रविवार, 13 अक्तूबर 2024

‘माननीय न्यायाधीश का आदेश!’’ कितना ‘‘न्यायिक’’।

वित्त मंत्री के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करने का आदेश।

‘न्यायिक आदेश से राजनीतिक भूचाल’’! 

क्षा के अधिकार व कानून से जुड़े मुद्दों के लिए लड़ने वाला संगठन ‘‘जन अधिकार संघर्ष परिषद’’ द्वारा भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 175 (पुरानी दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 156(3) के अंतर्गत दायर की गई निजी शिकायत (पीसीआर) में कहा गया है, ‘‘आरोपी संख्या एक (निर्मला सीतारमण) ने आरोपी संख्या दो (ईडी) की गुप्त सहायता और समर्थन के जरिए राष्ट्रीय स्तर पर आरोपी संख्या तीन (भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे पी नड्डा) और कर्नाटक राज्य में आरोपी संख्या चार (कर्नाटक भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष नलिन कुमार कटील) के लाभ के लिए हजारों करोड़ रुपये की उगाही करने में मदद की।’’ बेंगलुरु महानगर के 42वीं एसीएमएम कोर्ट के मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट तथा जन प्रतिनिधियों की विशेष अदालत (एमपी एमएलए कोर्ट) के न्यायाधीश ने प्रथम दृष्टिया मामला बनने के कारण प्रथम दृष्टिया आरोपों को सही पाते हुए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण एवं अन्यों के विरुद्ध भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 308 जबरन वसूली (एक्सटॉर्शन), 61 आपराधिक षड्यंत्र एवं धारा 3(5) सामान्य आशय, पुरानी भारतीय दंड संहिता की धारा 384, 120बी एवं 34 के अंतर्गत बेंगलुरु के तिलक नगर थाने को प्राथमिकी दर्ज करने के आदेश करते ही देश के राजनीतिक हाल में भूचाल आ गया। मुकदमे के द्वारा मुद्दे उठाने वाले व्यक्ति की पृष्ठभूमि, स्थिति (स्टेटस) को देखते हुए यह न्यायिक प्रकरण, एक नई न्यायिक निर्णय की दिशा स्थापित करता हुआ दिख रहा है। क्योंकि शिकायतकर्ता स्वयं भुक्तभोगी नहीं है। जिस अपराध की शिकायत की गई है, वह ‘‘आफेसं इन परसोनम है, रेम नहीं’’। जिस प्रकार जजमेंट इन रेम न परसोनम होता है। प्रकरण के मुख्य विषय को एक बार आपको याद करना आवश्यक है, तभी आप समझ पाएंगे ‘‘न्याय कितना न्यायिक है’’? उक्त प्राथमिक आदेश की न्यायिक समीक्षा आगे की जा रही हैं। 

‘‘चुनावी बांड’’ को लेकर पूर्व में उच्चतम न्यायालय ने क्या कहा था? 

उच्चतम न्यायालय ने चुनावी बांड स्कीम (ईबीएस) को अवैद्य ‘‘असंवैधानिक’’ घोषित किया था। फलतः; निर्णय के तुरंत बाद से चुनावी बॉन्ड की बिक्री को भारतीय स्टेट बैंक ने रोक दिया था। उक्त निर्णय की महत्वपूर्ण बात यह रही कि, बॉन्ड को असंवैधानिक घोषित करने के बावजूद सर्वोच्च न्यायालय ने खरीदे गए बांड्स की राशि को व्यावहारिक रूप से ‘‘अवैध’’ घोषित नहीं किया। शायद इसीलिए न तो वे राशि जब्त की या वसूली गई। मतलब निर्णय के पूर्व तक जिन व्यक्तियों, कंपनियां ने बांड के माध्यम से पैसे दिए और जिन राजनीतिक पार्टियों ने लिए, वह राशि एक तरह से ‘‘वैध’’ मान ली गई। क्योंकि लेन-देन परस्पर वापस नहीं हुआ। उच्चतम न्यायालय का यह आदेश ठीक उसी प्रकार का है, जिस प्रकार महाराष्ट्र की एकनाथ शिंदे की सरकार के मामले में राज्यपाल के आदेश को गैर संवैधानिक ठहराने के बावजूद उक्त असंवैधानिक सरकार को उच्चतम न्यायालय ने इसलिए चलने दिया, क्योंकि मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने अविश्वास प्रस्ताव का सामना किया बिना मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था। इसी प्रकार जब याचिकाकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट से चुनावी बांड के मामले में आगे जांच के लिए एक एसआईटी गठन की मांग की, तब माननीय न्यायालय ने यह कहकर उक्त मांग को अस्वीकार कर दिया था कि आगे जांच की कोई आवश्यकता नहीं है। उच्चतम न्यायालय के इस निर्णय के उक्त दोनों प्रभावों को बेंगलुरु के माननीय विशेष मजिस्ट्रेट ने प्राथमिकी दर्ज करने के आदेश देकर, व्यावहारिक रूप से निष्प्रभावी बना दिया, जो कानूनी रूप से उचित नहीं  दिखता है। 

‘‘जेएसपी’’ के सह अध्यक्ष आदर्श अय्यर के प्रमुख आरोप। 

शिकायतकर्ता जेसीपी के सह अध्यक्ष आदर्श अय्यर के अनुसार मार्च 2024 में पुलिस के समक्ष 15 विभिन्न शिकायतें की गई थी, परन्तु कोई कार्रवाई न होने के कारण यह एक पीसीआर की गई है। आदर्श अय्यर ने विशेष मजिस्ट्रेट के समक्ष दायर शिकायत में प्रमुख आरोप लगाया कि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण व कुछ उन व्यक्तियों के द्वारा प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) के अधिकारियों की सहायता से चुनावी बांड के माध्यम से राजनीतिक दलों को दिए गए दान के नाम पर जबरन उगाही (वसूली) की गई। अनिल अग्रवाल की फर्म से 230 करोड़ और अरविंदो फार्मेसी से 49 करोड़ रुपए वर्ष 2019 से 2022 के बीच वसूली का आरोप लगाया गया। माननीय मजिस्ट्रेट ने लगभग 4 महीने में 10 से ज्यादा सुनवाई (हियरिंग) करने के बाद जबरन वसूली के अपराध को दर्ज करने के आदेश दिए। सत्ता का दुरुपयोग कर भाजपा के लाभान्वित पक्ष होने से उनके राष्ट्रीय पदाधिकारियों व कर्नाटक प्रदेश भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष नलिन कुमार कटील तथा पार्टी के नेता अनिल खत्री को भी आरोपी बनाया गया है। विद्यमान परिस्थितियों के चलते और देखते हुए यह आदेश असामान्य व अविश्वसनीय सा लगता है।

‘‘क्विड प्रो क्वो’’ "quid pro quo" (प्रतिकर) कहां?

बड़ा प्रश्न यहां पर यह है कि इस मामले में क्या वित्त मंत्री के विरुद्ध ‘‘क्विड प्रो क्वो’’ अर्थात ‘‘प्रतिदान’’ मतलब ‘‘कुछ के बदले कुछ’’ स्थापित होता है क्या? क्योंकि बॉन्ड की राशि  तो वित्त मंत्री के निजी खाते में जमा हुई नहीं? न ही ऐसी कोई साक्ष्य है कि वित्त मंत्री के कहने से या दबाव से अनिल अग्रवाल ने बॉन्ड के द्वारा पैसे भारतीय जनता पार्टी को दिए। एक बात जरूरी यह भी है कि 2 जनवरी 2018 को जब यह स्कीम लॉन्च की गई थी, तब वित्त मंत्री अरुण जेटली थे, जिन्होंने 2017 के बजट में उक्त स्कीम को पेश किया था, तब निर्मला सीतारमण वित्त मंत्री नहीं थी। एक बात और यहां महत्वपूर्ण है कि जिस प्रकार कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करने के लिए राज्यपाल की अनुमति ली गई थी, वैसी ही अनुमति लिए बिना क्या वित्त मंत्री के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की जा सकती है? क्योंकि वे भी सिद्धारमैया के समान एक लोक सेवक (पब्लिक सर्वेंट) हैं। क्या राज्यपाल से अनुमति की प्रतीक्षा की गई? अथवा  अस्वीकार किये जाने पर न्यायालय ने प्राथमिकी दर्ज करने के आदेश दिये। तथ्य सार्वजनिक होना बाकी है। एक और प्रश्न यह भी उत्पन्न होता है कि चुनावी बांड के मामले में आगे और जांच करने के लिए ‘‘एसआईटी’’ गठित करने की मांग को उच्चतम न्यायालय द्वारा यह कहकर की आगे जांच की कोई आवश्यकता नहीं है, अस्वीकार करने के बावजूद एफआईआर दर्ज करने के आदेश का मतलब यह होता है कि अब आगे जांच की जाएगी। जो प्रथम दृष्टिया सुप्रीम कोर्ट के आगे जांच न करने के आदेश का उल्लंघन प्रतीत होता दिखता है। तथापि 48 घंटे बाद माननीय कर्नाटक उच्च न्यायालय ने निचली मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट के आदेश पर अगली सुनवाई तक रोक लगा दी है। अंत में राजनीतिक गलियारों में यह भी कहा जा रहा है की कर्नाटक के कांग्रेसी मुख्यमंत्री सिद्धारमैया के विरुद्ध मुकदमा चलाने की अनुमति राज्यपाल द्वारा दी जाने पर प्रतिक्रिया स्वरूप भाजपा नेताओं के विरुद्ध प्राथमिकी दर्ज करवा कर कहीं हिसाब बराबर चुकता करना तो नहीं है?

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