लोकतंत्र पर लगे ‘‘अभूतपूर्व काले दाग’’ को मिटाने के लिए ऐतिहासिक न्यायिक निर्णय!
‘‘निर्णय की तथ्यात्मक गलतियां’’
उच्चतम न्यायालय के समक्ष प्रथम प्रधानमंत्री स्वर्गीय जवाहरलाल नेहरू की परिकल्पना के अनुरूप विश्व प्रसिद्ध फ्रांसीसी वास्तुकार ‘‘ली कार्बजियर’’ द्वारा डिजाइन की गई 20वीं सदी का देश का नया बना शहर चंडीगढ़ के मेयर चुनाव को लेकर उच्च न्यायालय के आदेश के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय के समक्ष याचिका दायर की गई थी। 5 फरवरी को पहली बार हुई सुनवाई के दौरान माननीय मुख्य न्यायाधीश ने कहा ‘‘क्या इस तरह से चुनाव कराए जाते हैं’’? यह लोकतंत्र का मजाक है, हत्या है। क्या चुनाव अधिकारी का ऐसा बर्ताव हो सकता है’’। ’हम हैरान हैं! इस ‘‘शख्स पर केस चलना चाहिए’’। यह सब आश्चर्य मिश्रित ‘‘कठोर कथन’’ कहकर उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय को इस बात के लिए भी हड़काया कि ऐसे मामले में अंतरिम आदेश पारित क्यों नहीं किये गये?
सबसे ‘‘आश्चर्यजनक बात’’ यह भी रही कि बिना किसी शक-शुबहा के लोकतंत्र की हत्या होते देखने के तथ्य से सहमति दर्शाने के बावजूद उच्चतम न्यायालय ने स्वयं भी ऐसा कोई ‘‘अपेक्षित आदेश’’ न्याय के लिये पारित नहीं किया। इस प्रकार कहीं न कहीं तथ्यों पर स्वयं के पर्यवेक्षण (ऑब्जरवेशन) एवं निष्कर्षानुसार कार्रवाई न करके प्रथम दृष्ट्वा उच्चतम न्यायालय की गलती प्रतीत होती है। उच्चतम न्यायालय द्वारा संपूर्ण न्याय देने की प्रक्रिया में संविधान के अनुच्छेद 142 में निहित व्यापक विवेकाधिकार का उपयोग करते हुए और विधान को परे रखकर कौन-कौन सी गलतियां उच्चतम न्यायालय ने की हैं, जैसा कि एक उदाहरण ऊपर दिया गया है। इसकी विवेचना की जानी आवश्यक है। ख़ास तौर से इस सिद्धांत को देखते हुए कि कोई भी संस्था या व्यक्ति ऐसा नहीं है, जो ग़लती न करता हो। ‘‘चांद को भी ग्रहण लगता है’’।
पहले यह समझना आवश्यक है कि संविधान के अनुच्छेद 142 का उपयोग सामान्यतः विशिष्ट कानून के अभाव में अथवा कानून में अपूर्णता या कमी होने के कारण उपचार के लिए न्याय हित में अत्यंत आवश्यक और अपरिहार्य होने पर ही किया जाता है। यहां पर उच्च न्यायालय द्वारा स्थगन आदेश न दिए जाने के कारण एक ‘‘एसएलपी’’ (विशेष अनुमति याचिका) उच्चतम न्यायालय में दायर की गई थी! प्रथम गलती उच्चतम न्यायालय की तब हुई, जब उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय को फटकारने के बाबजूद अंतरिम आदेश न देकर याचिकाकर्ता को त्वरित सहायता प्रदान न करते हुए 15 दिन बाद प्रदान की! इस कारण से 30 जनवरी को अवैध रूप से चुना गया महापौर 18 फरवरी तक कार्यरत रहा, जब तक उसने पद से (वह भी परिस्थितियों वश) इस्तीफा नहीं दिया, क्योंकि चुनाव अधिकारी ने परिणाम घोषित होते ही उसे तुरंत चार्ज दिलवा दिया था। क्योंकि ‘‘तकल्लुफ में है तक़लीफ़ सरासर’’।
उच्च न्यायालय के आदेशानुसार की गई चुनावी प्रक्रिया की पूरी वीडियो रिकॉर्डिंग का अवलोकन करने पर पता चला कि पीठासीन चुनाव अधिकारी अनिल मसीह वैधानिक एवं लोकतांत्रिक रूप से स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव कराने के अपने कर्तव्य के निर्वहन में न केवल असफल दिख रहे थे, बल्कि कहीं न कहीं ‘‘कूट रचित’’ (फोर्जरी) करते हुए भी दिखाई दे रहे थे। उच्चतम न्यायालय ने उक्त कथित अपराध कदाचार एवं न्यायालय के समक्ष गलत बयानी के लिए न्याय चुनाव अधिकारी के विरुद्ध रजिस्टर को दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 340 के अंतर्गत तीन हफ्ते का कारण बताओ सूचना पत्र देने के आदेश भी दिए। याचिकाकर्ता द्वारा स्वयं चुनाव अधिकारी के विरुद्ध कोई आपराधिक प्रकरण दर्ज न करवाना और फिर दायर एसएलपी (विशेष अनुमति याचिका) में इस तरह की सीधी कोई मांग न करने के बावजूद उच्चतम न्यायालय का उक्त निर्देश कितना ‘‘न्यायोचित’’ है?, यह दूसरा प्रश्न है। तीसरा देश की सर्वोच्च न्यायालय की इस तरह की टिप्पणियों के बाद अधीनस्थ न्यायालय में चुनाव अधिकारी के खिलाफ आगे की जाने वाली कार्यवाही क्या प्रभावित नहीं होगी?
सबसे बड़ा प्रश्न यहां यह उत्पन्न होता है कि चंडीगढ़ मामले में उच्चतम न्यायालय ने संवैधानिक व कानूनी नजरिये से चंडीगढ़ के निर्वाचित महापौर का चुनाव अवैघ घोषित कर हारे हुए उम्मीदवार को निर्वाचित घोषित कर, जिसकी स्पष्ट मांग याचिका में नहीं थी, क्या कानून व नियम का पूर्ण रूप से पालन किया है? देश के न्यायिक इतिहास में ऐसा शायद पहली बार हुआ है। इस प्रश्न का संवैधानिक व कानून की दृष्टि से सूक्ष्म विवेचन किया जाना आवश्यक है। बावजूद इस तथ्य के उच्चतम न्यायालय ने अंततः पीड़ित पक्ष को राहत प्रदान की और लोकतंत्र की जो हत्या निर्वाचन अधिकारी ने तथ्यों के विपरीत परिणाम घोषित कर की थी, उसका इलाज कर लोकतंत्र की सुचिता को बनाये रखकर सुरक्षित किया।
उच्चतम न्यायालय का उक्त आदेश निम्न कारणों से संविधान@कानून का पालन करते हुए दिखाई नहीं देता है। तथापि अंतिम निर्णय निश्चित रूप से तथ्यों के आधार पर सही है। अन्यथा ‘‘चंदन धोई मछली पर छूटी ना गंध’’ की उक्ति चरितार्थ होना लाजमी है। आप जानते है, हमारे देश में कोई भी ‘‘चुनाव’’ गलत प्रक्रिया अपनाये जाने पर अथवा चुनाव जीतने के लिए गलत तरीकों का उपयोग किये जाने पर उक्त निर्वाचन को चुनौती देने के लिए चुनाव याचिका का प्रावधान है। क्योंकि सामान्यतया एक बार चुनावी प्रक्रिया प्रारंभ हो जाने पर गलत रूप से नामांकन को स्वीकार या अस्वीकार कर दिया जाये, तब भी चुनावी प्रक्रिया रोकी नहीं जाती है, बल्कि ‘‘चुनाव परिणाम’’ को ही चुनाव याचिका के माध्यम से चुनौती दी जा सकती है। ऐसा कानूनी प्रावधान है।
चंडीगढ़ चुनावी प्रक्रिया को समय समय पर विभिन्न कारणों से उच्च न्यायालय मे चुनौती दी गई थी, जिनमें एक कारण समय पर चुनाव न कराना, चुनाव तिथी एक बार तय हो जाने बाद लम्बी अवधि के लिए स्थगित कर देना, एक पार्षद को अवैध रूप से हिरासत में रखने से मुक्ति के लिए, राजनीतिक पार्टी से संबंधित व्यक्ति की चुनाव अधिकारी के रूप में नियुक्ति आदि! उच्च न्यायलय द्वारा दिए गये अंतरिम स्थगन आदेश को अस्वीकार करने के विरूद्ध दायर चुनाव याचिका में उच्चतम न्यायलय ने केन्द्र व चंडीगढ़ प्रशासन एवं अन्य पक्षों को नोटिस देने के साथ निर्वाचन के समस्त रिकार्ड अपने समक्ष प्रस्तुत किये जाने के निर्देश देते हुए दो सप्ताह बाद की तिथि निश्चित की। उच्चतम न्यायालय ने भी तुरंत अंतरिम स्थगन आदेश पारित नहीं किया। मतलब उच्च न्यायालय द्वारा चुनाव याचिका का निपटारा नहीं हुआ था, मात्र अंतरिम स्थगन आवेदन का निराकण हुआ था, जिसके विरूद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील की गई थी। यह तो वही बात हुई है कि ‘‘जल की मछलियां जल में ही प्यासी’’। यहां एक उल्लेखनीय व महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि उच्च न्यायालय में दायर याचिका में याचिकाकर्ता ने पुनः चुनाव किये जाने की प्रार्थना की थी, खुद को विजयी घोषित करने की नहीं।
मतलब उच्चतम न्यायालय के सामने स्थगन आदेश आवेदन पर आदेश पारित करने का मामला था। चूंकि यहां पर उच्चतम न्यायालय की नजर में चुनावी धांधली आईने के समान स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर हो रही थी और हारे हुए आदमी को जीता हुआ दिखा दिया, यह स्पष्ट है। तब उच्चतम न्यायालय ने बजाय स्थगन आदेश देने के, तथा उच्च न्यायालय को याचिका के गुण-दोष के आधार पर आदेश पारित करने के निर्देश देने की बजाए, स्वयंस्फूर्त रूप से अपील को अंतिम रूप से ही निर्णित कर दिया, जो याचिकाकर्ता की मांग ही नहीं थी। इस प्रकार स्पष्ट रूप से उच्चतम न्यायालय द्वारा एक कानूनी@तथ्यात्मक गलती की और एक गलत परिपाटी डाली गई!
यद्यपि यह जरूर कहा जा सकता है कि न्याय देने के लिए गलत परिपाटी डाली गई! उच्चतम न्यायालय की दूसरी महत्वपूर्ण गलती दिख रही है, पुलिस जांच अधिकारी के समान न्यायालय भी तथाकथित आरोपी जो जब तक प्रतिवादी था, से प्रश्नोंत्तर करने लगी और जब उसके बाद एक प्रतिवादी के रूप मे प्रस्तुत किये गये व्यक्ति को उच्चतम न्यायालय प्रथम दृष्टिया आरोपी ठहरा देता है, तब सुनवाई के समय अधीनस्थ न्यायालय स्वतंत्र निर्णय दे पायेगा, उसके लिये ‘‘तत्ता कौर न निगलने का न उगलने का’’ वाली स्थिति तो उत्पन्न नहीं हो जायेगी? बड़ा यक्ष प्रश्न यह है? यह उच्चतम न्यायालय का ही बनाया हुआ नियम व सिद्धांत है कि ‘‘न्याय न केवल मिलना चाहिए, बल्कि मिलते हुए दिखना भी चाहिए’’। कहते हैं कि ‘‘जंह पांच पंच तंह परमेश्वर’’, यहां पर उच्चतम स्तर पर किये गये आदेशानुसार बनाये जाने वाले आरोपी के साथ न्याय हो पायेगा? अधीनस्थ न्यायालय स्वतंत्र रूप क्या निर्णय ले पायेगी? सबसे महत्वपूर्ण गलती यह रही कि बहस के दौरान उच्चतम न्यायालय का यह कथन कि हम हॉर्स ट्रेंडिंग नहीं होने देंगे। यह कहीं से कहीं तक चुनाव याचिका का भाग नहीं था, लेकिन चुनाव याचिका के दायर होने के बाद और सुनवाई के एक दिन पूर्व महापौर के इस्तीफा देने व 3 पार्षदों के द्वारा दल-बदल करने के कारण उक्त स्थिति का भी संज्ञान लिया गया लगता है, जो याचिका की विषय वस्तु नहीं थी। तब मसीह के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने के साथ मसीह के ‘‘मसीहा’’ का पता लगाने की जांच के आदेश भी दिए जा सकते थे?
ऐसी स्थिति में उच्चतम न्यायालय के निर्णय को उसके पास उपलब्ध असीमित अधिकार को अनुच्छेद 142 के अधीन सही ठहराने के बजाय चुनाव याचिका के लिए बने कानून में आमूलचूल परिवर्तन लाने की आवश्यकता है, क्योंकि ‘‘कड़े गोश्त के लिए पैने दांतों की ज़रूरत होती है’’। ताकि इस तरह की स्थिति पैदा होने पर ऐसे प्रत्येक मामले में त्वरित व तुरंत निर्णय लेने में निम्न न्यायालय सक्षम हो सकंे। यह निर्णय कानून की सीमाओं से ऊपर उठकर न्याय की कुर्सी पर बैठे न्यायाधीपति के साहस व उनके विवेक पर ज्यादा निर्भर करता है। इसलिए यदि ‘‘न्याय तंत्र’’ की मूल कमियों को भविष्य में दूर नहीं किया गया तो, उस पर बैठा हुआ न्यायाधीश आज के मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ जैसा साहसी नहीं हुआ तब ऐसे निर्णय नहीं आ पायेगें, और फिर न्याय न तो ‘न्यायिक’ और न ‘अन्यायिक’ तरीेके से आ पायेगा?
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