मोदी का ‘‘जादू’’ हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद को कब ‘‘भारत रत्न’’ दिलाएगा?
देरी से दिया गया सम्मान
भारत देश का सर्वोच्च सम्मान ‘‘भारत रत्न’’ बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और खांटी समाजवादी और शोषितों के जननायक, महानायक, गरीबों के मसीहा स्वर्गीय कर्पूरी ठाकुर को दिए जाने का निर्णय भले ही अत्यंत देरी से लिया गया हो, तब भी अत्यंत स्वागत योग्य और एक ‘‘गलती’’ को सुधारने का देरी से किया गया सफल प्रयास है। आपको याद दिला दें। कर्पूरी ठाकुर की मृत्यु 64 वर्ष की आयु में 17 फरवरी 1988 को हुई थी। वे पहली बार वर्ष 1952 में बिहार विधानसभा के लिए चुने गये थे। ‘‘यूं तो दुनिया मुर्दा परस्त है’’, दिवंगत लोगों की ही प्रशंसा करती है। परन्तु ‘‘भारत रत्न’’ देने का यह कोई नियम नहीं है कि ‘माननीय’ को देश के लिए किए गए सर्वोच्च उत्कृष्ट कार्यों की प्रशस्ति के लिए मृत्यु उपरांत ही ‘‘भारत रत्न’’ दिया जाकर सम्मानित व याद किया जा सकता है। बल्कि ऐसे उदाहरण है हमारे देश में, जब जीवित व्यक्ति को भी देश के प्रति उनके योगदान के लिए भारत रत्न देकर सम्मानित किया गया है, जैसे सचिन तेंदुलकर (वर्ष 2014 में) क्योंकि वे उसकी योग्यता, पात्रता रखते थे।
सम्मान अविवादित! परन्तु राजनीतिक सोउद्देश्य लिये हुए।’
जहां तक कर्पूरी ठाकुर के व्यक्तित्व का सवाल है या उनको ‘‘भारत रत्न’’ दिए जाने का प्रश्न है, यह निर्विवाद है। यह इस बात से भी सिद्ध होता है कि देश की समस्त राजनीतिक पार्टियों ने केंद्र सरकार के इस निर्णय की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। परंतु महत्वपूर्ण प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि क्या ‘‘भारत रत्न’’ वास्तव में कर्पूरी ठाकुर को सिर्फ सम्मान देने के उद्देश्य से दिया गया है, जिसके वे निसंदेह हकदार है। अथवा इस घोषणा के साथ ‘‘राजनीति’’ भी जुड़ी हुई है? देश की वर्तमान में जो राजनीतिक परिस्थितियां विद्यमान है, उनमें हर क्षेत्र में न केवल राजनीति प्रविष्टि हो जाती है, बल्कि राजनीति को घुसेड़ भी दिया जाता है, ऐसा हम देखते चले आ रहे हैं। फिर चाहे धर्म में राजनीति का ही प्रश्न क्यों न हो? शिक्षा, कला, खेल इत्यादि क्षेत्रों में के मूल क्षेत्रों के अतिरिक्त वहां भी राजनीति हमेशा हावी रहती है। इसलिए यदि स्वर्गीय कपूरी ठाकुर को मृत्युपरांत शीघ्र ही कुछ समय बाद होने वाले लोकसभा चुनाव के पूर्व भारत रत्न दिया गया है, तो इसके पीछे एक बड़ा राजनीतिक उद्देश्य भी छुपा हुआ ही नहीं है, बल्कि दिखता हुआ शामिल है/शामिल दिखता हुआ है।
‘‘मोदी है तो मुमकिन है’’।
याद कीजिए! पिछले कुछ समय से मीडिया में नीतीश कुमार के ‘एनडीए’ में शामिल होने की खबरें लगातार छप रही थी या ज्यादा उचित कहना यह होगा कि ऐसी खबरें सो/दुः उद्देश्य छपाई जा रही थी। परन्तु यह मुहिम असफल होने के बाद ही बिहार में अपनी राजनीतिक जमीन को मजबूत करने के लिए शायद केंद्रीय शासन ने उक्त निर्णय लिया। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के जातिगत जनसंख्या की गणना के निर्णय की काट के परिपेक्ष में भी इस निर्णय को देखा जा रहा है। मैं पहले भी कई बार स्पष्ट कह चुका हूं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नरेटिव फिक्स करने और परसेप्शन बनाने के ‘‘मास्टर ऑफ मास्टर’’ है, जिस कारण से वह विरोधियों को ‘हतप्रद’ कर ‘चित’ कर देते हैं। कई बार तो विरोधियों को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की नीति और निर्णय की प्रशंसा मजबूरी में सही, करनी ही पड़ जाती है। यही देश का ‘‘मोदी नामा’’ है। ‘‘मोदी है तो मुमकिन है’’, यह जिस किसी ने भी कहा है, गलत नहीं है।
अत्यंत सादगी से परिपूर्ण जीवन
कर्पूरी ठाकुर का जन्म गांव पितौंझिया में जिसे अब ‘‘कर्पूरी ग्राम’’ कहां जाता है, बाल काटने के पेशे से जुड़े सीमांत किसान के घर में हुआ था। 1970 के दशक के राजनीतिज्ञों में कर्पूरी ठाकुर का एक महत्वपूर्ण, विशिष्ट, अति सम्मानीय, स्थान रहा है। वे देश के ऐसे मुख्यमंत्री थे, जो अत्यंत गरीबी के चलते राजनीति में आये थे। वे जीवनपर्यंत दलित, शोषित व वंचित वर्ग के उत्थान के लिए संघर्ष करते हुए कुछ-कुछ सफलता भी प्राप्त की। वे देश के ऐसे पहले मुख्यमंत्री थे, जिन्होंने ‘‘मंडल’’ व उसकी प्रतिक्रिया में आये ‘‘कमंडल’’ के काफी पहले वर्ष 1978 में ‘‘मुगेरीलाल आयोग’’ की रिपोर्ट को लागू कर सिर्फ पिछड़ा वर्ग को ही आरक्षण (12 फीसदी) व अतिपछड़े वर्ग को 8 प्रतिशत आरक्षण प्रदान नहीं किया, बल्कि गरीब सवर्ण को भी सबसे पहले 3 फीसदी आरक्षण प्रदान किया था। लम्बे समय तक विधायक रहने के साथ उपमुख्यमंत्री, मुख्यमंत्री पद पर दो बार तथा नेता प्रतिपक्ष पर विराजित होने के बावजूद उनका मानना था कि ‘‘तलवार म्यान में ही अच्छी लगती है’’। उनके सरल स्वभाव, हृदय व अत्यंत सादगी पूर्ण जीवन को महात्मा गांधी के कुछ निकट अवश्य कहा जा सकता है।
बेहद ईमानदार व्यक्तित्व
स्वर्गीय कर्पूरी ठाकुर कुछ उन चुनिंदा राजनीतिज्ञों में से रहे है, जिन्होंने राजनीति को भी शुद्ध जन सेवा के रूप में लिये व जिये, जिनके लक्षण, दर्शन व कल्पना भी आज दुर्लभ है। अर्थात यह भावना आज ‘‘थोथे बांस कड़ाकड़ बाजें’’ दुर्लभ व लुप्त होती हुई व ‘‘लुप्त प्रजाति’’ में परिवर्तित हो गई है। स्वर्गीय कर्पूरी ठाकुर, डाॅ. राम मनोहर लोहिया के राजनैतिक चेले और लालू, नीतीश, रामविलास पासवान व सुशील मोदी के राजनीतिक गुरू रहे। मधु लिमये जैसे दिग्गजों के साथी रहे। वे अपने कर्मों व जीवन शैली से शुद्ध व कष्टदायक, ईमानदारी के पर्यायवाची हो गये थे।
ध्यानचंद को भारत रत्न कब?
देश में अनेक ऐसी सफल और श्रेष्ठतम प्रतिभाएं हैं, जो उक्त सर्वोच्च पुरस्कार पाने की अधिकारी (एनटाइटल) होने के बावजूद ‘‘भारत रत्न’’ उन्हें तब तक नहीं मिल सकता है, जब तक राजनीति पर वोट बैंक के रूप में उनका प्रभावी प्रभाव व पकड़ न हो। तेंदुलकर ऐसे ही खिलाड़ी थे, जिनकी प्रतिभा पर कोई प्रश्न चिन्ह नहीं लगाया जा सकता है। परंतु यदि उनका करोड़ो खेल प्रेमी जनता पर प्रभाव न होता तो उन्हें भी भारत रत्न शायद ही मिलता। ध्यानचंद को खेल रत्न दिए जाने की मांग काफी पुरानी है। अतः देश के असंख्य खेल प्रेमियों को केंद्रीय सरकार का ध्यान ध्यानचंद को भारत रत्न दिए जाने पर आकर्षित करना है तो उनको यह जज्बा पैदा कर प्रदर्शित करना होगा, परसेप्शन बनाना होगा कि यदि ध्यानचंद को ‘‘भारत रत्न’’ नहीं दिया गया तो, देश के करोड़ों खेल प्रेमी प्रेमियों का ‘‘ध्यान’’ वर्तमान से हटकर उस ओर केंद्रित करना होगा जो उन्हें आश्वासित करें। क्योंकि लोकतंत्र में तो राजनीतिक पार्टिया मुद्दों की नहीं, वोट बैंक की ही राजनीति को समझती हैं, और उसी से प्रभावित व हडकायी होती है। मतलब साफ है! ध्यानचंद पर ध्यान नहीं तो हमारा वोट पर भी ध्यान नहीं? हाँ! यदि ध्यानचंद किसी आरक्षित वर्ग (अजा.अजजा.पिछड़ा अति पिछड़ा) से होते तो शायद चुनावी वर्ष में उन्हें भी भारत रत्न मिल जाता।
‘‘बेशर्म’’ शब्द ने भी हाथ खड़े कर दिये।’’
देश की राजनीति का सबसे गंदा चरित्र का सबसे ताजा उदाहरण बिहार में विध्वस रूप में देखने को मिल रहा है। इसके लिए देश की अधिकतर पार्टी व नेतागण जिम्मेदार है। जैसा कि राजनीति के लिए कहा भी गया है ‘‘इस हमाम में हम सब नंगे है’’। एक तरफ कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देकर बिहार को गौरवान्वित किया गया है, तो दूसरी तरफ उसी भारत रत्न की उर्वरा भूमि बिहार में राजनीति का जिस तरह का नंगा नाच अभी चल रहा है, उसके लिए यही कहा जा सकता है कि ‘‘तत्ता कौर न निगलने का न उगलने का’’। ये ‘‘दावत है या अदावत है’’? वैसे बेशर्मी हमेशा नंगी ही होती है या यह कहे नंगा (साधु संतों को छोड़कर) बेशर्म ही होता है। जिस बेशर्मी का नंगा प्रदर्शन हुआ है, शायद उसके लिए अब ‘‘बेशर्म’’ शब्द भी परेशान होकर, बेशर्म होकर यह कहने लग गया कि आज की ‘‘राजनीति की बेशर्मी’’ को पूरी तरह व्यक्त करने का सामर्थ्य अब मेरे पास नहीं रहा है। कृपया अब अन्य कोई मजबूत ‘‘शब्द’’ की खोज कर ले? एक दौर था, जब हरियाणा के भजनलाल ने पूरी की पूरी सरकार का ही दलबदल करा कर इतिहास बनाया था। अब उसके ‘‘मास्टर ऑफ मास्टर’’ ‘‘सुशासन बाबू’’ नीतीश कुमार हो गये है। भ्रष्टाचार के आरोप का प्रभाव तो सिर्फ एक-दो या कुछ व्यक्तियों तक ही सीमित रहता है। परन्तु आर्थिक दृष्टिकोण से ईमानदार नीतीश कुमार की ‘‘बेईमान राजनीति’’ राजनीति को पूरी ही भ्रष्ट कर दे रही है, जो व्यक्तिगत ईमानदारी से ज्यादा घातक, खतरा समाज, देश व राजनीति के लिए है।
नीतीश कुमार ‘‘सिद्धांत’’ पर अडिग!
जो लोग नीतीश कुमार को ‘‘पलटू राम’’ कह रहे है, वे एक तरफा गलत आरोप नीतीश कुमार पर लगा रहे है। देश की पूरी राजनीति ही ‘‘पलटू राम’’ से भरी हुई है। क्या ‘‘राम’’ शब्द से परहेज रखने वाली राजनीतिक पार्टियों में भी पलटू राम के रूप में ‘‘राम’’ मौजूद नहीं है? और अगले ही दिन (30 जनवरी) को ‘‘हे राम’’ की समाधि पर श्रद्धांजलि देने जाने की भी मजबूरी होगी? नीतीश कुमार ने ‘‘सिद्धांत’’ की राजनीति की है। वह सिद्धांत एक मात्र यह रहा कि वे मुख्यमंत्री की कुर्सी पर साधन की पवित्रता को बाजू में रखकर एन केंन प्रकारेण बैठे रहे, जब कि गांधी जी ने साध्य के साथ साधन की सुचिता व पवित्रता पर बहुत जोर दिया था। अतः गलती नीतीश कुमार की नहीं, बल्कि उनका आकलन करने वाले राजनीतिक पंडितों की है, जोे नीतीश कुमार के मूल सिद्धांत ‘‘कुर्सी को जकड़ कर पकड़ने’’ के सिद्धांत को पकड़ नहीं पाए। शायद नीतीश कुमार बचपन व अपनी युवावस्था में ‘‘कुर्सी पकड़ दौड़’’ खेल में हमेशा प्रथम आते रहे होंगे। स्पष्ट है नीतीश कुमार अपने सिद्धांत पर अडिग रहकर 9 वीं बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। यह उनके सिद्धांत के प्रति कट्टरता व जीवटता को दिखाता है? अतः ब्रेकिंग न्यूज नीतीश कुमार का पलटू राम होना नहीं है, बल्कि राजनीतिक पार्टियां का पलटू राम होना है। ठीक उसी प्रकार जैसे मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चैहान चुनाव के पूर्व तक मुख्यमंत्री बना रहना ब्रेकिंग न्यूज थी, हटाना ब्रेकिंग न्यूज नहीं बनती। शपथ लेना व इस्तीफा व फिर शपथ लेना, यह उनकी दिनचर्या बन गई। राजस्थान के तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का यह कथन याद कीजिए ‘‘मैं तो कुर्सी छोड़ना चाहता हूं, पर कुर्सी मुझे छोड़ नहीं रही है’’। उक्त बात गहलोत स्वयं पर तो लागू नहीं कर पाए। परन्तु शायद उनके मन, दिमाग में नीतीश कुमार का भाव उक्त कुर्सी पकड़ ज्यादा होगा, इसलिए उक्त बात नीतीश कुमार पर पूर्णता सही लागू होती है। मुझे लगता है कि 8वीं बार मुख्यमंत्री पद पर शपथ लेने के बावजूद लोग उन्हें सुशासन बाबु के आगे से सुशासन मुख्यमंत्री के नाम से प्रचलित नहीं कर पाये। तब शायद उनको लगा होगा कि 9वीं बार शपथ ग्रहण करने पर अब तो बाबू (सुशासन) से मुख्यमंत्री (सुशासन) मान ले?