बुधवार, 28 अगस्त 2024

लोकतंत्र! ‘सत्यागृह’, (अहिंसक प्रतिरोध) बंद, ‘‘प्रदर्शन’’, ‘‘जुलूस’’, ‘‘धरना’’, ‘चक्काजाम’ ‘‘हड़ताल’’, कलम बंद हड़ताल, ‘‘भूख हड़ताल’’, क्रमिक अनशन, ‘‘आमरण अनशन’’ क्या ये ‘‘लोकतांत्रिक, संवैधानिक अधिकार’’ है?

यदि नहीं! तो लोकतंत्र में विरोध का संवैधानिक, लोकतांत्रिक ‘‘आंदोलन’’ का अधिकार क्या है?*


भूमिका
भारतीय संविधान में जो मूलभूत नागरिक अधिकार दिये गये हैं, निसंदेह वे निरपेक्ष व पूर्ण नहीं हैं। अर्थात कुछ ‘‘सीमाओं’’ (प्रतिबंधों) के साथ अधिकार दिये गये हैं। इन सीमाओं को समय-समय पर उच्चतम न्यायालय ने परिभाषित भी किया है। उल्लेखित संदर्भ को सामने रखते हुए महाराष्ट्र के बदलापुर में दो छोटी (नाबालिग) बच्चियों के साथ हुई दो दरिंदगी के विरोध में विपक्ष ‘‘महा विकास अगाडी’’ द्वारा महाराष्ट्र बंद के आव्हान के विरुद्ध दायर हुई जनहित याचिकाओं को पहले तो महाराष्ट्र उच्च न्यायालय ने सुनवाई से इंकार किया। फिर याचिकाकर्ता द्वारा 20 साल पुराने बाला साहब ठाकरे प्रकरण (वर्ष 2004) का हवाला देकर न्यायालय से सुनवाई का अनुरोध किया। तब महाराष्ट्र उच्च न्यायालय ने सुनवाई करते हुए ‘‘नोटिस’’ जारी करते हुए अंतरिम आदेश पारित किया कि ‘‘किसी भी राजनीतिक दल को बंद करने की इजाजत नहीं हैं’’ और उन्हें बंद करने के ‘‘आव्हान’’ से रोका जाता है। (भाग लेने वालों के विरुद्ध कार्रवाई?) यदि कोई प्रयास कर रहा होगा, तो सरकार को निर्देश दिया कि उनके खिलाफ नियमों के तहत कार्रवाई की जाये। 
आखिर ‘‘लोकतांत्रिक विरोध’’ के ‘‘वैधानिक स्वरूप’’ क्या व कैसे होना चाहिए?
 लोकतंत्र में विरोध करने का अधिकार संवैधानिक मूल अधिकार भले ही न हो परन्तु एक मौलिक राजनीतिक अधिकार जरूर है। ‘विरोध’ के मूल में नियमों के उल्लंघन का भाव ही निहित है। तभी तो वह ‘‘आंदोलन’’ कहलायेगा। ‘सहमति’ नहीं ‘असहमति’ ही विरोध के मूल में है। ‘‘ज्ञापन’’ देने तक तो कोई नियम का उल्लंघन किये बिना ही संभव है। परन्तु ‘‘आंदोलन’’ के शेष कोई भी प्रारूप के मूल में यदि नियमों, कानूनों का उल्लंघन नहीं है, तो उसे ‘‘आंदोलन’’ की संज्ञा देना ही गलत होगा। परन्तु आज कल तो नियमों के उल्लंघन से ही बचने के लिए प्रशासन से आवश्यक अनुमति लेकर ही आंदोलन ज्यादा किये जाते है। फिर वे कितने प्रभावी हो सकते है? प्रश्न यह भी है। 
 उच्चतम न्यायालय ने लोकतंत्र में प्रदर्शन व असहमति को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का एक रूप ही माना है, जब तक कि वे सार्वजनिक व्यवस्था का उल्लंघन नहीं करते हैं। तथापि हड़ताल, बंद इत्यादि की गारंटी मौलिक अधिकारों द्वारा नहीं दी जा सकती है। (बी.आर.सिंह व अन्य बनाम भारत संघ) वैसे बंद व ‘‘हड़ताल’’ में अंतर होता है। हड़ताल से ज्यादा व्यापक रूप बंद होता है। निश्चित रूप से ‘‘बंद से’’ दूसरे के अधिकार का हनन होता है। इसलिए इस अधिकार का उपयोग सामान्यतः नहीं होता है जबकि तक की स्थितियां गंभीर व विकराल रूप न ले तो। भारत कुमार के. पालीचा बनाम केरल सरकार में सर्वोच्च न्यायालय ने यह कहा है कि शांतिपूर्ण हड़ताल असंवैधानिक नहीं हो सकती है। रामलीला मैदान घटना बनाम भारत संघ (2012), विरूद्ध एम. के. एस.एस (किसान मोर्चा) विरूद्ध भारत संघ (2018), तथा शहीन बाग 2019 इन तीनांे प्रमुख आंदोलनों में शामिल विरोध प्रदर्शन व एकत्र होने के मूल अधिकार को उच्चतम न्यायालय ने मान्यता दी है। 
महाराष्ट्र उच्च न्यायालय का निर्देश
 माननीयों न्यायाधीशों ने कहा, ‘‘बंद से पूरे महाराष्ट्र का जनजीवन प्रभावित हो सकता है.’’ उन्होंने कहा कि अतीत में भी राज्यव्यापी बंद के कारण नागरिकों को नुकसान उठाना पड़ा है। वर्ष 2004 के फैसले में कहा गया था कि ऐसे बंद के मामले में संबंधित राजनीतिक दल कानूनी कार्रवाई के लिए उत्तरदायी होगा और जान-माल या आजीविका के किसी भी नुकसान की भरपाई भी करेगा। फैसले में कहा गया था कि पुलिस ऐसे बंद में शामिल व्यक्ति या व्यक्तियों के खिलाफ उचित कार्रवाई करेगी। माननीय मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि ‘‘हम राज्य सरकार और उसके सभी अधिकारियों मुख्य सचिव, अतिरिक्त मुख्य सचिव (गृह), पुलिस महानिदेशक और सभी जिलाधिकारियों- को निर्देश देते हैं कि वे 2004 के फैसले में निर्धारित दिशा-निर्देशों को सख्ती से लागू करें’’।
21 अगस्त को हुए भारत बंद पर महाराष्ट्र उच्च न्यायालय का मौन?
 सर्वोच्च न्यायालय के एससी और एसटी श्रेणी में ‘क्रीमीलेयर’ (‘‘कोटा के भीतर कोटा’’) पर दिनांक 01 अगस्त 2024 के निर्णय के विरोध में नेशनल फेडरेशन ऑफ दलित एण्ड आदिवासी आर्गेनाइजेशन के द्वारा 21 अगस्त को पूरे भारत बंद का आह्वान किया गया था। बावजूद इसके महाराष्ट्र उच्च न्यायालय ने न तो उस पर रोक लगाई और न ही मानहानि का प्रकरण माना। जब एक तरफ उच्चतम न्यायालय स्व संज्ञान लेकर तुरंत कोलकाता रेप प्रकरण में सुनवाई करता है, वहीं दूसरी तरफ 21 तारीख को किये गए भारत बंद के आव्हान के विरूद्ध उच्च न्यायालय द्वारा इसी तरह का स्व संज्ञान लेकर अपने क्षेत्राधिकार महाराष्ट्र के लिए आदेश पारित क्यों नहीं किये गये? यह समझ से परे हैं। कोलकाता उच्च न्यायालय ने डॉक्टर बलात्कार, हत्या के मामले में विरोध के लिए एक नहीं पांच दिनों तक श्याम बाजार मेट्रो स्टेशन के पास प्रदर्शन करने की अनुमति दी। भारतीय चिकित्सा संघ ने डॉक्टर रेप प्रकरण के बाद अस्पताल परिसर में हुई बर्बरता पूर्ण तोड़-फोड़ व दहशत की परिस्थितियां निर्मित होने के बाद 38 घंटे के चिकित्सा सेवाएं आपातकालीन चिकित्सा को छोड़कर 24 घंटे के देशव्यापी बंद का आव्हान किया था। उच्चतम न्यायालय ने डॉक्टरों से काम पर वापस लौटने की अपील करने के साथ अधिकारियों से यह भी आग्रह किया था कि वे किसी के भी विरूद्ध कठोर कार्रवाई न करंे। 
‘‘संसद’’ से ‘‘सड़क’’ तक ‘‘विरोध’’ का अधिकार’’।
2004 का आदेश का जिक्र करते हुए सख्ती से पालन की बात करते समय माननीय न्यायालय शायद यह भूल गये कि 2004 से 2024 तक कितने ‘भारत’ व ‘महाराष्ट्र’ बंद हुए? तब उच्च न्यायालय ने कोई कार्रवाई क्यों नहीं और यदि किसी बंद को चुनौती जनहित याचिका द्वारा नहीं दी गई तो स्व संज्ञान क्यों नहीं लिया? यह एक बड़ा प्रश्नचिंह माननीय न्यायालय पर उठता है। अभी-अभी पश्चिम बंगाल उच्च न्यायालय ने भाजपा द्वारा आव्हान किये गये 12 घंटे के बंद के विरूद्ध दायर जनहित याचिका पर सुनवाई से इंकार कर दिया। यद्यपि उसका कारण याचिकाकर्ता को न्यायालय ने पूर्व में ही कोई भी याचिका पेश करने से हमेशा के लिए रोक दिया था। आखिर लोकतांत्रिक शासन में किसी दर्दनाक, वीभत्स, जघन्य घटना जिसका समाज पर बड़ा विपरीत प्रभाव पड़ता हो, का विरोध करने के लिए या शासन की जनविरोधी नीतियों का विरोध करने के लिए संसदीय मंच विधानसभा व लोकसभा में विपक्ष द्वारा मुद्दों को उठाने के अलावा विपक्ष के साथ जनता के लिए भी बंद, धरना इत्यादि एक कारगार हथियार होता है। निश्चित रूप से इन सब तरीको से सामान्य जीवन प्रभावित होता ही है। खासकर ‘बंद’ से सबसे ज्यादा। परन्तु शायद यह सब किया ही इसलिए जाता है कि जनता व सरकार प्रभावित होकर मुद्दों पर अपनी सक्रिय सकारात्मक भूमिका निभाएं। 
एक बात ध्यान में रखने की आवश्यकता है कि यदि किसी घटना पर तुरंत-फुरंत कानूनी कार्रवाई कर कानून का डंडा चलकर अपराधी जेल के पीछे कर दिये जाते है, तब ऐसी घटनाओं के विरोध में प्रदर्शन का आव्हान सामान्यतः नहीं होता है। पिछले 15 दिनों में ही देखिये! देश के विभिन्न भागों में यौन शोषण की लगभग 45 घटनाएं हुई हैै। लेकिन क्या हर घटना को लेकर बंद का आव्हान किया गया। विरोध के साधन बंद को इस रूप में देखा जाना चाहिए कि जब शरीर में घाव पक जाता है और चीर-फाड़ कर यदि उसका मवाद नहीं निकाला जाता है, तो शरीर को कहीं ज्यादा नुकसान पहंुचा सकता है। इसी प्रकार किसी घटना में उत्पन्न आक्रोश को शांत करने का एक सामयिक साधन ‘‘बंद’’ है और यदि इसको रोका जाता है, तब प्रतिक्रिया स्वरूप घुटन के रूप में यह कितनी विकराल ले लेगी? इसकी कल्पना की जा सकती है। जैसा कि मैंने पहले ही लिखा है, यह नागरिकों का ‘‘पूर्ण’’ (एब्सोल्यूट) अधिकार नहीं है। लेकिन इस ‘‘लोकतांत्रिक नागरिक अधिकार’’ पर क्या न्यायालयों का निर्णय भी हमेशा विवेकपूर्ण रहा है? इसका जवाब माननीय न्यायालय ही दे सकते हैं।

‘‘नुक्ता चीनी’’ करना हमारी आदत व ‘‘पहचान’’ हो गई है?

  "लेटरल एंट्री" की आलोचना के संदर्भ में

भूमिका

 ‘‘संघ लोक सेवा आयोग’’ का 24 मंत्रालयों में 45 पदों के लिए यूनी लेटरली (बिना आम राजनीतिक सहमति बनाए जैसा कि वर्ष 2017 में कार्मिक मंत्री ने कहा था) ‘‘लेटरल एंट्री’’ मतलब सीधी नियुक्ति के द्वारा भर्ती का भारी भरकम अखिल भारतीय विज्ञापन प्रकाशित हुआ। इस पर विपक्ष ने ही नहीं, बल्कि एनडीए के कुछ सहयोगी दलों जैसे, लोजपा, जेडीयू ने भी हंगामा खड़ा कर दिया। विषयांतर्गत आगे बढ़ने के पहले इस बात को समझ लें कि ‘‘लेटरल एंट्री’’ आखिर होती क्या है? 

 "जनसत्ता’ बधाई का पात्र हैl 

‘‘लेटरल एंट्री’’ पर चर्चा प्रारंभ करें, इसके पूर्व इसका हिंदी शाब्दिक अर्थ क्या होता है? उसको जान लें। इसका अर्थ ‘‘विलंबित प्रवेश प्रक्रिया’’ है, जो आम भाषा में समझ में आती है, बजाय रोमन हिन्दी ‘‘लेटरल एंट्री’’ शब्द के। यह दिन-प्रतिदिन उपयोग में आने वाला आम प्रचलित शब्द नहीं है, जिसका उपयोग सामान्य रूप से किया जाता है। मैंने जब लेख लिखना प्रारंभ किया था, तब से जितने भी समाचार सुने, पड़े उन सब में रोमन हिन्दी शब्द ‘‘लेटरल एंट्री’’ ही मिला। यहां तक की गूगल में भी सर्च करने पर अधिकतम जगह वही अंग्रेजी मिला देवनगरी लिपी में नहीं। सिर्फ एक जगह हिंदी शब्द ‘‘पार्श्व प्रवेश’’ मिला। निश्चित रूप से यह हिन्दी भाषियों द्वारा हिंदी के प्रति अत्याचार ही है। तथापि मैंने एकमात्र ‘‘जनसत्ता’’ समाचार पत्र देखा, जिसने ‘लेटरल एंट्री’ का हिंदी ‘‘विलंबित प्रवेश प्रक्रिया’’ शब्द का प्रयोग अपने पूरे लेख में हर जगह किया। अतः जनसत्ता इस ‘‘हिन्दी प्रेम’’ के लिए बधाई की पात्र जरूर है। देश के समस्त हिन्दी भाषी नेताओं ने फिर चाहे वे राहुल गांधी, मल्लिकार्जुन खड़गे, अखिलेश यादव, चिराग पासवान, तेजस्वी यादव, मनोज झा या अन्य और कोई हो, सब ने रोमन लिपी ‘‘लेटरल एंट्री’’ शब्द का ही उपयोग किया है। स्वयं कार्मिक मंत्री जितेन्‍द्र सिंह ने संघ लोक सेवा आयोग को विज्ञापन रद्द करने के लिए लिखी चिट्ठी में ‘लेटरल एंट्री’ शब्द का ही प्रयोग किया है। 

लेटरल एंट्री का ‘‘अर्थ’’, ‘‘आवश्यकता’’ एवं ‘‘उपयोगिता’’। 

एक लाइन में इसका सामान्य मतलब ‘‘बिना परीक्षा के सीधी भर्ती’’ से है। सामान्यतः उक्त उल्लेखित विज्ञापन में प्रकाशित संयुक्त सचिव, निदेशक और उप सचिव के पद ‘‘संघ लोक सेवा आयोग’’ द्वारा ली गई परीक्षाओं से चयनित होने वाले आईएएस, आईपीएस, आईएफएस से भरे जाते हैं। परंतु भारत सरकार ने ‘‘राष्ट्र निर्माण’’ में योगदान देने के आकांक्षी ‘‘प्रतिभाशाली, प्रेरित’’ (टेलेंटेड़ मौटिवेटेड) भारतीय नागरिकों को 3 साल के अनुबंधन के आधार पर जिसे आगे 2 साल और बढ़ाया जा सकेगा, उक्त सीधी भर्ती करने का निर्णय लिया। ताकि विशिष्ट कार्यो के लिए विशेषज्ञ व्यक्तियों की नियुक्ति की जा सके। इसमें संबंधित क्षेत्र से व्यक्ति के विशेष ज्ञान और विशेषज्ञता को ध्यान में रखा जाता है, जिन स्तर पर अधिकारी नीति निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। संक्षिप्त में लेटरल एंट्री नई प्रतिभाओं को आकर्षित कर सामने लाने का एक बढ़िया तरीका है, खासकर उन लोगों के लिए जो सामान्य चयन प्रक्रिया से होकर गुजरना नहीं चाहते हैं या किसी कारणवश अपने जीवन के प्रारंभिक चरण में संघ की परीक्षा में बैठ नहीं पाये।  

"लेटरल एंट्री" का इतिहास

ऐसी भर्तियां वर्ष 2018 से ही की जा रही है, जो अभी तक कुल 63 नियुक्तियां की गई हैं, जिनमें 35 नियुक्ति निजी क्षेत्रों से हुई हैं। यह नियुक्तियां कांग्रेस शासन में सैम पित्रोदा, मनमोहन सिंह तथा मोंटेक सिंह अहलूवालिया की गई नियुक्तियों की तरह नहीं है, जैसा कि केंद्रीय कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने कहा। रघुराम राजन की नियुक्ति का भी उदाहरण पेश किया गया l उक्त उल्लेखित तीनों नियुक्तियां स्थानांतरण योग्य नहीं थी। जबकि इन लेटरल एंट्री के द्वारा जॉब पाने वाले व्यक्तियों का विभिन्न मंत्रालय में स्थानांतरण किया जा सकता है। दूसरा अंतर यह है कि यह संघ लोक सेवा आयोग द्वारा बिना परीक्षा के सीधी भर्ती की जा रही है, जबकि उपरोक्त तीन नियुक्तियां ‘‘आयोग’’ द्वारा नहीं की गई थी। यह कांग्रेस की ही सरकार थी, जिसने वर्ष 2005 में अपने अनुभवी नेता कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता में द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग (एआरसी) का गठन किया था, जिसकी ही सिफारिश को मोदी सरकार ने लागू कर उक्त विज्ञापित पद निकाले थे। इस भर्ती विज्ञापन के पूर्व ‘‘लेटरल एंट्री’’ को लेकर कार्मिक मंत्री जितेन्‍द्र सिंह ने वर्ष 2016 में "राजनीतिक सहमति" की बात की थी। तत्पश्चात सरकार ने वर्ष 2017 में नीति आयोग द्वारा दी गई सिफारिश के आधार पर पिछले 5 सालों में वर्ष 2018, 19, 21 एवं 23 में चार बार लेटरल एंट्री के द्वारा कुल 63 नियुक्तियां कर चुकी है। जिनमें कोई आरक्षण लागू नहीं किया गया था। तब भी राहुल गांधी ने या विपक्ष ने कोई विरोध नहीं जतलाया था? बल्कि  03 अप्रैल 2019 को राहुल गांधी ने ट्वीट कर लेटरल एंट्री का समर्थन किया था। तथापि आरजेडी सांसद मनोज झा ने वर्ष 2018 में ही विरोध जरूर किया था। यही तो राजनीति का परसेप्शन व नॉरेटिव  है।

विपक्ष द्वारा सशक्त चौतरफा विरोध।  

वास्तव में लेटरल एंट्री का ‘‘विरोध’’ का कारण लेटरल एंट्री द्वारा पदों की ‘‘भर्ती’’ का होना नहीं है, बल्कि जो 45 पद ‘‘लेटरल एंट्री’’ के द्वारा भरे जाने हैं, उनमे एससी, एसटी और ओबीसी का कोई ‘‘आरक्षण का न होना’’ है। वास्तव में यूपीएससी द्वारा भरी जानी वाली सार्वजनिक नौकरियों में ‘‘13 प्वाइंट रोस्टर’’ के द्वारा संवैधानिक आरक्षण लागू किया जाता है। परंतु जब किसी विभाग या कैडर में मात्र तीन रिक्तियां होती है, तब कोई आरक्षण लागू नहीं होता है। चूंकि ‘‘लेटरल एंट्री’’ के तहत भरे जाने वाला प्रत्येक पद एक ‘‘एकल पद’’ होता है, इसलिए इनमें आरक्षण लागू नहीं होता है। वस्तुतः सरकार द्वारा जरूरतों के अनुरूप उठाया गया ‘‘सही कदम’’ ‘‘गलत समय’’ उठाया गया है । जब सरकार के विरुद्ध  ‘‘आरक्षण विरोधी’’ होने का एक  गंभीर, किंतु  असत्य  नॉरेटिव व परसेप्शन का संकट बना हुआ है कि, वह आरक्षण को समाप्त करने पर तुली है। हाल में हुये संपन्न हुए लोकसभा चुनाव में "अबकी बार 400" पार के नारे को कुछ भाजपा नेताओं के बयानों के साथ जोड़कर विपक्ष ने इसे संविधान बदलने की ओर मोड़ दिया। उसके बाद उच्चतम न्यायालय के क्रीमी लेयर (उप  वर्गीकरण) पर आये निर्णय ने आरक्षण के ‘‘दधकते विषय पर आग में घी डालने’’ का काम किया। इन परिस्थितियों के चलते सरकार को समझदारी से काम लेकर सही समय का इंतजार करना चाहिए था? क्योंकि राजनीतिक परसेप्शन की लड़ाई का सामना भी उसी तरीके से करना होता है। विपक्ष का भर्ती प्रक्रिया समाप्त होने के पहले ही विरोध अंध विरोध ही कहलायेगा। क्योंकि विपक्ष को यह राह देखनी  चाहिए थी कि अंतिम परिणाम में कितने व्यक्ति "आरक्षित वर्ग" से आये हैं ? तब उनके विरोध की कोई आवाज ज्यादा सार्थक होती। इसके अतिरिक्त विपक्ष के पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि जिस क्षेत्र के विशेषज्ञ की आवश्यकता मंत्रालय को है यदि वह आरक्षित वर्ग से नहीं मिल पाती है, तब मंत्रालय क्या करेगा ?

क्या संवैधानिक आरक्षण मूल उद्देश्यों की प्राप्ति में असफल सिद्ध हो रहा है? 

विशेषज्ञों की इन पदों पर सीधे नियुक्तियों को लेकर ‘‘आरक्षण’’ के आधार पर विरोध से एक ‘‘ध्वनि’’ और निकलती है। क्या आरक्षण समर्थकों ने यह मान लिया था कि 70 वर्षों से चले आ रहे संवैधानिक आरक्षण के बावजूद इन 45 व्यक्तियों में कोई भी व्यक्ति मेरिट के आधार पर आरक्षित वर्ग से नहीं चुना जा पाएगा? क्या आरक्षित वर्ग में प्रतिभाओं का ‘‘अकाल’’ है। और यदि यही वस्तु स्थिति है, तब आरक्षण से गुणवत्ता में बढ़ोतरी होकर आरक्षण से बाहर आकर बराबरी से सर्व समाज में आरक्षित वर्ग मिक्स अप होकर "सामाजिक समरसता" हो जायेगी, तभी सामाजिक उत्पीड़न रूक पायेगा। क्या ऐसा कभी संभव हो पाएगा? तो कब तक? और यदि नहीं तब फिर "आरक्षण" से फायदा क्या? तब आपको यह सोचना होगा कि पिछड़े, कुचले, अंतिम छोर में खड़े (अंतोदय) होने का कारण क्या सिर्फ आर्थिक असमानता होना है, अथवा समाज की विक्षिप्त सोच है। तब फिर वर्तमान आरक्षण की नीति एक राजनीतिक लॉलीपॉप के अलावा और कुछ रह गया है क्या ? क्या कभी किसी ने सोचा है कि डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने संविधान लागू करते समय सिर्फ प्रारंभिक 10 वर्ष के लिए ही संविधान में आरक्षण की व्यवस्था क्यों की थी ? एक साथ है 50 साल के लिए क्यों नहीं की गई? क्या डॉक्टर अंबेडकर की दूर दृष्टि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के समान नहीं थी ? जो 2047 के विकसित भारत की कल्पना की आधारशिला आज रखते हैं l निश्चित रूप से डॉक्टर अंबेडकर दूरदर्शी थे। उनका आकलन था कि 10 वर्षों में दलित, कुचला, पिछड़ा, पीड़ित वर्ग का उत्थान इस "आरक्षण" से हो जाएगा और जो थोड़ी बहुत कमी वैसी रहेगी, तो उसके लिए अगले 10 वर्षों का प्रावधान और किया गया। परंतु शायद वे यह नहीं जानते थे कि यह अवधि सीमा एक रूटीन (सामान्य) होकर अनंत काल तक बढ़ते रहेगी? क्या अब समय नहीं आ गया है कि आरक्षण के प्रावधान में गुणात्मक आवश्यक परिवर्तन किए जाएं ताकि आरक्षण के पीछे जो भावना है, वह सही अर्थों में परिणाम मूलक होकर विकसित होकर ‘‘आ’’ ‘‘रक्षित’’ से हटकर ‘‘अ’’ ‘‘रक्षित ’’ हो जावे।

‘‘बैक फुट पर सरकार’’। 

राजनीतिक घमासान व उत्पन्न हंगामे को देखते हुए सरकार के विरुद्ध बने आरक्षण विरोधी धारण (परसेप्शन) को रोकने के लिए और शायद आगामी दो राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव में इसका कोई विपरीत प्रभाव न पड़े, सरकार ने मात्र तीन दिन बाद ही उक्त भर्ती को रोक दिया है। केंद्रीय कार्मिक मंत्री जितेंद्र सिंह ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कहने पर संघ लोक सेवक आयोग के अध्यक्ष से उक्त अधिसूचना को ‘‘रद्द’’ करने को कहा है। शपथ के मात्र तीन महीनों में ही यह सरकार का चौथा कदम हैं, जहां उसे अपने बढ़ते कदम को पीछे हटाने पड़े हैं। वित्त विधेयक में पूंजीगत लाभ को लेकर ‘‘कास्ट इंडेक्सेशन’’ का लाभ वापिस देने से लेकर, वक्फ संशोधन विधेयक’’ को "जेपीसी" को सौपा, फिर सोशल मीडिया पर नियत्रंण के लिए लाए जाने वाले ब्राडकास्टिंग बिल के ड्राफ्ट को फिलहाल ठंडे़ बस्ते में पटक देना, कुछ लोगों इसे मजबूर सरकार का कमजोर कदम जरूर  ठहरा सकते हैं। परन्तु वे इस बात को भूल जाते है कि भाजपा को स्पष्ट पूर्ण बहुमत प्राप्त न होने के तथा सहयोगियों की बैसाखी पर टिकी होने के बावजूद, प्रधानमंत्री मोदी ने अपने एजेंडे़ को लागू करने का प्रयास तो किया ? जो लगभग समान राजनीतिक परिस्थितियों के होते हुए अटल सरकार ने स्पष्ट रूप से भाजपा के घोषित एजेंड़े से एनडीए सरकार को दूर कर लिया था। इसीलिए तो 56 इंच का सीना कहलाता है। वैसे क्या यह लोकतंत्र के लिए एक सुखद संकेत नहीं है, जहां विपक्ष की आवाज की सुनवाई जनता दरबार मेें हो रही हो अथवा नहीं, लेकिन मोदी सरकार में होने लगी है?

सोमवार, 26 अगस्त 2024

ईडी (प्रवर्तन निदेशालय) की ‘‘सिम’’ में क्या ‘‘एक तय दिशा में’’ ‘‘जैमर’’ (अवरोधक) लगा हुआ है?

 

ईडी पर केवल विपक्ष के नेताओं के ही विरुद्ध कार्य करने का आरोप? 

‘‘जैमर’’ का मतलब तो आप समझते ही होंगे। जैमर के क्षेत्र में मोबाइल नेटवर्क न मिलने के कारण वह सेल फोन को उसे क्षेत्र में प्रभावी रूप से अक्षम कर देता है। इसी प्रकार पीएमएलए (धन शोधन निवारण अधिनियम) के अंतर्गत ईडी (प्रवर्तन निदेशालय) के ‘‘हाथ’’ (हथियार) अधिकतर राजनेताओं में विपक्षी दलों के नेताओं की गर्दन तक ही पहुंच पा रहे हैं, अन्य किसी नेताओं के पास नहीं, क्यों? क्योंकि वहां पर एक अवरोधक यंत्र (‘‘ऊपर’’ का आदेश) ‘‘जैमर’’ लगा हुआ है? वैसे ईडी पर इस तरह का आरोप लगाना आपकी नासमझी, बेवकूफी व द्वेष पूर्वक राजनीति से भरी पूर्ण ही कही जा सकती है? क्योंकि ‘‘हंसिया रे तू टेढ़ा काहे? अपने मतलब से’’। ईडी किसी नागरिक पर कोई कार्रवाई तभी करती है, जब उसने प्रथम दृष्टिया पीएमएलए के अंतर्गत कोई गुनाह किया हो। या सिर्फ आपके कहने मात्र से ईडी ‘‘शेर बकरी को एक ही घाट पर दिखाने’’ अर्थात संतुलन स्थापित करने की दृष्टि से, आपके विरोधी निर्दोष व्यक्तियों के खिलाफ झूठी कार्रवाई करें? ‘‘पीएमएलए’’ के अंतर्गत आरोपों को अभियोजन पर दोष सिद्ध करने का भार नहीं होता है, बल्कि स्वयं को निर्दोष सिद्ध करने का भार ‘‘आरोपी’’ पर हैं। आरोपी इस आधार पर अपने को निर्दोष या उसके विरुद्ध की गई कार्रवाई को गलत नहीं ठहरा सकता है कि, ईडी ने उसके विरोधी तथाकथित अपराधियों के विरुद्ध कार्रवाई नहीं की है। ईडी का यह एक पक्ष है। परंतु तथ्य इसके विपरीत हैं।

हमारे यहां एक कहावत है। गोबर जहां गिरता है, कुछ न कुछ लेकर उठता ही है। अतः ईडी जहां भी छापे मारेगी, निसंदेह वहां कुछ न कुछ अवश्य मिलेगा ही। इसलिए भारी भरकम कैश व संपत्ति मिलने के कारण गुण दोष के आधार पर उन छापों की आलोचना नहीं की जा सकी। अलहदा न्यायालयों में अधिकांश प्रकरणों में भारी जब्ती के बावजूद ईडी सजा नहीं दिलवा पाई। जब ईडी को विपक्ष के नेताओं के यहां छापा मारने से फुर्सत मिलेगी, तभी तो वह सत्ताधारी पार्टी के नेताओं के घर जाएगी? इतनी प्राथमिकता तो ‘‘सत्ता’’ की मिलनी ही चाहिए? इस बात को विपक्ष को समझना चाहिए?

ईडी की सफलता का ‘‘ट्रैक रिकॉर्ड’’

ईडी पर एक पक्षीय होकर ‘‘टारगेट कर पक्षपात पूर्ण’’ कार्रवाई करने का आरोप लगाए जाने के बाद ईडी ने आंकड़े जारी कर उन आरोपों को नकारते हुए अपनी स्थिति स्पष्ट की है। 31 जनवरी तक 513 लोगों को गिरफ्तार किया है वहीं, 1.15 लाख करोड़ रुपए से अधिक की सपत्ति कुर्क की है। ईडी का साफ कहना है कि वह अपराधियों के विरुद्ध कार्रवाई करती है,‘‘निरापराधियों’’ के विरुद्ध नहीं, जो 96% सजा मिलने के रिकॉर्ड से सिद्ध भी होता है। राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी (एनआईए) एवं सीबीआई का सजा का प्रतिशत क्रमशः 94 एवं 68% है। राजनेताओं (पूर्व व वर्तमान जनप्रतिनिधियों) के विरुद्ध केवल 3% मामले हैं और 9% मामलों में ही तलाशी वारंट जारी किए गए हैं। ईडी का यह कथन है की जनवरी 2023 तक 25 में से 24 मामलों में 45 आरोपियों को सजा हुई, वहीं 1142 मामलों में चार्ज शीट होकर ट्रायल चल रहे हैं। हालांकि ईडी का यह दावा भ्रामक होकर गलत है। एक जुलाई 2005 से ईडी को पीएमएलए 2002 लागू करने का अधिकार मिलने के बाद से 31 जनवरी 2023 तक 5906 मामले दर्ज हुए हैं, जिनमें से 1142 अर्थात मात्र 19 फीसदी मामलों में ही चार्जशीट प्रस्तुत की गई है। लोकसभा में दी गई एक जानकारी के अनुसार वर्ष 2014 से 2024 के बीच धन शोधन निवारण अधिनियम 2002 (पीएमएलए) के तहत 5297 मामले दर्ज किए गए, जबकि मात्र 46 मामलों एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार 63 मामलों में ही दोष सिद्धि हो पाई। जबकि यूपीए के कार्यकाल में एक भी सजा नहीं हुई। इस प्रकार दर्ज मामलों से सजा होने तक दोष सिद्धि का प्रतिशत मात्र 1.18% होता है, न की 96%। ये तो ‘‘पंसेरी में पांच सेर की चूक हुई’’! स्वयं उच्चतम न्यायालय ने छत्तीसगढ़ के सुनील कुमार अग्रवाल के मामले में सुनवाई के दौरान यह कहा कि ईडी को सजा की दर को बढ़ाने के लिए कुछ ‘‘वैज्ञानिक जांच’’ की जानी चाहिए। 

‘‘पीएमएलए’’ में जमानत के कड़े नियम!

ईडी द्वारा मामला दर्ज होते ही आरोपियों की गिरफ्तारी हो जाती है। पीएमएलए के कानून कड़े होने के कारण महीनो-सालों जमानत नहीं मिलने से अनावश्यक रूप से जेल में रहना पड़ता है, क्योंकि चार्ज शीट ही लंबे समय तक प्रस्तुत नहीं होती है। इस संबंध में मुंबई के विशेष सत्र न्यायाधीश का संजय राउत को जमानत देने के आदेश में कहां गया यह कथन अत्यंत महत्वपूर्ण है, ‘‘ईडी जिस असाधारण गति से अभियुक्तों को गिरफ्तार करता है, वह परीक्षण करने में कछुए की गति से भी कम है।’’ कई बार सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि ‘‘जमानत को सजा के रूप में उपयोग नहीं किया जा सकता है’’, लंबे समय तक आरोपी को जेल में रखना संविधान के अनुच्छेद 21 में दिए गए स्वतंत्रता के अधिकार का हनन है। ‘‘जमानत एक अधिकार है और इनकार अपवाद’’ सर्वोच्च न्यायालय के इस प्रतिपादित सिद्धांत के बावजूद पीएमएलए में जमानत मुश्किल से ही मिल पाती है। लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि ईडी ‘‘अंधेरखाता खोल कर बैठ जाये’’। 

ईडी पर विभिन्न मामलों में न्यायालयों द्वारा की गई गंभीर टिप्पणियां। 

ईडी द्वारा पीएमएलए के अंतर्गत दायर किए गए कुछ महत्वपूर्ण प्रकरणों में विभिन्न माननीय न्यायालयों द्वारा की गई टिप्पणियों को देख ले तो आपको स्पष्ट रूप से यह समझ में आ जाएगा कि ईडी किस तरह से ‘‘हवाबाजी’’ व ‘‘दिशा निर्देश’’ में कार्य करती है।

शिवसेना के सांसद व मुखपत्र ‘‘सामना’’ के संपादक संजय राउत के प्रकरण में पीएमएलए न्यायालय के विशेष न्यायाधीश ने स्पष्ट रूप से यह कहा कि यह मामला पीएमएलए कानून के क्षेत्राधिकार के अंतर्गत आता ही नहीं है, दीवानी मामला है। ईडी को जमकर फटकार लगाते हुए संजय राउत की गिरफ्तारी कों अवैध व शिकार बनाने का कृत्य दिया। इसे ‘‘विच हंट’’ भी कहा। आप इसे ‘‘हड़बड़ी ब्याह कनपटी सिंदूर’’ भी कह सकते हैं। ‘‘यस बैंक’’ के संस्थापक राणा कपूर को जमानत देते हुए इन्हीं माननीय न्यायाधीश ने कहा कि पीएमएलए के अंतर्गत गठित विशेष अदालत की स्थापना के बाद से आज तक एक भी मनी लॉन्ड्रिंग मामले का फैसला नहीं हो सका है। ‘‘ईडी ने लंबित मामले की सुनवाई शुरू करने के लिए कोई सक्रिय रूख नहीं दिखाया है’’। 

दूसरा मामला ‘‘आप’’ सांसद संजय सिंह का है, जहां ईडी द्वारा आधिकारिक रूप से जमानत का विरोध न किए जाने पर उच्चतम न्यायालय ने जमानत दी। ईडी ने जमानत का विरोध इसलिए नहीं किया कि जब न्यायालय ने ईडी से यह पूछा कि 6 महीनों से बंद संजय सिंह को अब जेल में रखने की जरूरत क्यों है? यह समझ से परे है? तब न्यायालय द्वारा गुण दोष पर आदेश पारित करने के लिए पूर्व ही ईडी ने हरी झंडी दे दी स यानी ‘‘सवाब न अजाब कमर टूटी मुफ्त में’’।

तीसरा मामला अनिल देशमुख महाराष्ट्र के पूर्व गृह मंत्री का है। उच्च न्यायालय के समक्ष लंबे समय से लंबित जमानत याचिका पर उच्चतम न्यायालय की रताड़ के बाद उच्च न्यायालय ने शीघ्र  सुनवाई कर अनिल देशमुख को इस आधार पर जमानत दी की दो गवाहों के बयान जिनके आधार पर प्रकरण दर्ज किया गया वे बयान प्रथम दृष्टिया सुनी सुनाई बातों (हियरसे) पर आधारित थे। चौथा मामला झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन का है, जब उच्च न्यायालय ने हेमंत सोरेन के खिलाफ पीएमएलए एक्ट के अंतर्गत प्रथम दृष्टिया कोई साक्ष्य न पाए जाने के कारण उनका जमानत आवेदन स्वीकार किया गया स ताजा मामला दिल्ली के पूर्व उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया का 17 महीने बाद जमानत पर जेल से छोड़ा गया स मतलब यह कि ‘‘शैतान जान न मारे, हैरान तो जरूर करे’’। सर्वोच्च अदालत ने हाई कोर्ट व ट्रायल कोर्ट को यह समझाइश दी की अदालतें यह समझें की जमानत एक नियम है और जेल एक अपवाद। सजा के तौर पर जमानत से इनकार नहीं किया जा सकता है। राइट टू स्पीडी ट्रायल (त्वरित सुनवाई का अधिकार) को अनदेखा किया गया।

ईडी के एक भी रेड कॉर्नर नोटिस का निष्पादन न हो पाना? 

ईडी की कार्यप्रणाली की तथाकथित गंभीरता? का एक उदाहरण और देखिए! ईडी ने देश से भाग गए भगोड़ों की गिरफ्तारी के लिए वर्ष 2015 से लेकर अभी तक कुल 19 रेड कॉर्नर नोटिस जारी किए हैं, जिनमें से एक भी अपराधी का प्रत्यारोपण अभी तक नहीं हो पाया है।

बुधवार, 14 अगस्त 2024

विश्व गुरु भारत? क्या ‘‘विदेश नीति’’ पड़ोसी देशों के साथ संबंधों को लेकर कसौटी पर ‘‘खरी ’’नहीं उतर रही है?

 बांग्लादेश में रक्तहीन क्रांति: भारत समर्थक तख्तापलट ।


विश्व गुरु है भारतः तो सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य कब? 

निसंदेह, पंडित जवाहरलाल नेहरू के बाद इतिहास बनाने वाले यशस्वी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारत विश्व  गुरु की ओर तेजी से अग्रसर होकर 3 ट्रिलियन इकॉनामी से 5 ट्रिलियन की ओर बढ़ बढ़कर विश्व की तीसरी सबसे बड़ी आर्थिक व्यवस्था बनने जा रहा है । प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी की अभी तक 54 देशों की विदेश यात्राएं हो चुकी है, जहां उन्होंने उन्हें 14 अंतर्राष्ट्रीय सम्मानों से नवाजा गया है जिनमे मुस्लिम राष्ट्रों का बहुमत है l आज एक सुदृढ़ राष्ट्र के रूप में भारत देश ही नहीं, बल्कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की एक व्यक्तित्व के रूप में मजबूत छाप विश्व धरोहर के रूप में बन चुकी है, जिसे नजरअंदाज करना किसी भी देश के लिए एकदम से संभव नहीं है। विश्व की तीन महाशक्तियों अमेरिका, रूस और चीन के बीच ‘‘भारत’’ भी एक महाशक्ति के रूप में उभर कर स्थापित हो चुका है, यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा। विश्व गुरू बनने की भारत की यह यात्रा तब ही पूर्ण होगी, जब भारत सुरक्षा परिषद का स्थाई सदस्य बन जायेगा। विश्व पटल पर इस स्थिति में पहुंचने के लिये सिर्फ ‘‘विदेश नीति’’ ही मात्र एक कारगर अस्त्र नहीं होती है, बल्कि इससे ज्यादा देश का चौमुखा विकास और भारत की आर्थिक विकास दर जो विश्व की तुलना में विश्व में आयी ‘‘मंदी’’ के बावजूद ज्यादा तेजी से बढ़ी है, ये महत्वपूर्ण कारक भारत को  विश्व गुरु बनने में सहायक हुआ है।

गुट निरपेक्ष आंदोलन।

याद कीजिए! हमारी स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जब विश्व दो भागों में बंटा हुआ था, अमेरिका व रूस। तब यूगोस्लाविया के राष्ट्रपति जोसिप ब्रोज टीटो, इजिप्ट् (मिस्र) के राष्ट्रपति गमाल अब्दुल नासिर, इंडोनेशिया के राष्ट्रपति सुकर्णो एवं घाना के राष्ट्रपति क्वामे नक्रूमा के साथ पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अन्य देशों का एक ‘‘गुटनिरपेक्ष संगठन’’ बनाने की अगुवाई की थी, जो गुटनिरपेक्ष आंदोलन के नाम से जाना जाता है। यह आंदोलन 120 सदस्यों की संख्या के साथ तीसरी सबसे बड़ी शक्ति के रूप में संयुक्त राष्ट्र संघ के बाद सबसे बड़ी सदस्य संख्या (दो तिहाई एवं 55% आबादी) की दृष्टि से उभरा, जिसका नेतृत्व लम्बे समय तक नेहरू करते रहे, जिन्होंने ही सर्वप्रथम 1946 में अंतरिम सरकार में गुटनिपेक्षता योजना की सर्वप्रथम घोषणा की थी। तथापि ‘‘गुट निरपेक्षता’’ की कोई परिभाषा नहीं थी। अधिकारिक रूप से अप्रैल 1961 में इसका गठन हुआ। पहला गुट निरपेक्ष शिखर सम्मेलन 1961 में हुआ। नेहरू ने ‘‘पंचशील’’ सिद्धान्त को गुटनिरपेक्ष आंदोलन का आधार बनाया। यह अलग बात है कि ‘‘पंचशील’’ के रहते भारत चीन से धोखा खाकर भारत-चीन युद्ध हुआ, जिसमें भारत को पराजय झेलनी पड़ी, जिसका घाव आज तक विद्यमान है। 

‘‘सार्क’’ ‘‘बिमस्टेक’’ ‘‘हिमतक्षेस’’ एवं IORO अंतरर्राष्ट्रीय देशों के संगठनों के गठन में भारत की महत्वपूर्ण भूमिका। 

इसके पश्चात 08 दिसम्बर 1985 को ‘सार्क’ दक्षिण एशिया क्षेत्रीय सहयोग संगठन के गठन में भी भारत की अहम भूमिका रही, जिसमें 8 देश शामिल हैै। वर्ष 2020 मई में ‘‘सार्क’’ के ‘वर्चुअल शिखर’ सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के भाग लेने के बाद उन्होंने भाग नहीं लिया। पाकिस्तान से तनावपूर्ण संबंधों के चलते 2016 से निष्क्रिय पड़े सार्क संगठन के महासचिव गुलाब सरोवर (बांग्लादेश) अभी-अभी भारत के दौरे पर आए हैं। वर्ष 1997 में ‘‘बिमस्टेक’’ संगठन बंगाल की खाड़ी के किनारे सटे हुए चार संस्थापक सदस्य बांग्लादेश, भारत, श्रीलंका और थाईलैंड के साथ बनाया गया, जिसमें बाद में तीन और सदस्य नेपाल, म्यांमार व भूटान जुड़े। ढाका मुख्यालय होकर इस संगठन का उद्देश्य आर्थिक व तकनीकी सहयोग को परस्पर सदस्य देशों के बीच बढ़ावा देना है। इसी समय उत्पति एवं विकास हिन्द महासागर तटीय क्षेत्रीय सहयोग संगठन (हिमतक्षेस) 5 मार्च, 1997 को पोर्ट लुईस मॉरीशस में अस्तित्व में आया। इस संगठन के 14 संस्थापक सदस्य देश थे-भारत, आस्ट्रेलिया, मलेशिया, इंडोनेशिया, श्रीलंका, सिंगापुर, ओमान, यमन, तंजानिया, केन्या, मोजाम्बिक, दक्षिण अफ्रीका और मॉरीशस। व्यापार, निवेश को बढ़ावा देने के लिए ‘‘खुले क्षेत्रवाद’’ के मूल्यों पर आधारित संगठन (हिंद महासागर रिम एसोसिएशन) IORA का दृष्टिकोण वर्ष 1995 में दक्षिण अफ्रीका के तत्कालीन राष्ट्रपति, नेल्सन मंडेला की भारत यात्रा के दौरान प्रकाश में आया। वर्तमान में IORA के हिंद महासागर सीमा से लगे 23 सदस्य देश और 11 संवाद भागीदार हैं। इन समस्त अंतरराष्ट्रीय संगठनों को बनाने में भारत की महत्वपूर्ण भूमिका भारत को एक विश्व शक्ति के रूप में अंतरराष्ट्रीय पटल पर मान्यता देती है।

पिछले तीन सालों में तीन देशों की भारत समर्थक सरकारों का अपदस्थ होना। 

पिछले कुछ समय से हमारे पड़ोसी देशों में चल रही राजनीतिक घटनाओं का क्रम देखिए! आप समझ पाएंगे कि भारत की विदेश नीति पड़ोसी देशों को लेकर कितनी गंभीर है? सर्वप्रथम जब भारत के प्रधानमंत्री मोदी 15 अगस्त 2021 को लाल किले पर झंडा फैला रहे थे, उसी दिन अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी पलायन कर गये और तत्पश्चात भारत विरोधी मुल्ला अब्दुल गनी बरादर (तालिबानियों) का शासन हो गया। फिर 17 नवंबर 2023 को मालदीव के भारत समर्थक राष्ट्रपति इब्राहिम सोलिह अपने विरोधी भारत विरोधी मोहम्मद मोईज से चुनाव हार गए। तब मोदी ‘‘अबकी बार फिर इब्राहिम सोलिह  सरकार’’ का कथन नहीं कर पाये? और अब बांग्लादेश में 5 अगस्त 2024 को भारत की अभिन्न मित्र शुभचिंतक  शेख हसीना सरकार का अपदस्थ होना। अभी 4 जनवरी देव 24 कोई प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के द्वारा लक्ष्यद्वीप की तस्वीरें शेयर करने पर मालदीप के कुछ मंत्रियों ने भारत विरोधी टिप्पणियां की l

पड़ोसी देशों से संबंध! ‘‘दिया तले अंधेरा’’

जिस प्रकार एक पूर्ण विकसित व्यक्तित्व तभी बन सकता है, जब उसका चारों दिशाओं में चहुंमुखी विकास हो। उसी प्रकार कोई राष्ट्र ‘‘विश्व गुरू’’ तभी बन व सफल हो सकता है, जब न केवल उसका विश्व में सिक्का चलता हो, बल्कि ‘‘पडोसी देशों में’’ भी उसकी प्रभुत्व स्थापित होकर उनसे अच्छे मधुर संबंध बने रहे। यह ठीक वैसा ही कि आप लाखों वोटों से विधानसभा/लोकसभा चुनाव जीतें परन्तु अपने निवास करने वाले मतदान केन्द्र से ही चुनाव हार जाए। दुर्भाग्य से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल में पड़ोसी देशों से संबंधों की दिशा निरंतर गिरावट आई है। शायद ‘‘दिये तले अंधेरे’’ की स्थिति हो गई है। बांग्लादेश में रक्तहीन क्रांति से तख्तापलट होने के बाद सिर्फ मित्र देश ‘‘भूटान’’ जिसकी स्थिति  देश में दिल्ली राज्य के समान ही है, को छोडकर तथा चीन व पाकिस्तान को छोड़ दिया जाए, जिनसे संबंध पहले से ही खराब रहे हैं, हमारे समस्त पड़ोसी देशों अफगानिस्तान, श्रीलंका, म्यांमार, नेपाल, मालदीव और अब बांग्लादेश से संबंध शस्त्रु जैसे न भी कहे, तो ‘‘मधुर’’ व गर्मजोशी के तो नहीं रह गए हैं। निश्चित रूप से इन देशों का झुकाव हमारे घोषित शस्त्रु चीन व पाकिस्तान की ओर ‘‘तुलनात्मक’’ ज्यादा है। यह स्थिति देश की विदेश नीति पर निश्चित रूप से प्रश्नचिन्ह अवश्य लगाती है। 

मित्र बदल सकते है, पड़ोसी नहीं! अटल जी।

इस स्थिति के लिए अकेले भारत को ही जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। बल्कि सौहार्दपूर्ण संबंध परस्पर इच्छाशक्ति पर निर्भर हैं और यदि दूसरा देश संबंध अच्छे नहीं रखना चाहता है, तब आपसी संबंधों में ‘‘तनाव’’ किसी कारण या दबाव में होना लाजमी है। ‘‘ताली दोनों हाथों से बजती है’’। लेकिन तब भी राष्ट्रहित में हमे इस स्थिति से निपटना ही होगा। आज जहां अटल जी के कथन याद आ जाते है। ‘‘आप मित्र तो बदल सकते है, लेकिन पड़ोसी नहीं’’। इस ‘‘अटल सत्य’’ को ध्यान में रखते हुए हमे उनसे कूटनीतिक रिश्ते सौहाद्रपूर्ण, सदभावपूर्ण और एक दूसरे को विकास की ओर ले जाने वाले बनाए रखने का प्रयास लगातार करते रहना पड़ेगा। तभी हमे विश्व गुरू होने का सही ‘‘मुकुट’’ मिल सकता है।

‘‘राष्ट्रीय हितों’’ पर ‘‘व्यक्तिगत संबंध भारी’’।

याद कीजिए! प्रधानमंत्री मोदी के विश्व की समस्त महाशक्तियों के राष्ट्रध्यक्षों के साथ व्यक्तिगत स्तर पर बड़े ‘‘प्रगाट’’ संबंध रहे हैं, जो ‘उतने’ शायद पहले की सरकारों के समय नहीं रहे हैं। इसमें बांग्लादेश भी शामिल रहा है, जिसके प्रधानमंत्री शेख हसीना को अभी हुई रक्तहीन क्रांति में इस्तीफा देना पड़ा। व्यक्तिगत संबंध की इन्तहा तो देखिये; शेख हसीना नरेन्द्र मोदी के तीसरे शपथ ग्रहण समारोह में शामिल होने भारत आई। वहीं दूसरी ओर प्रधानमंत्री अमेरिका जाकर ट्रंप के दूसरे चुनाव में ‘‘अबकी बार ट्रंप सरकार’’ कहकर  आ जाते हैं, जैसे वे अपने देश के किसी प्रदेश में चुनाव में प्रचार करने गए हों ? कई बार हम व्यक्तिगत रिश्तों को आवभगत के आभामंडल  की चकाचौंंध  में ‘‘राष्ट्र से ऊपर रख लेते है’’। जबकि वास्तव में व्यक्तिगत संबंधों पर राष्ट्रीय हित हमेशा ‘‘भारी’’ होना चाहिए। यह एक राजनीतिक, कूटनीतिक ‘‘चूक’’ और ‘‘समझ’’ में कमी कही जा सकती है। इसलिए हम जब नरेन्द्र मोदी को विश्व गुरु कहने लग जाते है, तो उसका कारण भी शायद यही ‘‘समझ’’ की कमी है। राष्ट्र की दीर्घकालीन विदेश नीति में राष्ट्राध्यक्षों से व्यक्तिगत संबंधों से ज्यादा ‘‘राष्ट्रों से देश हित की दिशा में मजबूत संबंध’’ होना ज्यादा महत्वपूर्ण होता है। जब हम किसी देश के राष्ट्राध्यक्ष सेu व्यक्तिगत संबंध मजबूत करते है, तब हमे भी इस बात का ध्यान रखना चाहिए, वे पद पर स्थाई ‘‘सत्तारूढ़’’ नहीं हैं। सरकारें बदलती हैं। चुनावों में हार-जीत होती है। अतः व्यक्ति से संबंध देश से ऊपर होकर ‘‘देशहित गौण’’ हो न जाए, इस बात की सावधानी बरतना जरूरी है। इसलिए अंतरदेशीय के समान अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी विपक्ष से भी इतने संबंध जरूर होना चाहिए, ताकि वे जब सत्ता में आये तो हम उनसे बातचीत कर सके। 

बांग्लादेश में ‘‘लोकतांत्रिक तानाशाह’’ ‘‘रक्तहीन क्रांति’’ से अपदस्थ।

बांग्लादेश में जनवरी 2024 में आम चुनाव हुए, जिसमें विपक्षी बीएनपी पार्टी एवं जमाते-ऐ -इस्लामी गठबंधन ने चुनाव का बहिष्कार किया था। शेख हसीना की अवामी लीग को भारी बहुमत 300 में से 222 सीटें मिली। दूसरे नंबर पर निर्दलीय उम्मीदवार रहे, जिन्हें अवामी लीग ने ही लोकतंत्र दिखाने के नाम पर खड़ा किया था। ऐसा वहां की मीडिया में चर्चा है। शेख हसीना की सरकार के अपदस्थ हो जाने के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सामने ‘‘कुआं व खाई’’ की स्थिति है। एक तरफ प्रगाढ़ संबंधों के रहते मानवीय और बांग्लादेश केे जन्म से लेकर खासकर बांग्लादेश निर्माता बंग बंधु शेख मुजीबुर्रहमान की पुत्री होने के नाते प्रधानमंत्री शेख हसीना से हमारे लगातर गहरे संबंधों के चलते मानवीय आधार पर उन्हे शरण देना उचित व जायज दिखता है। वहीं दूसरी ओर शेख हसीना के खिलाफ बांग्लादेश में जिस तरह का का जन-युवा आक्रोेश बांग्लादेश के स्वतंत्रता में भाग लेने वालों के लिएआरक्षण तथा पेपर लीक को लेकर खडा हुआ l इस आरक्षण को लेकर शेख हसीना कतई जिम्मेदार नहीं है क्योंकि उच्च न्यायालय ने आरक्षण की सीमा तय की थी, जिसे बाद में उच्चतम न्यायालय ने घटा भी दिया था l हसीना सरकार ने तो आरक्षण खत्म कर दिया थाl बावजूद इसके   छात्रों व युवाओं ने राष्ट्रव्यापी आंदोलन छेड़ा। दुर्भाग्यवश जिस तानाशाही तरीके से शेख हसीना ने स्थिति को संभालने का प्रयास किया, उससे छात्र व युवा जो दो तिहाई से भी ज्यादा जनसंख्या में हैं, बुरी तरह से शेख हसीना के विरूद्ध हो गये। तब भारत सरकार ने अपने प्रभाव का उपयोग कर आंदोलन कुचलने के लिए शेख हसीना को तानाशाही रवैया अपनाने से रोकने का कोई ‘‘आंतरिक’’ सार्थक प्रयास नहीं किया। क्योंकि ‘‘बाहय प्रयास’’ तो ‘‘आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप कहलाता’’। ऐसी स्थिति में यदि भारत सरकार शेख हसीना का खुलकर समर्थन करती, तब भारत सरकार को बांग्लादेश के छात्रों व जनता के आक्रोश को भी झेलना पड़ता, जो कदापि देश हित में नहीं होता। 

बांग्लादेश में तेजी से बदलती परिस्थितियों पर नज़र रखने में भारी चूक?

बांग्लादेश के बाबत यह कहा जा सकता है कि भारत से चूक हुई है। जहां पर वास्तव में शेख हसीना ने तानाशाही रवैये के चलते अलोकतांत्रिक तरीके से विरोधी पक्ष को लगभग समाप्त करने का प्रयास किया। शायद इसीलिए विपक्ष से कोई तार हमारे देश और प्रधानमंत्री के नहीं जुड़ पाये। क्योंकि हम सिर्फ शेख हसीना की ओर टक-टक नजरे टिकाये हुये थे? इसलिए हम निश्चित रूप से ‘‘दो पाटों के बीच’’ फंसे है। ‘‘गले की हार रही’’ शेख हसीना प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में शरीक हुई थी, आज ‘‘गले की हड्डी’’ बन कर जिन्हें  न निगलते बन रहा है न उगलते, फिलहाल भारत में गुमनामी में रह रही है। बांग्लादेश की वर्तमान तेजी से घटित घटनाक्रम ने हमारी इसी ‘‘विरोधाभासी स्थिति’’ को उजागर कर दिया है। जहां मजबूत भारत ‘‘मजबूर या कमजोर’’ भारत दिखने की स्थिति पैदा हो गई है। जब बांग्लादेश के अपदस्थ प्रधानमंत्री को भारत में शरण देने का मामला सामने आया है। यद्यपि वे भारत आ चुकी है, लेकिन हमने उन्हे राजनीतिक शरण नहीं दी है। शायद शेख हसीना दूसरा रास्ता ढूढ़ रही है, ताकि भारत की स्थिति ‘‘अजीब’’ (ऑकवर्ड ) न हो। इस स्थिति से हमें निकलना होगा और भविष्य में इस तरह की स्थिति न बन सके, इस बात का भी ध्यान विदेश नीति निर्धारण करने वाले को रखना होगा। अतः अब सीमित विकल्पों के रहते हुए भारत को बहुत ही सावधानियों के साथ कदम आगे बढ़ाने होगें।

सोमवार, 12 अगस्त 2024

बिना तथ्य और साक्ष्य के ‘‘मुद्दा’’ बनाकर ‘‘अर्थहीन’’ बहस में महत्वपूर्ण समय ‘‘बेकार’’ करने की क्या हमारी ‘‘प्रवृत्ति व नियति’’ बन गई है?

क्या देश की राजनीति में ‘‘देश हित’’ पर ‘‘सिर्फ’’ अंतरराष्ट्रीय मामलों (बांग्लादेश) को लेकर ही सहमति बन सकती है?


पुनः ‘‘महत्वपूर्ण समय का अपव्यय ही अपव्यय ’’।
गत दिवस ही मैंने देश के ‘अमूल्य’ समय के ‘अपव्यय’ के बाबत कांवड़ यात्रा में नेम प्लेट को लेकर दो भागों में लिखे लेख के माध्यम से लंबी चर्चा की थी। परंतु दुर्भाग्य वश ऐसा लगता है कि देश में बुद्धि का ‘‘अकाल  होकर’’ वह ‘‘काल के गाल’’ में चली गई है। तभी तो बदकिस्मत, विनेश फोगाट की अयोग्यता को लेकर आरोपों (तथाकथित) की पोटली बनाकर देशव्यापी चर्चा में व्यस्त हो कर पुनः समय की बर्बादी की जा रही है। आखिर यह कब और कहां जाकर रुकेगी? वाकई ‘‘खलक का हलक बंद करना’’ बहुत ही मुश्किल है।
‘‘असंभव को संभव’’ कर ‘‘अयोग्य’’ होकर भी फोगाट ने देश का नाम ‘‘ऊंचा’’ कर स्वयं को  ‘‘योग्य’’ सिद्ध किया।
ताजा मामला कई अवॉर्डों से सुशोभित तथा ‘‘खेल पुरस्कार व अर्जुन पुरस्कार’’ से सम्मानित देश की प्रसिद्ध अंतरराष्ट्रीय पहलवान विनेश फोगाट का है। पेरिस में चल रहे ओलंपिक में वर्ष 2010 से लगातार 95 अंतरराष्ट्रीय मुकाबले जीत चुकी 4 बार की विश्व कुश्ती चैंपियन तथा पिछले ओलंपिक विजेता 733 पॉइंट्स के साथ जापान की अपराजित ‘‘युई सुसाकी’’ को 50 किलो वजन वर्ग की कुश्ती में प्री क्वार्टर फाइनल में हराकर इतिहास रच कर गोल्ड मेडल चूकने के बावजूद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत देश का नाम गौरवान्वित कर ‘‘ऊंचा’’ किया। ‘‘ग्रहण तो चांद को भी लगता है’’ सो यह आईने सामान स्पष्ट है कि देश की हीरोइन ‘‘आईकॉन’’ बन चुकी विनेश फोगाट के 50 किलोग्राम की श्रेणी में 100 ग्राम वजन ज्यादा रह जाने के कारण कुश्ती के ओलंपिक नियमों के तहत उन्हें ‘‘अयोग्य’’ घोषित कर दिया गया, जिस कारण से वे गोल्ड-सिल्वर मेडल के लिए फाइनल में ‘‘मैट’’ पर उतर नहीं सकी। लेकिन ‘‘एक स्वर में कह रहा है सारा देश, तुम हारी नहीं विनेश’’। इस प्रकार ‘‘जो जीता वही सिकंदर’’ मिथक को विनेश ने झुठला दिया। ‘‘जीत’’ ही नहीं ‘‘हार’’ भी ‘‘जीत’’ कहलाती है, इसीलिए तो जीत पर ‘‘हार’’ गले में ड़ाली जाती है।
कुश्ती से ‘‘संन्यास’’ की घोषणा। गहरा ‘‘अवसाद’’ तो कारण नहीं?
‘‘ओलंपिक गोल्ड मेडल’’ जो किसी भी खिलाड़ी के जीवन का सबसे बड़ा स्वप्न होता है, के निकटतम लगभग पहुँच जाने के बावजूद, अयोग्य घोषित होने के चलते लगभग आई सफलता हाथ से ‘‘फिसल’’ जाती है, तब उस खिलाड़ी की मानसिक स्थिति की कल्पना करना किसी अन्य व्यक्ति के लिए लगभग असंभव सी हो जाती है। सच कहा है, ‘‘घाव से बड़ी घाव की टीस होती है’’। तब ऐसे खिलाड़ी के टूटे हुए मनोबल (जमीन पर लेटी हुई उसकी फोटो को देखिये) को ऊंचा उठानें के लिए ‘‘दवाई’’ के रूप में सांत्वना के कुछ अच्छे शब्दों की आवश्यकता की बेहद जरूरत होती है, जैसा कि प्रधानमंत्री ने अयोग्य घोषित होने के तुरंत बाद सोशल मीडिया प्लेटफार्म ‘‘एक्स’’ पर किया ‘‘आप चैंपियन में चैंपियन है। आप भारत का गौरव हैं। मैं जानता हूं कि आप दृढ़ता का प्रतीक हैं। चुनौतियों का डटकर मुकाबला करना हमेशा से आपका स्वभाव रहा है। मजबूत होकर वापसी आइये’’। इससे अच्छा उत्साह वर्धन करने वाला कोई शब्द-लाइन हो ही नहीं सकती। यद्यपि विनेश की सेमी फाइनल तक की ऐतिहासिक जीत ऐतिहासिक इसलिए है कि विनेश प्रथम भारतीय महिला कुश्ती खिलाड़ी बनी जो आंेलपिक में फाईनल में पहुंची, जिस पर प्रधानमंत्री का ट्वीट न आना या फोन पर बातचीत न करना जैसे अन्य खिलाड़ियों के साथ किया, पर प्रधानमंत्री आलोचना के शिकार भी बने। यह कहीं न कहीं उनकी प्रांरभिक हिचक को भी दर्शाता है। 140 करोड़ जनता के दिलों से भी यही आवाज निकली क्योंकि ‘‘कीर्ति के गढ़ कभी नहीं ढहते’’। ‘अवसाद’ की स्थिति के चलते ही शायद फोगाट ने संन्यास की घोषणा कर दी, जो अयोग्य घोषित होने के बाद पुनः देश के लिए दुर्भाग्यपूर्ण होकर एक आघात है।
तथ्यहीन, आधारहीन आरोप?
परंतु दुर्भाग्य मेरे देश का, एक वर्ग को, कुछ राजनीतिक पार्टियों और सोशल मीडिया को इस अयोग्यता के निर्णय में ‘‘षडयंत्र की बू’’ नजर आ रही है, जिस पर देश में फिर अनावश्यक बहस चलवाकर महत्वपूर्ण समय को ‘‘फालतू’’ बना दिया जा रहा है। प्रथम तथाकथित आरोपों की बात कर ले। प्रमुख सीधे-बेबाक कहने वाले वरिष्ठ पत्रकार अशोक वानखेडे ने यह आशंका व्यक्त की है कि, विनेश के खाने में एंटी कोलीनर्जिक दवाई दी गई, जिसके कारण ‘‘वर्क आउट’’ के बाद भी पसीना जिससे वजन कम होता है, नहीं निकलता है। परन्तु इसका कोई आधार नहीं बतलाया है। अशोक वानखेड़े बयान बार-बार वीडियो सोशल मीडिया में बनाकर भ्रमित करने की बजाय यह प्रश्न क्यों नहंी पूछते है कि 100 किलोग्राम वजन कम होने पर विनेश मैट पर जाने के लिए क्यों तैयार हुई? अन्यथा उन्हें रजत पदक मिल जाता। भारतीय कुश्ती संघ व ओलंपिक संघ की नीयत पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं। स्वयं भारतीय कुश्ती संघ के अध्यक्ष संजय सिंह ने भी सपोर्ट स्टाफ की भूमिका पर उंगली उठाते हुए जांच की मांग की है। ‘‘आप’’ सांसद संजय सिंह का बयान कि यह विनेश का नहीं देश का अपमान है, भारत सरकार हस्तक्षेप करे और बात न मानी जाए तो ओलंपिक का बहिष्कार करे। नितांत बचकाना बयान है। बयानवीर सांसद कंगना राणावत का बयान भी तंज करने वाला है। पूर्व सांसद डॉ. एस टी हसन के कथनानुसार यदि पूरे बाल कटवा दिए जाते तो 200 ग्राम वजन कम हो जाता? डॉ. एस टी हसन को यह जान लेना चाहिए कि न केवल उनके कुछ बाल काटे गये बल्कि नाखून भी काटे गए थे, तथा कपड़े भी छोटे किए गए, जैसा भारतीय दल के चीफ मेडिकल ऑफिसर ऑर्थोपेडिक सर्जन डॉ दिनशॉ पारदीवाला ने बतलाया। लेकिन पूरे बाल कटवाने के बावजूद भी 100 ग्राम वजन कम नहीं होता, ऐसा कथन दूसरी महिला खिलाड़ी ने किया है।
षडयंत्र का आरोप लगाने वाले शायद इस बात को भूल गए हैं या भूलने का नाटक कर रहे हैं कि स्वयं खिलाड़ी विनेश फोगाट से लेकर उनके कोच, ट्रेनर, न्यूट्रिशनिस्ट फिजियोथेरेपिस्ट, डॉक्टर, अटेंडेंट किसी भी सपोर्टिंग स्टाफ ने इस तरह का कोई आरोप नही लगाया, बल्कि ऐसे तथाकथित आरोपो से इनकार ही किया है। विनेश की बहन बबीता व ताऊ महावीर सिंह जो स्वयं भी कोच हैं, जिन्होंने विनेश को खेल में आगे बढ़ाया, ने भी किसी तरह के षडयंत्र से साफ इंकार किया है। तब इसे विशुद्ध निम्न स्तर की राजनीति ही नहीं कहेंगे तो और क्या कहेंगे? जहाँ तक कोच और सपोर्टिंग स्टाफ पर लापरवाही का आरोप लगाने का प्रश्न और जांच की बात है, स्वयं खिलाड़ी फोगाट ने ऐसा कोई आरोप नहीं लगाया है। फिर भी यदि इस संबंध में भारतीय ओलंपिक संघ या सरकार कोई जांच कराती है, तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए।
खेल मंत्री का संसद में निर्लज्ज बयान
खेल मंत्री मनसुख मंडाविया का विनेश फोगाट करने के संबंध में दिया गया बयान बेहद ही शर्मनाक व खेद जनक है। जब वे विनेश फोगाट पर वर्ष 2021 से विभिन्न अवसरों पर किए गए किए गए खर्चों के एक-एक पाई का हिसाब बनिए सम्मान देते हुए यह जानकारी देते है कि पेरिस ओलंपिक तक के लिए सपोर्ट स्टाफ के साथ 7045775 रू. की वित्तीय सहायता दी गई। क्या किसी ने यह विवरण पूछा था? यदि खेल मंत्री इसके साथ यह भी बतलाने का कष्ट करते कि उनके घर की बिजली, टेलीफोन, आव भगत, यात्रा, भवन रिनोवेशन आदि पर उक्त अवधि सरकार ने कितना खर्चा किया? तो जनता को यह जानकारी जरूर हो जाती कि उनके खेल मंत्री ने अपने ऊपर होने वाले खर्चों की कटौती कर विनेश फोगाट को ओलंपिक में गोल्ड मेडल प्राप्त करने की तैयारी के लिए उक्त सहायता दी? क्या वित्तीय सहायता देने से सरकार की जिम्मेदारी इतिश्री हो जाती है?
सपोर्ट स्टाफ’’ की लापरवाही, षड्यंत्र या साजिश?
प्रश्न यह है कि क्या इस बात की सही गणना आकलन स्वयं फोगाट और उनका सपोर्ट स्टाफ नहीं कर पाए कि तीसरी बाइट के बाद अगले दिन की बाइट की एनर्जी के लिए भोजन कितना लेना चाहिए? स्वयं विनेश फोगाट का 12 अप्रैल का ट्वीट तथाकथित साजिश के आरोप के तहत महत्वपूर्ण है। देखिए मेरे द्वारा भारत सरकार व सभी से मेरे कोच और फिजियो की ‘‘मान्यता’’ के लिए रिक्वेस्ट की जा रही है। मान्यता के बिना मेरे कोच और फिजियो का मेरे साथ प्रतियोगिता मैदान में जाना संभव नहीं है। जो टीम के साथ कोच लगाए गए हैं वे सभी बृजभूषण और उसकी टीम के चहेते हैं, तो इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि वो मेरे मैच के दौरान मुझे मेरे पानी में कुछ मिला के ना पीला दे? अगर मैं ऐसा कहूं कि मुझे ‘‘डोप’’ में फसाने की साजिश हो सकती है, तो गलत नहीं होगा’’। यह ट्वीट जहां अंतिम लाइन में शंका को जन्म देता है, तो वहीं वह प्रारंभ में शंका को निर्मूल करता है। ‘‘विनेश का ट्वीट में कहां गया कथन स्वयं में ही विरोधाभासी है। एक तरफ वे जहां सरकार से सपोर्ट स्टाफ की मान्यता (एक्रीडेशन) की मांग करती हुई दिख रही है, वहीं दूसरी ओर वे उसी सपोर्ट स्टाफ पर डोप में फंसाने के साजिश का आरोप लगा रही है। बावजूद अयोग्य घोषित होने के बाद विनेश जो प्रधानमंत्री के शब्दों में दृढ़ता का प्रतीक होकर चुनौतियों का डटकर मुकाबला करने का उनका स्वभाव है के द्वारा किसी भी सपोर्ट स्टाफ के विरुद्ध ऐसी कोई शिकायत नहीं की गई है। इससे साजिश की तथाकथित कहानी (थ्योरी) स्वयमेव ही समाप्त हो जाती है। विनेश फोगाट को मार्च 2024 में पटियाला में चयन ट्रायल के दौरान विश्व कुश्ती के नियमों के परे जाकर दो भार वर्ग 50 व 53 किलोग्राम में भाग लेने की अनुमति इसी भारतीय कुश्ती संघ द्वारा दी गई। जहां वे 53 किलोग्राम भार के वर्ग में हार गई थी। तत्समय की विद्यमान विपरीत परिस्थितियों के बावजूद भारतीय कुश्ती संघ का यह कदम ‘‘सहयोगात्मक’’ ही कहलायेगा। साथ ही संघ ने उन्हे व्यक्तिगत कोच, फिजिशियन न्यूट्रिशनिस्ट भी मुहैया कराया।
नियम से ऊपर कोई नहीं।  
बात सिर्फ 100 ग्राम वजन के बढ़ने की नहीं है। किसी भी खेल में जहां वजन के अनुसार विभिन्न श्रेणी में वर्गीकृत की जाती है, वहां यदि किसी भी श्रेणी में निर्धारित सीमा से एक ग्राम भी वजन बढ़ता है, तो उस खिलाड़ी को अयोग्य घोषित कर दिया जाता है। क्योंकि ओलंपिक या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नियमों का बहुत ही कड़ाई से पालन होता है। इसीलिए खिलाड़ी वजन मशीन साथ में लेकर चलते हैं। भार की योग्यता के संबंध में यह वस्तु स्थिति है। तथापि विनेश ने खेल पंचाट न्यायालय (सीएएस) में अपील दायर की है, जो सुनवाई हेतु स्वीकार कर ली गई है, जिसमें उन्हें सिल्वर मेडल मिलने की पूर्ण संभावना है। इसलिए भी क्योंकि सेमीफाइनल जीतने के बाद रजत पदक की वे वैद्य अधिकारी हो गई थी। यदि वे किसी कारण से मान लीजिए स्वास्थ्य कारण से फाइनल में नहीं उतरती तो सेमीफाइनल में जीत से वे रजत पदक की हकदार हो गई थी। 140 सदस्यीय सपोर्ट स्टाफ के साथ भारतीय टीम के साथ 117 खिलाड़ी जिनमे कुश्ती के छः खिलाड़ी भी शामिल है, पेरिस गए हैं। विनेश फोगाट के साथ उनके कोच, ट्रेनर, डॉक्टर, फिजियोथेरेपिस्ट, न्यूट्रिशनिस्ट, डाइटिशियन (पोषण विशेषज्ञ), अटेंडेंट अर्थात समस्त सपोर्ट स्टाफ था, जिनकी पूरी निगरानी में फोगाट ने न केवल आहार (डाईट) ली, बल्कि निर्देशानुसार इसीलिए पूरी रात्रि ‘‘वर्क आउट’’ अर्थात एक्सरसाइज, सोना बाथ, स्किपिंग, साइकलिंग, जॉगिंग की गई व खून निकाला गया। फलतः 2600 ग्राम तक वजन कम हुआ। मात्र 100 ग्राम प्रयास के बावजूद भी कम नहीं हो पाया। उल्लेखनीय बात यह है कि ओलंपिक खेल ग्राम में विनेश फोगाट के पास यह विशेष सुविधा थी कि सपोर्ट स्टाफ उनके साथ ही रहता था, जबकि अन्य खिलाड़ियों का सपोर्ट स्टाफ दूसरी जगह रहता था। इस प्रकार विनेश 24 घंटे सपोर्ट स्टाफ की निगरानी में थी।
100 ग्राम से अंदर-बाहर।
आईये इस बढ़े हुए 100 ग्राम वजन की कुछ चीर-फाड़ कर सही तथ्यों को समझने का प्रयास करते हैं। कुश्ती खेल के खिलाड़ियों के लिए यह सामान्य सी बात है कि उन्हें अपना वजन सामान्य से कम करके ही खेलना होता है। इसके लिए वे लगातार खेल के पहले व खेल के बाद चुनी गई श्रेणी में बने रहने के लिए कम वजन करते है। पिछले टोक्यो ओलंपिक में विनेश 53 किलोग्राम भार वर्ग में खेली थी, परन्तु असफल हो गई। 58 किलोग्राम वर्ग में ‘‘अंतिम पंघाल’’ के कांस्य पदक जीतने पर विनेश पेरिस ओलंपिक में इसी वर्ग भार में खेलना संदिग्ध हो गया था। उनका सामान्य वजन 55 किलो से ऊपर होता है। रियो ओलंपिक में 48 किलोग्राम वर्ग में खेली  थी। जहां 400 ग्राम वजन अधिक होने के कारण वह मुख्य स्पर्धा में जगह बनाने से चूक गई। वे फिर 50 किलोग्राम के वर्ग में चली गई। वजन कम करने का मतलब कदापि यह नहीं है कि आप जब भी चाहे जितना चाहे समस्त प्रयासों से आप की इच्छा अनुसार वजन कम करने के प्रयासों को आपका शरीर भी उतना ही ‘‘परिकलित प्रतिक्रिया’’ (कैलकुलेटर रिस्पांस) दे। जो लोग मात्र 100 ग्राम कहकर आलोचना कर रहे हैं, वे शायद इस स्थिति को भूल गए हैं। फोगाट ने अपना सामान्य वजन 53 किलो से कम कर प्रतियोगिता प्रारंभ होने के वजन 49.900 किलोग्राम किया था। फिर एक ही दिन में तीन बाइट लड़ने के बाद 1.50 किलो खाना लिया जो अगले दिन की बाइट के लिए एनर्जी के लिए आवश्यक हो जाता है। यह एक सामान्य प्रक्रिया है। शरीर में लगभग 60% पानी सामान्यतः होता है, जिसके द्वारा ही वजन कम किया जाता है। लेकिन कई बार डिहाईड्रेशन की स्थिति भी हो जाती है, जहां खिलाड़ी की जान पर भी आ जाती है। जैसा कि 2015 में चीन के बाक्सर यांग जियान बिंग की मृत्यु हो गई थी। भोजन के बाद शाम को 50.700 ग्राम वजन 2.800 किलोग्राम (50.700-49.900) बढ़ गया। उक्त बढ़े वजन को कम करने के लिए 12 घंटे का समय पर्याप्त नहीं था, ऐसा टीम के डॉक्टर का कहना है। परन्तु बाद में दूसरे कुश्ती खिलाड़ी अमन सहरावत जिन्होंने कांस्य पदक जीता, ने मात्र 10 घंटे में 4.600 किलोग्राम वजन घटाया, वह कैसे संभव हो गया? यद्यपि बजरंग पुनिया के कथनानुसार पुरुषों की तुलना में महिलाओं का वजन कम करने में ज्यादा दिक्कत होती है। फिर मुक्केबाज मेरीकॉम का  उदाहरण भी है जिन्होंने मात्र लगभग 6 घंटों में 4 किलो वजन कम किया था। इसलिए जांच कमेटी द्वारा कराया जाना आवश्यक है। कुछ घंटों का समय और होता तो आज यह नहीं कहना पड़ता कि ‘‘ख़ता लम्हों की थी, सजा सदियों ने पाई’’।
अन्य कोई विकल्प नहीं रह गया था? अथवा विनेश व कोच की नासमझी?
तथापि विनेश यदि कम खाना लेकर भार को सीमा के भीतर रख कर प्रतियोगिता में भाग लेने का विकल्प चुनती तो शायद उन्हें रजत पदक से ही संतोष करना पड़ता। क्योंकि तब शायद एनर्जी कम होने के कारण शारीरिक शक्ति कम होती। शायद यही कारण रहा होगा किसी भी खिलाड़ी के लिए जब वह अपने लक्ष्य के इतने निकट पहुंच जाता है, तब वह उसे प्राप्त करने के लिए अपना सब कुछ स्वाहा कर दांव पर लगा कर लक्ष्य प्राप्त करने का प्रयास करता है। ऐसी स्थिति में यहां क्या कोच एवं स्वयं विनेश फोगाट की नासमझी नहीं रही, जब वे यह अच्छी तरह से जानती थी कि वजन ज्यादा होने के कारण वे अयोग्यता की श्रेणी में आ जायेगी। तब यदि वे स्वास्थ्य के आधार पर फाइनल में मैट़ पर उतरती ही नहीं, तब वैद्य रूप से उनका रजत पदक सुनिश्चित हो जाता? अतः इसे सिर्फ विनेश फोगाट का ही नहीं, बल्कि देश का दुर्भाग्य भी माना जाना चाहिए। ‘‘कालस्य कुटिला गतिरू’’! निश्चित रूप से भाग्य उनके साथ नहीं था।

शनिवार, 10 अगस्त 2024

क्या ‘‘कीमती समय’’ का ‘‘अपव्यय’’ कर ‘‘फालतू विषय’’ पर बहस से देश का ‘‘समग्र विकास’’ ‘‘अवरुद्ध’’ तो नहीं हो रहा है?

क्या देश के समस्त तंत्र जनतंत्र, न्यायपालिका सहित के पास फालतू समय बहुत है?


क्रमशः गंतव्य से आगे।

सुरक्षा का आधार! फिर आदेश स्वैच्छिक होकर विकल्प क्यों?

पूर्व में घटित जिन घटनाओं को आधार बताते हुए सुरक्षा कारणों से जो निर्देश दिए गए हैं, उनका पालन स्वेच्छा से है। यह अपने आप में ही परस्पर विरोधास्पदी है। क्योंकि सुरक्षा के मामले में विकल्प नहीं दिया जा सकता है। राष्ट्र हो या व्यक्ति, सुऱक्षा के साथ कोई समझौता अथवा विकल्प नहीं दिया जा सकता है। चंूकि उक्त आदेश सुरक्षा की दृष्टि से जारी किया गया है, अतः आप उसमें ‘‘विकल्प’’ देकर वास्तव में सुरक्षा के प्रश्न को ही ‘‘गौड़’’ बना दे रहे हैं।

यदि आदेश सही है, तो सुरक्षा की दृष्टि से मानने की बाध्यता होने ही चाहिये। मीडिया में रिपोर्टिंग आई है, कई जगह नाम लिखाने में जोर जबरदस्ती में पुलिस की सक्रिय भूमिका रही है। तथापि कुछ व्यवसाइयों ने स्वेच्छा से इसे स्वीकार कर लागू भी किया है। वहीं एक जगह तो कावड़ रास्ते में आने वाली मस्जिद को भी कपड़े से ढ़का गया है, जहाँ पुलिस मूक हो जाती है, फिर हटाते हुए भी दिखाया गया है। यद्यपि पिछले साल मालदा पश्चिम बंगाल में भी मंदिर के सामने से मोहर्रम जुलुस जाते समय मंदिर को ढ़क दिया गया। मध्य प्रदेश के शिवपुरी में भी पिछले समय ऐसी ही घटना हुई। कुछ जगह मुस्लिम मालिकों की शुद्ध शाकाहारी भोजनालय से मुस्लिम नौकरों को भी हटाया है। नैनीताल में अन्नपूर्णा होटल का मालिक आबिद हुसैन के यहां काम करने वाले समस्त हिन्दु हैं। योगी सरकार में इस तरह की कोई घटना नहीं हुई है, जैसा की दावा किया जाता है। जो इस बात को सिद्ध करती है कि प्रशासनिक आदेश के लिए उक्त घटना का आधार लेना बिल्कुल गलत है। क्योंकि कांवड़ यात्रा तो हर साल चलती ही है। 

पूर्व से ही विद्यमान उक्त आदेश/निर्देश! *तथ्योंपरक नहीं।

उच्चतम न्यायालय में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा दाखिल किये गए शपथ पत्र में यह कहा है कि इसका उद्देश्य मात्र यह है कि कांवड़ियों को यह पता लग सके कि वे कौन सा भोजन ले रहे हैं। ताकि भूल से भी उनकी धार्मिक भावनाओं को ठेस न पहुंचे। खाने में ‘‘प्याज-लहसुन’’ का उपयोग झगड़ा तनाव पैदा कर सकता है। उक्त आदेश सिर्फ 5 अगस्त तक ही लागू है।

यूपी सरकार, मंत्री ओमप्रकाश राजभर, भाजपा नेताओं व प्रवक्ता शाईना एनसी ने जहां उक्त कदम को सही ठहराया है, वहीं एनडीए के तीन घटकों जेडीयू, लोक जनशक्ति पार्टी व आरएलडी ने विरोध करते हुए इसकी समीक्षा/वापस लेने की मांग की है। सुखद व आश्चर्यजनक समर्थन ऑल इंडिया मुस्लिम जमात के राष्ट्रीय अध्यक्ष शहाबुद्दीन रजवी बरेलवी की ओर से आया है, जो धार्मिक सहिष्णुता व उदारता का बड़ा परिचायक है। राज्य भाजपा प्रवक्ता राकेश तिवारी का यह कहना है कि ‘‘सरकार ने तो बस वही दोहराया है, जो वर्ष 2006 में मुलायम सिंह यादव सरकार व तत्पश्चात मायावती सरकार द्वारा अधिसूचित किया गया था’’। यह दावा किया गया है कि वस्तुतः मुलायम सिंह की सरकार के समय रेस्ता, ढ़ाबा संचालक को फर्म का नाम व लाइसेंस संख्या लिखने के आदेश जारी किये गये जो ‘‘तथ्योंपरक’’ न होकर ‘‘भ्रामक’’ है। वस्तुतः खाद्य सुरक्षा एवं मानक अधिनियम 2006 की धारा 3 (ण) के अंतर्गत परिभाषित ‘‘व्यापारी’’ को अधिनियम के अंतर्गत लाइसेंस लेना होता है, जो प्रारूप ‘सी’ में जारी होता है, जिसे दुकान की सार्वजनिक जगह पर प्रदर्शित करना (अनिवार्य) होता है। फार्म ‘‘सी’’ में अनुज्ञपति धारी (लाइसेंसी) के पंजीकृत कार्यालय के नाम पता लिखना होता है। मालिक या संचालक का नाम नहीं। तथापि लाइसेंस के गैर फार्म सी अनुलग्नक (एनेक्जर) में ‘‘संचालन का प्रभारी तथा जिम्मेदार व्यक्ति की’’ जानकारी जरूर देनी होती है। तथापि सार्वजनिक जगह पर वह ‘‘ऐनेक्जर’’ प्रदर्शित नहीं होता है, जैसे फार्म ‘सी’। केन्द्रीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक अधिनियम 2006 में इस तरह के कोई निर्देश नहीं है कि दुकानदार अपना नाम पृथक से लिखें/प्रदर्शित करे। तर्क के लिए जब इस तरह के आदेश/नियम पूर्व से ही थे? तब अभी नये निर्देश जारी करके क्या उत्पाती तत्वों को अनावश्यक रूप से साम्प्रदायिक व धार्मिक-विभेद को पैदा करने का अवसर नहीं दिया गया? पूर्व के नियमों का पालन यदि नहीं हो रहा है, तो निर्देशों में उक्त नियमों का हवाला देते हुए कड़ाई से पालन की चेतावनी दी जानी चाहिए थी, नया आदेश/निर्देश नहीं? 

पत्रकार रुबिका लियाकत का अर्द्धज्ञान/अर्द्धसत्य।

‘‘हंगामा क्यों बरपा’’ टाइटल देती हुई प्रसिद्ध पत्रकार रूबिका लियाकत के द्वारा जारी उक्त आदेश पर कहा गया कि ‘‘वर्ष 2006 में डॉ. मनमोहन सिंह के साथ मुलायम सिंह सरकार के समय बने नियम का ही तो सख्ती से पालन करवाया जा रहा है’’, बिल्कुल गलत व तथ्यात्मक नहीं है। क्योंकि नये आदेश में मुलायम सिंह सरकार के समय बने नियम का हवाला नहीं दिया गया। वास्तव में यूपीए सरकार ने केंद्रीय भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक अधिनियम 2006 ‘‘(फसाई)’’ पारित किया था। उक्त अधिनियम के अंतर्गत खाद्य सुरक्षा एवं मानक नियम 2011 (5 मई 2011) एवं विनियम 2011 अधिसूचित किये गये, तत्समय उत्तर प्रदेश में मायावती की सरकार थी। वर्ष 2011 में ‘‘भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण’’ बना। उक्त कानून के अंतर्गत राज्य सरकारों द्वारा नियम बनाये जाने थे। रूबिका लियाकत आपको इस बात को समझने की आवश्यकता है कि वस्तुतः मुलायम सरकार के समय नियम (जिसे सहुलियत की दृष्टि से आगे पुराना कानून/नियम लिखा जायेगा) व वर्तमान जारी आदेश में 4 प्रमुख मूल अंतर हैै। प्रथम 2006 का कानून व 2011 का नियम उत्तर प्रदेश सरकार का कानून न होकर केन्द्रीय कानून होकर सम्पूर्ण भारत देश पर लागू है। जबकि वर्तमान नियम सिर्फ उत्तर प्रदेश में कांवड़  यात्रा के गुजरने वाले ‘रूट’ पर ही लागू रहेगा। दूसरा पुराना कानून उन समस्त नागरिकों पर समान रूप से लागू है, जो व्यवसाई की श्रेणी में आते हैं। जबकि नया नियम कांवड़ यात्रा रूट पर स्थित दुकानों पर ही लागू है। तीसरा पुराना कानून/नियम स्थाई व पूर्ण कालिक हैं, विशिष्ट अवसर के लिए नहीं। जबकि वर्तमान नियम सिर्फ कांवड़ियों के हितार्थ कांवड़ यात्रा के दौरान 22 जुलाई से 5 अगस्त तक की अवधि के लिए ही लागू रहेगा। चौथा उक्त पुराना कानून का पालन ‘‘बंधनकारी’’ है, जबकि वर्तमान आदेश ‘‘स्वेच्छापूर्वक’’ है। एक जिम्मेदार न्यूज चेनल का एंकर होने के नाते क्या रूबिका देश के नागरिकों से मांफी मांगेगी?

काँवडियों के नाम पर असामाजिक तत्वों द्वारा उड़दंग मस्ती, तोडफोड़।

इसी के साथ जुड़ा हुआ एक प्रश्न यह भी है कि कांवड़ियों की सुरक्षा के नाम पर तो प्रशासनिक निर्देश जारी कर दिए जाते हैं। परन्तु इन कांवड़ियों में शामिल कुछ एक के द्वारा की जा रही अराजकता तोड़फोड, उपद्रव से सुरक्षा व उन पर कार्रवाई करने के निर्देश तथा कार्रवाई क्यों नहीं की जाती है? गाजियाबाद में ‘‘पवित्र कांवड’’ को गाड़ी द्वारा हल्की सी छू लेने मात्र पर गाड़ी को तोड़फोड़ कर नष्ट कर दिया गया। ई-रिक्शा वाले संजय का रिक्शा तोडा गया। प्रत्येक वर्ष कांवड़ियों के कुछ इस तरह के तोड़-फोड़, कानून व्यवस्था के मामले सामने आते रहते हैं, जिनसे आम निरीह जनता को नुकसान होता है। लेकिन कार्रवाई के नाम पर टन-टन गोपाल। वैसे अधिकांश धर्म प्रेमी कांवड़ियाँ धार्मिक भावना से ओत-प्रोत होकर ही कांवड़ यात्रा में जाते हैं। वे ‘‘भोले’ होकर ‘भोले’ के उपासक होते है’’। तथापि कुछ लोग घूमने-फिरने के उद्देश्य से व कुछ व्यक्ति ऐसे भी होते हैं, जिन्हे भोजन नसीब नहीं होता है, इसलिए वे भोजन पाने के लिए 15 दिन इस पूरी कावड यात्रा में शामिल रहते हैं। इन्ही के बीच कुछ अराजक उपद्रवी तत्व भी घुस जाते है जिनकी हरकतों से कांवड़िया बदनाम होते हैं।

आपसी भाईचारा, गंगा-जमुनी तहजीब पर प्रहार तो नहीं ?

अतः तथाकथित पहचान के लिये जारी आदेश पर जिस तरह की नीति विहीन  राजनीति की जा रही है व अनर्गल  बयान बाजी हो रही है, उससे दोनों समुदाय के बीच तनाव उत्पन्न होने की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता है। उत्तराखंड के मंत्री सतपाल महाराज का यह बयान कि ‘‘मस्जिदों को देखकर कांवडियां उत्तेजित हो सकते है’’, नितांत भड़काऊ व गैर जिम्मेदाराना है। उत्तर प्रदेश सरकार के मंत्री कपिल अग्रवाल का मुसलमानों से यह अनुरोध कि वे हिन्दू देवी देवताओं के नाम या दुकान का नाम न रखें, अनावश्यक, असंवैधानिक तथा वस्तुतः हिन्दू हितों के विरुद्ध है। यदि कोई मुस्लिम धर्मावलंबी हमारे भगवान के नाम पर दुकान का नाम रखकर ज्यादा अच्छी तरह से रोजी-रोटी कमा रहा है, तो इससे तो हमारे हिंदुओं के भगवान उनके धर्म के अल्लाह से बडे़ नहीं हो गये?

‘‘व्यस्तम’’ उच्चतम न्यायालय का ‘तुरंत फुरंत ’ अंतरिम आदेश? 

उच्चतम न्यायालय की व्यवस्तता तो देखिये? चुनाव आयोग की संरचना में संसद द्वारा किए गए संशोधन कानून जिसके द्वारा उच्चतम न्यायालय के स्वयं के निर्णय को पलट दिया गया, के कारण उसकी ‘‘निष्पक्षता’’ पर प्रश्न चिन्ह लगने को लेकर दाखिल याचिका पर सुनवाई का समय न्यायालय के पास नहीं है। तथापि चुनाव भी संपन्न हो चुके हैं। यही उच्चतम न्यायालय ईडी के अंतर्गत गिरफ्तार आरोपी में सीधे जमानत के लिए पहुंचता है, तो उसे यह कहकर इंकार कर देता है कि नीचे की न्यायालय से होकर आईये जहां एक नागरिक के स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार पर तथाकथित रूप से प्रहार हो सकता है। तब न्यायालय के इतने ‘‘बहुमूल्य समय’’ में से ‘‘इतना फालतू समय’’ कैसे हो सकता है कि वह तुरंत उत्तर प्रदेश सरकार के ‘‘स्वेच्छिक आदेश’’ के विरुद्ध सुनवाई कर न केवल एक पक्षीय अंतरिम स्थगन (रोक) आदेश जारी कर यह कहते है कि खाने का प्रकार बतलाना होगा। माननीय न्यायालय शीघ्रता से शीघ्र बार-बार सुनवाई भी प्रकरण में कर लेते हैं। फिर जब आदेश ही स्वैच्छिक हो, तब उसको स्थगित करने का तुक क्या है? तुरंत सुनवाई कर सुनवाई पर सुनवाई इतनी हाय-तौबा क्यों? हां यदि उक्त स्वैच्छिक पालन के आदेश के लिए कहीं जोर जबरदस्ती या बल का उपयोग किया जा रहा है, तब उसे जरूर सहायता देने की बात उत्पन्न होती है।

 उपसंहार! 

अंत में उक्त अनावश्यक आदेश से सांप्रदायिक सदभाव को छेड़छाड होने से नफरत बढ़ने की आशंका पर  "नफरत के बाजार में मोहब्बत का पैगाम लेकर आया हूं’’ चुनाव के पूर्व लगातार कहने वाले ‘‘शख्स’’ की इस नई बनती नफरती बाजार में कहीं अता-पता नहीं है?

‘‘पहचान’’ बतलाने के लिए नाम लिखने के आदेश। अर्थहीन!

 ‘‘पहचान’’ बतलाने के लिए नाम लिखने के आदेश। अर्थहीन!

भूमिका

यूनानी दार्शनिक ‘‘प्लेटो’’ के कथन से बनी अंग्रेजी कहावत ‘‘आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है’’ यहां पर पूर्णतः झुठला दी गई है। जिस पर आगे विस्तृत रूप से चर्चा की गई है। ‘‘भगवान शिव’’ के भक्त पवित्र गंगाजल लेकर कावड़ के रूप मे लेकर शिव मंदिर जाते है, जो लाखों शिव भक्त के लिए एक तीर्थ यात्रा है। किन्ही भी धार्मिक यात्रियों के समान, श्रावण ‘‘कावड़ियों’’ की शांतिपूर्वक, सुरक्षित व सुचारू यात्रा की व्यवस्था की जिम्मेदारी सरकार की है, इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता है। एक अनुमान के अनुसार सालाना लगभग 4 करोड़ से अधिक काँवडियां भाग लेते हैं। अतः सुरक्षित यात्रा के लिए ‘‘आवश्यक’’ कदम जरूर अवश्य उठाए जाना ही चाहिये। परन्तु ‘‘अनावश्यक’’ बिल्कुल नहीं? 

‘‘प्रशासन’’- ‘‘शासन’’ के एक के बाद एक ‘पहचान’ बतलाने वाले आदेश।

शायद उपरोक्त उद्देश्य को लेकर तथा पूर्व के ‘‘खट्ठे’’ अनुभवों को लेकर उत्तर प्रदेश पुलिस प्रशासन के मुजफ्फरनगर के पुलिस अधीक्षक अभिषेक सिंह का मुजफ्फरनगर जनपद के लिए आदेश के पश्चात सहारनपुर उप महानिदेशक अजय साहनी ने सहारनपुर मंडल के लिए वैसा ही आदेश जारी किया। यद्यपि यह व्यवस्था पूर्व में भी प्रचलित रही है, ऐसा भी कहा गया है। तथापि बाद में ‘‘यू टर्न’’ लेते हुए मुजफ्फरनगर पुलिस प्रशासन ने अपने दिनांक 17 जुलाई के आदेश वाला ट्वीट ही डिलीट कर दिया। फिर उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा ही पूरे प्रदेश में यात्रा की समाप्ति (22 जुलाई से 6 अगस्त) तक काँवड़ यात्रा के रूट (रास्ते) पर संचालित होने वाली दुकानें, होटल, ढाबे व फल बेचने वाले ठेलों का मालिक व काम करने वालों के नाम व पहचान ‘‘स्वेच्छा’’ से प्रदर्शित करने के ‘‘अनुरोध’’ के आदेश जारी किए गए। उत्तर प्रदेश सरकार का अनुसरण करते हुए उत्तराखंड के हरिद्वार व मध्य प्रदेश के उज्जैन में भी इसी प्रकार के आदेश जारी किये गए। ‘‘अंधे अंधा ठेलिया सबरे कूप पड़ंत’’। इसीलिए उच्चतम न्यायालय ने उक्त आदेश पर रोक लगाते हुए उत्तर प्रदेश के साथ उत्तराखंड व मध्य प्रदेश सरकार को नोटिस जारी किए हैं। महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि उक्त प्रशासनिक आदेश क्या उक्त उद्देश्यों की पूर्ति करते हैं? अथवा सिर्फ राजनैतिक ‘‘शगल’’ होते हुए इनकी आवश्यकता ही नहीं है?

’आदेश जारी करने के कारण/आधार। 

सर्वप्रथम तो ‘‘आ बला गले लग जा’’ की सीरत वाले उक्त आदेश व उसके कारणों को पहले पढ़ ले, जिसके कारण इतना बवाल उठा हुआ है, या उठाया गया है?

उपरोक्त प्रशासकीय तथा शासनादेश में निम्न प्रमुख कारण, आधार बतलाए गए हैं।

अ. काँवड़िये खानपान में ‘‘कुछ’’ खाद्य सामग्री से ‘‘परहेज’’ करते हैं।

ब. पूर्व में ऐसे दृष्टांत प्रकाश में आए हैं, जहाँ कुछ दुकानदारों द्वारा अपनी दुकानों का नाम इस प्रकार से रखे गए, जिससे कांवड़ियों में ‘‘भ्रम’’ की स्थिति उत्पन्न होकर कानून व्यवस्था की  स्थिति उत्पन्न हुई।

स. इस आदेश का आशय किसी प्रकार का धार्मिक विभेद न होकर पारदर्शिता सुनिश्चित करना तथा श्रद्धालुओं की सुविधा एवं कानून व्यवस्था की स्थिति को बचाना है। वैसे आपको यह बता दें कि कावड़ यात्रा रूट पर शराब व मीट की दुकाने बंद रहती हैं।

सरकार का ‘पहचान’ बतलाने का आदेश कितना संवैधानिक है?

आखिर सरकार पहचान बताने में निर्देश से क्या दिखाना चाहती है? यदि ‘‘खान भोजनालय’’ का मालिक ‘‘राजकुमार सिंह’’ है अथवा ‘‘श्री राम भोजनालय’’ का मालिक ‘‘अहमद खान’’ है तो इसमें क्या सरकार का पहचान बतलाने के लिए मालिक का नाम लिख देने से उद्देश्य की पूर्ति हो जाती है? क्या धर्म के आधार पर खानपान की व्यवस्था को नियंत्रित किया जा सकता है? यह संविधान के अनुच्छेद 19(1)जी में दिये गये कोर्ड की व्यापार करने के कुछ प्रतिबंधों के साथ मूलभूत अधिकार को अतिक्रमित करता है। खाना शाकाहारी हो अथवा मांसाहारी उसे दुकान मालिक के नाम से पहचान चिन्हित करना न तो उचित है और न ही संभव। बल्कि यह भ्रम पैदा करने वाली स्थिति भी हो सकती है। यदि सिर्फ सरकार के आदेश पर निर्भर रहा जाए। क्योंकि यदि उपभोक्ता सावधानी बरतकर राजकुमार सिंह के श्री राम भोजनालय में जाने पर यह नहीं देखे-पूछे कि यह शुद्ध शाकाहारी भोजनालय है कि नहीं तथा बिना लहसुन-प्याज का भोजन मिलता है कि नहीं? तब उसकी भोजन की शुद्धता भंग हो सकती है।   

उक्त आदेश पूर्णतः गैर जरूरी व अनावश्यक है। 

निम्न तथ्यों से आप बिलकुल समझ जायेगें कि उक्त आदेश बिलकुल गैर-जरूरी है। समस्त ‘‘तंत्र’’ कितने ‘‘फुर्सत’’ में बैठें हैं कि या तो ‘‘अक्ल का अजीरण’’ हो गया है अथवा आदेश पर विचार करते समय बुद्धि ‘छुट्ठी’ पर चली गई है, जहां इस तरह के बेसिर-पैर के आदेश शायद सिर्फ इसलिए जारी हो जाते हैं कि किसी एक वर्ग की आंखों में चढ़ा जा सके, अथवा किसी को चिढा़या जा सके? जिससे साम्प्रदायिक सौहार्द खराब होने का मौका कुछ शरारती तत्वों को मिल सकता है? पूर्व केन्द्रीय मंत्री व वरिष्ठ भाजपा नेता मुख्तार अब्बास नकवी ‘‘एक्स’’ पर लिखा यह कथन बहुत महत्वपूर्ण है ‘‘कुछ अति-उत्साही अधिकारियों के आदेश हड़बड़ी में गडबड़ी वाली अस्पृश्यता की बीमारी को बढ़ावा दे सकते हैं। आस्था का सम्मान होना ही चाहिए, पर अस्पृश्यता का संरक्षण नहीं होना चाहिए’’।

‘‘लहसुन-प्याज’’ की पहचान के लिए नेम प्लेट लगाना आवश्यक है, यह तर्क ही बेहद लचीला गुमराह करने वाला व तथ्यों परक नहीं है। इस पर जब उच्चतम न्यायालय इस तरह के निर्देश देता है कि ‘‘खाने की पहचान बनाई जाए’’ तब निश्चित रूप से यह महसूस होता है कि सामान्य जानकारी का भी अभाव है। क्या आप-हम इस सब से वाकिफ नहीं हैं कि अपने प्रतिदिन के जीवन में प्रत्येक व्यक्ति का यह अनुभव होता है कि जब वह किसी होटल, ढाबे में खाने में जाता हैं, तब वहां पर दुकान के नाम का बोर्ड लगा होता है? हां मालिक का नाम जरूर प्रायः सब जगह नहीं होता है, जिसके लिए ‘‘स्वेच्छा पूर्वक-जोर दिया’’ जा रहा है। साथ ही दुकान के बोर्ड पर यह भी लिखा होता है, शाकाहारी-मांसाहारी भोजनालय या शुद्ध शाकाहारी भोजनालय। इसके बाद जब हम अंदर टेबल पर जाकर बैठते हैं, तब सामने ‘‘रेट लिस्ट’’ टंगी होती है, जिसमें विभिन्न प्रकार के व्यंजनों के नाम और रेट लिखे होते हैं। इससे भी स्पष्ट हो जाता है कि यह भोजनालय शाकाहारी है, अथवा मांसाहारी। ‘‘मीनू कार्ड’’ भी टेबल पर रखे रहते हैं, जिसको पढ़ने से भी खाने की प्रकार की जानकारी सुनिश्चित हो जाती हैं। 

लहसुन-प्याज ‘‘तामसी’’ होने के बावजूद शाकाहारी है या मांसाहारी?

कावड़ियां या अन्य कोई भी व्यक्ति जो शुद्ध शाकाहारी है तथा शाकाहारी होने के बावजूद वह लहसुन-प्याज से परहेज करता है, तब हिंदू की शाकाहारी होटल होने के बावजूद भी वह उस दुकान वाले से जरूर पूछता है कि यहां पर बगैर लहसुन-प्याज का खाना अथवा ‘‘जैन-थाली’’ मिलेगी? क्योंकि जैन स्वालबिंयों को छोड़कर अन्य किसी धर्म में लहसुन-प्याज पर प्रतिबंध नहीं है। उपरोक्त उल्लेखित आदेशों सहित उच्चतम न्यायालय ने जो अंतरिम आदेश जारी किये हैं, उनमें किसी में भी यह कहीं उल्लेख नहीं है कि होटल में खाने के साथ ‘‘लहसुन-प्याज’’ का उपयोग होता है, यह भी लिखा जावें। लहसुन-प्याज तामसिक खाना जरूर होता है, तथापि वह मांसाहारी नहीं होता है, जबकि ‘‘तामसिक खाना मांसाहारी’’ होता है। बिना लहसुन-प्याज के खाने को ‘सात्विक खाना’ कहते हैं। जिसके लिखने का निर्देश किसी तंत्र ने नहीं दिये? अतः अब प्याज व लहसुन शाकाहारी है अथवा मांसाहारी, इसकी परिभाषा की खोज करना आवश्यक हो गया है?    

व्यक्तिगत सावधानी के बिना ‘‘शुद्ध खाने’’ की ‘‘पहचान’’ संभव नहीं!   

वस्तुतः खाने की शुद्धता पहचान या परहेज को बनाए रखने की जिम्मेदारी, सावधानी व्यक्ति स्वयं पूर्ण रूप से करता है। किसी आदेश की आवश्यकता नहीं है। यह तो वही बात हुई कि ‘‘अंडा सिखावे बच्चे को, कि चीं चीं न कर’’। तो फिर क्यों ऐसे आदेश जारी करके व्यर्थ की चर्चा में देश के महत्वपूर्ण समय रूपी धन को बर्बाद किया जा रहा है?

अनावश्यक विषय पर अर्थहीन बहस से क्या देश की महत्वपूर्ण पूंजी ‘‘समय धन’’ की बर्बादी नहीं?

उक्त बहस में न केवल देश के बुद्धिजीवी, धर्मावलमबी, मीडिया बल्कि उच्चतम न्यायालय भी ‘‘अशर्फियां छोड़ कोयलों पर मुहर लगाने’’ अर्थात समय की बर्बादी करने में उलझ गया है। हमारे राष्ट्रीय स्वास्थ्य व भोजन के लिए आवश्यक महत्वपूर्ण समय को हम इस फालतू की बहस में गुजार दे रहे हैं, क्या यह जरूरी है? अंतहीन बहस के चलते परिस्थितियों की संगत का असर पड़ने के कारण मैं भी इस फालतू बहस में अपने महत्वपूर्ण समय को इतना अधिक समय देकर विषय की वस्तु स्थिति और वस्तु ज्ञान से आपको अवगत कराने का प्रयास कर रहा हूं कि लेख लम्बा होने के कारण दो भागों में करना पड़ रहा है।

क्रमशः अगले अंक में..........।

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