शनिवार, 10 अगस्त 2024

क्या ‘‘कीमती समय’’ का ‘‘अपव्यय’’ कर ‘‘फालतू विषय’’ पर बहस से देश का ‘‘समग्र विकास’’ ‘‘अवरुद्ध’’ तो नहीं हो रहा है?

क्या देश के समस्त तंत्र जनतंत्र, न्यायपालिका सहित के पास फालतू समय बहुत है?


क्रमशः गंतव्य से आगे।

सुरक्षा का आधार! फिर आदेश स्वैच्छिक होकर विकल्प क्यों?

पूर्व में घटित जिन घटनाओं को आधार बताते हुए सुरक्षा कारणों से जो निर्देश दिए गए हैं, उनका पालन स्वेच्छा से है। यह अपने आप में ही परस्पर विरोधास्पदी है। क्योंकि सुरक्षा के मामले में विकल्प नहीं दिया जा सकता है। राष्ट्र हो या व्यक्ति, सुऱक्षा के साथ कोई समझौता अथवा विकल्प नहीं दिया जा सकता है। चंूकि उक्त आदेश सुरक्षा की दृष्टि से जारी किया गया है, अतः आप उसमें ‘‘विकल्प’’ देकर वास्तव में सुरक्षा के प्रश्न को ही ‘‘गौड़’’ बना दे रहे हैं।

यदि आदेश सही है, तो सुरक्षा की दृष्टि से मानने की बाध्यता होने ही चाहिये। मीडिया में रिपोर्टिंग आई है, कई जगह नाम लिखाने में जोर जबरदस्ती में पुलिस की सक्रिय भूमिका रही है। तथापि कुछ व्यवसाइयों ने स्वेच्छा से इसे स्वीकार कर लागू भी किया है। वहीं एक जगह तो कावड़ रास्ते में आने वाली मस्जिद को भी कपड़े से ढ़का गया है, जहाँ पुलिस मूक हो जाती है, फिर हटाते हुए भी दिखाया गया है। यद्यपि पिछले साल मालदा पश्चिम बंगाल में भी मंदिर के सामने से मोहर्रम जुलुस जाते समय मंदिर को ढ़क दिया गया। मध्य प्रदेश के शिवपुरी में भी पिछले समय ऐसी ही घटना हुई। कुछ जगह मुस्लिम मालिकों की शुद्ध शाकाहारी भोजनालय से मुस्लिम नौकरों को भी हटाया है। नैनीताल में अन्नपूर्णा होटल का मालिक आबिद हुसैन के यहां काम करने वाले समस्त हिन्दु हैं। योगी सरकार में इस तरह की कोई घटना नहीं हुई है, जैसा की दावा किया जाता है। जो इस बात को सिद्ध करती है कि प्रशासनिक आदेश के लिए उक्त घटना का आधार लेना बिल्कुल गलत है। क्योंकि कांवड़ यात्रा तो हर साल चलती ही है। 

पूर्व से ही विद्यमान उक्त आदेश/निर्देश! *तथ्योंपरक नहीं।

उच्चतम न्यायालय में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा दाखिल किये गए शपथ पत्र में यह कहा है कि इसका उद्देश्य मात्र यह है कि कांवड़ियों को यह पता लग सके कि वे कौन सा भोजन ले रहे हैं। ताकि भूल से भी उनकी धार्मिक भावनाओं को ठेस न पहुंचे। खाने में ‘‘प्याज-लहसुन’’ का उपयोग झगड़ा तनाव पैदा कर सकता है। उक्त आदेश सिर्फ 5 अगस्त तक ही लागू है।

यूपी सरकार, मंत्री ओमप्रकाश राजभर, भाजपा नेताओं व प्रवक्ता शाईना एनसी ने जहां उक्त कदम को सही ठहराया है, वहीं एनडीए के तीन घटकों जेडीयू, लोक जनशक्ति पार्टी व आरएलडी ने विरोध करते हुए इसकी समीक्षा/वापस लेने की मांग की है। सुखद व आश्चर्यजनक समर्थन ऑल इंडिया मुस्लिम जमात के राष्ट्रीय अध्यक्ष शहाबुद्दीन रजवी बरेलवी की ओर से आया है, जो धार्मिक सहिष्णुता व उदारता का बड़ा परिचायक है। राज्य भाजपा प्रवक्ता राकेश तिवारी का यह कहना है कि ‘‘सरकार ने तो बस वही दोहराया है, जो वर्ष 2006 में मुलायम सिंह यादव सरकार व तत्पश्चात मायावती सरकार द्वारा अधिसूचित किया गया था’’। यह दावा किया गया है कि वस्तुतः मुलायम सिंह की सरकार के समय रेस्ता, ढ़ाबा संचालक को फर्म का नाम व लाइसेंस संख्या लिखने के आदेश जारी किये गये जो ‘‘तथ्योंपरक’’ न होकर ‘‘भ्रामक’’ है। वस्तुतः खाद्य सुरक्षा एवं मानक अधिनियम 2006 की धारा 3 (ण) के अंतर्गत परिभाषित ‘‘व्यापारी’’ को अधिनियम के अंतर्गत लाइसेंस लेना होता है, जो प्रारूप ‘सी’ में जारी होता है, जिसे दुकान की सार्वजनिक जगह पर प्रदर्शित करना (अनिवार्य) होता है। फार्म ‘‘सी’’ में अनुज्ञपति धारी (लाइसेंसी) के पंजीकृत कार्यालय के नाम पता लिखना होता है। मालिक या संचालक का नाम नहीं। तथापि लाइसेंस के गैर फार्म सी अनुलग्नक (एनेक्जर) में ‘‘संचालन का प्रभारी तथा जिम्मेदार व्यक्ति की’’ जानकारी जरूर देनी होती है। तथापि सार्वजनिक जगह पर वह ‘‘ऐनेक्जर’’ प्रदर्शित नहीं होता है, जैसे फार्म ‘सी’। केन्द्रीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक अधिनियम 2006 में इस तरह के कोई निर्देश नहीं है कि दुकानदार अपना नाम पृथक से लिखें/प्रदर्शित करे। तर्क के लिए जब इस तरह के आदेश/नियम पूर्व से ही थे? तब अभी नये निर्देश जारी करके क्या उत्पाती तत्वों को अनावश्यक रूप से साम्प्रदायिक व धार्मिक-विभेद को पैदा करने का अवसर नहीं दिया गया? पूर्व के नियमों का पालन यदि नहीं हो रहा है, तो निर्देशों में उक्त नियमों का हवाला देते हुए कड़ाई से पालन की चेतावनी दी जानी चाहिए थी, नया आदेश/निर्देश नहीं? 

पत्रकार रुबिका लियाकत का अर्द्धज्ञान/अर्द्धसत्य।

‘‘हंगामा क्यों बरपा’’ टाइटल देती हुई प्रसिद्ध पत्रकार रूबिका लियाकत के द्वारा जारी उक्त आदेश पर कहा गया कि ‘‘वर्ष 2006 में डॉ. मनमोहन सिंह के साथ मुलायम सिंह सरकार के समय बने नियम का ही तो सख्ती से पालन करवाया जा रहा है’’, बिल्कुल गलत व तथ्यात्मक नहीं है। क्योंकि नये आदेश में मुलायम सिंह सरकार के समय बने नियम का हवाला नहीं दिया गया। वास्तव में यूपीए सरकार ने केंद्रीय भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक अधिनियम 2006 ‘‘(फसाई)’’ पारित किया था। उक्त अधिनियम के अंतर्गत खाद्य सुरक्षा एवं मानक नियम 2011 (5 मई 2011) एवं विनियम 2011 अधिसूचित किये गये, तत्समय उत्तर प्रदेश में मायावती की सरकार थी। वर्ष 2011 में ‘‘भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण’’ बना। उक्त कानून के अंतर्गत राज्य सरकारों द्वारा नियम बनाये जाने थे। रूबिका लियाकत आपको इस बात को समझने की आवश्यकता है कि वस्तुतः मुलायम सरकार के समय नियम (जिसे सहुलियत की दृष्टि से आगे पुराना कानून/नियम लिखा जायेगा) व वर्तमान जारी आदेश में 4 प्रमुख मूल अंतर हैै। प्रथम 2006 का कानून व 2011 का नियम उत्तर प्रदेश सरकार का कानून न होकर केन्द्रीय कानून होकर सम्पूर्ण भारत देश पर लागू है। जबकि वर्तमान नियम सिर्फ उत्तर प्रदेश में कांवड़  यात्रा के गुजरने वाले ‘रूट’ पर ही लागू रहेगा। दूसरा पुराना कानून उन समस्त नागरिकों पर समान रूप से लागू है, जो व्यवसाई की श्रेणी में आते हैं। जबकि नया नियम कांवड़ यात्रा रूट पर स्थित दुकानों पर ही लागू है। तीसरा पुराना कानून/नियम स्थाई व पूर्ण कालिक हैं, विशिष्ट अवसर के लिए नहीं। जबकि वर्तमान नियम सिर्फ कांवड़ियों के हितार्थ कांवड़ यात्रा के दौरान 22 जुलाई से 5 अगस्त तक की अवधि के लिए ही लागू रहेगा। चौथा उक्त पुराना कानून का पालन ‘‘बंधनकारी’’ है, जबकि वर्तमान आदेश ‘‘स्वेच्छापूर्वक’’ है। एक जिम्मेदार न्यूज चेनल का एंकर होने के नाते क्या रूबिका देश के नागरिकों से मांफी मांगेगी?

काँवडियों के नाम पर असामाजिक तत्वों द्वारा उड़दंग मस्ती, तोडफोड़।

इसी के साथ जुड़ा हुआ एक प्रश्न यह भी है कि कांवड़ियों की सुरक्षा के नाम पर तो प्रशासनिक निर्देश जारी कर दिए जाते हैं। परन्तु इन कांवड़ियों में शामिल कुछ एक के द्वारा की जा रही अराजकता तोड़फोड, उपद्रव से सुरक्षा व उन पर कार्रवाई करने के निर्देश तथा कार्रवाई क्यों नहीं की जाती है? गाजियाबाद में ‘‘पवित्र कांवड’’ को गाड़ी द्वारा हल्की सी छू लेने मात्र पर गाड़ी को तोड़फोड़ कर नष्ट कर दिया गया। ई-रिक्शा वाले संजय का रिक्शा तोडा गया। प्रत्येक वर्ष कांवड़ियों के कुछ इस तरह के तोड़-फोड़, कानून व्यवस्था के मामले सामने आते रहते हैं, जिनसे आम निरीह जनता को नुकसान होता है। लेकिन कार्रवाई के नाम पर टन-टन गोपाल। वैसे अधिकांश धर्म प्रेमी कांवड़ियाँ धार्मिक भावना से ओत-प्रोत होकर ही कांवड़ यात्रा में जाते हैं। वे ‘‘भोले’ होकर ‘भोले’ के उपासक होते है’’। तथापि कुछ लोग घूमने-फिरने के उद्देश्य से व कुछ व्यक्ति ऐसे भी होते हैं, जिन्हे भोजन नसीब नहीं होता है, इसलिए वे भोजन पाने के लिए 15 दिन इस पूरी कावड यात्रा में शामिल रहते हैं। इन्ही के बीच कुछ अराजक उपद्रवी तत्व भी घुस जाते है जिनकी हरकतों से कांवड़िया बदनाम होते हैं।

आपसी भाईचारा, गंगा-जमुनी तहजीब पर प्रहार तो नहीं ?

अतः तथाकथित पहचान के लिये जारी आदेश पर जिस तरह की नीति विहीन  राजनीति की जा रही है व अनर्गल  बयान बाजी हो रही है, उससे दोनों समुदाय के बीच तनाव उत्पन्न होने की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता है। उत्तराखंड के मंत्री सतपाल महाराज का यह बयान कि ‘‘मस्जिदों को देखकर कांवडियां उत्तेजित हो सकते है’’, नितांत भड़काऊ व गैर जिम्मेदाराना है। उत्तर प्रदेश सरकार के मंत्री कपिल अग्रवाल का मुसलमानों से यह अनुरोध कि वे हिन्दू देवी देवताओं के नाम या दुकान का नाम न रखें, अनावश्यक, असंवैधानिक तथा वस्तुतः हिन्दू हितों के विरुद्ध है। यदि कोई मुस्लिम धर्मावलंबी हमारे भगवान के नाम पर दुकान का नाम रखकर ज्यादा अच्छी तरह से रोजी-रोटी कमा रहा है, तो इससे तो हमारे हिंदुओं के भगवान उनके धर्म के अल्लाह से बडे़ नहीं हो गये?

‘‘व्यस्तम’’ उच्चतम न्यायालय का ‘तुरंत फुरंत ’ अंतरिम आदेश? 

उच्चतम न्यायालय की व्यवस्तता तो देखिये? चुनाव आयोग की संरचना में संसद द्वारा किए गए संशोधन कानून जिसके द्वारा उच्चतम न्यायालय के स्वयं के निर्णय को पलट दिया गया, के कारण उसकी ‘‘निष्पक्षता’’ पर प्रश्न चिन्ह लगने को लेकर दाखिल याचिका पर सुनवाई का समय न्यायालय के पास नहीं है। तथापि चुनाव भी संपन्न हो चुके हैं। यही उच्चतम न्यायालय ईडी के अंतर्गत गिरफ्तार आरोपी में सीधे जमानत के लिए पहुंचता है, तो उसे यह कहकर इंकार कर देता है कि नीचे की न्यायालय से होकर आईये जहां एक नागरिक के स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार पर तथाकथित रूप से प्रहार हो सकता है। तब न्यायालय के इतने ‘‘बहुमूल्य समय’’ में से ‘‘इतना फालतू समय’’ कैसे हो सकता है कि वह तुरंत उत्तर प्रदेश सरकार के ‘‘स्वेच्छिक आदेश’’ के विरुद्ध सुनवाई कर न केवल एक पक्षीय अंतरिम स्थगन (रोक) आदेश जारी कर यह कहते है कि खाने का प्रकार बतलाना होगा। माननीय न्यायालय शीघ्रता से शीघ्र बार-बार सुनवाई भी प्रकरण में कर लेते हैं। फिर जब आदेश ही स्वैच्छिक हो, तब उसको स्थगित करने का तुक क्या है? तुरंत सुनवाई कर सुनवाई पर सुनवाई इतनी हाय-तौबा क्यों? हां यदि उक्त स्वैच्छिक पालन के आदेश के लिए कहीं जोर जबरदस्ती या बल का उपयोग किया जा रहा है, तब उसे जरूर सहायता देने की बात उत्पन्न होती है।

 उपसंहार! 

अंत में उक्त अनावश्यक आदेश से सांप्रदायिक सदभाव को छेड़छाड होने से नफरत बढ़ने की आशंका पर  "नफरत के बाजार में मोहब्बत का पैगाम लेकर आया हूं’’ चुनाव के पूर्व लगातार कहने वाले ‘‘शख्स’’ की इस नई बनती नफरती बाजार में कहीं अता-पता नहीं है?

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Popular Posts