यदि नहीं! तो लोकतंत्र में विरोध का संवैधानिक, लोकतांत्रिक ‘‘आंदोलन’’ का अधिकार क्या है?*
भूमिका
भारतीय संविधान में जो मूलभूत नागरिक अधिकार दिये गये हैं, निसंदेह वे निरपेक्ष व पूर्ण नहीं हैं। अर्थात कुछ ‘‘सीमाओं’’ (प्रतिबंधों) के साथ अधिकार दिये गये हैं। इन सीमाओं को समय-समय पर उच्चतम न्यायालय ने परिभाषित भी किया है। उल्लेखित संदर्भ को सामने रखते हुए महाराष्ट्र के बदलापुर में दो छोटी (नाबालिग) बच्चियों के साथ हुई दो दरिंदगी के विरोध में विपक्ष ‘‘महा विकास अगाडी’’ द्वारा महाराष्ट्र बंद के आव्हान के विरुद्ध दायर हुई जनहित याचिकाओं को पहले तो महाराष्ट्र उच्च न्यायालय ने सुनवाई से इंकार किया। फिर याचिकाकर्ता द्वारा 20 साल पुराने बाला साहब ठाकरे प्रकरण (वर्ष 2004) का हवाला देकर न्यायालय से सुनवाई का अनुरोध किया। तब महाराष्ट्र उच्च न्यायालय ने सुनवाई करते हुए ‘‘नोटिस’’ जारी करते हुए अंतरिम आदेश पारित किया कि ‘‘किसी भी राजनीतिक दल को बंद करने की इजाजत नहीं हैं’’ और उन्हें बंद करने के ‘‘आव्हान’’ से रोका जाता है। (भाग लेने वालों के विरुद्ध कार्रवाई?) यदि कोई प्रयास कर रहा होगा, तो सरकार को निर्देश दिया कि उनके खिलाफ नियमों के तहत कार्रवाई की जाये।
आखिर ‘‘लोकतांत्रिक विरोध’’ के ‘‘वैधानिक स्वरूप’’ क्या व कैसे होना चाहिए?
लोकतंत्र में विरोध करने का अधिकार संवैधानिक मूल अधिकार भले ही न हो परन्तु एक मौलिक राजनीतिक अधिकार जरूर है। ‘विरोध’ के मूल में नियमों के उल्लंघन का भाव ही निहित है। तभी तो वह ‘‘आंदोलन’’ कहलायेगा। ‘सहमति’ नहीं ‘असहमति’ ही विरोध के मूल में है। ‘‘ज्ञापन’’ देने तक तो कोई नियम का उल्लंघन किये बिना ही संभव है। परन्तु ‘‘आंदोलन’’ के शेष कोई भी प्रारूप के मूल में यदि नियमों, कानूनों का उल्लंघन नहीं है, तो उसे ‘‘आंदोलन’’ की संज्ञा देना ही गलत होगा। परन्तु आज कल तो नियमों के उल्लंघन से ही बचने के लिए प्रशासन से आवश्यक अनुमति लेकर ही आंदोलन ज्यादा किये जाते है। फिर वे कितने प्रभावी हो सकते है? प्रश्न यह भी है।
उच्चतम न्यायालय ने लोकतंत्र में प्रदर्शन व असहमति को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का एक रूप ही माना है, जब तक कि वे सार्वजनिक व्यवस्था का उल्लंघन नहीं करते हैं। तथापि हड़ताल, बंद इत्यादि की गारंटी मौलिक अधिकारों द्वारा नहीं दी जा सकती है। (बी.आर.सिंह व अन्य बनाम भारत संघ) वैसे बंद व ‘‘हड़ताल’’ में अंतर होता है। हड़ताल से ज्यादा व्यापक रूप बंद होता है। निश्चित रूप से ‘‘बंद से’’ दूसरे के अधिकार का हनन होता है। इसलिए इस अधिकार का उपयोग सामान्यतः नहीं होता है जबकि तक की स्थितियां गंभीर व विकराल रूप न ले तो। भारत कुमार के. पालीचा बनाम केरल सरकार में सर्वोच्च न्यायालय ने यह कहा है कि शांतिपूर्ण हड़ताल असंवैधानिक नहीं हो सकती है। रामलीला मैदान घटना बनाम भारत संघ (2012), विरूद्ध एम. के. एस.एस (किसान मोर्चा) विरूद्ध भारत संघ (2018), तथा शहीन बाग 2019 इन तीनांे प्रमुख आंदोलनों में शामिल विरोध प्रदर्शन व एकत्र होने के मूल अधिकार को उच्चतम न्यायालय ने मान्यता दी है।
महाराष्ट्र उच्च न्यायालय का निर्देश।
माननीयों न्यायाधीशों ने कहा, ‘‘बंद से पूरे महाराष्ट्र का जनजीवन प्रभावित हो सकता है.’’ उन्होंने कहा कि अतीत में भी राज्यव्यापी बंद के कारण नागरिकों को नुकसान उठाना पड़ा है। वर्ष 2004 के फैसले में कहा गया था कि ऐसे बंद के मामले में संबंधित राजनीतिक दल कानूनी कार्रवाई के लिए उत्तरदायी होगा और जान-माल या आजीविका के किसी भी नुकसान की भरपाई भी करेगा। फैसले में कहा गया था कि पुलिस ऐसे बंद में शामिल व्यक्ति या व्यक्तियों के खिलाफ उचित कार्रवाई करेगी। माननीय मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि ‘‘हम राज्य सरकार और उसके सभी अधिकारियों मुख्य सचिव, अतिरिक्त मुख्य सचिव (गृह), पुलिस महानिदेशक और सभी जिलाधिकारियों- को निर्देश देते हैं कि वे 2004 के फैसले में निर्धारित दिशा-निर्देशों को सख्ती से लागू करें’’।
21 अगस्त को हुए भारत बंद पर महाराष्ट्र उच्च न्यायालय का मौन?
सर्वोच्च न्यायालय के एससी और एसटी श्रेणी में ‘क्रीमीलेयर’ (‘‘कोटा के भीतर कोटा’’) पर दिनांक 01 अगस्त 2024 के निर्णय के विरोध में नेशनल फेडरेशन ऑफ दलित एण्ड आदिवासी आर्गेनाइजेशन के द्वारा 21 अगस्त को पूरे भारत बंद का आह्वान किया गया था। बावजूद इसके महाराष्ट्र उच्च न्यायालय ने न तो उस पर रोक लगाई और न ही मानहानि का प्रकरण माना। जब एक तरफ उच्चतम न्यायालय स्व संज्ञान लेकर तुरंत कोलकाता रेप प्रकरण में सुनवाई करता है, वहीं दूसरी तरफ 21 तारीख को किये गए भारत बंद के आव्हान के विरूद्ध उच्च न्यायालय द्वारा इसी तरह का स्व संज्ञान लेकर अपने क्षेत्राधिकार महाराष्ट्र के लिए आदेश पारित क्यों नहीं किये गये? यह समझ से परे हैं। कोलकाता उच्च न्यायालय ने डॉक्टर बलात्कार, हत्या के मामले में विरोध के लिए एक नहीं पांच दिनों तक श्याम बाजार मेट्रो स्टेशन के पास प्रदर्शन करने की अनुमति दी। भारतीय चिकित्सा संघ ने डॉक्टर रेप प्रकरण के बाद अस्पताल परिसर में हुई बर्बरता पूर्ण तोड़-फोड़ व दहशत की परिस्थितियां निर्मित होने के बाद 38 घंटे के चिकित्सा सेवाएं आपातकालीन चिकित्सा को छोड़कर 24 घंटे के देशव्यापी बंद का आव्हान किया था। उच्चतम न्यायालय ने डॉक्टरों से काम पर वापस लौटने की अपील करने के साथ अधिकारियों से यह भी आग्रह किया था कि वे किसी के भी विरूद्ध कठोर कार्रवाई न करंे।
‘‘संसद’’ से ‘‘सड़क’’ तक ‘‘विरोध’’ का अधिकार’’।
2004 का आदेश का जिक्र करते हुए सख्ती से पालन की बात करते समय माननीय न्यायालय शायद यह भूल गये कि 2004 से 2024 तक कितने ‘भारत’ व ‘महाराष्ट्र’ बंद हुए? तब उच्च न्यायालय ने कोई कार्रवाई क्यों नहीं और यदि किसी बंद को चुनौती जनहित याचिका द्वारा नहीं दी गई तो स्व संज्ञान क्यों नहीं लिया? यह एक बड़ा प्रश्नचिंह माननीय न्यायालय पर उठता है। अभी-अभी पश्चिम बंगाल उच्च न्यायालय ने भाजपा द्वारा आव्हान किये गये 12 घंटे के बंद के विरूद्ध दायर जनहित याचिका पर सुनवाई से इंकार कर दिया। यद्यपि उसका कारण याचिकाकर्ता को न्यायालय ने पूर्व में ही कोई भी याचिका पेश करने से हमेशा के लिए रोक दिया था। आखिर लोकतांत्रिक शासन में किसी दर्दनाक, वीभत्स, जघन्य घटना जिसका समाज पर बड़ा विपरीत प्रभाव पड़ता हो, का विरोध करने के लिए या शासन की जनविरोधी नीतियों का विरोध करने के लिए संसदीय मंच विधानसभा व लोकसभा में विपक्ष द्वारा मुद्दों को उठाने के अलावा विपक्ष के साथ जनता के लिए भी बंद, धरना इत्यादि एक कारगार हथियार होता है। निश्चित रूप से इन सब तरीको से सामान्य जीवन प्रभावित होता ही है। खासकर ‘बंद’ से सबसे ज्यादा। परन्तु शायद यह सब किया ही इसलिए जाता है कि जनता व सरकार प्रभावित होकर मुद्दों पर अपनी सक्रिय सकारात्मक भूमिका निभाएं।
एक बात ध्यान में रखने की आवश्यकता है कि यदि किसी घटना पर तुरंत-फुरंत कानूनी कार्रवाई कर कानून का डंडा चलकर अपराधी जेल के पीछे कर दिये जाते है, तब ऐसी घटनाओं के विरोध में प्रदर्शन का आव्हान सामान्यतः नहीं होता है। पिछले 15 दिनों में ही देखिये! देश के विभिन्न भागों में यौन शोषण की लगभग 45 घटनाएं हुई हैै। लेकिन क्या हर घटना को लेकर बंद का आव्हान किया गया। विरोध के साधन बंद को इस रूप में देखा जाना चाहिए कि जब शरीर में घाव पक जाता है और चीर-फाड़ कर यदि उसका मवाद नहीं निकाला जाता है, तो शरीर को कहीं ज्यादा नुकसान पहंुचा सकता है। इसी प्रकार किसी घटना में उत्पन्न आक्रोश को शांत करने का एक सामयिक साधन ‘‘बंद’’ है और यदि इसको रोका जाता है, तब प्रतिक्रिया स्वरूप घुटन के रूप में यह कितनी विकराल ले लेगी? इसकी कल्पना की जा सकती है। जैसा कि मैंने पहले ही लिखा है, यह नागरिकों का ‘‘पूर्ण’’ (एब्सोल्यूट) अधिकार नहीं है। लेकिन इस ‘‘लोकतांत्रिक नागरिक अधिकार’’ पर क्या न्यायालयों का निर्णय भी हमेशा विवेकपूर्ण रहा है? इसका जवाब माननीय न्यायालय ही दे सकते हैं।
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