सिर्फ मोदी को ही ‘‘नरेटिव फिक्स’’ करना आता है।
देश के ही नहीं बल्कि विश्व के इतिहास में 22 जनवरी ऐतिहासिक रूप से अमिट रूप से लिख दिया गया है, जो भविष्य में एक नए ‘‘काल चक्र’’ के रूप में राष्ट्रीय दिवस मनाया जाएगा, इसमें किसी को भी संदेह होना नहीं चाहिए। इस अभूतपूर्व सफलता के लिए यदि किसी एक व्यक्ति को ही श्रेय दिया जाना हो तो, निसंदेह, बेशक वे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ही है, जिनकी कार्य योजना को पढ़ना, समझना, समयपूर्व आकलन, महसूस करना एक सामान्य व्यक्ति के लिए ही नहीं, बल्कि विशिष्ट व्यक्तियों के लिए भी एक बमुश्किल कार्य होता है। धरातल पर कार्य योजना उतरने के बाद ही लोग उन योजनाओं से रूबरू होते हैं। प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम में बिना किसी संदेह के इस बात को भी प्रतिष्ठित और सिद्ध कर दिया है कि ‘‘नरेटिव एवं परसेप्शन’’ अर्थात राजनीति की ‘‘दिशा’’, ‘‘दशा’’ और ‘‘धारणा’’ ‘‘अवधारणा’’ तय करने में विपरीत परिस्थितियों में भी नरेन्द्र मोदी का कोई मुकाबला ही नहीं है। कैसे! आइये! आगे इसे देखते- समझते हैं।
1.‘‘धर्म’ को देश के ‘विकास’ से जोड़ने का यह अब तक का सबसे बड़ा पहला सफल प्रयास है, जो देश की जीडीपी की बढ़ोतरी में महत्वपूर्ण योगदान देगा, ऐसा आकलन आर्थिक पंडितों द्वारा किया जा रहा है। यह तथ्य इस बात से भी सिद्ध होता है कि इस प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम के अवसर पर लगभग सवा लाख करोड़ रू. का व्यापार हुआ। ‘‘जहां सुमति तहँ संपति नाना’’। लगभग तीस हजार (30000) करोड़ से अधिक का निवेश होने की संभावनाएं भी बतलाई जा रही हैं। प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम के पश्चात भगवान श्री रामलला व भव्य व अभिभूत कर देने वाले भगवान श्री राम मंदिर के दर्शन के लिए भारी भरकम रिकार्ड तोड़ भीड़ उमड़ कर आ रही है, विशालतम स्तर पर देश में भंडारे हुए। इन सब बातों से भी उक्त बातें सिद्ध होती दिखती है।
2.अधिकतर निमंत्रित विपक्षी नेताओं के तथाकथित ‘‘कारण सहित’’ न आने पर उन्हें भगवान श्री राम का विरोधी तक सफलतापूर्वक ठहरा दिया गया, जबकि अनेक निमंत्रित केंद्रीय मंत्रियों और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष के ‘‘अकारण’’ (कोई कारण बताये बिना) न आने का कोई संज्ञान मीडिया अथवा विपक्षी पार्टियों द्वारा गंभीर रूप से नहीं लिया गया। अर्थात उन्हें भगवान श्री राम विरोधी नहीं कहा गया, जो एक विपरीत नरेटिव बन सकता था। जबकि 48 घंटे के पूर्व तक अधिकतरों के आने का सुनिश्चित कार्यक्रम था। इस प्रकार इस मुद्दे पर भी मोदी अपने विपक्षों पर भारी पड़ गए और अपना नरेटिव व परसेप्शन बनाने में सफल रहे।
3.22 जनवरी को मंदिर पूर्ण निर्मित न होने के कारण, सही मुहूर्त न होने से भगवान श्री रामलला की प्राण प्रतिष्ठा का गलत ठहराकर प्राण प्रतिष्ठा के अवसर पर महत्वपूर्ण निमंत्रित नेताओं के व्यक्तिगत रूप से उपस्थिति नहीं हुए। उनमें से अधिकतरों ने उसी दिन 22 जनवरी को देश के विभिन्न मंदिरों में जाकर पूजा अर्चना कर अपनी फोटो शेयर की व ट्वीट किया। इस प्रकार ‘‘अनजाने’’ में ही अथवा ‘‘धार्मिक वातावरण के बने दबाव’’ के चलते उन्होंने जनता को यह दिखाना उचित समझा कि उन्होंने भी इस अवसर पर ईश्वर पूजा की है व वे राम भगवान भक्त है। लेकिन ‘‘चना कूदे तो कितना कूदे, ज्यादा से ज्यादा कड़ाही से बाहर’’। नरेन्द्र मोदी की ‘‘नरेटिव फिक्स’’ व परसेप्शन बनाने की इसी कला के चलते अनजाने में ही सही, विपक्षी नेतागण अपने अधैर्य के कारण उसमें फंसते चले गये। ‘‘चबा कर खाते तो हलक़ में नहीं फंसता’’। विपक्षी नेताओं की दुविधा, अनिर्णय व असमंजस की स्थिति होने के कारण मोदी की यह कारगर नीति उक्त नरेटिव फिक्स करने में सफल रही।
4.लगभग 500 से अधिक वर्षों से जो आंदोलन चल रहा था, वह राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण का था। वर्ष 1949 में जब पहली बार मूर्तियां रखी गई अथवा प्रकट हुई, तब से वहां पूजा प्रारंभ हुई। इसके पूर्व रामलला का ‘‘विग्रह’’ स्थापित था अथवा नहीं, इसका इतिहास ज्ञात नहीं है। वर्ष 1949 के बाद जब 6 दिसम्बर 1992 को ढांचा तोड़ा गया, तब वहां स्थापित मूर्ति हट गई और तुरंत अयोध्या के राजा के घर से रामलला की मूर्ति लाकर रखी गई, ऐसा 4 गोली खाये अयोध्या निवासी कारसेवक संतोष दुबे ने दावा किया। तब से उसी रामलला की ही पूजा की जाती रही है। लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा से प्रारंभ राम जन्मभूमि निर्माण आंदोलन से लेकर भव्य मंदिर निर्माण तक किसी की भी यह मांग कभी भी नहीं रही कि ‘‘नई रामलला का विग्रह’’ स्थापित किया जाकर उसकी प्राण प्रतिष्ठा की जाए। परंतु नई ‘‘रामलला की विग्रह’’ स्थापित कर उनकी प्राण प्रतिष्ठा की गई। आंदोलन जहां रामलला स्थापित थी जो भगवान श्री राम का जन्म स्थल माना जाता है, पर भव्य श्री राम मंदिर निर्माण का था, न कि नई रामलला की विग्रह की स्थापना कर उसकी प्राण प्रतिष्ठा का। इस ‘‘परसेप्शन और नरेशन’’ को जिसे मोदी ने ‘‘स्थापित’’ किया को ‘‘विस्थापित’’ करने में विपक्ष पूर्णतः असफल रहा। इसी को कहते हैं, ‘‘जबरा मारे और रोने भी न दे’’।
5.भगवान श्री राम की ‘‘काले पत्थर’’ की विग्रह स्थापित की गई, जो कि सामान्यतः दक्षिण में ही काले पत्थर के विग्रह भगवान के रूप में स्थापित होते हैं। जबकि देश में भगवान श्री राम की अधिकतम विग्रह सफेद पत्थर के स्थापित है। स्वयं राम जन्म भूमि तीर्थ क्षेत्र न्यास ने भगवान श्री राम की तीन मूर्तियां बनाने के आदेश दिए थे, जिसमें से दो मूर्तियां सफेद पत्थरों की संगमरमर की बनकर आयी। काले पत्थर का विग्रह चुनने का कोई कारण नहीं बतलाया गया है। इस नए नरेटिव पर तो शायद किसी का भी ध्यान ही नहीं गया।
6.‘‘विध्वंस’’ कार्य हमेशा ‘‘नकारात्मक’’ होता है। इसी कारण से वर्ष 1992 में ‘‘ढांचे’’ के विध्वंस किये जाने के पश्चात चार हिन्दी राज्यों उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश की विधानसभा को भंग कर हुए नये चुनावों में भाजपा हार गई थी (तब मोदी नहीं थे) जिसमें उत्तर प्रदेश भी शामिल था, जहां धार्मिक उन्माद सर्वोपरि होकर ढांचा तोड़ा गया था। जबकि निर्माण हमेशा ‘‘सकारात्मक’’ भाव लिये होता है। शायद इसलिए भगवान श्री राम मंदिर निर्माण से वर्ष 2024 में भाजपा का आकड़ा लोकसभा में आकड़ा 400 पार करने का अनुमान राजनीतिक पंडितों का है। 1992 में मोदी नहीं थे, 2024 में मोदी है। यही नरेटिव है।
7.जनवरी के महीने में 26 जनवरी व 30 जनवरी के राष्ट्रीय दिवसों के साथ एक और नया राष्ट्रीय दिवस ‘‘काल चक्र’’ 22 जनवरी को भविष्य में मनाने का नरेटिव भी तैयार कर लिया गया है।
8.शिवराज सिंह चौहान और राहुल गांधी दोनों एक ही दिन अर्थात 22 जनवरी को; शिवराज सिंह ओरछा जाते हुए ट्रेन में और राहुल गांधी असम के मंदिर में प्रवेश देने से इनकार करने पर वही सामने बाहर बैठकर गीत गा रहे थे रघुपति राघव राजा राम ! मोदी का यह नरेटिव तो बिल्कुल ही नया व छप्पर फाड़ देने वाला था। ‘‘ढंग से करो तो गैंडे को भी गुदगुदी होती है’’।
9.प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का बिहार की राजनीति का नरेटिव तय करने वाला नवीनतम निर्णय बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देने का निर्णय है। ‘‘मास्टर ऑफ मास्टर’’ नरेन्द्र मोदी के इस मास्टर स्ट्रोक निर्णय ने एक झटके में ही नीतीश कुमार की अति पिछड़े वर्ग व जातीय जनगणना की राजनीति को आगामी 4 महीनों के भीतर होने वाले लोकसभा चुनाव में ‘‘बोथल कर धराशायी’’ कर दिया है।
अंत में ‘‘आस्था और धर्म’’ के सहारे जिस राजनीति को ‘‘साधना’’ शुरू किया गया, उसी ‘‘राजनीति’’ ने आस्था और धर्म को साधना शुरू कर दिया! मोदी है तो मुमकिन हैं, क्या अभी भी कोई शक की गुंजाइश है?
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें