वास्तविक ‘‘न्याय’’ क्या है?
संविधान की तीन स्तंभों में सबसे महत्वपूर्ण न्यायपालिका की ‘‘माननीय न्यायालय’’ का काम ‘‘सिर्फ और सिर्फ’’ ‘‘न्याय’’ देने का ही होता है। ‘‘न्याय’’ देते समय न्यायालय को सिर्फ न्याय देने पर ही ध्यान केन्द्रित करना होता है। न्यायालय के आस-पास विद्यमान ‘‘परिसर’’ से लेकर, बाहर क्या परिस्थितियां, घटनाक्रम चल रहा है, उससे प्रभावित हुए बिना सिर्फ न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत रिकॉर्ड (केस डायरी) पर उपलब्ध तथ्यों की न्यायिक समीक्षा कर माननीय न्यायाधीश ‘‘न्यायिक निर्णय’’ देते हैैं। न्याय की यह आदर्श स्थिति हैं। न्यायालय का निर्णय किस पक्षकार के पक्ष में है, हार-जीत में है, और निर्णय का समाज या देश के अन्य तंत्रों पर क्या प्रभाव पड़ेगा, उससे उन्मुक्त होकर ही, ड़रे बिना ही निष्पक्ष व निरपेक्ष होकर माननीय न्यायाधीश निर्णय देते है। यही वास्तविक न्याय है। यथा ‘‘न्याय न क्यारी ऊपजे, पंच न हाटे बिकायः’’।
इंसाफ का तराजू?
‘‘न्याय’’ के संबंध में यह कहा जाता है कि न्यायालय में इंसाफ की देवी की मूर्ति लगी होती है, जिनकी दोनों आंखों पर काली पट्टी बंधी होती है और हाथ में तराजू होती है। ग्रीक पौराणिक कथा में न्याय देवता का जिक्र किया गया हैं। ये एक काल्पनिक पात्र हैं। ‘‘न्याय देवता का नाम थेमिस हैं। इनका वर्णन इस प्रकार किया गया हैं-हर परिस्थिति में भावना को दूर रखकर न्याय करने वाली ‘‘दोनों पक्षकारों को समान भाव से देखने वाली’’ किसी के भी रूप, पैसा, अधिकार, धर्म से प्रभावित न होने वाली। आँखों पर की पट्टी - सभी को एक ही भाव से देखने वाली का प्रतीक हैं। हाथ में रहा तराजू, ‘‘निष्पक्ष न्याय का प्रतीक’’ हैं। तराजू में कुछ भी तौल के देखे-वह ‘‘वजन के हिसाब से ही दूसरे को तौलता है, चाहे वो कुछ भी हो’’।
‘‘संतुलन का परसेप्शन’’।
माननीय उच्चतम न्यायालय के पिछले कुछ न्यायिक निर्णयों से ऐसा आभास सा हो रहा है कि उन निर्णयों में कहीं न कहीं न्यायालय का ‘‘प्रयास’’ (स्वाभाविक अथवा अतिरिक्त?) ‘न्याय’ के साथ दोनों पक्षों के बीच एक संतुलन बनाने का प्रयास होता हुआ दिखता है। तथापि निर्णय ‘न्यायिक’ ही होते हैं। इस हेतु जरूरत पड़ने पर न्यायालय अनुच्छेद 142 के अंतर्गत प्राप्त असीमित विशेषाधिकार/विवेकाधिकार का भी सहारा लेती है। सामान्यतः न्यायालय के सामने दो ही पक्ष होते है, जो अपना-अपना पक्ष रखते हैं, जिनके बीच ही निर्णय का तराजू का कांटा धूमता है। तीसरा पक्ष वह होता है, जो न्यायिक निर्णय के परिणाम के आकलन, मूल्यांकन का पक्षपात पूर्ण हुए बिना निष्पक्ष होकर करता हैं। इससे न्यायालय को न तो कोई लेना-देना होता है और न ही इससे उसके ‘‘स्वास्थ्य’’ पर कोई प्रभाव पड़ता है। पिछले कुछ समय से कुछ न्यायिक निर्णयों से बनते उक्त परसेप्शन ‘‘संतुलन’’ बनाने को बल सा मिल रहा है।
संजय सिंह का जमानत आदेश!
इसी संदर्भ में अभी ताजा उदाहरण आप पार्टी के सांसद संजय सिंह के विरुद्ध प्रवर्तन निदेशालय द्वारा की गई ‘‘पीएमएलए’’ कानून के अंतर्गत शराब घोटाले से जुड़े मनी लॉन्ड़िग में की गई कार्रवाई के तहत की गई गिरफ्तारी पर उच्चतम न्यायालय द्वारा संजय सिंह को दी गई जमानत के निर्णय है। चंूकि आरोपी को जमानत मिली, इसीलिए उसके साथ न्याय हुआ, आरोपी की यह सोच स्वभाविक ही है। कहते है ना कि ‘‘अघाए को ही मल्हार सूझता है’’। दूसरी ओर अभियोजन पक्ष जिसने आरोपी के विरूद्ध गिरफ्तारी की कार्रवाई की बावजूद जमानत का विरोध ऑन रिकॉर्ड नहीं किया, तब भी यह कहा जा सकता है, अभियोजन पक्ष की भी जीत हुई है। क्योंकि उसने जमानत का विरोध नहीं किया, जो सामान्य रूप से अन्य प्रकरणों में ई.डी. अभी तक करता चला आ रहा है। प्रवर्तन निदेशालय द्वारा उक्त अधिनियम के अंतर्गत मोदी सरकार के कार्यकाल में अभी तक दर्ज 121 मामलों में (जिनके मात्र 6 सत्ता पक्ष के नेताओं के विरूद्ध ही) से अधिकतरों में आरोपी को जमानत ई.डी. के विरोध के कारण नहीं मिली है। भले ही प्रकरणों में चालान प्रस्तुत न हुए हो अथवा गवाही की कार्रवाई चालू न हुई हो। विपरीत इसके पूर्व की यूपीए सरकार के 10 वर्ष के कार्यकाल में मात्र 26 नेताओं के विरूद्ध कार्रवाई की गई, जिनमें से 14 (54 प्रतिशतं) विपक्ष के थे। इस प्रकार सिक्के के दूसरे पहलू का एक अर्थ यह भी निकलता है कि कांग्रेस (स्वतंत्रता के बाद की) भाजपा की तुलना में ज्यादा भ्रष्ट पार्टी है। इसलिए केन्द्रीय एजंेसीसज् को सरकार होने के बावजूद उन्हे सत्ताधारी पार्टी के नेताओं के विरूद्ध कार्रवाई करनी पड़ी थी।
ई.डी. द्वारा संजय सिंह का जमानत का विरोध नहीं!
सबसे महत्वपूर्ण गौर करने वाली बात यह है कि प्रस्तुत प्रकरण में न्यायालय ने संतुलन बनाने का प्रयास किया है, ऐसा इसलिए लगता है कि न्यायालय के समक्ष अभियुक्त ने पीएमएलए की धारा 45 के अंतर्गत यह कहकर जमानत की मांग की थी कि, प्रथम दृष्टया यह प्रावधान आरोपी पर लागू नहीं होता है, क्योंकि इसके समस्त आवश्यक तत्वों का पूर्णतः अभाव हैै। सुनवाई के समय न्यायालय इस बात से शायद संतुष्ट भी था। इसलिए माननीय न्यायालय ने ई.डी. से यह कहा कि आरोपी 6 महीनें से जेल में बंद है, उसके पास से कोई रूपये की जप्ती अभी तक नहीं हुई है। आपके पास आरोपी को निरोध में आगे रखने के लिए और कोई तथ्य, साक्ष्य हो, तो रिकार्ड पर लाईये। कृपया यह ध्यान में रखिये कि यदि हमने खामियां पाई तो धारा 45 के अंतर्गत हम यह रिकॉर्ड करेंगे कि अपराध नहीं किया है, जो आपके लिए नुकसानदेह होकर उसका असर ट्रायल की सुनवाई पर होगा। इस प्रकार एक तरह से उच्चतम न्यायालय ने एक विकल्प देकर ई.डी. को अप्रत्यक्ष रूप से मजबूर किया कि वह जमानत का विरोध न करे। अन्यथा उनके खिलाफ आदेश पारित कर जमानत दे दी जायेगी।
संजय सिंह की जमानत का निर्णय ‘‘मिसाल’’ नहीं।
अंततः ईडी के वकील ने बहुत ही समझदारी से काम लेते हुए संजय सिंह को जमानत देने का विरोध न करते हुए अपनी सहमति दे दी। इस प्रकार संजय सिंह को जमानत देने के साथ ही न्यायालय ने इस निर्णय को एक ‘‘उदाहरण’’ रूल ऑफ लॉ अथवा ‘‘मिसाल’’ अन्य मामलों के लिए नहीं माना जा सकता है, यह भी स्पष्ट कर दिया। इसे न्याय के साथ-साथ संतुलन बनाने की नीति के अलावा क्या कहा जा सकता है? ‘‘अपनी पीठ खुद को नहीं दिखती’’ इस बात को एक अच्छा कानूनविद् ही बेहतर अच्छे तरीके से ज्यादा बतला सकता है। जब न्यायालय इस तार्किक परिणति पर पहुंच चुका था कि संजय सिंह के विरूद्ध प्रथम दृष्टया मामला नहीं बनता है, तब उच्च न्यायालय को गुण-दोष के आधार पर ही आदेश पारित करना चाहिए था। इससे वह सबके लिए (ई.डी. सहित) यह एक मिसाल बनकर भविष्य में ई.डी. को इस तरह की आधारहीन कार्रवाई करने से हतोत्साहित करता।
चंडीगढ़ मेयर का चुनाव!
इसी तरह का चंड़ीगढ मेयर के चुनाव के वोट का डाका सरे आम हुआ। मामला उच्चतम न्यायालय तक पहंुचा। उच्च न्यायालय के अंतरिम सहायता देने के इंकार के अंतरिम आदेश के विरूद्ध अपील दायर की गई थी। तब उच्चतम न्यायालय ने यह कहा कि उच्च न्यायालय के सामने प्रस्तुत रिकॉर्डिंग वीडियो से स्पष्ट रूप से धांधली होते हुए दिख रही थी, तब क्यों नहीं अंतरिम आदेश पारित किये गये? परंतु दुर्भाग्यवश उच्चतम न्यायालय ने भी स्वयं तुरंत उच्च न्यायालय के आदेश को स्थगित नहीं किया, बल्कि सरकार को नोटिस देते हुए 15 दिन बाद की सुनवाई निश्चित की गई। तत्पश्चात सिर्फ स्थगन आवेदन पर आदेश पारित करने की बजाए पूरे मामले को गुण-दोष के आधार पर न केवल चुनाव अवैध घोषित कर दिया, बल्कि हारे हुए उम्मीदवार को जीता हुआ भी घोषित कर दिया, जो याचिकाकर्ता की मांग ही नहीं थी। इससे न्याय के साथ-साथ यदि संतुलन बनाये रखने का परसेप्शन बना, ऐसा कहने वाले को गलत नहीं कहा जा सकता है।
‘‘श्री राम जन्म भूमि निर्णय’’।
इसी प्रकार रामजन्म भूमि विवाद का निर्णय में भी दोनों पक्षों के बीच संतुलन बनाने का प्रयास करते हुए, उच्चतम न्यायालय ने आदेश पारित किया। जो मुद्दे, विचाराधीन नहीं थे उन्हें भी सेटल किया गया। विवादित भूमि पर मुस्लिम पक्ष के दावे को अस्वीकार करते हुए पूरी तरह से ‘‘रामलला’’ का हक माना गया। बावजूद इसके सुन्नी वक्क बोर्ड को अयोध्या में ही किसी उचित जगह मस्जिद निर्माण हेतु भूमि देने तथा मंदिर निर्माण के लिए ट्रस्ट बनाने का दिया गया आदेश भी एक प्रकार से ‘‘संतुलन के न्याय’’ का ही आदेश था।
अनुच्छेद 370 का मामला।
उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 370 को निरस्त करने वाले राष्ट्रपति के आदेशों को सद्भावना पूर्व होते हुए वैद्य माना गया। तथापि अनुच्छेद 367 में संशोधन करने वाले आदेशों को असवैधानिक मानने के बावजूद जम्मू-कश्मीर के पुर्नगठन की वैद्यता को निर्णित करने के बजाए सालिटर जनरल के आश्वासन के कथन को स्वीकार कर लिया, जो एक संतुलन बनाने की ओर बढ़ने का आदेश ही कहलायेगा।
महाराष्ट्र की राजनीति का सुभाष देसाई बनाम प्रधान सचिव प्रकरण!
उच्चतम न्यायालय ने राज्यपाल के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को तथाकथित शिवसेना में विभाजन के बाद बहुमत साबित करने के निर्णय को अवैध घोषित करने के बावजूद उस अवैध निर्णय से उत्पन्न अवैध सरकार को भंग करने की इच्छा के संकेत देने के बावजूद भंग कर यथा स्थिति बहाल करने का न्यायिक आदेश न देकर, इसे संतुलन बनाने का प्रयास के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है?
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