मंगलवार, 22 अक्तूबर 2024

राज्यों का विभाजन? क्या ‘‘अखंड भारत’’ की परिकल्पना के विरुद्ध नहीं?

‘‘राज्यों का विभाजन’’ क्या 562 देशी रियासतों के एकीकरण की भावना से मेल खाता है?

एक सक्षम एवं सेवा से समय पूर्व सेवानिवृत्ति  लिए कमिशनर रहे दृढ़ता से अपनी बात स्पष्ट रखने वाले (एवं सुनने वाले) मध्य प्रदेश केड़र के आईएएस अधिकारी द्वारा मध्य प्रदेश राज्य को 4-5 भाग में बांटने के सुझाव के प्रत्युत्तर में आये सुझावों व चर्चा के परिपेक्ष में यह लेख लिखा गया है।

राज्यों के निर्माण का इतिहास।

‘‘विभाजन’’ शब्द ही शायद अपने आप में खतरे की घंटी है, जिसकी वीभत्स, डंक देश के विभाजन के समय लोगों ने भुक्ता है। "विभाजन" अखंडता, एकता, सार्वभौमिकता, सौहार्दपूर्ण वातावरण के विरूद्ध है। 15 अगस्त 1947 को जब भारत देश स्वतंत्र हुआ, तब कुल 17 राज्य व 1 केंद्र शासित प्रदेश अंडमान निकोबार था। वर्ष 1953 में भाषायी आधार पर राज्यों का पुनर्गठन करने के लिए ‘‘राज्य पुनर्गठन आयोग’’ की स्थापना न्यायाधीश फजल अली की अध्यक्षता में की गई। तब उनकी सिफारिश पर 14 राज्य व 6 केंद्र शासित प्रदेश बनाए गए। परन्तु इसके बाद भी राजनीतिक  स्वार्थों व उद्देश्यों की पूर्ति हेतु नए राज्यों की मांग स्वीकार की गई, फिर चाहे सरकार कोई भी रही हो। जम्मू-कश्मीर राज्य का दर्जा घटाकर ‘केन्द्र शासित प्रदेश’ कर देने से कुल 28 प्रदेश और 8 केंद्र शासित प्रदेश देश में हो गए हैं। बावजूद इसके आये दिन देश के विभिन्न अंचलों से राज्यों के विभाजन की मांग की जाकर नए राज्यों की मांग की जा रही है। 

विभाजन का कोई ‘‘एक’’ आधार नहीं?  

प्रश्न यह है, क्या राज्यों का आकार, क्षेत्रफल, जनसंख्या, भाषा, जाति, संस्कृति व प्रशासनिक सहूलियत और आर्थिक संरचना व आय को लेकर क्या कोई एक सर्वमान्य सूत्र (फॉर्मूला), मानक तय किया गया है, जिसके आधार पर नए राज्यों की मांग पर विचार किया जा सके? अभी तक ऐसा कोई भी एक व्यापक सिद्धांत या सूत्र तय करना तो दूर उसे पर सोचा भी नहीं गया है। (1953 के भाषायी आधार को छोड़कर) तब प्रश्न फिर यह उत्पन्न होता है कि नए राज्य के निर्माण में राजनीतिक सोच व दबाव से हटकर वे कौन से कारक, तत्व होने चाहिए, जो नये राज्य के निर्माण की मांग को उचित ठहरा सकते हैं। मेरे मत में इस पर देशव्यापी बहस की जाने की आवश्यकता है और किसी न किसी सर्वमान्य नहीं तो एक अधिकतम मान्य निष्कर्ष पर पहुंचा जाना चाहिए। अन्यथा वर्तमान में इस देश के ‘‘राजनीतिक स्वार्थ’’ देश के हितों से इतने ज्यादा बलशाही हो गए हैं कि शायद एक दिन ऐसा न आ जाए कि जब प्रत्येक "जिला" अपने को "प्रदेश" ही न समझने लग जाए या उसकी मांग न करने लग जाए? 

‘‘भारत संघ का गठन’’ ‘संघटन’

भारत देश का कुल क्षेत्रफल 3287263 वर्ग किलोमीटर है। जिसमें से 120849 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र चीन व पाकिस्तान के अवैध कब्जे में है। वर्तमान में कुल जनसंख्या लगभग 143 करोड़ से ज्यादा है। स्वतंत्रता के समय कुल जनसंख्या लगभग 34 करोड़ थी। जनसंख्या की दृष्टि से सबसे बड़ा राज्य उत्तर प्रदेश था और क्षेत्रफल की दृष्टि से सबसे बड़ा राज्य मध्य प्रदेश था। अविभाजित मध्य प्रदेश का एक जिला बस्तर केरल राज्य से भी बड़ा था। ‘‘उत्तर प्रदेश’’ ब्रिटेन देश के बराबर है। जनसंख्या में विश्व के पांचवे स्थान पर पाकिस्तान से भी ज्यादा जनसंख्या वाला प्रदेश उत्तर प्रदेश है। विपरीत इसके गोवा और उत्तर पूर्वी के राज्य अत्यंत छोटे बने।  

विभाजन के पक्ष-विपक्ष में तर्क-वितर्क-कुर्तक

राज्यों के विभाजन के पक्ष में तर्क-वितर्क दोनों है। ठीक उसी प्रकार जैसा "गिलास आधा खाली है या भरा"। परंतु आज हम जब विभाजित हुए राज्यों की स्थिति को देखते हैं और उनके तथा नागरिकों के विकास की तुलना अविभाजित राज्यों के समय से करते हैं, तो निश्चित रूप से हमें अधिकतर जगह निराशा ही हाथ लगती है। साथ ही यह देश की इंटीग्रिटी को भी कहीं न कहीं कमजोर कर रहा है। इसीलिए इस विषय पर कुर्तकों से दूर रहना चाहिए।

ऐसा नहीं है कि बड़े आकार के कारण राज्यों का विभाजन किया गया हो। अन्यथा उत्तर पूर्व में पहले नागालैंड से असम फिर असम छोटा राज्य होने के बावजूद उसका विभाजन कर मिजोरम की स्थापना की गई। छोटे राज्यों के खिलाफ में जो सबसे बड़ी बात कही जाती है, जो सही भी है कि ‘‘अनुउत्पादक खर्चो’’ में बढ़ोतरी होती है। मतलब ‘‘दोहरा प्रशासनिक व्यय’’। मध्य प्रदेश राज्य का स्थापना व्यय (वेतन एवं पेशन) कुल राजस्व का 37 प्रतिशत है। जबकि छत्तीसगढ का 35 प्रतिशत है। राजनीतिक व्यय वह भी अनुउत्पादक व्यय ही होता है, में भी काफी बढ़ोतरी हो जाती है। राज्यों की विभाजन के समय जो सबसे बड़ी समस्या, गलती या अनदेखी होती है, वह राज्य के संसाधनों का जनसंख्या के अनुपात में विभाजन नहीं हो पाता है। विभाजन के परिणाम स्वरूप एक राज्य को बड़ा फायदा मिलता है तो दूसरा राज्य को नुकसान होता है। मध्य प्रदेश का विभाजन होकर बना नया छत्तीसगढ़ राज्य एक उदाहरण है। छोटे राज्य होने के पक्ष का एक बड़ा आधार प्रशासनिक व शासन की धुरी जनता के ज्यादा निकट होकर ‘जीवंत’ होती है। इसके जवाब में आज के आधुनिक संचार व आवागमन के युग में सर्किट न्यायालय, आफिस, आपकी सरकार-आपके द्वार, नीति के तहत सीधे नागरिकों के पास उक्त धुरी पहुंच सकती है। प्रश्न सिर्फ इच्छाशक्ति की है। यह भी कहा जाता है कि इससे आर्थिक व प्रशासनिक दोनों दृष्टिकोण से मदद मिलती है। परन्तु स्थिति ऐसी नहीं है। इंदिरा गांधी विकास अनुसंधान संस्थान के शोधकर्ता विकास वैभव व केवी रामास्वामी द्वारा किये गये एक अध्ययन के अनुसार उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश वह बिहार के विभाजन से बने राज्यों में अलग-अलग परिणाम पाए गए। प्रश्न ‘‘गुणात्मकता’’ का भी है? शायद इसीलिए उच्चतम न्यायालय की देश में चारों दिशाओं में चार पीठ बनाने के तत्कालीन उपराष्ट्रपति एम वेंकैया नायडू व विधि आयोग की सिफारिश को उच्चतम न्यायालय ने नहीं माना था। क्या शासन प्रशासन की शक्तियों का निचले स्तर पर वास्तविक रूप में विकेन्द्रीकरण कर राज्य के विभाजन के सीमित उद्देश्य को नहीं पाया जा सकता है? इस पर भी सोचना होगा। 

किसी का सुझाव था कि छोटे राज्य की बजाए जिलों को छोटा कर देना चाहिए। यह  भी न तो सार्थक है न हीं अपने उद्देश्यों में सफल होगा। इससे जिला स्तर पर भी प्रशासनिक व्यय बढे़गा। 1 नवम्बर 1956 को मध्य प्रदेश की स्थापना के समय 43 जिले थे, जो आज छत्तीसगढ़ राज्य बनने बाद भी 55 जिले बन गये है।

उपसंहार। 

जब राज्य के किसी भाग के निवासियों की अपनी अस्मिता, संस्कृति, भेदभाव, भाषा, जाति, आर्थिक आधार आदि मांगो के आधार पर नए राज्य की मांग की जाती है, तब वहां पर राष्ट्रीय भावना का ‘‘छरण’’ होता है और  उसमें छिपा हुआ ड़र व खतरा जो अभी सामने नहीं दिख रहा है, वह यह है कि वह अस्मिता की भावना "प्रदेश" की मांग से आगे जाकर कहीं "नए देश" की मांग में तो परिवर्तित नहीं हो जाएगी?

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