भूमिका
सूरत लोकसभा के हुए निर्विरोध निर्वाचन के मामले को लेकर जब कांग्रेस द्वारा भारतीय संविधान की दुहाई दी जा रही हो, तब उम्मीदवार का नामांकन निरस्त कर (खजुराहो संसदीय क्षेत्र) एवं तीसरे चरण में हो रहे इंदौर लोकसभा से भी कांग्रेस उम्मीदवार का नामांकन वापिस करवाकर भाजपा में शामिल कर, यथासंभव निर्विरोध चुनाव की नई नीति की अचानक आहट इस लोकसभा चुनाव सुनाई देने लगी है। यह स्थिति तब पैदा हो रही है या की जा रही है, जब दोनों लोकसभा क्षेत्र सूरत व इंदौर से लगातार वर्ष 1989 से व खजुराहो से वर्ष 2004 से भाजपा भारी बहुमत से चुनाव जीतती चली आ रही है। ‘‘नैतिकता’’ का राजनीति में प्रश्न उठाना तो मूर्खता ही कहलायेगी। ऐसी स्थिति में इस पहलू पर जरूर विचार करना आवश्यक हो जाता है कि क्या ‘‘नोटा’’ के रहते हुए एकमात्र बचे उम्मीदवार को ‘‘निर्विरोध’’ निर्वाचित घोषित करने की कानूनी स्थिति पर पुनर्विचार का समय नहीं आ गया है?
नोटा का अर्थ।
भारतीय संविधान व जन प्रतिनिधित्व कानून में मूल रूप से ‘‘नोटा’’ का प्रावधान नहीं था। परंतु ‘‘पीयूसीएल बनाम भारत सरकार’’ के मामले में उच्चतम न्यायालय के निर्देश के पालन में दिसंबर 2013 में पहली बार मध्य प्रदेश सहित पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में चुनाव आयोग ने ‘‘नोटा’’ का विकल्प भी मतदाता को दिया, तब भारत नोटा का विकल्प देने वाला विश्व का 14वां राष्ट्र बना। वर्ष 2014 में राज्यसभा के चुनाव में भी नोटा का प्रयोग किया गया। यह एक नकारात्मक प्रक्रिया है, जहां नोटा का कोई चुनावी मूल्य नहीं होता है। यह सिर्फ प्रत्याशी की अयोग्यता को दिखाने में मतदाता को सक्षम बनाता है। लेकिन यह भी सच है कि नोटा एक ‘‘काल्पनिक उम्मीदवार’’ होता है, जिस प्रकार भगवान एक लीगल एनटाइटिटी (वैद्य व्यक्ति) होते हैं। ‘‘नोटा’’ का मतलब ऐसा ‘‘दंतहीन विकल्प’’ है, जो ‘‘समस्त’’ उम्मीदवारों को अस्वीकार करने का अधिकार देता है। ‘‘समस्त मतलब सभी’।
नोटा के रहते निर्विरोध चुनाव! मतदाता के मताधिकार पर कुठाराघात।
जब खुद चुनाव आयोग जोर शोर से यह प्रचारित, प्रसारित करता है कि प्रत्येक नागरिक को अपने ‘मताधिकार’ का उपयोग हर हालत में करना ही चाहिए और 100 परसेंट वोटिंग होना चाहिए, तब ‘‘निर्विरोध’’ परिणाम के कारण सूरत लोकसभा क्षेत्र के लगभग 16 लाख वोटर को तथा उनमें से वे युवा वोटर जिन्हें पहली बार मताधिकार का अधिकार मिला है, वे अपने इस अधिकार से वंचित हो गये और उन्हें वोट देते हुए ‘‘सेल्फी’’ खींचने का मौका भी नहीं मिल पाया। मतदान न करने पर सजा देने का प्रावधान लाने की वकालत करने वालों के लिए तो निर्विरोध चुनाव एक झटके, सदमे से कम नहीं होगा?
नोटा दंतहीन प्रावधान! धरातल पर परिणाम मूलक नहीं।
‘‘नोटा’’ व वृद्धाश्रम की ‘‘दशा’’ व ‘‘दिशा’’ एक सी ही है। दोनों ही व्यवस्था समाज की स्वास्थ्य व परिपक्व मानसिकता में कमी के कारण उसकी पूर्ति हेतु ही बनी स्थिति के कारण है। वृद्धाश्रम की आवश्यकता परिवार द्वारा दायित्वों को न निभाने के कारण उत्पन्न होती है। अतः जब समाज और परिवार अपना दायित्व पूर्ण रूप से निभाने में सक्षम होकर निभाने लग जाएगा, तब ‘‘वृद्धाश्रम की सोच’’ ही समाप्त हो जाएगी।
इसी प्रकार परिपक्व लोकतंत्र में जनता के पास दो विकल्प होते है सत्ता पक्ष व विपक्ष। कुछ विदेशों में तो विपक्ष भी छाया मंत्रिमंडल बनाकर जनता के बीच अपनी नीति को प्रभावी रूप से ले जाते हैं। परन्तु जहां लोकतंत्र परिपक्व नहीं होता है, तब पक्ष-विपक्ष दोनों के नाकाम व असफल सिद्ध हो जाने की स्थिति में तभी मजबूरी वश ‘‘नोटा’’ का प्रावधान कर विकल्प दिया जाता है। परन्तु नोटा का प्रयोग होने के बावजूद मतदाता अपने उद्देश्यों में वस्तुतः सफल नहीं हो पाता है। क्योंकि अंततः ‘‘शासक’’ तो दोनों पक्षों में से कोई एक ही बनता है, जिसे न चुनने के लिए नोटा का उपयोग किया गया था। ‘नोटा’ का बहुमत होने की स्थिति में भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में उसे ‘‘शासन का अधिकार’’ नहीं मिल जाता है। अतः नोटा में वास्तविक परिणाम को लागू करने वाली शक्ति निहित न होने के कारण, जिस मुद्दे को लेकर नोटा का प्रयोग किया गया है, उसकी प्राप्ति न होने से नोटा का आह्वान करना, व्यावहारिक रूप से उद्देश्य की प्राप्ति के लिए कहीं से कहीं उचित नहीं ठहरता है।
जन प्रतिनिधित्व कानून में संशोधन आवश्यक।
इस बात पर गहनता से विचार करने की आवश्यकता है कि ‘नोटा’ ‘‘किन’’ उद्देश्यों की पूर्ति करता है? अथवा उच्चतम न्यायालय ने जिन उद्देश्यों के लिए इसका प्रावधान करने के निर्देश चुनाव आयोग को दिये थे, की क्या पूर्ति हो रही है? वास्तव में यदि ‘नोटा’ को ‘प्रभावी’ बनाना है, तो जन प्रतिनिधित्व कानून में यह संशोधन किया जाना आवश्यक है कि यदि नोटा को अधिकतम वोट मिलते है, तो न केवल चुनाव फिर से होना चाहिए, बल्कि जिन भी उम्मीदवारों को नोटा से भी कम मत मिले है, उन्हें पुनः खड़े होना का अधिकार नहीं होना चाहिए। यद्यपि समय के साथ ‘नोटा’ की लोकप्रियता बढ़ने के बावजूद अभी तक नोटा ‘‘बहुमत’’ हासिल करने में कामयाब नहीं हुआ है। अधिकतम व बहुमत में अंतर है। साथ ही जीत का अंतर नोटा को मिले मत से कम होने पर पुनः चुनाव होना चाहिए। इस तरह की मांग को लेकर एक जनहित याचिका प्रसिद्ध लेखक व मोटिवेशनल (प्रेरक) शिव खेड़ा ने उच्चतम न्यायालय में दायर की है, जिस पर चुनाव आयोग ने नोटिस भी जारी कर दिया है। नवम्बर 2018 में महाराष्ट्र व हरियाणा राज्य में स्थानीय निकायों के चुनाव में संशोधन कर अधिकतम वोट मिलने पर फिर से चुनाव होने का प्रावधान किया गया है। आखिर उपरोक्त प्रस्तावित संशोधन की मांग से नुकसान किस बात का है? किसका है?
वर्तमान ‘नोटा’ संसदीय प्रणाली को अराजकता की स्थिति की ओर अग्रसर करता है।
हमारे देश में संसदीय प्रणाली है, जहां चुने गये विधायक/सांसद, ही कार्यपालिका के माध्यम से ‘‘शासन’’ चलाते हैं। चंूकि नोटा शासक नहीं हो सकता है, अतः आप एक अराजकतावादी स्थिति की ओर ‘नोटा’ के माध्यम से अग्रसर हो रहे हैं। इसलिए ‘‘नोटा’’ का प्रयोग करने वालो से भी ज्यादा बुद्धिमान वे लोग है, जो नोटा का प्रयोग करने वालों के कारणों को ही अपनाते हुए ही समय व खर्च को बचाते हुए वोट ड़ालने ही नहीं जा रहे है, जिस कारण से मत प्रतिशत गिर रहा है। यदि आप नोटा’ के समर्थक है, तो वही काम तो मत न ड़ालने से भी हो रहा है। अतः जितना कम प्रतिशत मतदान हुआ है, उसको ‘नोटा’ ही माना जाना चाहिए। यदि आप नोटा के मतदान को मतदान के कम प्रतिशत के आकडे में जोड़ दें, तो आप देखेगें कि एक बड़ा वर्ग लगभग 40 प्रतिशत से अधिक लोग वर्तमान चुनावी प्रणाली में भाग न लेकर उससे दूर है। तभी आप चैतन्य होकर चिंता से उस तंत्र को विकसित करेंगे, जिस पर विश्वास होकर, लोग ज्यादा संख्या में मतदान करने आगे आयेगा।
‘‘नोटा’’ के बजाए! अटल जी का सिद्धान्त ‘‘रोटी पलटने’’ को अपनाईये।
मतदाता को यह समझना चाहिए कि यह भगवान राम का देश होते हुए भी ‘‘कलयुग’’ होने के कारण देश में ‘राम राज्य’ नहीं है, जहां घर पर ‘ताला’ लगाने की आवश्यकता नहीं होती थी। अतः यदि आपको कुँआ या खाई, चोर या डाकू में एक किसी एक का चुनाव करना ही है, तब आपने यदि डाकू चुना है, तो वह भविष्य में डाकू से चोर बनने की ओर अग्रसर होगा, ताकि पुनः वह पांच वर्ष के लिए चुना जा सके। और यदि चोर चुना गया है, तो वह ‘‘साहूकार’’ बनने का प्रयास अवश्य करेगा। यदि ऐसा नहीं हो पाता है, तब अटल जी के शब्दों में हर पांच सालों में ‘रोटी’ पलट देना चाहिए ताकि रोटी (लोकतंत्र) जल न सके को अपना लेना चाहिए। तभी लोकतंत्र सुरक्षित रह पायेगा। 2018 में मध्य प्रदेश विधानसभा के हुए चुनाव में भाजपा व कांग्रेस के बीच मात्र 0.1 प्रतिशत वोट शेयर का अंतर था, जबकि नोटा का 1.4 प्रतिशत वोट शेयर रहा, जो परिणाम को बदल सकता था।
जय हिंद!
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