शुक्रवार, 26 जुलाई 2024

58 साल बाद केंद्रीय कर्मचारियों के ‘‘संघ’’ की ‘‘शाखा’’ में जाने पर प्रतिबंध हटा।

‘‘कार्यालय ज्ञापन’’ दिनांकित 9 जुलाई क्या कहता है। 

09 जुलाई को कार्मिक, लोक शिकायत व पेंशन मंत्रालय ने एक कार्यालय ज्ञापन (आफिस मेमोरेंडम, ओ.एम.) जारी कर सरकारी कर्मचारियों के संदर्भ में उक्त कार्यालय के ही ज्ञापन दिनांकित 30 नवंबर 1966, 25 जुलाई 1970 एवं 28 अक्टूबर 1980 में विवादित लाइन ‘‘आरएसएस का उल्लेख हटा दिया जाए’’ को हटाकर तदनुसार संशोधन किया। अर्थात् अब कोई भी केंद्रीय शासकीय कर्मचारी ‘‘वंदेमातरम्’’ के समान ‘‘नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे’’ का गायन करने के लिए स्वतंत्र है। यद्यपि राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेने पर प्रतिबंध वर्ष 1966 के पूर्व से ही ‘‘सरकारी सेवक आचरण नियमावली 1949’’ के तहत था। इस ओ.एम. (आदेश) को भाजपा के ‘‘आईटी सेल’’ प्रमुख अमित मालवीय ने शेयर करते हुए प्रतिक्रिया दी कि 58 साल पहले जारी एक असंवैधानिक निर्देश को वापस ले लिया है। इसका व्यवहारिक अर्थ तो यही हुआ कि संघ शाखा में जाने पर प्रतिबंध जो पूर्व में लगाया गया था को उपरोक्त उल्लेखित ओ.एम. द्वारा बिना किसी ‘‘मांग’’ के 58 साल बाद हटा दिया गया। 

‘‘शताब्दी वर्ष पर सरकार का संघ को तोहफा।’’

आश्चर्य की बात तो यह है कि 9 तारीख के सरकारी ज्ञापन का संज्ञान कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता एवं सांसद जयराम रमेश दिनांक 22 जुलाई को सोशल मीडिया ‘‘एक्स’’ पर लिखते हुए लेते है, वही संघ और भाजपा का कोई नेता इस आदेश का संज्ञान जयराम रमेश के टिप्पणी के पूर्व तक न लेकर स्वागत तक नहीं करते हैं? इससे क्या इस बात की पुष्टि नहीं होती है कि उक्त प्रतिबंध के आदेश सिर्फ ‘‘कागजात’’ तक ही सीमित थे, ‘‘व्यवहार’’ में नहीं? इसलिए यह कोई मुद्दा ही नहीं रह गया था। अन्यथा उक्त असंवैधानिक निर्देश (अमित मालवीय के शब्दों मेें) को न्यायालय में चुनौती क्यों नहीं दी गई थी? क्या यह ‘‘मरे हुए बाघ की मूंछें उखाड़ने जैसा’’ तो नहीं? अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख सुनील आंबेकर ने निर्णय को ‘‘समुचित’’ ठहराते हुए रचनात्मक, सकारात्मक कार्य-गतिविधियों में भाग लेने वाला संघ की शाखा पर जाने का प्रतिबंध हटाना ‘‘लोकतांत्रिक व्यवस्था को पुष्ट करने वाला है’’। केंद्रीय सरकार इस बात के लिए साधुवाद की पात्र नहीं है कि उसने उक्त प्रतिबंध हटाया, बल्कि उससे भी ज्यादा इस बात के लिए कि, अपने राष्ट्रवादी संगठन ‘‘संघ’’ को अराष्ट्रवादी, आतंकवादी, साम्प्रदायिक संगठन ‘‘जमात-ए-इस्लामी’’ जैसों के साथ एक ही तराजू (श्रेणी) में रखकर प्रतिबंध लगाया था, जिसे (संघ को) सरकार ने अंततः उन राष्ट्र विरोधी संगठनों की जमात से दूर कर दिया। यह कुछ-कुछ वैसा ही कार्य था, जब इंदिरा गांधी ने आपातकाल में राजनैतिक विरोधियों व असामाजिक तत्वों को एक साथ जेल में रखा था। तभी आप उस भावना की पीड़ा को समझ पायेगें। कोई भी राष्ट्रवादी सोच का व्यक्ति चाहे वह संघ का कितना ही बड़ा आलोचक क्यों न रहा हो, उस कट्टरवादी संगठन के साथ संघ को रखने की हिमाकत को सही नहीं ठहरा सकता है। 

58 साल बाद क्यों? 

हर सिक्के के दो पहलुओं के समान इस कार्यालय ज्ञापन (आदेश) के भी दो पहलू स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं। यदि? इस ज्ञापन में उल्लेखित ज्ञापनों के द्वारा लगाए गए प्रतिबंध गलत थे, तब इन प्रतिबंधों को अटल बिहारी वाजपेयी की लगभग 6 साल रही सरकार एवं 10 साल की लगातार मोदी सरकार में भी क्यों नहीं हटाया था? साथ ही इन प्रतिबंधों को जब भाजपा विपक्ष मे थी, तब उक्त प्रतिबंध हटाये जाने की मांग को लेकर लगातार जोर-शोर से आंदोलन भाजपा एवं संघ द्वारा क्यों नहीं किया गया? इससे एक अर्थ यह भी निकलता है कि 58 साल से जो आदेश था, वह ‘‘कस्टमरी लॉ’’ बनकर ‘‘स्वीकार्य योग्य’’ हो गया? अथवा विपरीत इसके उक्त आदेश मात्र "कागजी होकर धरातल पर वास्तविक रूप में लागू ही नहीं हुआ? तब ज्ञापन के संशोधित करने की जरूरत ही नहीं थी। तभी तो बिना किसी ‘‘मांग या संदर्भ’’ के अचानक सरकार के ध्यान में आयी यह बात। क्यों?

सिर्फ आलोचना के लिए आलोचना ठीक नहीं। 

इसका दूसरा पक्ष कांग्रेस एवं विपक्ष द्वारा  की जा रही आलोचना भी गलत है। सर्वप्रथम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक सांस्कृतिक, सामाजिक, रचनात्मक संगठन है, न कि ‘‘परसेप्शन (अवधारणा) द्वारा गढ़ा हुआ राजनैतिक संगठन’’। जरूर इसे आप एक ‘‘तकनीकि वास्तविकता’’ कह सकते है, परन्तु वर्तमान राजनीति परसेप्पशन पर ही कार्यरत है। तथापि यदि संघ राजनीतिक पार्टी है, तब फिर भाजपा क्या है? क्या एक विधान चुनाव चिन्ह और झंडे तले दो राजनीतिक पार्टी कार्य कर रही हैं? संघ और भाजपा के संबंध ‘‘मां-बेटे’’ समान है, जहां भाजपा ने वर्ष 1980 में खांटी समाजवादी राजनारायण द्वारा उठाए गए ‘‘दोहरी सदस्यता’’ के मुद्दे पर जनता पार्टी के रूप में अपनी ही सरकार की बलि देने में परहेज नहीं किया। इस देश का संविधान/कानून मात्र ‘‘परसेप्शन’’ के आधार पर कोई कार्रवाई करने की अनुमति नहीं देता है, बल्कि ‘‘एक्शन’’ (करने) के आधार पर कार्यवाही होती है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद ‘‘संघ’’ पर तीन बार प्रतिबंध लगे व तीनों बार न्यायालय के आदेशों से नहीं, बल्कि सरकार ने ही हटाये। इससे भी यह सिद्ध होता है कि संघ पर जो प्रतिबंध लगे थे, वे बार-बार राजनीतिक कारणों से लगे और राजनीतिक दबाव व कारणों से हटे भी। जयराम रमेश जब उक्त ओ.एम. की आलोचना करते है, तब वे आलोचना करते-करते तथ्यों से ‘‘परे’’ यह कह जाते है कि अब तो नौकरशाही भी ‘‘निक्कर’’ में आ सकती हैं। परन्तु जैसा कि कहा जाता है, ‘‘प्रथम ग्रास मक्षिका पातः’’। शायद उन्हें इस बात की जानकारी नहीं है या जानबूझकर अनजान बन गए हैं कि संघ ने अपना ड्रेस कोड (वेशभूषा) ‘निक्कर’ से बदलकर ‘‘ब्राउन पेंट’’ कर दिया है। 

प्रधानमंत्री एवं कई मुख्यमंत्री स्वयं’स्वयंसेवक/प्रचारक रहे। 

नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद पिछले 10 सालो में देश के विभिन्न राज्यों के कम से कम 5 मुख्यमंत्री ऐसे हुए हैं, जो आरएसएस के स्वयंसेवक या प्रचारक रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी एवं पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, पूर्व उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी स्वयं स्वयंसेवक एवं प्रचारक रहे हैं। हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री एवं केन्द्रीय मंत्री मनोहर लाल खट्टर, मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव, राजस्थान के भजन लाल शर्मा, झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री रघुवर दास, उत्तराखंड के त्रिवेन्द्र सिंह रावत, आदि ऐसे अनेक नाम इस सूची में हैं। आखिर शासन का मुखिया कौन होता है? प्रधानमंत्री/मुख्यमंत्री ही तो होते हैं। जब प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री मुखिया स्वयंसेवक हो सकते हैं, जिनकी संवैधानिकता, वैधानिकता को इस आधार पर कभी न्यायालय में चुनौती नहीं दी गई, तब उनके अधीनस्थ काम करने वाले कर्मचारियों पर संघ शाखा में जानें पर प्रतिबंध कितना उचित था? जब शाखा से निकले स्वयंसेवक आज कानूनी व संवैधानिक रूप से उपकुलपति, प्रोफेसर, अर्द्धशासकीय संस्थाओं में पदों पर पदस्थ हैं तब वह ‘स्कूल’ (शाखा) जहां से ऐसे लोग ‘गढ़कर’ निकले वे अछूत अथवा असंवैधानिक कैसे हो सकते हैं? देश के उप-राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ तक संसद में कहते हैं कि 25 साल पहले से वे सदस्य न होने के बावजूद संघ के ‘‘एकलव्य’’ बन गये थे। महाभारत की एक उक्ति के अनुसार ‘‘महाजनो येन गतः स पन्थाः’’। इस बात को जयराम रमेश आलोचना के स्वर के चलते शायद समझ नहीं पाए। 

उक्त ‘‘कार्यालय ज्ञापन’’ क्या न्यायाधीशों पर भी लागू होगा?

यदि सरकारी कर्मचारियों को छोड़ दे तो हमारे देश में अर्द्धशासकीय संस्थाएं, सार्वजनिक उपक्रम जैसे कोल इंडिया हैं, जिनके कर्मचारियों पर किसी भी राजनीतिक दलों के पदाधिकारी होने पर कोई प्रतिबंध नहीं है, चुनाव में भी वे भाग ले सकते हैं। जैसे भारतीय मजदूर संघ, इंटक, एटक संगठन से जुड़े कर्मचारी। अतः क्या उक्त ओ.एम. न्यायाधीशों पर भी लागू होगा? क्योंकि अभी हाल में ही कलकत्ता हाईकोर्ट के जस्टिस चितरंजन दास ने सेवानविृत्त होने के तुरंत बाद यह दावा किया था कि वे बचपन से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े रहे हैं। अतः अब यदि न्यायाधीश भी शाखा में जाए तो वह भी नियमों का उल्लंघन नहीं होगा? क्योंकि यह तो ‘‘पानी पी कर जात पूछने जैसा’’ होगा।

भाजपा व कांग्रेस में बुनियादी अंतर। 

भाजपा व कांग्रेस में मूलरूप से बुनियादी अंतर यह है कि 27 सितंबर 1925 दशहरे के दिन डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार के साथ मात्र सात लोगों के साथ स्थापित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, एक सांस्कृतिक संगठन होते हुए कालांतर में खासकर स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद संघ ने इस बात को समझा कि देश की यदि राजनीतिक दशा व दिशा को बदलना है, तो संघ के उद्देश्यों को लेकर सिर्फ ‘‘शाखा’’ जो संघ की मूल रीढ़ और आधार है, से संभव नहीं हो पायेगा। बल्कि लोकतांत्रिक चुनावी प्रणाली में भाग लेना ही होगा। क्योंकि ‘‘बरगद का भार उसकी जटायें ही झेलती हैं, शाखायें नहीं। इसलिए संघ ने अपनी विचारधारा को राजनीतिक क्षेत्र में उतारने के लिए अपनी राजनीतिक शाखा के रूप में एक राजनीतिक पार्टी ‘‘जनसंघ’’ की स्थापना कर जनसंघ से भाजपा तक के राजनीतिक सफर द्वारा अपने विचारों को संघ ने उतार दिया। क्योंकि संघ यह जानता था कि भविष्य की राजनीति नीति-विहीन राजनीति होगी। अतः संघ राजनीति के ‘‘दल-दल’’ में सीधे उतरना नहीं चाहता था। अतः कानूनी रूप से संघ को एक राजनीतिक संगठन बनाकर उस पर उंगली नहीं उठाई जा सकती है।

स्वतंत्रता संग्राम के तप से निकली कांग्रेस।

कांग्रेस स्वतंत्रता संग्राम से निकली हुई पार्टी है। स्वतंत्रता प्राप्त होने के बाद उसका मूल उद्देश्य प्राप्त हो जाने से शनैः शनैः वह अपने अस्तित्व के खतरे की सीमा तक इसलिए पहुंच गई की स्वतंत्रता पाने के बाद वह अपने लक्ष्य व कार्यां द्वारा स्वतंत्र भारत को सोने की चिड़िया बनाने की कल्पना न करके सिर्फ स्वतंत्रता प्राप्ति से अर्जित पूंजी को बैठे-बैठे खाने का ही कार्य किया। आप अच्छे से जानते हैं कि यदि व्यक्ति कमायेगा नहीं तो एक दिन जमा पूंजी वह कितनी ही बड़ी क्यों न हो, समाप्त हो जायेगी। शायद इस स्थिति को राहुल गांधी ने समझा और तब अपनी भारत जोड़ो यात्रा द्वारा काग्रेस की पूंजी बढ़ाने को निकले, लेकिन शायद वे नहीं जानते कि न तो ‘‘फूंकने से पहाड़ उड़ते हैं’’, न ‘‘पंखा झलने से कोहरा  छंटता है’’।

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