बुधवार, 17 जुलाई 2024

क्या भारत देश में ‘‘खोजी पत्रकारिता’’ समाप्त हो गई है?

आखिर देश की बहुसंख्यक जनता व्यक्तिगत जीवन में बाबाओं के पीछे इतनी अंधी, अंधभक्त एवं पिछलग्गू क्यों होते जा रही है?
  

सूरजपालः बहुरूपिया बाबा?

‘‘बाबा प्रधान देश’’ भारत के सबसे बड़े प्रदेश उत्तर प्रदेश के ‘‘हाथरस’’ (जो पूर्व में भी, सितम्बर 2020 में गैंगरेप-हत्या के कारण विश्व प्रसिद्ध हो चुका है?), में मानव मंगल मिलन (सत्संग, धार्मिक समागम) के दौरान भगदड़ मचने से 130 व्यक्ति अकाल मृत्यु ‘‘काल के गाल’’ में समा गये। जिस ‘काल’ को नियत्रिंत करने का दावा संत के वेश में सूरजपाल जाटव ऊर्फ विश्व हरि उर्फ नारायण हरि ‘‘बाबा’’ करता रहा। इस प्रकार ‘‘सत्संग’’य ‘कष्टसंग’ व ‘कु्त्संग’ में परिवर्तित हो गया। घटना के बाद से ही संपूर्ण मीडिया चाहे प्रिंट, इलेक्ट्रानिक या सोशल मीडिया हो, बढ़-चढ़कर इस बहुरूपिये बाबा की कुंडली को खोलकर चिल्ला-चिल्ला कर हम जनता को बता रहे हैं, पढ़ा रहे हैं। धूर्त बाबा का इतिहास क्या था? जो एक छेड़खानी के आरोप में बर्खास्त सजायाफ्ता हवलदार नारायण साकार हरि उर्फ भोले बाबा था। यद्यपि अदालत के आदेश से वह पुनः नौकरी में बहाल भी हो गया था। जेल से छूटने के बाद उसने वीआरएस लेकर ‘‘भोले बाबा’’ बनकर लोगों को ठगने, पाखंड और तथाकथित यौन शोषण के कार्यक्रम में ‘सत्संग’ के साथ लग गया। साधु संत तो वह होता है जो ‘‘करे तो डरे, न करे तो भी ख़ुदा के कहर से डरे’’। लेकिन ये बाबा तो कर के भी नहीं डरते। कोई दान, दक्षिणा,  चढ़ावा इत्यादि न लेने का दावा करने वाले बाबा के देश में अनेकों बड़े-बड़े आश्रम है, तथापि राजस्व रिकॉर्ड पर उनके स्वामित्व के बाबत सुनिश्चित जानकारी नहीं है। यद्यपि बाबा इंटरनेट पर लोकप्रिय नहीं है, तथापि जमीनी स्तर पर उनके भक्तों की संख्या निसंदेह लाखों में है।

अंध भक्त जनता। आस्था व अंधविश्वास के बीच झूलता हमारा देश !

धूर्त, प्रपंच गिरी व तथाकथित यौन शोषण का आदी सूरजपाल एक दिन में ही आर्थिक साम्राज्य खड़ा कर देने वाला, अपराधी, व्यभाभिचारी, जादू-टोटका, भूत भगाने वाले, ढोंगी बाबा नहीं बन गया? परन्तु धन्य है हमारी देश की मीडिया, जिसे उक्त घटना घटित होने तक पता ही नहीं चला कि संन्यासी के वेश में बाबा एक अपराधी है, जिसके विरुद्ध पांच अपराधिक प्रकरण दर्ज हैं। ऐसे ही तथाकथित बाबाओं के कारण हिन्दू समाज बदनाम होता रहा है। बाबाओं की यह कड़ी व करतूतें न तो पहली है और न ही अंतिम। ‘‘आसाराम’’ से लेकर राम रहीम......आदि तक गिनतियाँ ही गिनतियाँ है, गिनते चले जाइये, आपकी उंगली जरूर थक जाएंगी । जहां साधु के वेश में ऐसे ‘‘गाते गाते कीर्तिनिया बने’’ इन दोहरे रूप धारण करने वाले व्यक्ति इस तरह के अपराधों में पकड़े गये, स्टिंग ऑपरेशन हुये, सजाएं भी हुई। परन्तु इन सब के बावजूद धन्य है हमारा हिन्दू समाज जो हर ‘‘कमली वाले को फकीर’’ समझ लेता है और जहां ऐसे सजायाफ्ता साधू-संतो के अंधभक्तों की संख्या में और उनके साम्राज्य में कोई खास कमी हुई हो, ऐसा जान नहीं पड़ता है।

बाबाओं व नेताओं के बीच ”गहरा नेक्सेस ”(जटिल संबंध)। 

आखिर ऐसे बाबाओं को प्रोत्साहन संरक्षण कैसे मिलता है? किससे मिलता है? जिस कारण से बाबागिरी या सत्संग एक बड़ा ‘‘उद्योग’’ हो गया है। इसका एक बड़ा कारण राजनेताओं और बाबाओं के बीच बड़ा अटूट अतरंग संबंध चला आ रहा है। हर ऐसे बाबाओं के साथ देश के प्रमुख राजनीतिज्ञों के चाहे किसी झंडे-डंडे के तले हो, अंतर-मुखी परिचय की फोटों, सिर नवाये, आशीर्वाद देते हुए मिल जायेगी। इसका एक मात्र कारण यह है कि नेताओं के प्रभाव, आकर्षण व बड़ी संख्या में अनुयायियों के होने से बाबाओं को भी अपना साम्राज्य गरीब अनपढ़ जनता के बीच बढ़ाने का अवसर मिल जाता है। वहीं दूसरी ओर बाबाओं के अंधभक्तों की लम्बी चौड़ी फौज के कारण उनके वोट मिलने की उम्मीद में नेताओं की लाईन दर्शन, आशीर्वाद के लिए लगी रहती है। इस प्रकार नेता और बाबा दोनों परस्पर सहजीविता (सिम्बिऑसिस) के सिद्धांत के माध्यम से अपनी अपनी दुकाने चलाते रहते हैं।इसका सबसे बड़ा उदाहरण गुरमीत सिंह उर्फ राम रहीम का है, जहां राज्य सरकार से भारतीय दंड संहिता के सबसे कठोरतम अपराध में सजा भुगत रहे बाबा को बार-बार चुनाव के समय पैरोल, ‘फरलो’ मिल जाती है। बाबा व नेता एक दूसरे के लिए कितने ”पूरक” होते है, यह हाथरस की हाथरस की व्यथित कर देने वाली इस घटना से भी सिघ्द होता हैं, जहॉ किसी भी पार्टी के किसी भी राष्ट्रीय और महत्वपूर्ण नेता ने जनता के बीच सामने आकर बाबा की गिरफतारी की मांग स्पष्ट रूप से अभी तक नहीं की हैं, सिर्फ मायावती को छोड़कर। इसका भी कारण स्पष्ट है। दलित वोट बैंक में बाबा की घुसपैठ होने के कारण मायावती नहीं चाहती है कि उनके दलित बैंक में  किसी भी अन्य नेता या धार्मिक बाबा की सहभागिता व दखलंदाजी  हो। किसान नेता राकेश टिकैत ने तो बाबा की टीम को क्लीन चिट देते हुए घटना को मात्र ”हादसा” बता दिया। एसआईटी को यह नहीं दिखा कि बाबा के चरणों की "धूल" लोगों के जीवन की "राख" में परिवर्तित हो गई। हादसा का प्रारंभ तभी हुआ जब लोग बाबा के चरणों की धूल पाने "आव्हान" पर दौड़ पड़े। 

घटनाओं के बाद बयानवीरों के कथनों के सार। 

दुर्भाग्य वश इस तरह की हर हृदय विदारक घटनाएं/दुर्घटनाएं चाहे वह देश के किसी भी कोने में हो, चाहे शासन-प्रशासन कोई भी हो, घटनाओं के बाद की सामना करने की स्थितियां लगभग एक सी ही होती है। एक स्टीरियो टाइप, रटा रटाया बयान, कथन मुख्यमंत्री के पीड़ितों, भुक्तभोगियों व जनसामान्य के लिए ‘‘रामबाण दवा’’ समान सामने आ जाते हैं। जिनका सार आगे लिखा जा रहा है। आरोपी चाहे कितना ही बड़ा क्यों नहीं हो, उसे छोड़ा नहीं जायेगा। ढूंढ कर कटघरे में खड़ा किया जाएगा?,‘‘कड़ी से कड़ी’’ कार्रवाई कर अधिकतम सजा दिलाई जायेगी। घटना की उच्चस्तरीय जांच, मजिस्टेेट जांच, एसआईटी जांच, न्यायिक जांच करने की घोषणा कर दी जाती है। घटना के पीछे जो भी षड्यंत्रकारी है, उन्हें हर हालत में सामने लाया जाएगा। जवाबदेही तय की जावेगी। जांच प्रक्रिया चालू है। कानून अपना काम कर रहा है। मामला बेहद संवेदनशील है। राजनीति मत करो! यह समय राजनीति का नहीं है, बल्कि पीड़िता, भुक्तभोगियों के साथ खड़े होने का है। इस घटना के पीछे विपक्ष के ‘‘हाथ’’ की षडयंत्र की ‘बू’ आती है। समाज, देश को तोड़ने वाली शक्तियां घटना के पीछे है। संबंधित अफसर को निलंबित कर दिया गया है या लाईन अटैच कर दिया गया है, अथवा स्थानांतरण कर दिया गया है। मंत्री इस्तीफा नहीं देंगे। ऐसी प्रभावी नीति बनायी जाएगी कि घटना की पुनरावृत्ति नहीं हो। ‘मरहम’ के रूप में ‘‘मुआवजा’’ की भी घोषणा की जाती है, जो भुक्तभोगियों की आर्थिक परिस्थितियों को देखते हुए नहीं बल्कि राजनीतिक नफा-नुकसान की दृष्टि से की जाती है? नौकरी देने की घोषणा कर दी जाती है। इन सब कथनों के अलावा यदि आपको और कुछ पढ़ने, सुनने को मिलता है, तो मुझे जरूर बतलाइये, ताकि मैं अपनी ज्ञान वृद्धि जरुर कर सकूं। यह किसी एक घटना का प्रारूप नहीं है। बल्कि यह कश्मीर से से कन्याकुमारी तक और पूर्व से पश्चिम तक प्रत्येक राज्य में होने वाली घटनाओं का यह रूप व प्रारूप हमारे देश में व संविधान में पालनार्थ अलिखित लिखा जा चुका है। इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना ने घटना के बाद के प्रबंधनों की कमजोरी की पोल खोल दी हैं। जैसे अस्पताल, ट्रॉमा सेंटर में व्यापक पूर्ण व्यवस्था का न होना, एम्बुलेंस की अत्यधिक कमी इत्यादि।

सूरजपाल आरोपी नहीं!क्यों? भोले व भले बाबा?

प्रस्तुत प्रकरण में ही दूसरों को राजनीति न करने की सलाह देने वाले स्वयं क्या राजनीति नही कर रहे हैं? मुख्य सेवादार व आयोजक देव प्रकाश मधुकर को मुख्य अभियुक्त बिना जांच के ‘प्राथमिकी’ में बना दिया जाता है। परंतु उसी आधार पर जिस ‘‘गुरु’’ का आरोपी सेवादार सेवक है, वो प्रमुख बाबा को प्रमुख अभियुक्त इसलिए अभी तक नहीं बनाया गया कि "कबूतर रूपी बाबा हमेशा राजनीति के कुएं को बसेरा बनाते हैं’’। बस ‘‘जांच चल रही है’’। जांच में तथ्य पाये जाने पर तदनुसार कार्रवाई की जाएगी? बाबा अपराधी नहीं है, तो वह घटनाओं के तुरंत बाद ‘‘गायब’’ क्यों हो गया है। चार दिन बाद अचानक मीडिया व वकील के माध्यम से जनता को संदेश देते हुए सामने आता है। तब भी वह  मृतकों के परिवारों को सांत्वना देने व उसके घायल अनुयायियों को देखने अस्पताल नहीं पहुंचा? क्यों? छः अपराधी 4 पुरुष व दो महिला सेवादार अभी तक गिरफ्तार की गई हैं। एसआईटी की जांच रिपोर्ट के बाद एक एसडीएम सहित 6 सरकारी मुलाजिम निलंबित जरूरकिए गए हैं। हास्यास्पद बात तो यह है कि घटना के जिम्मेदार ‘‘भोले बाबा’’ वास्तव मे उतने भोले नहीं है, जितना मीडिया को छोड़कर समस्त तंत्र राजनैतिक और पुलिस तंत्र सहित उसे "भोले व भले" बाबा बनाने व बतलाने का भरकम सफल प्रयास कर रहे हैं। उसका वकील उक्त घटना को सोची समझी "साजिश" बता रहे हैं। तारीफ की बात तो यह है कि बिना कोई साक्ष्य तथा तथ्य पाए, एसआईटी भी अपनी रिपोर्ट में इस संभावनाओं को नकार नहीं रही है। आरोपी बनाना तो दूर अभी तक सूरजपाल से किसी भी जांच एजेंसी ने पूछताछ करना तो दूर बातचीत करना भी मुनासिब नहीं समझा है? कारण स्पष्ट है! दलित जाटव जाति से बाबा का होना राजनीतिक दलों के लिए एक वोट बैंक है! एक तथ्य यह भी है कि वर्तमान में बाबा के खिलाफ 5 आपराधिक प्रकरण दर्ज हैं। परंतु कारवाई शायद टन-टन गोपाल ?

 आम सामान्य प्रचलित धारणा (परसेप्शन) के विपरीत कारवाई? 

देश की वर्तमान  विद्यमान राजनीति एक्शन के बजाय परसेप्शन पर ज्यादा निर्भर हो कर चलती है। परंतु हाथरस घटना को लेकर बाबा के मामले में तो पुलिस प्रशासन उल्ट ही कार्रवाई कर रहा है। परसेप्शन के विपरीत तथाकथित एक्शन बल्कि इन-एक्शन को तकनीकी रूप से तरहीज दे रहा है। सेवादारों को "आयोजको की श्रेणी" में डालकर उन्हें  बाबा से पृथक कर उनके द्वारा बाबा को धार्मिक समागम के मुख्य अतिथि के रूप में बुलाया जाकर भोले बाबा को निर्दोष तय करने की पूरी स्थिति न केवल निर्मित कर दी है, बल्कि  बाबा की निर्दोषता को फुल प्रूफ सिद्ध करने के लिए शायद आगे आरोपी सेवादारों के विरुद्ध बाबा को ही एक गवाह भी बना दिया जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए और आश्चर्य इस बात के लिए भी नहीं होना चाहिए की एक ओर जब  दिल्ली शराब कांड में देश के इतिहास में पहली बार किसी राजनीतिक पार्टी को लीगल एंटिटी के रूप में  प्रवर्तन  निदेशालय अभियुक्त बना रही हो, वहीं दूसरी तरफ भोले  बाबा जिसके नाम से,  मुखेटे से, जिसके द्वारा सब कुछ संपूर्ण समागम कार्यक्रम संपन्न होता हैl जहां पत्ता भी बाबा के बिगर न हिलता हो, उस बाबा के अलौकिक प्रभा मंडल से प्रभावित होकर एसआईटी भी एक लीगल एंटिटी के समान बाबा का भक्त अंध नहीं? बनकर  बाबा को निर्दोष  बता कर अपनी भक्ति को  सिद्ध कर रही है, यह कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगा?

स्थानीय जांच एजेंसीज का असफल होना।  

80 हजार लोगों की अनुमति के साथ 2.5 लाख से अधिक धार्मिक जनता के सत्संग में आने की कोई पूर्व सूचना (इनपुट) आई.बी., एल.आई.यू (स्थानीय अधिसूचना इकाई) व अन्य जांच एजेंसीज को न होना, क्या पुलिस प्रशासन का बुरी तरह से असफल होना नहीं है? ऐसी असफलता इस तरह की घटनाओं के साथ हमेशा अंतनिर्हित पायी जाती रही है, जो एक मूल कारण भी रही हैं। न मीडिया को पता, न जांच एजेंसियों को, लगता है, ‘‘कुंए में ही भांग पड़ी है’’। देश की ‘‘कूपमंडूकता’’ का यह घटना एक वीभत्स उदाहरण है।  इतनी बड़ी ‘‘वारदात’’, जिसे पुलिस प्रशासन ने "हादसा" करार कर दिया है, होने के बावजूद आज भी बाबा के निवास के घर की चौखट पर अंधविश्वासी अंधभक्त लोग "मत्था टेकने" जा रहे हैं, क्यों? भगवद गीता को पढ़िए, मनन चिंतन  कीजिए और जीवन में  उतारने का प्रयास कीजिए आध्यात्म और कर्मकांड दोनों से आप युक्त होंगे और पाखंड से मुक्त होंगे।

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