उच्चतम न्यायालय के निर्देशों की भावनाओं के विरुद्ध?
उच्चतम न्यायालय के अतिक्रमण हटाने पर रोक के निर्णय का सार।
बहराइच, महसी तहसील के महाराजगंज कस्बे में दुर्गा मूर्ति विसर्जन के दौरान एक युवा रामगोपाल मिश्रा की नृशंस हत्या के चारों नामजद आरोपी मुख्य आरोपी अब्दुल हमीद व उसके तीन लड़के गिरफ्तार कर लिये गये। उक्त जघन्य हत्या से भड़की हिंसा के मामले में दर्ज कुल 13 मुकदमों में पांच नामजद व्यक्तियों के साथ 1000 से अधिक अज्ञात व्यक्तियों के विरुद्ध प्राथमिकी दर्ज कर अभी तक गिरफ्तार 112 आरोपियों में से 23 आरोपियों के विरुद्ध शासकीय संपत्ति पर अतिक्रमण कर निर्मित अवैध भवन निर्माण को ध्वस्त करने का उत्तर प्रदेश सरकार के लोग निर्माण विभाग ने 3 दिन का कानूनन नोटिस उनके घरों पर चस्पा कर अतिक्रमण हटाने को कहा है। अभी-अभी उच्चतम न्यायालय ने भी रोक लगा दी है। इस पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने आगे की कार्रवाई पर 15 दिन की रोक लगा दी है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि उक्त नोटिस सुप्रीम कोर्ट के उस निर्देश के बाद आये हैं, जहां पर माननीय उच्चतम न्यायालय ने पूरे देश में अतिक्रमण की कार्रवाई के विरुद्ध अगले आदेश तक रोक लगा दी थी। तथापि न्यायालय ने असी आदेश में सार्वजनिक स्थानों पर अतिक्रमण हटाने की कार्रवाई पर कोई रोक न लगा कर छूट दी है। अतिक्रमण हटाने के संबंध में एक अखिल भारतीय गाइडलाइन जारी करने की बात भी न्यायालय ने कही है। जस्टिस न्यायाधिपति ने यह स्पष्ट किया कि विध्वंस (अतिक्रमण हटाना) केवल इसलिए नहीं किया जा सकता कि कोई आरोपी या दोषी है। सार में सुप्रीम कोर्ट ने उक्त आदेश में मुख्य रूप से उन कार्रवाइयों पर रोक लगाई है, जहां एक व्यक्ति के किसी अपराध में गिरफ्तार होने पर उसके विरुद्ध तुरंत या कुछ दिनों के अंदर अपराधी होने के कारण फौजदारी कार्रवाई के साथ अतिक्रमण की कार्रवाई की कानूनी खाना पूर्ति कर बुलडोजर (जिसे किसी ने समाज सुधारक राष्ट्रीय यंत्र की संज्ञा तक दे डाली) चलाकर तथाकथित अचल संपत्ति बुलडोज कर दी जाती थी। प्रश्न यहां यह उत्पन्न होता है कि उत्तर प्रदेश सरकार की अतिक्रमण हटाने की उक्त कार्रवाई क्या उच्चतम न्यायालय के आदेश व उसमें निहित भावना के अनुरूप है?
रोड पर निर्मित अवैध निर्माण को हटाने वाले की कार्रवाई न्यायोचित है।
यहां पर अतिक्रमण हटाने की दो तरह की कार्रवाई की गई है। एक तो सड़क चौड़ीकरण के लिए रोड पर जो अतिक्रमण है, उन्हें हटाने के लिए नोटिस जारी किए गए हैं, वहीं दूसरी ओर मुख्य आरोपी के घर का निर्माण अवैध व अतिक्रमित होने के कारण तोड़ने की कार्रवाई का नोटिस जारी किया गया है। रोड चौड़ी करने के लिए अतिक्रमण हटाने की करवाई पहले से ही प्रारंभ थी, घर चिन्हित कर दिए गए थे। इसलिए वह कार्रवाई कानूनन् उचित है और उच्चतम न्यायालय द्वारा लगाएगी रोक की सीमा में नहीं आती है। तथापि एक प्रश्न यहां फिर उठता है कि सिर्फ 23 लोगों को ही नोटिस क्यों दिया गए हैं, जबकि रोड पर इससे कहीं ज्यादा संख्या में अतिक्रमणकर्ता है। यहां पर हम मुख्य आरोपी के अवैध निर्माण और अतिक्रमण को तोड़ने की कार्रवाई की विवेचना कर रहे हैं। सरकार यह कह सकती है कि उसने उच्चतम न्यायालय के आदेशों के अनुरूप बाकायदा अतिक्रमणकत्ताओं के विरुद्ध कानूनन् नोटिस जारी कर उन्हें एक अवसर प्रदान किया गया है और तत्पश्चात ही जवाब पर विचार कर कानून के अनुसार कार्रवाई की जावेगी। प्रथम दृष्टिया यह बात सही लगती है। इसमें कुछ भी गलत नहीं दिखता है। परंतु क्या वास्तव में ऐसा ही है? इसका उत्तर ‘‘नहीं में’’ मिलेगा। इसे आप आप निम्न विवेचना से समझ जाएंगे।
यूपी सरकार नॉरेटिव व ‘‘परसेप्शन’’ बनाने के लिए ‘‘एक्शन’’ ले रही है?
सामान्यतया नोटिस संबंधित व्यक्ति को व्यक्तिगत रूप से दिया जाता है। ‘‘चस्पा’’ द्वारा तभी तामिल किया जाता है, जब वह व्यक्ति नोटिस लेने से इनकार करें या अन्य किसी कारण से तामिल न हो सके। जो व्यक्ति जेल में बंद है, उसका घर लूटा जा चुका है, घर में कोई है नहीं। तब उस व्यक्ति को नोटिस की जानकारी कैसे होगी? और यदि किसी तरह से जानकारी हो भी जाए तब भी, वह समयावधि में सक्षम अधिकारी के समक्ष साक्ष्य कैसे पेश कर पाएगा? यह उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रतिपादित ‘‘प्राकृतिक न्याय’’ के सिद्धांत के बिल्कुल प्रतिकूल है। शायद इसीलिए न्यायालय ने इसके क्रियान्वन पर रोक लगा दी है। यदि यह मान भी लिया जाए कि आरोपी की अचल संपत्ति अतिक्रमण व अवैध निर्माण की सीमा में आती है। तब भी यहां एक बड़ा प्रश्न यह है कि क्या इन आरोपियों के विरुद्ध अतिक्रमण की कार्यवाही पहले से ही चल रही थी या आरोपी बनने के बाद कार्रवाई प्रारंभ की गई? इसका ‘‘उत्तर’’ उत्तर प्रदेश सरकार ही दे सकती है। या यह हमेशा संयोग ही रहता है कि अतिक्रमणताओं के विरुद्ध कार्रवाई का निष्पादन तभी हो पाता है, जब वह किसी ‘‘अपराध में आरोपी’’ बन जाता हैं। वास्तव में उच्चतम न्यायालय यदि इस तरह की अतिक्रमण की कार्रवाइयों पर रोक लगाकर सरकार के ‘‘अपराध करने पर सजा के साथ संपत्ति से भी हाथ धोना पड़ेगा’’’, उक्त परसेप्शन व नरेशन को बनने नहीं देना चाहता है, तब न्यायालय को एक काम करना होगा कि वह यह निर्देश जारी करें कि कोई भी व्यक्ति जब आरोपी बनता है, तब उसके विरुद्ध अतिक्रमण हटाने की कार्रवाई न्यूनतम 6 महीने या 1 साल तक प्रारंभ न की जावे। मतलब अपराध घटित होने और अतिक्रमण की कार्रवाई होने के बीच कोई सीधा नेक्सस नहीं है, यह लक्ष्मण रेखा खींचनी ही होगी। कारण स्पष्ट है। यह संभव नहीं है कि अतिक्रमण या अवैध निर्माण अपराध घटित होने के 1 या कुछ दिन दिन पूर्व ही हो जाए? (अपवाद हर जगह हो सकते हैं) इन अधिकतर प्रकरणों में अतिक्रमण महीनों, सालों पुराने हुए रहते हैं। परंतु उन पर कोई कार्रवाई की सुध तक किसी को नहीं होती है। स्थानीय स्व शासन या शासन का ध्यान ऐसे किसी अतिक्रमण/अवैध निर्माण पर तभी जाता है, जब उसका मालिक, हितकर्ता किसी अपराध की घटना में संलग्न पाया जाता है। वह भी तब जब अपराध चर्चित होकर राज्य की कानून व्यवस्था पर एक प्रश्न वाचक चिन्ह लग जाता है। तब उस पर से ध्यान हटाने के लिए इस तरह की अतिक्रमण/अवैध निर्माण हटाने की कार्रवाई की जाती है। उच्चतम न्यायालय को इस ‘‘प्रवृत्ति’’ पर प्रभावी रोक लगाने की आवश्यकता है। अन्यथा सरकार स्वयं संबंधित कानून में तदनुसार आवश्यक संशोधन कर अपनी कारवाई को कानूनी जामा पहना दे। ‘'न रहेगा बाँस न बजेगी बांसुरी’’ मतलब सरकार की ऐसी कार्रवाई पर किसी को भी कोई उंगली उठाने का अवसर नहीं रह पायेगा।
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