*गांधीवादी सिद्धांत! ‘‘साध्य’’ के साथ ‘‘साधन’’ भी पवित्र होना चाहिए। क्या ‘‘न्याय प्रणाली’’में ये ‘‘अप्रासंगिक’’ हो गए हैं?
क्या सिर्फ न्यायिक क्षेत्र में ही ‘‘नैतिकता अंर्तनिहित’’ है?
क्या ‘‘नैतिकता’’ एवं‘‘ सुचिता’’ की बात सिर्फ राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक क्षेत्रों में ही की जानी चाहिए? ‘‘न्याय’’ क्षेत्र में नहीं? यदि न्याय क्षेत्र में उक्त तत्व ‘‘अंतर्निहित’’ (इन-बिल्ट) है, तो यह बात तो अन्य क्षेत्रों पर भी लागू होती है। उच्चतम न्यायालय द्वारा व्यवहारिक रूप से अर्द्ध-राज्य (पूर्ण राज्य नहीं) ‘दिल्ली प्रदेश’ की तिहाड़ जेल में ‘‘धन शोधन निवारण अधिनियम’’ के अंतर्गत बंद, ऐतिहासिक बने मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को वर्ष 2024 में हो रहे लोकसभा के ‘‘आम चुनाव के प्रचार’’ की शेष अवधि (10 मई से 01 जून तक) के लिये दी गई अंतरिम जमानत के मामले ने उक्त मुद्दे को एक नया आयाम व ‘‘तूल’’ दे दिया है। दूरगामी प्रभाव पड़ने वाले उक्त अंतरिम आदेश की चीर-फाड़ किया जाकर गंभीरता से विस्तृत रूप से विचार किया जाना आवश्यक है। बावजूद इस तथ्य के कि उक्त अंतरिम आदेश को ईडी द्वारा भविष्य में न्याय दृष्टांत (नजीर) माने जाने की बात कहने पर उच्चतम न्यायालय ने यह कहा कि अंतरिम जमानत देना प्रत्येक मामले के ‘‘व्यक्तिगत तथ्यों’’ पर आधारित होता है। हालांकि नजीर तभी मानी/लागू की जाती है, जब ‘‘तथ्य समान हो’’। अतः ‘‘नजीर’’ के मामले में न्यायालय की यहां एक ‘‘चुप्पी’’ सी दिखती है, जो भविष्य में खतरनाक भी सिद्ध हो सकती है
एक बिल्कुल ही‘‘अलहदा’’ मामला?
स्वतंत्र भारत के ही नहीं, बल्कि पूर्व के न्यायिक इतिहास में भी शायद यह एक मात्र ऐसा अलग मामला है, जहां उच्चतम न्यायालय ने बेहद चर्चित दिल्ली शराब कांड (आबकारी नीति धनशोधन घोटाला) के तथाकथित सूत्रधार दिल्ली के मुख्यमंत्री जो ‘‘पीएमएलए’’ के अंतर्गत 51 दिन जेल में बंद रहे, को ईडी के जबरदस्त विरोध के बावजूद अंततः अंतरिम जमानत उम्मीदवार न होने के बावजूद चुनावी प्रचार के लिए दे दी, तथापि वे ‘आप’ के स्टार प्रचारक जरूर है। ‘‘विधिक क्षेत्रों’’ से जुड़े समस्त व्यक्तियों के लिए भी यह आदेश एक नितांत ‘‘नया’’ आश्चर्य मिश्रित अनुभव हो सकता है। कुछ के लिए, ‘‘सुखद’’,तो कुछ के लिए ‘‘दुखद’’; तो वर्तमान स्थिति को देखते हुए ऐसा आदेश तो होना ही था, यह भी एक ‘सुविचार’हो सकता है।
अंतरिम जमानतआदेश। अर्थ/परिस्थितियाँ।
अंतरिम जमानत देते समय उच्चतम न्यायालय के निम्न कथन पर विशेष रूप से गौर किये जाने की आवश्यकता है। ‘अंतरिम जमानत शब्द को आपराधिक प्रक्रिया संहिता में परिभाषित नहीं किया गया है। लेकिन उसने अदालतों को बाध्यकारी परिस्थितियों में जेल में बंद व्यक्तियों को यह अस्थायी राहत देने से नहीं रोका है। अस्थायी रिहाई वाली‘‘अंतरिम’’ जमानत अनिवार्य परिस्थितियों और आधारों पर दी जा सकती है, तब भी जब नियमित जमानत उचित नहीं होगी। ‘‘ असहनीय दुःख और पीड़ा ’’ की स्थिति किसी जेल में बंद व्यक्ति की अस्थायी रिहाई को उचित ठहराने के कई कारणों में से एक हो सकती है, भले ही नियमित जमानत की आवश्यकता न हो’’। उच्चतम न्यायालय की उक्त ‘‘दुख और पीड़ा की भावना’’ की स्थिति मात्र मौत, बीमारी के मामले में ही हो सकती है, ‘‘चुनाव प्रचार’’ के लिए नहीं, जिस बात के लिए अंतरिम जमानत दी गई है। इस बात को माननीय न्यायालय शायद समझ नहीं पाये, यह भी ‘‘समझ से परे’’ है।
जेल के अंदर रहने वाले ‘‘प्रथम मुख्यमंत्री’’।
अरविंद केजरीवाल देश के ऐसे पहले मुख्यमंत्री बन गये है, जो पद पर रहते हुए जेल गये। ‘‘नैतिकता’’ का आवरण ओढ़कर ‘‘कट्टर ईमानदारी’’ की कसमें खाकर ‘‘अन्ना’ का ‘अन्न’’ खाकर, राजनीति में तेज तर्रार तरीके से तेजी से कदम बढ़ाते,‘‘नौकरशाह से राजनेता’’ बने, मात्र 11 वर्ष में ‘‘राष्ट्रीय पार्टी’’ बनी‘‘आप’’(आम आदमी पार्टी) केराष्ट्रीय संयोजक, अरविंद केजरीवाल ने अपने उन अन्य मुख्यमंत्री साथियों की तरह नैतिकता के उस उच्च स्तर को अपनाया नहीं, जिन्होंने मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए गिरफ्तारी होने के पूर्व ही मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देकर मुख्यमंत्री पद की गरिमा के क्षरण होने से बचाया था। चाहे फिर वे तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता, बिहार के लालू प्रसाद यादव,कर्नाटक के बी एस येदियुरप्पा और अभी हाल मेें ही झारखंड के मुख्यमंत्री रहे हेमंत सोरेन हो, जिन्होंने गिरफ्तारी के पूर्व ईडी टीम के साथ राज्यपाल भवन जाकर अपना इस्तीफा सौंपने के बाद गिरफ्तारी दी। आश्चर्य, दुखद व हास्य की बात तो यह है कि मात्र आरोप लग जाने के आधार पर 250 से अधिक ‘‘दागी सांसदों’’ से अन्ना आंदोलन के दौरान इस्तीफे की मांग करने वाले स्वयं इस्तीफा देना तो दूर, अंतरिम जमानत की मांग चुनाव प्रचार के लिए कर रहे हैं।
मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा न देने का फायदा? अंतरिम जमानत।
मुझे लगता है अरविंद केजरीवाल ने शिवसेना के दो फाड़ होने के प्रकरण में उच्चतम न्यायालय की मई 2023 में की गई उक्त टिप्पणियों/अवलोकन (ऑब्जरवेशनस्) को निश्चित रूप से ध्यान में रखा होगा। जब माननीय न्यायालय ने यह कहा था कि यदि उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा नहीं देते और विश्वास मत प्राप्त करते हुए हार जाते तो न्यायालय उन्हें मुख्यमंत्री पद पर पुर्नस्थापित कर सकता था। शायद इसीलिए केजरीवाल ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा नहीं दिया, जिसका फायदा शायद उन्हें अंतरिम जमानत के रूप में मिला भी। इसीलिए शायद हेमंत सोरेन को जमानत नहीं मिल पायी।
जेल में बंद आरोपी/अपराधी का चुनाव लड़ना संवैधानिक अधिकार; तो चुनाव प्रचार क्यों नहीं?
ऐसी स्थिति में उच्चतम न्यायालय को इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए की जेल में बंद व्यक्ति जब चुनाव लड़ता है, जो उसका संवैधानिक अधिकार है, को मान्य किये जाने पर उसी चुनाव के प्रचार के लिए अनुमति न मिलना क्या यह उसका संवैधानिक या वैधानिक अधिकार का उल्लंघन नहीं है? विपरीत इसके वह व्यक्ति जो चुनावी मैदान में उतरा ही नहीं है, को चुनाव में प्रचार करने के लिए अंतरिम जमानत देना भले ही वैधानिक हो परंतु ‘‘न्यायोचित’’ कैसे हो सकता है? उच्चतम न्यायालय को गहन विचार कर इस मुद्दे को अंतिम रूप से निर्णीत अवश्य कर देना चाहिए। वैसे उच्चतम न्यायालय का यह आदेश संविधान के अनुच्छेद 14 में वर्णित समानता के अधिकार के विपरीत एक आपराधिक अपराधी एवं एक राज नेता आर्थिक अपराधी के बीच ‘‘असामान्य मतभेद अंतर’’ करता है, जो गलत है। शायद इसी कारण पंजाब के खंदूर साहब लोकसभा चुनाव क्षेत्र से चुनाव लड़ने के लिए, अवैध हथियार रखने के आरोप में जेल में बंद ‘‘वारिस पंजाब दे’’ के प्रमुख अमृतपाल सिंह ने भी अंतरिम जमानत मांगी है। प्रसंग वश आपके ध्यान में यह बात लाना आवश्यक है कि जन प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 62(5) के अंतर्गत जेल में बंद व्यक्ति को वोट ड़ालने का अधिकार नहीं हैं, जबकि वह चुनाव लड़ सकता है। क्या उच्चतम न्यायालय को इस ‘‘खामी, कमी’’ की ओर केन्द्र शासन का ध्यान आकर्षित नहीं करना चाहिए? वैसे स्वयं उच्चतम न्यायालय ने ‘‘टाडा’’ में बंद रहे सांसद कल्पनाथ राय को संसद की कार्रवाई में भाग लेने के लिए अंतरिम जमानत देने से इंकार कर दिया था। राज्यसभा के चुनाव के बहुमत परीक्षण के मामलों में भी उच्चतम न्यायालय ने सांसद, विधायक को संसद या विधानसभा में आने की अनुमति कम ही दी है।
प्रथम दृष्टया मामला होने के बावजूद अंतरिम जमानत गलत? आधार गलत?
माननीय उच्चतम न्यायालय का यह निर्णय भविष्य की चिंताओं को लेकर चिंतित अवश्य करता है। माननीय न्यायालय का यह कहना कि चुनाव के दौरान सभी पार्टियों को अपना एजेंडा जनता के सामने रखने का अधिकार है। क्या पार्टी का एजेंडा सिर्फ उसका राष्ट्रीय संयोजक ही रख सकता है, अन्य पदाधिकारी नहीं? 40 स्टार प्रचारकों की फिर भूमिका क्या है? क्या यह ‘‘सिद्धांत’’ सैद्धांतिक रूप से सभी राजनीतिक आरोप जिनके विरुद्ध ‘‘आपराधिक अपराध’’ के प्रकरण दर्ज है, जो चुनावी समर में है, पर लागू होते हैं, होंगे? उच्चतम न्यायालय का जमानत देते समय कहा गया निम्न कथन महत्वपूर्ण है ‘‘अरविंद केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री और राष्ट्रीय दलों में से एक के नेता है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि उनके खिलाफ गंभीर आरोप लगाए गए हैं। लेकिन उन्हें दोषी नहीं ठहराया गया है। इसका कोई आपराधिक इतिहास भी नहीं है। वह समाज के लिए खतरा भी नहीं है। इसे व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए’’। क्या उच्चतम न्यायालय द्वारा उक्त उल्लेख अपने आदेश को ‘बल’ देने के लिए तो नहीं किया गया है? अथवा उच्चतम न्यायालय ने उक्त कथन कहकर दोनों पक्षों को निरुत्तर/संतुष्ट करने का प्रयास किया है।
केजरीवाल के लिए नरम रुख तो नहीं?
न्यायालय का यह कथन कि ‘‘आपराधिक इतिहास न होना’’ ईडी के लिये जवाब और ‘‘बहुत गंभीर आरोप होना’’ केजरीवाल के लिए जवाब है। यद्यपि यह कथन भी गलत है कि केजरीवाल का आपराधिक इतिहास नहीं है। उनके विरूद्ध मार्च 22 तक लगभग 30 प्रकरण विभिन्न 19 धाराओं में दर्ज हैं। केजरीवाल को आदतन अपराधी नहीं माना है, चुने हुए मुख्यमंत्री है, और राष्ट्रीय राजनीतिक दल के नेता (संयोजक) भी है, न्यायालय ने यह भी कहा है। परन्तु माननीय न्यायालय इस बात को भूल रहा है कि अधीनस्थ अदालतों द्वारा केजरीवाल की गिरफ्तारी को चुनौती देने वाली याचिका को अस्वीकार कर देने पर प्रथम प्रथम दृष्टिया केजरीवाल के विरुद्ध मामला स्थापित होता है, जैसा कि पीएमएलए अधिनियम में भी यही प्रथम दृष्टया अनुमान का प्रावधान एक आरोपी के विरुद्ध होता है, उसे निर्दोष नहीं माना जाता है, जैसा कि भा.द.स. के अंतर्गत विपरीत अनुमान (प्रिज्यूमशन) का प्रावधान है।
अंत में इलाहाबाद उच्च न्यायालय का सांसद धनंजय सिंह को जमानत देने के बावजूद सजा पर रोक लगाने से इनकार (जिसका प्रभाव यह हुआ कि वे चुनाव नहीं लड़ पाए) करते हुए यह कहना कि राजनीति में ‘‘सुचिता समय की मांग है’’, उच्चतम न्यायालय के लिए, आंख खोलने के लिए काफी है।
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