बुधवार, 14 अगस्त 2024

विश्व गुरु भारत? क्या ‘‘विदेश नीति’’ पड़ोसी देशों के साथ संबंधों को लेकर कसौटी पर ‘‘खरी ’’नहीं उतर रही है?

 बांग्लादेश में रक्तहीन क्रांति: भारत समर्थक तख्तापलट ।


विश्व गुरु है भारतः तो सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य कब? 

निसंदेह, पंडित जवाहरलाल नेहरू के बाद इतिहास बनाने वाले यशस्वी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारत विश्व  गुरु की ओर तेजी से अग्रसर होकर 3 ट्रिलियन इकॉनामी से 5 ट्रिलियन की ओर बढ़ बढ़कर विश्व की तीसरी सबसे बड़ी आर्थिक व्यवस्था बनने जा रहा है । प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी की अभी तक 54 देशों की विदेश यात्राएं हो चुकी है, जहां उन्होंने उन्हें 14 अंतर्राष्ट्रीय सम्मानों से नवाजा गया है जिनमे मुस्लिम राष्ट्रों का बहुमत है l आज एक सुदृढ़ राष्ट्र के रूप में भारत देश ही नहीं, बल्कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की एक व्यक्तित्व के रूप में मजबूत छाप विश्व धरोहर के रूप में बन चुकी है, जिसे नजरअंदाज करना किसी भी देश के लिए एकदम से संभव नहीं है। विश्व की तीन महाशक्तियों अमेरिका, रूस और चीन के बीच ‘‘भारत’’ भी एक महाशक्ति के रूप में उभर कर स्थापित हो चुका है, यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा। विश्व गुरू बनने की भारत की यह यात्रा तब ही पूर्ण होगी, जब भारत सुरक्षा परिषद का स्थाई सदस्य बन जायेगा। विश्व पटल पर इस स्थिति में पहुंचने के लिये सिर्फ ‘‘विदेश नीति’’ ही मात्र एक कारगर अस्त्र नहीं होती है, बल्कि इससे ज्यादा देश का चौमुखा विकास और भारत की आर्थिक विकास दर जो विश्व की तुलना में विश्व में आयी ‘‘मंदी’’ के बावजूद ज्यादा तेजी से बढ़ी है, ये महत्वपूर्ण कारक भारत को  विश्व गुरु बनने में सहायक हुआ है।

गुट निरपेक्ष आंदोलन।

याद कीजिए! हमारी स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जब विश्व दो भागों में बंटा हुआ था, अमेरिका व रूस। तब यूगोस्लाविया के राष्ट्रपति जोसिप ब्रोज टीटो, इजिप्ट् (मिस्र) के राष्ट्रपति गमाल अब्दुल नासिर, इंडोनेशिया के राष्ट्रपति सुकर्णो एवं घाना के राष्ट्रपति क्वामे नक्रूमा के साथ पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अन्य देशों का एक ‘‘गुटनिरपेक्ष संगठन’’ बनाने की अगुवाई की थी, जो गुटनिरपेक्ष आंदोलन के नाम से जाना जाता है। यह आंदोलन 120 सदस्यों की संख्या के साथ तीसरी सबसे बड़ी शक्ति के रूप में संयुक्त राष्ट्र संघ के बाद सबसे बड़ी सदस्य संख्या (दो तिहाई एवं 55% आबादी) की दृष्टि से उभरा, जिसका नेतृत्व लम्बे समय तक नेहरू करते रहे, जिन्होंने ही सर्वप्रथम 1946 में अंतरिम सरकार में गुटनिपेक्षता योजना की सर्वप्रथम घोषणा की थी। तथापि ‘‘गुट निरपेक्षता’’ की कोई परिभाषा नहीं थी। अधिकारिक रूप से अप्रैल 1961 में इसका गठन हुआ। पहला गुट निरपेक्ष शिखर सम्मेलन 1961 में हुआ। नेहरू ने ‘‘पंचशील’’ सिद्धान्त को गुटनिरपेक्ष आंदोलन का आधार बनाया। यह अलग बात है कि ‘‘पंचशील’’ के रहते भारत चीन से धोखा खाकर भारत-चीन युद्ध हुआ, जिसमें भारत को पराजय झेलनी पड़ी, जिसका घाव आज तक विद्यमान है। 

‘‘सार्क’’ ‘‘बिमस्टेक’’ ‘‘हिमतक्षेस’’ एवं IORO अंतरर्राष्ट्रीय देशों के संगठनों के गठन में भारत की महत्वपूर्ण भूमिका। 

इसके पश्चात 08 दिसम्बर 1985 को ‘सार्क’ दक्षिण एशिया क्षेत्रीय सहयोग संगठन के गठन में भी भारत की अहम भूमिका रही, जिसमें 8 देश शामिल हैै। वर्ष 2020 मई में ‘‘सार्क’’ के ‘वर्चुअल शिखर’ सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के भाग लेने के बाद उन्होंने भाग नहीं लिया। पाकिस्तान से तनावपूर्ण संबंधों के चलते 2016 से निष्क्रिय पड़े सार्क संगठन के महासचिव गुलाब सरोवर (बांग्लादेश) अभी-अभी भारत के दौरे पर आए हैं। वर्ष 1997 में ‘‘बिमस्टेक’’ संगठन बंगाल की खाड़ी के किनारे सटे हुए चार संस्थापक सदस्य बांग्लादेश, भारत, श्रीलंका और थाईलैंड के साथ बनाया गया, जिसमें बाद में तीन और सदस्य नेपाल, म्यांमार व भूटान जुड़े। ढाका मुख्यालय होकर इस संगठन का उद्देश्य आर्थिक व तकनीकी सहयोग को परस्पर सदस्य देशों के बीच बढ़ावा देना है। इसी समय उत्पति एवं विकास हिन्द महासागर तटीय क्षेत्रीय सहयोग संगठन (हिमतक्षेस) 5 मार्च, 1997 को पोर्ट लुईस मॉरीशस में अस्तित्व में आया। इस संगठन के 14 संस्थापक सदस्य देश थे-भारत, आस्ट्रेलिया, मलेशिया, इंडोनेशिया, श्रीलंका, सिंगापुर, ओमान, यमन, तंजानिया, केन्या, मोजाम्बिक, दक्षिण अफ्रीका और मॉरीशस। व्यापार, निवेश को बढ़ावा देने के लिए ‘‘खुले क्षेत्रवाद’’ के मूल्यों पर आधारित संगठन (हिंद महासागर रिम एसोसिएशन) IORA का दृष्टिकोण वर्ष 1995 में दक्षिण अफ्रीका के तत्कालीन राष्ट्रपति, नेल्सन मंडेला की भारत यात्रा के दौरान प्रकाश में आया। वर्तमान में IORA के हिंद महासागर सीमा से लगे 23 सदस्य देश और 11 संवाद भागीदार हैं। इन समस्त अंतरराष्ट्रीय संगठनों को बनाने में भारत की महत्वपूर्ण भूमिका भारत को एक विश्व शक्ति के रूप में अंतरराष्ट्रीय पटल पर मान्यता देती है।

पिछले तीन सालों में तीन देशों की भारत समर्थक सरकारों का अपदस्थ होना। 

पिछले कुछ समय से हमारे पड़ोसी देशों में चल रही राजनीतिक घटनाओं का क्रम देखिए! आप समझ पाएंगे कि भारत की विदेश नीति पड़ोसी देशों को लेकर कितनी गंभीर है? सर्वप्रथम जब भारत के प्रधानमंत्री मोदी 15 अगस्त 2021 को लाल किले पर झंडा फैला रहे थे, उसी दिन अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी पलायन कर गये और तत्पश्चात भारत विरोधी मुल्ला अब्दुल गनी बरादर (तालिबानियों) का शासन हो गया। फिर 17 नवंबर 2023 को मालदीव के भारत समर्थक राष्ट्रपति इब्राहिम सोलिह अपने विरोधी भारत विरोधी मोहम्मद मोईज से चुनाव हार गए। तब मोदी ‘‘अबकी बार फिर इब्राहिम सोलिह  सरकार’’ का कथन नहीं कर पाये? और अब बांग्लादेश में 5 अगस्त 2024 को भारत की अभिन्न मित्र शुभचिंतक  शेख हसीना सरकार का अपदस्थ होना। अभी 4 जनवरी देव 24 कोई प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के द्वारा लक्ष्यद्वीप की तस्वीरें शेयर करने पर मालदीप के कुछ मंत्रियों ने भारत विरोधी टिप्पणियां की l

पड़ोसी देशों से संबंध! ‘‘दिया तले अंधेरा’’

जिस प्रकार एक पूर्ण विकसित व्यक्तित्व तभी बन सकता है, जब उसका चारों दिशाओं में चहुंमुखी विकास हो। उसी प्रकार कोई राष्ट्र ‘‘विश्व गुरू’’ तभी बन व सफल हो सकता है, जब न केवल उसका विश्व में सिक्का चलता हो, बल्कि ‘‘पडोसी देशों में’’ भी उसकी प्रभुत्व स्थापित होकर उनसे अच्छे मधुर संबंध बने रहे। यह ठीक वैसा ही कि आप लाखों वोटों से विधानसभा/लोकसभा चुनाव जीतें परन्तु अपने निवास करने वाले मतदान केन्द्र से ही चुनाव हार जाए। दुर्भाग्य से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल में पड़ोसी देशों से संबंधों की दिशा निरंतर गिरावट आई है। शायद ‘‘दिये तले अंधेरे’’ की स्थिति हो गई है। बांग्लादेश में रक्तहीन क्रांति से तख्तापलट होने के बाद सिर्फ मित्र देश ‘‘भूटान’’ जिसकी स्थिति  देश में दिल्ली राज्य के समान ही है, को छोडकर तथा चीन व पाकिस्तान को छोड़ दिया जाए, जिनसे संबंध पहले से ही खराब रहे हैं, हमारे समस्त पड़ोसी देशों अफगानिस्तान, श्रीलंका, म्यांमार, नेपाल, मालदीव और अब बांग्लादेश से संबंध शस्त्रु जैसे न भी कहे, तो ‘‘मधुर’’ व गर्मजोशी के तो नहीं रह गए हैं। निश्चित रूप से इन देशों का झुकाव हमारे घोषित शस्त्रु चीन व पाकिस्तान की ओर ‘‘तुलनात्मक’’ ज्यादा है। यह स्थिति देश की विदेश नीति पर निश्चित रूप से प्रश्नचिन्ह अवश्य लगाती है। 

मित्र बदल सकते है, पड़ोसी नहीं! अटल जी।

इस स्थिति के लिए अकेले भारत को ही जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। बल्कि सौहार्दपूर्ण संबंध परस्पर इच्छाशक्ति पर निर्भर हैं और यदि दूसरा देश संबंध अच्छे नहीं रखना चाहता है, तब आपसी संबंधों में ‘‘तनाव’’ किसी कारण या दबाव में होना लाजमी है। ‘‘ताली दोनों हाथों से बजती है’’। लेकिन तब भी राष्ट्रहित में हमे इस स्थिति से निपटना ही होगा। आज जहां अटल जी के कथन याद आ जाते है। ‘‘आप मित्र तो बदल सकते है, लेकिन पड़ोसी नहीं’’। इस ‘‘अटल सत्य’’ को ध्यान में रखते हुए हमे उनसे कूटनीतिक रिश्ते सौहाद्रपूर्ण, सदभावपूर्ण और एक दूसरे को विकास की ओर ले जाने वाले बनाए रखने का प्रयास लगातार करते रहना पड़ेगा। तभी हमे विश्व गुरू होने का सही ‘‘मुकुट’’ मिल सकता है।

‘‘राष्ट्रीय हितों’’ पर ‘‘व्यक्तिगत संबंध भारी’’।

याद कीजिए! प्रधानमंत्री मोदी के विश्व की समस्त महाशक्तियों के राष्ट्रध्यक्षों के साथ व्यक्तिगत स्तर पर बड़े ‘‘प्रगाट’’ संबंध रहे हैं, जो ‘उतने’ शायद पहले की सरकारों के समय नहीं रहे हैं। इसमें बांग्लादेश भी शामिल रहा है, जिसके प्रधानमंत्री शेख हसीना को अभी हुई रक्तहीन क्रांति में इस्तीफा देना पड़ा। व्यक्तिगत संबंध की इन्तहा तो देखिये; शेख हसीना नरेन्द्र मोदी के तीसरे शपथ ग्रहण समारोह में शामिल होने भारत आई। वहीं दूसरी ओर प्रधानमंत्री अमेरिका जाकर ट्रंप के दूसरे चुनाव में ‘‘अबकी बार ट्रंप सरकार’’ कहकर  आ जाते हैं, जैसे वे अपने देश के किसी प्रदेश में चुनाव में प्रचार करने गए हों ? कई बार हम व्यक्तिगत रिश्तों को आवभगत के आभामंडल  की चकाचौंंध  में ‘‘राष्ट्र से ऊपर रख लेते है’’। जबकि वास्तव में व्यक्तिगत संबंधों पर राष्ट्रीय हित हमेशा ‘‘भारी’’ होना चाहिए। यह एक राजनीतिक, कूटनीतिक ‘‘चूक’’ और ‘‘समझ’’ में कमी कही जा सकती है। इसलिए हम जब नरेन्द्र मोदी को विश्व गुरु कहने लग जाते है, तो उसका कारण भी शायद यही ‘‘समझ’’ की कमी है। राष्ट्र की दीर्घकालीन विदेश नीति में राष्ट्राध्यक्षों से व्यक्तिगत संबंधों से ज्यादा ‘‘राष्ट्रों से देश हित की दिशा में मजबूत संबंध’’ होना ज्यादा महत्वपूर्ण होता है। जब हम किसी देश के राष्ट्राध्यक्ष सेu व्यक्तिगत संबंध मजबूत करते है, तब हमे भी इस बात का ध्यान रखना चाहिए, वे पद पर स्थाई ‘‘सत्तारूढ़’’ नहीं हैं। सरकारें बदलती हैं। चुनावों में हार-जीत होती है। अतः व्यक्ति से संबंध देश से ऊपर होकर ‘‘देशहित गौण’’ हो न जाए, इस बात की सावधानी बरतना जरूरी है। इसलिए अंतरदेशीय के समान अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी विपक्ष से भी इतने संबंध जरूर होना चाहिए, ताकि वे जब सत्ता में आये तो हम उनसे बातचीत कर सके। 

बांग्लादेश में ‘‘लोकतांत्रिक तानाशाह’’ ‘‘रक्तहीन क्रांति’’ से अपदस्थ।

बांग्लादेश में जनवरी 2024 में आम चुनाव हुए, जिसमें विपक्षी बीएनपी पार्टी एवं जमाते-ऐ -इस्लामी गठबंधन ने चुनाव का बहिष्कार किया था। शेख हसीना की अवामी लीग को भारी बहुमत 300 में से 222 सीटें मिली। दूसरे नंबर पर निर्दलीय उम्मीदवार रहे, जिन्हें अवामी लीग ने ही लोकतंत्र दिखाने के नाम पर खड़ा किया था। ऐसा वहां की मीडिया में चर्चा है। शेख हसीना की सरकार के अपदस्थ हो जाने के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सामने ‘‘कुआं व खाई’’ की स्थिति है। एक तरफ प्रगाढ़ संबंधों के रहते मानवीय और बांग्लादेश केे जन्म से लेकर खासकर बांग्लादेश निर्माता बंग बंधु शेख मुजीबुर्रहमान की पुत्री होने के नाते प्रधानमंत्री शेख हसीना से हमारे लगातर गहरे संबंधों के चलते मानवीय आधार पर उन्हे शरण देना उचित व जायज दिखता है। वहीं दूसरी ओर शेख हसीना के खिलाफ बांग्लादेश में जिस तरह का का जन-युवा आक्रोेश बांग्लादेश के स्वतंत्रता में भाग लेने वालों के लिएआरक्षण तथा पेपर लीक को लेकर खडा हुआ l इस आरक्षण को लेकर शेख हसीना कतई जिम्मेदार नहीं है क्योंकि उच्च न्यायालय ने आरक्षण की सीमा तय की थी, जिसे बाद में उच्चतम न्यायालय ने घटा भी दिया था l हसीना सरकार ने तो आरक्षण खत्म कर दिया थाl बावजूद इसके   छात्रों व युवाओं ने राष्ट्रव्यापी आंदोलन छेड़ा। दुर्भाग्यवश जिस तानाशाही तरीके से शेख हसीना ने स्थिति को संभालने का प्रयास किया, उससे छात्र व युवा जो दो तिहाई से भी ज्यादा जनसंख्या में हैं, बुरी तरह से शेख हसीना के विरूद्ध हो गये। तब भारत सरकार ने अपने प्रभाव का उपयोग कर आंदोलन कुचलने के लिए शेख हसीना को तानाशाही रवैया अपनाने से रोकने का कोई ‘‘आंतरिक’’ सार्थक प्रयास नहीं किया। क्योंकि ‘‘बाहय प्रयास’’ तो ‘‘आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप कहलाता’’। ऐसी स्थिति में यदि भारत सरकार शेख हसीना का खुलकर समर्थन करती, तब भारत सरकार को बांग्लादेश के छात्रों व जनता के आक्रोश को भी झेलना पड़ता, जो कदापि देश हित में नहीं होता। 

बांग्लादेश में तेजी से बदलती परिस्थितियों पर नज़र रखने में भारी चूक?

बांग्लादेश के बाबत यह कहा जा सकता है कि भारत से चूक हुई है। जहां पर वास्तव में शेख हसीना ने तानाशाही रवैये के चलते अलोकतांत्रिक तरीके से विरोधी पक्ष को लगभग समाप्त करने का प्रयास किया। शायद इसीलिए विपक्ष से कोई तार हमारे देश और प्रधानमंत्री के नहीं जुड़ पाये। क्योंकि हम सिर्फ शेख हसीना की ओर टक-टक नजरे टिकाये हुये थे? इसलिए हम निश्चित रूप से ‘‘दो पाटों के बीच’’ फंसे है। ‘‘गले की हार रही’’ शेख हसीना प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में शरीक हुई थी, आज ‘‘गले की हड्डी’’ बन कर जिन्हें  न निगलते बन रहा है न उगलते, फिलहाल भारत में गुमनामी में रह रही है। बांग्लादेश की वर्तमान तेजी से घटित घटनाक्रम ने हमारी इसी ‘‘विरोधाभासी स्थिति’’ को उजागर कर दिया है। जहां मजबूत भारत ‘‘मजबूर या कमजोर’’ भारत दिखने की स्थिति पैदा हो गई है। जब बांग्लादेश के अपदस्थ प्रधानमंत्री को भारत में शरण देने का मामला सामने आया है। यद्यपि वे भारत आ चुकी है, लेकिन हमने उन्हे राजनीतिक शरण नहीं दी है। शायद शेख हसीना दूसरा रास्ता ढूढ़ रही है, ताकि भारत की स्थिति ‘‘अजीब’’ (ऑकवर्ड ) न हो। इस स्थिति से हमें निकलना होगा और भविष्य में इस तरह की स्थिति न बन सके, इस बात का भी ध्यान विदेश नीति निर्धारण करने वाले को रखना होगा। अतः अब सीमित विकल्पों के रहते हुए भारत को बहुत ही सावधानियों के साथ कदम आगे बढ़ाने होगें।

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