतिहास। ‘‘विभाजन’’ शब्द ही शायद अपने आप में खतरे की घंटी है, जिसकी वीभत्स, डंक देश के विभाजन के समय लोगों ने भुक्ता है। "विभाजन" अखंडता, एकता, सार्वभौमिकता, सौहार्दपूर्ण वातावरण के विरूद्ध है। 15 अगस्त 1947 को जब भारत देश स्वतंत्र हुआ, तब कुल 17 राज्य व 1 केंद्र शासित प्रदेश अंडमान निकोबार था। वर्ष 1953 में भाषायी आधार पर राज्यों का पुनर्गठन करने के लिए ‘‘राज्य पुनर्गठन आयोग’’ की स्थापना न्यायाधीश फजल अली की अध्यक्षता में की गई। तब उनकी सिफारिश पर 14 राज्य व 6 केंद्र शासित प्रदेश बनाए गए। परन्तु इसके बाद भी राजनीतिक  स्वार्थों व उद्देश्यों की पूर्ति हेतु नए राज्यों की मांग स्वीकार की गई, फिर चाहे सरकार कोई भी रही हो। जम्मू-कश्मीर राज्य का दर्जा घटाकर ‘केन्द्र शासित प्रदेश’ कर देने से कुल 28 प्रदेश और 8 केंद्र शासित प्रदेश देश में हो गए हैं। बावजूद इसके आये दिन देश के विभिन्न अंचलों से राज्यों के विभाजन की मांग की जाकर नए राज्यों की मांग की जा रही है। 

विभाजन का कोई ‘‘एक’’ आधार नहीं?  

प्रश्न यह है, क्या राज्यों का आकार, क्षेत्रफल, जनसंख्या, भाषा, जाति, संस्कृति व प्रशासनिक सहूलियत और आर्थिक संरचना व आय को लेकर क्या कोई एक सर्वमान्य सूत्र (फॉर्मूला), मानक तय किया गया है, जिसके आधार पर नए राज्यों की मांग पर विचार किया जा सके? अभी तक ऐसा कोई भी एक व्यापक सिद्धांत या सूत्र तय करना तो दूर उसे पर सोचा भी नहीं गया है। (1953 के भाषायी आधार को छोड़कर) तब प्रश्न फिर यह उत्पन्न होता है कि नए राज्य के निर्माण में राजनीतिक सोच व दबाव से हटकर वे कौन से कारक, तत्व होने चाहिए, जो नये राज्य के निर्माण की मांग को उचित ठहरा सकते हैं। मेरे मत में इस पर देशव्यापी बहस की जाने की आवश्यकता है और किसी न किसी सर्वमान्य नहीं तो एक अधिकतम मान्य निष्कर्ष पर पहुंचा जाना चाहिए। अन्यथा वर्तमान में इस देश के ‘‘राजनीतिक स्वार्थ’’ देश के हितों से इतने ज्यादा बलशाही हो गए हैं कि शायद एक दिन ऐसा न आ जाए कि जब प्रत्येक "जिला" अपने को "प्रदेश" ही न समझने लग जाए या उसकी मांग न करने लग जाए? 


‘‘भारत संघ का गठन’’ ‘संघटन’

भारत देश का कुल क्षेत्रफल 3287263 वर्ग किलोमीटर है। जिसमें से 120849 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र चीन व पाकिस्तान के अवैध कब्जे में है। वर्तमान में कुल जनसंख्या लगभग 143 करोड़ से ज्यादा है। स्वतंत्रता के समय कुल जनसंख्या लगभग 34 करोड़ थी। जनसंख्या की दृष्टि से सबसे बड़ा राज्य उत्तर प्रदेश था और क्षेत्रफल की दृष्टि से सबसे बड़ा राज्य मध्य प्रदेश था। अविभाजित मध्य प्रदेश का एक जिला बस्तर केरल राज्य से भी बड़ा था। ‘‘उत्तर प्रदेश’’ ब्रिटेन देश के बराबर है। जनसंख्या में विश्व के पांचवे स्थान पर पाकिस्तान से भी ज्यादा जनसंख्या वाला प्रदेश उत्तर प्रदेश है। विपरीत इसके गोवा और उत्तर पूर्वी के राज्य अत्यंत छोटे बने।  

विभाजन के पक्ष-विपक्ष में तर्क-वितर्क-कुर्तक

राज्यों के विभाजन के पक्ष में तर्क-वितर्क दोनों है। ठीक उसी प्रकार जैसा "गिलास आधा खाली है या भरा"। परंतु आज हम जब विभाजित हुए राज्यों की स्थिति को देखते हैं और उनके तथा नागरिकों के विकास की तुलना अविभाजित राज्यों के समय से करते हैं, तो निश्चित रूप से हमें अधिकतर जगह निराशा ही हाथ लगती है। साथ ही यह देश की इंटीग्रिटी को भी कहीं न कहीं कमजोर कर रहा है। इसीलिए इस विषय पर कुर्तकों से दूर रहना चाहिए।

ऐसा नहीं है कि बड़े आकार के कारण राज्यों का विभाजन किया गया हो। अन्यथा उत्तर पूर्व में पहले नागालैंड से असम फिर असम छोटा राज्य होने के बावजूद उसका विभाजन कर मिजोरम की स्थापना की गई। छोटे राज्यों के खिलाफ में जो सबसे बड़ी बात कही जाती है, जो सही भी है कि ‘‘अनुउत्पादक खर्चो’’ में बढ़ोतरी होती है। मतलब ‘‘दोहरा प्रशासनिक व्यय’’। मध्य प्रदेश राज्य का स्थापना व्यय (वेतन एवं पेशन) कुल राजस्व का 37 प्रतिशत है। जबकि छत्तीसगढ का 35 प्रतिशत है। राजनीतिक व्यय वह भी अनुउत्पादक व्यय ही होता है, में भी काफी बढ़ोतरी हो जाती है। राज्यों की विभाजन के समय जो सबसे बड़ी समस्या, गलती या अनदेखी होती है, वह राज्य के संसाधनों का जनसंख्या के अनुपात में विभाजन नहीं हो पाता है। विभाजन के परिणाम स्वरूप एक राज्य को बड़ा फायदा मिलता है तो दूसरा राज्य को नुकसान होता है। मध्य प्रदेश का विभाजन होकर बना नया छत्तीसगढ़ राज्य एक उदाहरण है। छोटे राज्य होने के पक्ष का एक बड़ा आधार प्रशासनिक व शासन की धुरी जनता के ज्यादा निकट होकर ‘जीवंत’ होती है। इसके जवाब में आज के आधुनिक संचार व आवागमन के युग में सर्किट न्यायालय, आफिस, आपकी सरकार-आपके द्वार, नीति के तहत सीधे नागरिकों के पास उक्त धुरी पहुंच सकती है। प्रश्न सिर्फ इच्छाशक्ति की है। यह भी कहा जाता है कि इससे आर्थिक व प्रशासनिक दोनों दृष्टिकोण से मदद मिलती है। परन्तु स्थिति ऐसी नहीं है। इंदिरा गांधी विकास अनुसंधान संस्थान के शोधकर्ता विकास वैभव व केवी रामास्वामी द्वारा किये गये एक अध्ययन के अनुसार उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश वह बिहार के विभाजन से बने राज्यों में अलग-अलग परिणाम पाए गए। प्रश्न ‘‘गुणात्मकता’’ का भी है? शायद इसीलिए उच्चतम न्यायालय की देश में चारों दिशाओं में चार पीठ बनाने के तत्कालीन उपराष्ट्रपति एम वेंकैया नायडू व विधि आयोग की सिफारिश को उच्चतम न्यायालय ने नहीं माना था। क्या शासन प्रशासन की शक्तियों का निचले स्तर पर वास्तविक रूप में विकेन्द्रीकरण कर राज्य के विभाजन के सीमित उद्देश्य को नहीं पाया जा सकता है? इस पर भी सोचना होगा। 

किसी का सुझाव था कि छोटे राज्य की बजाए जिलों को छोटा कर देना चाहिए। यह  भी न तो सार्थक है न हीं अपने उद्देश्यों में सफल होगा। इससे जिला स्तर पर भी प्रशासनिक व्यय बढे़गा। 1 नवम्बर 1956 को मध्य प्रदेश की स्थापना के समय 43 जिले थे, जो आज छत्तीसगढ़ राज्य बनने बाद भी 55 जिले बन गये है।


उपसंहार। 

जब राज्य के किसी भाग के निवासियों की अपनी अस्मिता, संस्कृति, भेदभाव, भाषा, जाति, आर्थिक आधार आदि मांगो के आधार पर नए राज्य की मांग की जाती है, तब वहां पर राष्ट्रीय भावना का ‘‘छरण’’ होता है और  उसमें छिपा हुआ ड़र व खतरा जो अभी सामने नहीं दिख रहा है, वह यह है कि वह अस्मिता की भावना "प्रदेश" की मांग से आगे जाकर कहीं "नए देश" की मांग में तो परिवर्तित नहीं हो जाएगी?

सोमवार, 14 अक्टूबर 2024

अनमोल, कोहिनूर ‘‘रत्न’’ ‘‘सर’’ ‘‘रतन’’ ‘‘टा-टा’’ करते, चले गये।

‘गरीबों के ‘‘अरबपति’’ ‘‘मसीहा’’ व उद्योगपतियों के ‘‘भीष्म पितामह’

सिर्फ राष्ट्र की ही अपूर्णीय क्षति ही नहीं, बल्कि......
मेरे जीवन के 70 वर्षों में ऐसे अनेक दुर्भाग्यपूर्ण अवसर आए, जब देश ने अनेक अनमोल रत्नों को खोया। परंतु यह पहला अवसर है, जब सर रतन टाटा के देहावसान पर देश के आम नागरिकों ने गमगीन होकर राष्ट्रीय अपूरणीय क्षति के साथ यह महसूस किया कि उनके परिवार के बीच का ही कोई ‘‘अपना’’ चला गया, जिनकी परिवार में मानसिक उपस्थिति उनके जाने के बाद ‘‘अवसाद’’ के रूप में महसूस हुई। उनकी व्यक्तिगत एवं राष्ट्र निर्माण के लिए की गई उपलब्धियों, संस्मरणों को याद किया, लिखा जाए तो कई किताबें लिख जायेंगी। फिर भी आज एक युग के अंत के इस दुखद अवसर पर कुछ महत्वपूर्ण बातों का उल्लेख किया जाना आवश्यक है। 
 देश की औद्योगिक प्रगति में ‘‘टाटा’’  का प्रशंसनीय यादगार योगदान।
‘‘जमशेदजी नुसरवानजी टाटा’’ द्वारा वर्ष 1868 में स्थापित की गई ‘‘टाटा’’ के जेआरडी टाटा से वर्ष 1971 में विरासत में पाये टाटा साम्राज्य के शिल्पकार 86 वर्ष की उम्र में भी अंतिम समय तक सक्रियता दिखाते रहे, सर रतन टाटा अन्ततोगत्वा अपने करोड़ों प्रशंसकों को अलविदा कह ‘‘प्रभु’’ के पास ‘‘परलोक’’ चले गये। अभी 2 अक्टूबर को ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के ‘‘स्वच्छ भारत मिशन’’ के सफलतापूर्वक 10 वर्ष पूर्ण होने पर ‘‘स्वच्छता अभियान’’ के संबंध में उन्होंने एक वीडियो क्लिप जारी की थी। मृत्यु के 2 दिन पूर्व ही पूरे देश को अपना परिवार मानने वाले ‘‘अविवाहित’’ सर रतन टाटा ने अपने स्वास्थ्य के बाबत ‘‘एक्स’’ पर लिखें अंतिम संदेश ‘‘उम्र संबंधी जरूरी नियमित चिकित्सा जांच करवा रहा हूं। मेरा मनोबल ऊंचा है’’, के साथ देशवासियों को ‘‘मेरे बारे में सोचने के लिए शुक्रिया’’ कहा। वर्तमान में जिस प्रकार अंबानी-अडानी का औद्योगिक जगत में देश-विदेश में आर्थिक बोल बाला है, (सामाजिक नहीं) ठीक उसी प्रकार स्वतंत्रता के बाद से देश के विकास के प्रारंभिक दौर में टाटा-बिरला औद्योगिक घरानों का बड़ा योगदान रहा है। जब मुंबई की प्रसिद्ध होटल वाटसंस में ‘‘जेआरडी’’ को ‘‘यूरोपीय न होने’’ के कारण प्रवेश करने से रोक दिया गया था, तब उन्होंने अपने अपमान व नस्ल भेद नीति का माकूल जवाब वर्ष 1903 में 14 वर्ष के अथक प्रयासों से मुंबई में देश की प्रथम पंचतारा होटल ताजमहल विदेशी होटलों के समकक्ष बना कर दिया। टाटा समूह ने जमशेदजी टाटा के जमाने से लेकर आज तक औद्योगिक विकास के अलावा, टाटा ट्रस्टों के माध्यम से देश के आम नागरिकों के लिए जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में मानवतावादी, परोपकारी सहायता व विकास के नए अतुल्यनीय ‘‘आयाम’’ स्थापित किये। इसके शिल्पकार मुख्य रूप से सर रतन टाटा ही थे। शायद इसलिए आज उनके स्वर्गवासी होने पर सर रतन टाटा की चर्चा ‘‘उद्योगपति’’ से ज्यादा सामाजिक क्षेत्र में विभिन्न ट्रस्टों के माध्यम से किये गये उनके योगदान को याद कर के की जा रही है।


‘‘उद्योगपति’’ से ज्यादा ‘‘सामाजिक सरोकार’’ से भरा ‘‘राष्ट्रवादी’’ व्यक्तित्व।
सर रतन टाटा के व्यक्तित्व में एक नागरिक व समाज की आवश्यकता के अनुरूप नये-नये क्लेवर, इनोवेशन (नवाचार) का जुनून सवार था, जिसे कार्यरूप में परिणत करने की जो जिजीविषा थी, वह निश्चित रूप से उन्हे अन्य किसी भी दान-दाताओं से अलग विशिष्ट व्यक्ति बनाती है। फिर चाहे नैनो कार के उत्पादन ही बात क्यों न हो। देखा, जब उन्होंने एक परिवार को मोटरसाइकिल के पीछे महिला वह बीच में बच्चे को बैठकर जाते देखा। तब उनके मन में यह विचार आया कि ऐसे सामान्य व्यक्ति की आर्थिक क्षमता के अंदर क्या कोई चौपाहा वाहन (कार) उपलब्ध कराई जा सकती है? तब 1 लाख रू. की नैनो कार देश में आयी। वर्ष 1941 में देश के असंख्य कैंसर पीड़ितों के लिए ‘‘टाटा मेमोरियल’’ अस्पताल स्थापित किया गया। तथापि उसका प्रबंधन वर्ष 1957 में भारत सरकार के अधीन हो गया था। कोरोना काल में उद्योगपति ‘अजीम प्रेमजी’ के बाद सर रतन टाटा दूसरे सबसे बड़े दानदाता थे, जिन्होंने लगभग 1500 करोड़ से अधिक का दान दिया था। वास्तव में वे देश व विश्व के सबसे अमीर व्यक्ति बनने की बजाए दूसरे सबसे बड़े दान-दाता बने। ‘‘औद्योगिक घराने देश की सम्पत्ति के ट्रस्टी बनकर विकास करें’’ गांधी जी की इस सोच को सर रतन टाटा ने मूर्त रूप दिया। 26/11 को मुंबई बम कांड में होटल ताज पर हुए आतंकवादी हमले में 11 कर्मचारी मारे गए, तब सर रतन टाटा ने उनके परिवारों के पुनर्वास के लिए मात्र 20 दिन के भीतर ही एक ‘‘ताज पब्लिक सर्विस वेलफेयर ट्रस्ट’’ का गठन कर जो विस्तृत जीवन पर्यान्त सहायता प्रदान की, वह विश्व के लिए एक मिसाल बनी। वे एक ऐसे दरिया दिल दान दाता थे, जिनके दान देने वाला एक हाथ का दूसरे हाथ को पता भी नहीं होता था। सर रतन टाटा अपनी आय का लगभग 65 प्रतिशत से अधिक व्यय टाटा ट्रस्टों के माध्यम से सामाजिक सरोकार के लिए करते थे। ‘‘राष्ट्रवाद’’ उनमे इतना कूट-कूट कर भरा था कि ताज होटल पर आतंकी हमला होने पर उन्होंने यहां तक कह दिया था कि एक भी आतंकी बचना नहीं चाहिए, भले ही पूरी ताज बिल्डिंग को बम से उड़ाना क्यों न पड़े? बेजुबान जानवरों खासकर डॉग्स के प्रति सर रतन टाटा का इतना ज्यादा लगाव था कि लगभग 165 करोड रुपए खर्च कर मुंबई के पॉश महालक्ष्मी इलाके में 5 मंजिला जानवरों के लिए अस्पताल इसी वर्ष खोला।

सर रतन टाटा व्यक्ति से ज्यादा एक ‘‘संस्था’’थे।
यदि सर रतन टाटा को ‘‘इनसाइक्लोपीडिया’’ कहा जाये तो गलत नहीं होगा। जीवन के लगभग हर क्षेत्र में वे एक अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति से लेकर शीर्ष स्तर पर विद्यमान उघमी, राजनेता आदि सबके लिए एक अविवादित, विशिष्ट प्रेरक व्यक्ति थे। मतलब ‘आम’ होकर भी वे एक दुर्लभ विशिष्ट व्यक्तित्व के धनी हो गये थे। अमेरिका की कॉर्नेल यूनिवर्सिटी से आर्किटेक्ट की डिग्री लेने के बाद सीधे टाटा समूह के डायरेक्टर न बनकर कंपनी में एक कर्मचारी के रूप में कार्य कर उन्होेंने अनुभव लिया। पढ़ाई के दौरान भी उन्होंने नौकरी की। ‘‘सादा जीवन उच्च विचार’’ के वे दूसरे प्रतीक लाल बहादुर शास्त्री के बाद बन गए। कड़ी मेहनत, अनुशासित, शुचिता, स्वच्छता, ईमानदारी, उदारवादी, दूरदर्शी व्यक्तित्व के धनी, हर दिल अजीज, धड़कनों में देश व दिल में मानवता लिए, पशु प्रेमी, आम आदमी व देश की आवश्यकता के अनुरूप इनोवेशन करते हुए कार्य करना, उनको एक विलक्ष्ण व्यक्ति बनाता है। देश और स्वयं के स्वाभिमान के प्रति सजग रहने वाले सर रतन टाटा टाटा इंडिका की आर्थिक स्थिति ठीक न होने के कारण उसे ‘‘फोर्ड कंपनी’’ को बेचने की बात लगभग अंतिम हो जाने के बावजूद, फोर्ड की हृदय को चूभने वाली एक बात से उनके स्वाभिमान को चोट पहुंचने के कारण उन्होने सौदे को तुरंत निरस्त कर दिया। 


‘‘उद्योगपतियों की वर्तमान छवि, परसेप्शन व नरेशन से बिल्कुल अलहदा टाटा की छवि’’।  
वर्तमान युग में आज जो प्रायः उद्योगपतियों की छवि ईमानदारी से दूर और औद्योगिक नियमों के उल्लंघन से भरपूर होकर जहां उत्पाद की विश्वसनीयता की कमी झलकती है, वहीं विपरीत इसके टाटा उत्पाद राष्ट्रीयता व राष्ट्रवाद का भाव लिए विश्वसनीयता का एक नाम है, जो स्वयं में आईएसआई मार्क समान है। समय के पाबंद, प्रायः स्वयं फोन उठाने वाले, खुद कार चलाने वाले सर रतन टाटा की इच्छानुसार ‘‘स्वर्गवासी’’ होने पर टाटा उद्योग में छुट्टी घोषित नहीं की गई। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की वर्तमान नीति राष्ट्र निर्माण, राष्ट्र प्रथम (नेशन फर्स्ट), मेक इन इंडिया, मेड इन इंडिया को रतन टाटा ने पहले ही अपने व्यक्तिगत और औद्योगिक व्यावसायिक जीवन में पूरी तरह से उतारा। परिणाम स्वरूप देश की प्रथम ‘‘स्वदेशी कार’’ इंडिका का निर्माण उन्होंने किया। टाटा साम्राज्य को लगभग 100 से ज्यादा देशों में 100 से अधिक कंपनियों के द्वारा वैश्विक विश्व समूह में बदल दिया। पाकिस्तान की जीडीपी से भी ज्यादा टाटा ग्रुप का मार्केट वैल्युएशन 400 अरब डॉलर से ज्यादा हो गया। ‘‘वंश वाद व परिवार वाद’’ से कुछ हटकर भी टाटा कंपनियों में परिवार के बाहर के लोगों को भी भागीदारी प्रदान कर सर रतन टाटा ने उनकी योग्यता और कर्मठता को मान्यता दी। वर्ष 2012 में 75 साल की उम्र में टाटा संस से इस्तीफा देकर ‘‘साइरस मिश्री’’ को अध्यक्ष बनाया जिन्हे वर्ष 2016 में कुछ मतभेदों के चलते हटा कर स्वयं अंतरिम अध्यक्ष बनकर वर्ष 2017 में नटराजन चंद्रशेखर को नया चेयरमेन नियुक्त किया।

पद्म पुरस्कारों से नवाचार परिवार।
जेआरडी की बहन सिल्ला टाटा की भाभी रतनबाई पेटिट का विवाह पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना से होने के बावजूद संस्थापक जेआरडी टाटा को पीवी नरसिम्हा राव की सरकार ने भारत रत्न पुरस्कार दिया था। यह उनकी अटूट और अटल राष्ट्रभक्ति पर एक मोहर ही है। नवल टाटा को भी ‘‘पद्म विभूषण’’ से सम्मानित किया गया था। अब सर रतन टाटा को भी पद्म भूषण और पद्म विभूषण मिलने के बाद भारत रत्न देने की मांग की जा रही है, जो उनके प्रति देश की सही श्रद्धांजलि होगी। यद्यपि अपने जीवन काल में सर रतन टाटा ने इस मांग का विरोध किया था। इस परिवार की एक और उल्लेखनीय बात यह भी है कि जेआरडी की मां सुजैन वर्ष 1905 में देश की प्रथम महिला कार चलाने वाली बनी। वर्ष 1910 में जेआरडी के बड़े सुपुत्र दोराबजी टाटा के भारत की औद्योगिक उन्नति में योगदान देने के लिए ‘‘नाइट हुड’’ को आधी मिली। सर रतन टाटा को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी मान्यता मिली, जिसका एक उदाहरण उन्हें ‘‘ऑर्डर ऑफ ऑस्ट्रेलिया’’ से सम्मानित किया जाना है। परोपकारिता के लिए इंग्लैंड की ‘रौकफेलर फाउंडेशन लाइफटाइम अचीवमेंट’ के लिए चुने गए। वर्ष 2008 में उन्हें नैसकॉम ग्लोबल लीडरशिप पुरस्कार प्रदान किया गया। तथापि अपने डॉग के अचानक बीमार पड़ जाने के कारण उन्होंने प्रिन्स चार्ल्स के पास पुरस्कार लेने के लिए जाने का कार्यक्रम निरस्त कर दिया स वे कई अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के सलाहकार बोर्ड के सदस्य रहे। अनेक विदेशी विश्वविद्यालयों के ट्रस्टी होकर उन्हें मानद डॉक्टरेट की कई डिग्रियां भी प्रदान की गई। विश्व प्रसिद्ध अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाएं ‘‘टाइम्स’’ व ‘‘फार्चून’’ की विश्व के प्रभावशाली लोगों की सूची में सर रतन टाटा का नाम शामिल था।

‘टाईकून’’ सर रतन टाटा की सफलता के मूल मंत्र।
सर रतन टाटा की सफलता के पीछे उनकी कुछ अद्धभूत सोच, विचार, मंत्र रहे हैं, जिनका अनुपालन करके हर कोई व्यक्ति सफलता के आयाम की ओर बढ़ सकता है।  
1. मैं सही निर्णय लेने में विश्वास नहीं करता। मैं निर्णय लेता हूं और फिर उन्हें सही बनाता हूं।
2. जो पत्थर लोग तुम पर फेंकते हैं. उनका इस्तेमाल स्मारक बनाने में करो।
3. ऐसी कई चीजें हैं, जो अगर मुझे दोबारा जीने का मौका मिले तो शायद मैं अलग तरीके से करूंगा, लेकिन मैं पीछे मुड़कर यह नहीं देखना चाहूंगा कि मैं क्या नहीं कर पाया।
4. अगर आप तेजी से चलना चाहते हैं तो अकेले चलिए, लेकिन अगर दूर तक चलना चाहते हैं, तो साथ मिलकर चलिए।
5. तुम्हारी गलती सिर्फ तुम्हारी है, तुम्हारी असफलता सिर्फ तुम्हारी है, किसी को और दोष मत दो, अपनी इस गलती से सीखो और आगे बढ़ो।
6. लोहे को कोई नष्ट नहीं कर था सकता, उसका अपना ही जंग उसे नष्ट कर सकता है इसी तरह कोई भी व्यक्ति को नष्ट नहीं कर सकता, लेकिन उसकी अपनी मानसिकता कर सकती है।
7. जीवन में आगे बढ़ने के लिए उत्तार चढ़ाव जरूरी है, क्योंकि ईसीजी में भी एक सीधी लाइन का मतलब होता है कि हम जिंदा नहीं है।
8. चार बातों से शर्मिंदा मत हो स पुराने कपड़े, गरीब दोस्त, बूढ़े माता-पिता एवं सादगी।
9. सबसे अच्छे नेता वे हैं, जो अपने से अधिक बुद्धिमान सहायकों और सहयोगियों के साथ रहने में रुचि रखते हैं।

उपसंहार
अंत में देश के साधारण या निम्न मध्यम वर्ग को अमीर या अभिजात वर्ग का ‘‘लखपतिया नैनो कार’’ के माध्यम से एक एहसास, अनुभव कराने वाले सर रतन टाटा जरूर हमें टा-टा कह कर सृष्टि के अमिट नियम का पालन कर चले गये। परंतु किसी समय धनाढ्य की पहचान व पर्यायवाची बने उद्योगपति सर रतन टाटा का देश की जनता से इतना जुड़ाव भी हो सकता है, यह आज उनको श्रद्धांजलि देने आई अपार जनता तथा सोशल मीडिया सहित समस्त प्लेटफॉर्म्स के माध्यमों से देश भर से आई अपार श्रद्धांजलि, प्रतिक्रियाओं को देख-पढ़-सुन कर महसूस किया जा सकता है। शायद ही इसके पूर्व किसी उद्योगपति के निधन पर देश इतना शोकाकुल व नतमस्तक हुआ है। इसका एक कारण शायद प्रत्येक घर की दिनचर्या में विभिन्न क्षेत्रों में टाटा उत्पाद की भागीदारी रही है। परंतु इससे जुड़ा एक दुखद पहलू यह भी है कि एक-दो टीवी चौनलों इंडिया टीवी आदि को छोड़कर शेष चौनलों ने अंतिम यात्रा का पूरा लाइव टेलीकास्ट न कर सायं पांच बजे निर्धारित कार्यक्रमों ‘‘हल्ला बोल’’, ‘‘देश की बात’’ इत्यादि पर राजनीतिक बहस कराते रहे। गोया, सर रतन टाटा का जाना राष्ट्रीय क्षति न होकर ‘‘देश की बात’’ नहीं थी? देश की तथाकथित राष्ट्रीय मीडिया का किसी प्रसिद्ध अभिनेता या नेता की ‘‘अंतिम यात्रा’’ के समय भी क्या यही रुख रहता? राजकीय सम्मान के साथ परंतु परंपरागत पारसी धर्म से अंत्येष्टि न होकर उनका अंतिम संस्कार भी सर्वधर्म समभाव का एक संदेश दे गया। स्वयं टा-टा कहकर अलविदा होकर परंतु नागरिकों को उनकी सफलता के लिए आवश्यक जीवन के नौ-दस मूल मंत्रो को टा -टा न कहकर अपने जीवन में आत्मसात करने का बहुमूल्य संदेश दे गए।  और यह उनके प्रति न केवल सच्ची श्रद्धांजलि होगी, बल्कि वह स्वयं को प्रगति के पथ पर ले जाकर राष्ट्र के प्रति भी ‘‘उपकार’’ होगा।

Popular Posts