सिद्धांतः सभी पक्ष सहमत! तो फिर भी अपनी-अपनी ढपली और अपना-अपना राग क्यों?
अवैध निर्माण तोड़ने पर सर्वसम्मति।
उच्चतम न्यायालय के समक्ष जमीयत उलेमा ए हिंद, सीपीएम नेत्री पूर्व राज्यसभा सांसद वृंदा कारंत व अन्य कुछ संस्थाओं सहित लगभग 100 से अधिक याचिकाकर्ताओं की दो वर्षो से भी ज्यादा समय से आरोपियों के अवैध निर्माण को तोड़े जाने से संबंधित लंबित याचिकाओं पर विगत दिवस सुनवाई करते हुए माननीय उच्चतम न्यायालय ने सुनवाई के दौरान जो ‘‘टिप्पणियां’’ की, उस पर राष्ट्रव्यापी बहस होना लाजमी ही है। जबकि उच्चतम न्यायालय ने अभी कोई निर्णय नहीं दिया है, बल्कि 17 तारीख की अगली पेशी नियत की है, जहां समस्त पक्षों से सुझाव मांगे गए हैं। तत्पश्चात ही कोई फैसला आ पायेगा। यद्यपि इस मुद्दे पर तीनों पक्ष पीड़िता, शासन व माननीय न्यायालय में सर्वानुमति है कि अवैध निर्माण तोड़ा जाना चाहिए। बावजूद इसके उच्चतम न्यायालय की ‘‘टिप्पणियों’’ की हर पक्ष अपने अपने तरीके से व्याख्या कर एक दूसरे को नीचा/औकात दिखाने का प्रयास कर रहे हैं।
न्यायालय की टिप्पणी मात्र ‘‘ओबिटर डिक्टा’’ बंधनकारी नहीं?
आखिर उच्चतम न्यायालय की ‘‘टिप्पणियां’’ है क्या:-संदिग्ध, आरोपी या दोषी ही क्यों न हो कोई व्यक्ति के निर्माण को ‘‘कैसे गिराया जा सकता है’’, इस टिप्पणी के आधार पर समाचार पत्रों की हैडिंग पर जरा गौर कीजिए! ‘‘कड़ी फटकार लगाता है’’ तो कहीं ‘‘बुलडोजर एक्शन पर सख्त नाराजगी जाहिर की है’’ शीर्षक दिए गए। माननीय न्यायालय की उक्त टिप्पणी शायद निम्न घटनाओं के संज्ञान में लाये जाने के कारण आयी लगती है। छतरपुर की 20 करोड़ की 20 हजार वर्गफीट में तीन मंजिला हवेली के मकान को पैगम्बर के विरूद्ध घटिया बयान देने के विरोध प्रदर्शन में मालिक शहजाद अली के नेतृत्व करने के कारण और प्रदर्शन में पथराव होने के बाद दूसरे दिन तोड़ दिया गया। जबकि चार साल से मकान का निर्माण कार्य चल रहा था। मुरादाबाद व बलिया में भी आरोपी की छः संपत्तियां तोड़ी गई। उदयपुर हिंसा के आरोपी छात्र जिसका परिवार ‘‘किराएदार’’ के रूप में जिस मकान में रहता था, को ध्वस्त कर दिया गया। माननीय न्यायालय ने इस बात को नहीं देखा कि ‘‘वन भूमि पर बने अतिक्रमित मकान’’ को नोटिस देकर तोड़ा गया था। तथापि मकान मालिक का यह भी कहना है कि इस तरह के और भी मकान बने हैं, परंतु उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई। वैसे उक्त टिप्पणियां ‘‘ओबिटर डिक्टा’’ कहलाती है, जो एक लैटिन शब्द होकर कानूनी रूप से ‘‘बंधनकारी’’ नहीं है। इसलिए इनका ‘‘न्यायिक महत्व कम’’ है। तथापि उसे ‘प्रेरक’ के रूप से जरूर ‘उद्धत’ किया जा सकता है।
सरकार का दावा। ‘‘अवैध’’ निर्माण तोड़ने की कार्रवाई ‘‘वैद्य’’कितनी सत्यता?
वास्तव में उच्चतम न्यायालय के समक्ष मुद्दा क्या है और उस पर समस्त पक्षों का स्टैंड (कहना) क्या है? इसको समझाना पहले आवश्यक है, तभी हम आगे की कार्रवाई को समझ पाएंगे। उच्चतम न्यायालय के समक्ष निर्माणों को ध्वस्त की गई कार्रवाई क्या कानून सम्मत हुई है? मुख्य प्रश्न यह है। उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने यह शपथ पत्र पेश किया कि निर्माण को ध्वस्त करने की जो भी कार्रवाई की गई है, वह स्थानीय कानून, नियमों का पालन करके ही की गई है। याचिका कर्ताओं ने भी किसी ने यह नहीं कहा है कि अवैध निर्माण को तोड़ा नहीं जा सकता है। एक याचिका कर्ता की ओर से यह अवश्य कहा गया है कि उनके विरुद्ध की गई कार्रवाई दुर्भावना से सांप्रदायिक हिंसा भड़कने के बाद की गई। स्पष्ट है, मुद्दा इतना सा है कि जो निर्माण तोड़े गए हैं, क्या वे ‘‘अवैध’’ है। दूसरे यदि जांच में वे अवैध पाए गए हैं, तब उनको तोड़ने की कार्रवाई में क्या कानून की ‘‘पूरी प्रक्रिया’’ का पालन किया गया है?
संयोग या प्रयोग।
एमनेसटी इंटरनेशनल की एक रिपोर्ट के अनुसार अप्रैल 2022 से जून 2023 तक साम्प्रदायिक दंगे के बाद 128 संपत्तियों को बुल डोज किया गया। तथापि यह ‘‘संयोग’’ है या ‘‘प्रयोग’’ जिन अपराधियों की संपत्ति जमींदोज की गई है, वह प्रायः अपराध घटित होने के बाद ही की गई है। इसका एक मतलब यह भी निकलता है कि जब जहां कहीं अपराध घटित होता है, तब स्थानीय स्वशासन (नगर पालिका, विकास प्राधिकरण इत्यादि) के अधिकारी ‘‘कुंभकरण की नींद’’ से जागकर ‘‘ग्रीन सिग्नल’’ मानकर कार्रवाई में लग जाते हैं। वैसे एक प्रश्न नगर निगम, प्राधिकरण के अधिकारियों से जरूर यह पूछा जाना चाहिए कि उनके अवैध निर्माण तोड़ने की कार्रवाई समस्त मामले में पूरी होकर अपराध करने की सूचना मिलते ही (कागजात में प्रक्रिया पूरी कर) बुलडोजर निकल पड़ता है? वैसे इस तरह की कार्रवाई से क्या सरकार नागरिकों को यह संकेत तो नहीं देना चाहती है कि अपराध किए जाने पर उनके दीवानी (सिविल) हित भी अवैध भवन निर्माण को ध्वस्त होने के रूप में प्रभावित होंगे? इन कार्रवाइयों से एक और प्रश्न उठता है कि आरोपियों के विरूद्ध आपराधिक कानून में कार्रवाई के अलावा ऐसी कार्रवाई से एक अतिरिक्त भय पैदा करना का सरकार का कहीं प्रयास तो नहीं? ताकि अपराधी अपराध करने से हतोत्साहित हां! क्योंकि अपराध को रोकने के लिए कानून का एक आधार भय पैदा करना भी होता है। उपरोक्त कार्रवाई को इस दृष्टिकोण से भी देखने की आवश्यकता है। वैसे सरकार यह बात नहीं कह रही है, लेकिन मैं आपको यह समझा रहा हूं कि जांच दल को आरोपियों के अपराध की जांच करने के दौरान ही अवैध निर्माण की जानकारी होने पर ही तो कार्रवाई की गई है, यदि बात आप समझ गये तो फिर प्रशासनिक कार्रवाई पर कोई उंगली नहीं उठा पाएंगे?
गाइडलाइन बनाने की बात! दोहरा (डबल) नियम-कानून तो नहीं?
उच्चतम न्यायालय ने समस्त पक्षों से अवैध अधिक्रमण को तोड़ने के लिए एक अखिल भारतीय गाइडलाइन बनाए जाने के लिए सुझाव मांगे हैं, जो न तो निहायत जरूरी है और न ही उनका कोई औचित्य है। साथ ही उच्चतम न्यायालय के सामने यह मुद्दा भी नहीं था (अनुच्छेद 142 के अंतर्गत विवेकाधिकार शक्तियों को छोड़कर)। न ही यह सामान्य क्षेत्राधिकार है। वास्तव में उच्चतम न्यायालय का क्षेत्राधिकार मूलतः कानून की व्याख्या करना है, और संवैधानिक अधिकारों, कानून व नियमों को लागू करवाना है और उनका उल्लंघन होने पर उल्लंघनकर्ताओं को दंडित करना है। क्या इस बात की जानकारी उच्चतम न्यायालय को नहीं है कि अवैध निर्माण को ध्वस्त करने के कानून प्रत्येक राज्य में हैं, जिनको लागू करने का दायित्व स्थानीय प्रशासन (नगर पालिका, नगर निगम इत्यादि) के पास है। इन कानूनों की वैधता को किसी भी याचिकाकर्ता ने चुनौती नहीं दी है। (प्रबुद्ध पाठक इस संबंध में मुझे सही कर सकते हैं) फिर नई गाइडलाइन जारी करने की आवश्यकता क्यों? क्या यह नियमों की ‘‘द्धैघता’’ (दोहराव) नहीं होगा? अथवा माननीय न्यायालय समस्त प्रदेशों के स्थानीय स्वशासन के अवैध निर्माण तोड़ने संबंधी प्रावधानों को खत्म करेगें? क्या उच्चतम न्यायालय किसी कानून या नियमो की कोई कर्मियों की गाइडलाइन बनाकर पूर्ति कर सकता है, यह भी एक बड़ा प्रश्न है?
विभिन्न प्रदेशों में निर्माण व कंपाउंडिंग के अलग-अलग नियम होने के कारण अखिल भारतीय गाइड लाइन बनाना कितना उचित?
एक बात और है! क्या माननीय न्यायालय की इच्छा अनुसार अखिल भारतीय एक समान गाइड लाइन बनाना उचित होगा? क्योंकि निर्माण की गाइड लाइन व अवैध निर्माण के कंपाउंडिंग के नियम/कानून प्रत्येक प्रदेश में अलग-अलग हैं। तब एक ही गाईड लाईन पूरे देश के लिये कैसे संभव है? वैसे वास्तविकता में तो देश में लगभग 90 प्रतिशत निर्माण में कुछ न कुछ अवैध निर्माण होता ही है, क्योंकि नक्शे अनुसार मकान बनाने के बावजूद बाद में कई एडिशन, परिवर्तन होते हैं, जिनकी कोई अतिरिक्त स्वीकृति सामान्यतया नहीं ली जाती है। एक रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली के लगभग 65 प्रतिशत निर्माण नक्शे के अनुसार नहीं हैं।
अवैध सम्पत्ति ‘‘तोड़ने’’ की बजाए ‘‘राष्ट्रीय सम्पत्ति’’ घोषित हो?
जब अवसर मिला है तब, क्या इस बात का सुझाव उच्चम न्यायालय को नहीं दिया जाना चाहिए कि जहां अवैध अतिक्रमण पूरे मकान, अपार्टमेंटस अथवा ‘‘कालोनी’’ के है, उसे तोड़ने के बजाए जप्त कर गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले नागरिकोें को दे दी जाए? यदि उन अवैध निर्माण से यातायात या पडोसियों को कोई ज्यादा दिक्कत न होती है तो! क्योंकि निर्मित संपत्ति ध्वस्त करना राष्ट्रीय संपत्ति का ही नुकसान है। राष्ट्रीय संसाधन को बचाने के लिए आपराधिक कमाई से बनाई गई संपत्ति को भी राष्ट्र में समाहित करने की आवश्यकता है। इसके लिए ईडी, पीएमएलए कानून के अंतर्गत कार्रवाई करके अपराधियों की संपत्तियों को जब्त कर सकती है। साथ ही अवैध अतिक्रमण के साथ जो ‘चल सम्पत्ति’ वाहन, घरेलू सामान इत्यादि होता है उसे भी जमींदोज (नष्ट) करने का क्या फायदा? जिस प्रकार आपराधिक न्यायशास्त्र में ‘‘मानवाधिकार’’ का ध्यान रखा जाता है, उसी प्रकार अचल अवैध अतिक्रमित सम्पत्ति में चल सम्पत्ति के मानवाधिकार (उसे बनाए रखना) को मान्य करने से मूल कार्रवाई पर क्या कोई असर पडेगा? यदि अवैध निर्माण तोड़ना जरूरी ही है, तब अतिक्रमणकर्ता स्वयं को अवैध निर्माण तोड़ने का एक युक्ति युक्त अवसर पहले जरुर दिया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त जिन अधिकारियों के रहते अवैध निर्माण होते हैं, उन्हें भी दीवानी व फौजदारी दोनों रूप से जिम्मेदार ठहराया जाकर मुआवजा व सजा का प्रभावी प्रावधान बनाया जाकर लागू किया जाना चाहिये।
बनते ‘‘परसेप्शन’’ के चलते न्यायालय का कठोर कथन! i
सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि अतिरिक्त सालिसिटर जनरल द्वारा उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से इस आशय का शपथ कि सरकार ने अवैध निर्माण तोड़ने की समस्त करवाई नियमों का पालन कर विधि सम्मत की हैं, प्रस्तुत करने के बावजूद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री व अन्य नेताओं ने बार-बार यह कहकर, दोहरा कर क्या यह परसेप्शन नहीं बनाया है कि उन्होंने अपराधियों के विरुद्ध ‘बुलडोजर न्याय’ अवैध निर्मित अतिक्रमित संपत्ति को बुुलडोज कर न्याय दिलाता है? इस ‘बुलडोजर’ को चुनाव के दौरान घुमाया भी गया था। शायद इसी ‘‘परसेप्शन’’ के चलते उच्चतम न्यायालय को उक्त कड़े शब्द कहने पड़े।
वर्ग विशेष के विरुद्ध कार्रवाई! कितनी सत्यता?
एक और आरोप जो सरकार पर लगाया जा रहा है कि एक विशेष वर्ग मुस्लिम समाज पर ही ये कार्रवाई की गई है, जो तथ्यात्मक रूप से गलत है। मुस्लिमो के साथ अन्य वर्गो के लोगों पर भी कार्रवाई की गई है। यह बात जरूर है कि गैर मुस्लिमों पर तुलनात्मक रूप से बहुत कम कार्रवाई हुई है। इसी प्रकार सिर्फ विपक्षी नेताओं के विरूद्ध अवैध निर्माण की कार्रवाई की गई है जैसा कि प्रवर्तन निदेशालय द्वारा धन शोधन निवारण अधिनियम के अंतर्गत कार्रवाई की जा रही है, यह आरोप भी पूर्णतः सही नहीं है। तथापि विपक्षी नेताओं के विरूद्ध की गई कार्रवाई का प्रतिशत काफी ज्यादा है। ‘‘सत्ता’’ होने के कारण इसका फायदा सत्तारूढ़ लोगों को मिलना तो लाजिमी ही है। आखिर सत्ता में बैठने का एक उद्देश्य जनसेवा के साथ यह भी तो होता है? बड़ा प्रश्न यह है कि उक्त दोनों वर्ग मुस्लिम व विपक्षी नेताओं के विरूद्ध जो कोई भी कार्रवाई की गई है, क्या वहां कानून की प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया है? अथवा कानून सम्मत नहीं है? अभी तक किसी भी न्यायालय ने इन अवैध निर्माण के ध्वस्त करने की कार्रवाई को अवैध नहीं ठहराया है।
असमान व गैर बराबर। अवैध निर्माण तोड़ने की कारवाई।
उपरोक्त चर्चा से एक विशिष्ट तथ्य जो उभर कर सामने आ रहा है और जो चिंता का विषय भी है कि अवैध निर्माण तोड़ने की कारवाई विधि सम्मत (मान भी ली) होने के बावजूद यह बराबरी और समानता (पैरिटी, एट पार) के सिद्धांत के विरुद्ध दिख रही है जो ‘‘पिक एंड चूस’’ आधार पर आधारित है। ठीक उसी प्रकार जैसा उच्चतम न्यायालय ने पीएमएलए कानून के संबंध में ईडी को यह कहते हुए फटकार लगाई कि आप पिक एंड जूस आधार पर आरोपियों को पकड़ रहे हैं। वास्तव में इस असमानता पर ही उच्चतम न्यायालय को ‘‘चाबूक’’ चलाने की आवश्यकता है।
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