न्याय में देरी! न्याय से वंचित। प्रस्तुत प्रकरण पुनः एक उदाहरण।
अरविंद केजरीवाल व हेमंत सोरेन प्रकरण का तुलनात्मक अध्ययन!
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल को जिन परिस्थितियों के अंतर्गत कार्यवाही के कारण उच्चतम न्यायालय ने अंतरिम जमानत दी हैं, उसकी विस्तृत चर्चा मैंने पिछले लेख में की हैं। अब प्रश्न यह उत्पन्न होता हैं कि हेमंत सारेन को अंतरिम जमानत अभी तक नहीं मिली क्यों ? इसके लिए आवश्यक है कि अरविंद केजरीवाल के जमानत प्रकरण की झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन जो केजरीवाल की गिरफ्तातारी के पूर्व की जाकर अभी भी जेल में बंद है, की जमानत मामले के साथ तुलनात्मक अध्ययन कर ले! स्पष्टतः उच्चतम न्यायालय के दो अलग-अलग रूख़ सामने आते हुए दृष्टिगोचर होते हैं। हेमंत सोरेन ने प्रारंभ में ‘‘गुण दोष’’ के आधार पर जमानत आवेदन दिया था, जो जमानत आवेदन पहले निम्न न्यायालय द्वारा एवं बाद में उच्च न्यायालय द्वारा आदेश तब पारित किया गया जब हेमंत सारेन ने उच्चतम न्यायालय में उच्च न्यायालय द्वारा लंबित आदेश की कार्यवाही के विरूध्द याचिका प्रस्तुत की। वस्तुतः हेमंत सोरेन ने उच्च न्यायालय के निर्णय आने पर विलम्ब होने के कारण उच्च न्यायालय के जमानत आवेदन पर लंबित निर्णय के आने तक केजरीवाल समान ही उच्चतम न्यायालय से अंतरिम जमानत मांगी थी, जो उच्चतम न्यायालय द्वारा उच्च न्यायालय का निर्णय आ जाने के कारण ‘‘अप्रासंगिक’’ बतलाते हुए अस्वीकार कर दी गई, जो तथ्यात्मक रूप से बिल्कुल सही है। उल्लेखनीय है कि दोनों प्रकरणों केजरीवाल व सोरेन की सुनवाई भी वही एक ही (सेम) बेंच द्वारा की गई थी।
न्याय की प्रतिक्षा रत कब तक? हेमंत सोरेन।
याद कीजिए! हेमंत सोरेन ने शुरू में जब गिरफ्तारी के बाद जमानत याचिका को सीधे उच्चतम न्यायालय में दायर किया था, तो अगले दिन सुनवाई की तिथि निश्चित किये जाने के बावजूद बेंच ने सुनवाई करने से इंकार कर निचली अदालत उच्च न्यायालय में में जाने को कहा था। जबकि जमानतों के इसी तरह के अनेक मामलों की सीधी सुनवाई उच्चतम न्यायालय ने पूर्व में की है। केजरीवाल के अंतरिम जमानत के मामले को ही ले लीजिए, जहां उच्चतम न्यायालय ने अंतरिम जमानत के आवेदन को सीधे स्वीकार किया। इससे उच्चतम न्यायालय के रूख का अंतर स्पष्ट सा दिखता है। कहीं यह ‘‘चेहरा देखकर तिलक निकलना तो नहीं है’’? झारखंड उच्च न्यायालय द्वारा हेमंत सोरेन को अपने चाचा की अंतिम संस्कार में भाग लेने की तो अनुमति नहीं मिली, लेकिन श्राद्ध में शामिल होने की अनुमति भी पुलिस कस्टडी में रहते हुए दी गई। जबकि हेट स्पीच देने या आदर्श चुनाव संहिता के उल्लंघन करने पर जमानत निरस्त करने जैसी शर्त केजरीवाल के जमानत आदेश में नहीं लगी। परिणाम स्वरूप ऐसी स्थिति के उत्पन्न होने पर उक्त शर्त के न होने से केजरीवाल के विरूद्ध मात्र कानून के उल्लंघन पर कानूनी कार्रवाई ही की जा सकती है, अंतरिम जमानत निरस्त नहीं की जा सकती है।
क्या मुख्यमंत्री एवं पूर्व मुख्यमंत्री की स्थिति में अंतर का प्रभाव? जमानत पर।
एक अंतर अरविंद केजरीवाल का मुख्यमंत्री पद पर विराजमान रहना भी है, जबकि हेमंत सोरेन ने नैतिकता का साहस दिखाते हुए मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था। अरविंद केजरीवाल को अंतरिम जमानत मिलने से निश्चित रूप से हेमंत सोरेन के मन में यह सवाल उठना लाजमी है कि यदि वे भीं पद से इस्तीफा नहीं देते, तो शायद उन्हें भी अंतरिम जमानत केजरीवाल के समान मुख्यमंत्री होने के कारण मिल जाती? यह बात और पुख्ता तब होती है, जब महाराष्ट्र के प्रकरण में उद्धव ठाकरे की सरकार ने विधानसभा के तल (फ्लोर ऑफ हाउस) पर बहुमत का सामना किये बिना इस्तीफा दे दिया था। उच्चतम न्यायालय ने शिवसेना के विभाजन पर विचार करते समय मई 2023 को यह महत्वपूर्ण निर्णय दिया था कि यदि उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा नहीं देते और विश्वासमत प्राप्त करते हुए हार जाते तो, न्यायालय उन्हें मुख्यमंत्री पद पर पुनरर्थापित कर सकता था। उच्चतम न्यायालय की इस ”भावना” को केजरीवाल ने स्वीकार कर गिरफतार हो कर मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा नहीं दिया।
अनुच्छेद 142 का उपयोग क्यों नहीं?
एक और महत्वपूर्ण प्रश्न उत्पन्न होता है कि उच्चतम न्यायालय द्वारा केजरीवाल को अंतरिम जमानत देने की परिस्थितिया और कारण देश के लोकसभा चुनाव के संदर्भ में ली गई है। क्या उक्त सिद्धांत राज्यों के विधानसभा चुनावों या पंचायत राज के अधीन होने वाले पंचायत चुनावों पर भी उस क्षेत्र की जनता के लिए ‘‘एक सरपंच’’ पर भी समान रूप से लागू होगा? इसका उत्तर न तो माननीय न्यायालय देना चाहेगा, और न ही मिलेगा। उच्चतम न्यायालय के अंतरिम जमानत देने के निर्णय पर एक बड़ा प्रश्न अरविंद केजरीवाल की मीडिया में उपस्थिति भी हो सकती है, उस प्रकार की मीडिया में उपस्थिति एक आदिवासी मुख्यमंत्री हेमंत सोरेने की नहीं हो सकी। इस सवाल का उत्तर आज के नहीं; भविष्य के, इतिहासकार जरूर खोजेंगंे। क्या उच्चतम न्यायालय के पास अनुच्छेद 142 के अंतर्गत प्राप्त असाधारण विशेषाधिकार का उपयोग करते हुए पर प्रकरण के गुण दोष के आधार पर सुनकर जमानत पर विचार कर आदेश पारित करने का अवसर नहीं था, जिससे इस तरह की उत्पन्न हुई एकदम नई परिस्थिती से बचा जा सकता था? और यदि मेरिटस (गुण-दोष के आधार) पर उच्चतम न्यायालय की नजर में केजरीवाल जमानत पाने के अधिकारी नहीं हो पाते, तो फिर वे किसी भी स्थिति में लोकतंत्र में भाग लेने के आधार पर अंतरिम जमानत पाने के अधिकारी नहीं हो पाते।
अंतरिम जमानत के आधार पर ही क्या नियमित जमानत नहीं दी जा सकती थी? यह भी एक बड़ा कानूनी व तथ्यात्मक प्रश्न है। यह कहा जा सकता है कि केजरीवाल ने नियमित जमानत के लिए आवेदन ही नहीं दिया है, बल्कि गिरफ्तारी को कानूनी रूप से अवैध बताकर चुनौती दी है। फिर भी उच्चतम न्यायालय अनुच्छेद 142 का उपयोग ठीक उसी प्रकार कर सकता था, जिस प्रकार चड़ीगढ़ मेयर चुनाव के मामले में अपीलकर्ता हारे हुए उम्मीदवार ने मेयर का चुनाव अवैध घोषित कर पुर्न चुनाव की मांग की थी, जबकि उच्चतम न्यायालय ने उसे विजेता ही घोषित कर मेयर घोषित कर दिया, जिसकी मांग ही याचिका में नहीं थी। मुझे लगता है, माननीय उच्चतम न्यायालय को केजरीवाल के प्रकरण में हुई उक्त चूक पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है।
परन्तु यह एक गंभीर प्रश्न जरूर उत्पन्न होता है कि उच्चतम न्यायालय का उक्त सिद्धांत हेमंत सोरेन के लिए जरूरी क्यों नहीं माना जा रहा है? तब ये मुद्दे हेमंत सोरेन को उसी उच्चतम न्यायालय द्वारा अंतरिम जमानत देने में अभी तक क्यों सहायक नहीं हो पा रहे है?
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